जून 2021, अंक 38 में प्रकाशित

निजीकरण ने ऑक्सीजन की कमी से जनता को बेमौत मारा

ताजा सूरत–ए–हाल

कोरोना की दूसरी लहर के आगे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था ताश के पत्तों की तरह ढह गयी। डॉक्टरों और अस्पतालों की तो बात ही क्या, दवाईयों, ऑक्सीजन और शवों के अन्तिम संस्कार तक के लिए जानता मारी–मारी फिर रही है। कोरोना की पहली लहर के समय भी अस्पतालों में ऑक्सीजन आपूर्ति की भारी समस्या आयी थी। इस बार तो अधिकतर मौतें ही ऑक्सीजन की कमी से हो रही हैं। हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ के के अग्रवाल ने बिलकुल सही कहा है कि कोरोना संक्रमण से होने वाली मौतें बहुत कम हैं, अधिकतर लोग ऑक्सीजन की कमी से मर रहे हैं। दुर्भाग्य यह कि उनकी मौत भी कोरोना की वजह से हुई।

ऑक्सीजन का संकट इतना भयावह है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय देश में हो रही मौतों को नरसंहार की संज्ञा दे चुका है। हालाँकि इससे भी सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ा है, उसकी बेहयाई ऐसी सीमाओं को बहुत पहले लाँघ चुकी है।

मरीज को ऑक्सीजन की जरूरत होने पर परिजन कबाड़ी से, वेल्डिंग की दुकानों से या किसी और जरिये से ऑक्सीजन सिलेण्डर का जुगाड करने और फिर उसे भरवाने के लिए मारे–मारे फिरते रहते हैं। इस तरह के मरीजों की संख्या अस्पतालों में भर्ती मरीजों की संख्या से कई गुना ज्यादा है।

बहुत पहले उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी से सौ से ज्यादा बच्चों की मौत हुई थी क्योंकि भुगतान समय पर न होने के कारण सप्लायर ने ऑक्सीजन की आपूर्ति बन्द कर दी थी। संकट की घड़ी में बच्चों के लिए ऑक्सीजन के इन्तजाम की कोशिश करने वाले डॉक्टर कफील खान को ही सरकार ने दोषी ठहरा दिया था।

कोरोना की पहली लहर से चिकित्सा विशेषज्ञों ने नतीजा निकाला था कि कोरोना से गम्भीर रूप से संक्रमित सभी मरीजों को वेंटीलेटर की जरूरत नहीं होती, अधिकतर मरीजों का काम उच्च दाब पर ऑक्सीजन देने से चल जाता है। यह एक महत्त्वपूर्ण अनुभव था क्योंकि संक्रमण बढ़ने पर खराब स्वास्थ्य सेवाओं वाले भारत देश में गिनती के मरीजों को ही वेंटीलेटर उपलब्ध कराया जा सकता है जबकि उच्च दाब पर ऑक्सीजन बहुतों को उपलब्ध कराना सम्भव है। इस बेशकीमती अनुभव को सरकार ने कूड़ेदान में फेंक दिया।

वास्तविकता यह है कि कोरोना से मरने वाले लोगों की संख्या सरकारी आँकड़ों के बीस गुना से भी ज्यादा है। उदाहरण के लिए जिन 12 दिनों में मध्य प्रदेश सरकार ने भोपाल में मौत का आँकड़ा 34 लोगों का बताया था, हिन्दुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट बताती है कि उन 12 दिनों में भोपाल में कोरोना से 883 लोगों की मौतें हुई थी।

बहुसंख्यक मेहनतकश जनता मरने को मजबूर

भारत की लगभग सारी स्वास्थ्य सेवाएँ शहरों में ही केन्द्रित हैं। देहात में रहनेवाली भारत की 65 फीसदी से ज्यादा आबादी, जिनके बीच दूसरी लहर में संक्रमण खूब फैल रहा है, उनके पास डॉक्टर और अस्पताल ही नहीं हैं, ऑक्सीजन भला कैसे मिल सकती है।

अस्पतालों में और उनसे कहीं ज्यादा घरों में, मरीज मरते रहते हैं, अस्पताल फोन कर–कर के थक जाते हैं, लोग दिनभर कंधों पर खाली ऑक्सीजन सिलेण्डर के लिए दौड़ते रहते हैं, सारी–सारी रात लाइनों में लगे रहते हैं, लेकिन ऑक्सीजन नहीं मिलती। हमारे चारों ओर का मंजर तथा समाचार माध्यमों की तस्वीरों से ऑक्सीजन के जरूरतमन्द मरीजों की जो संख्या हमारे दिमाग में आती है, वास्तविक संख्या इससे बहुत ज्यादा है। कोरोना संक्रमित करोड़ों मेहनतकश लोग जो देहात में और शहरों की गरीब बस्तियों में भरे पड़े हैं वे किसी तस्वीर में नहीं हैं, उनकी कहीं गिनती नहीं है। वे ऑक्सीजन के अभाव में चुपचाप अपने दड़बेनुमा घरों में पड़े हुए साँसों की डोर टूटने का इन्तजार कर रहे हैं। अस्पतालों और शमशानों/कब्रिस्तानों के मौत के आँकड़ों में जो बीस गुने तक का अन्तर आ रहा है वह इन्ही बदनसीबों की गुमनाम मौत के कारण है।

सामान्य दिनों में भी अधिकतर लोग सही इलाज से वंचित रह जाते हैं। आज, जब कोरोना महामारी भयावह रूप से फैली है और स्वास्थ्य सेवाओं का केवल एक हिस्सा ही उपयोग में आ रहा है तो जाहिर है कि मेहनतकश आबादी तो उसकी सुविधा पाने की कल्पना भी नहीं कर सकती। इसीलिए शहरों की आबादी का यह बड़ा हिस्सा इलाज के लिए कहीं हाथ–पाँव मारे बिना या ऑक्सीजन के सिलेण्डर का इन्तजाम किये बिना चुपचाप संक्रमित होकर अपने दड़बों में पड़ा है। इन्ही मेहनतकशों की लाशें हैं जो सरकारी आँकड़ों और जमीनी हकीकत में भारी अन्तर पैदा कर रही हैं।

स्वास्थ्य व्यवस्था का सम्पूर्ण संकट

सार्वजनिक और निजी अस्पतालों के पास भी अपने ऑक्सीजन प्लांट नहीं हैं। ऑक्सीजन प्लांट लोगों की जान बचाने के लिए भले ही बहुत जरूरी हो, लेकिन मुनाफे के अनुकूल नहीं है। इसके रखरखाव और परिचालन के लिए निश्चित संख्या में लोगों को नियमित काम पर रखना पड़ता है जबकि इसकी जरूरत हमेशा एक जैसी नहीं होती। जनता के इलाज को व्यापार माननेवाले प्लांट क्यों लगाएँगे। सार्वजनिक अस्पतालों ने खर्च घटाने के सरकारी दबाव के चलते और निजी अस्पतालों ने ज्यादा लागत और कम मुनाफा के गणित के चलते अपने प्लांट नहीं लगाये। ये कम्पनियों से ऑक्सीजन के टैंकर खरीदकर काम चलाते हैं। कोरोना की पहली लहर के दौरान ही बहुत से देशों ने बड़े अस्पतालों के लिए ऑक्सीजन प्लांट लगाना अनिवार्य कर दिया था, लेकिन भारत के मौजूदा शासक अक्ल से नफरत की अपनी परम्परा पर ही कायम रहे।

छोटे निजी अस्पतालों, जिला अस्पतालों की हालत और ज्यादा खराब है। ये छोटे–छोटे ऑक्सीजन सिलेण्डर सप्लायर से खरीदकर काम चलाते हैं, अचानक ज्यादा जरूरत होने पर ये एजेंसियो को फोन करने के अलावा कोई इन्तजाम नहीं कर सकते। आपदा में सिलेण्डरों की बड़ी संख्या इन्ही में खप गयी। इनके छोटे–छोटे सिलेण्डर भरने के लिए बड़े–बड़े टैंकर शहरों की गलियों में घूमते रहते हैं। अब तो मरीज इनमें भर्ती होने के लिए अपना बेड, सिलेण्डर और दवाईयाँ लेकर जाने लगे हैं।

 गली–मोहल्लों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये नर्सिंग होम का हाल और बुरा है। ये साधारण मामलों में कुछ दिन मरीज को भर्ती रख लेते हैं, साधारण सर्जरी कर देते हैं या प्रसव करवा देते हैं। इनके पास वेंटीलेटर या आईसीयू की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए इनके पास ऑक्सीजन की भी कोई व्यवस्था नहीं होती। कोरोना के समय में इनमें से अधिकतर बन्द पड़े हैं या इन्होंने कुछ ऐसे मरीजों को लिटा रखा है जिनके पास अपना ऑक्सीजन सिलेण्डर है। महामारी के दौर में भी भारत के चिकत्सा संसाधनों का बड़ा हिस्सा इस रूप में बेकार पड़ा है। इनको कब्जे में लेकर ऑक्सीजन की लाइन दो दिन में ज्यादा से ज्यादा हफ्ते भर में डाली जा सकती थी। इससे लाखों मरीजों को इलाज भी मिलता और ऑक्सीजन सिलेण्डरों के लिए मारा–मारी भी नहीं होती।

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण इस हद तक किया गया है कि परचून की दुकानों की तरह डॉक्टरों की दुकानें खुली हैं। निम्न मध्यम वर्ग का बड़ा हिस्सा इनसे फोन पर सलाह लेकर घर पर ही कोरोना का इलाज करने को मजबूर है।

ऑक्सीजन की कमी क्यों हुई ?

मीडिया संस्था ‘द प्रिंट’ का कहना है कि मार्च 2020 में कॉविड के लिए बनायी गयी आधिकारिक समिति ने केंद्र सरकार को 12 राज्यों की एक सूची देकर बताया था कि इन्हे मध्य अप्रैल में 6500 टन ऑक्सीजन की रोजाना जरूरत होगी। दूसरी बार नवम्बर में समिति ने सरकार को ऑक्सीजन आपूर्ति के बारे में फिर आगाह किया। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थाएँ और विशेषज्ञ भी कोरोना की दूसरी लहर के बारे में पिछले साल से ही भारत समेत सारी दुनिया को आगाह कर रहे थे। सरकार ने इन महत्त्वपूर्ण पूर्वानुमानो को सुनकर भी अनसुना कर दिया। शायद सरकार ने नरसंहार को अंजाम देने की ही सोच रखी थी। अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था के हिसाब से न उन्होंने ऑक्सीजन प्लांट का इन्तजाम किया ना ही टैंकर और सिलेण्डर का।

भारत दुनिया में सबसे ज्यादा ऑक्सीजन तैयार करने वाले देशों में है। तैयार ऑक्सीजन का बमुश्किल दस फीसदी ही अस्पतालों में खर्च होता है, बाकी उद्योगों में इस्तेमाल होता है। सरकारी तथ्यों के मुताबिक कोरोना से पहले भारत में रोजाना 7,127 टन ऑक्सीजन का उत्पादन होता था जबकि कुल खपत 6,630 टन थी, इसमें से अस्पतालों की रोजाना माँग 700 टन थी। सरकार का दावा है कि फिलहाल ऑक्सीजन का बड़ा हिस्सा अस्पतालों में भेजा जा रहा है।

असल में, बड़ा संकट ऑक्सीजन का नहीं बल्कि उसे जरूरतमन्द मरीजों तक पहुँचाने का है। ऑक्सीजन की आपूर्ति के लिए नोडल ऑफिसर बनाये गये। श्री एस डी शर्मा का कहना है कि हमारे पास ऑक्सीजन की कमी नहीं है लेकिन देश के दक्षिणी और पूर्वी हिस्से से उत्तरी हिस्से में ऑक्सीजन लाना हमारे लिए बहुत बड़ी चुनौती है। लेकिन ऐसा नहीं है। ऑक्सीजन की भारी कमी का सामना करने वाला महाराष्ट्र दक्षिणी राज्यों से सटा हुआ है और मध्य प्रदेश ज्यादा ऑक्सीजन उत्पादन करने वाले उड़ीसा और छत्तीसगढ़ से सटा हुआ है।

 कोरोना की दूसरी लहर में हालत बेकाबू होने के बाद, जब सरकार ने अस्पतालों में ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाने की कोशिश की तो उसके पास इसे ले जाने के लिए क्रायोजेनिक टैंकर ही नहीं मिले। सरकारी रिकार्ड के मुताबिक ऑक्सीजन ढोने के लिए मात्र 1171 टैंकर हैं, जिनमें से अधिकतर निजी हैं, जबकि जरूरत इससे चार गुणा की है। जल्दी ही घमण्डी सरकार का नशा चूर हुआ और विश्व गुरू को दान दक्षिणा से गुजारा करने की नौबत आ गयी। दुनिया के दूसरे देशों के अलावा भूटान ने भी 40 टैंकर भारत को दान में दिये हैं।

 समस्या यहीं खत्म नहीं होती। इन टैंकरों से सीधे मरीज को ऑक्सीजन नहीं दी जा सकती। देश में ऐसे अस्पताल गिनती के ही हैं जिनके पास अपने भूमिगत टैंकर से पाइप लाइन के जरिये मरीजों तक ऑक्सीजन पहुँचाने की व्यवस्था हो। इसलिए कहीं टैंकर मिल भी गये तो गली–मोहल्लों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये नर्सिंग होम में भारी संख्या में भर्ती मरीजों और उससे भी कई गुणा संख्या में अपने घरों में ही मौजूद मरीजों की जरूरत पूरी करने के लिए छोटे–छोटे सिलेण्डरों का भयावह अकाल सामने आ गया। कुल–मिलाकर भारत की स्वास्थ्य प्रणाली चरमरा गयी। यह सिस्टम के फेल हो जाने की स्थिति है।

निजीकरण ने लोगों की हत्या की है

मरीजों को ऑक्सीजन उपलब्ध कराना कोई कठिन काम नहीं है। अधिकतर देशों में बड़े अस्पतालांे के अपने साथ ही जुड़े ऑक्सीजन प्लांट होते हैं, इसी तरह भारत में भी पिछले एक साल में हर बड़े अस्पताल में आसानी से एक प्लांट लगाया जा सकता था। नये संसद भवन, नरेंद्र मोदी स्टेडियम और बंगाल चुनाव प्रचार का खर्च ही करीब दो हजार करोड़ है। पीएम केयर फण्ड में साढ़े छह हजार करोड़ रुपये भी इस काम के लिए जरूरत से अधिक थे। अगर सरकार को अपने नागरिकों की जिन्दगी की जरा भी परवाह होती तो वह इस पैसे से ऐसे पाँच सौ प्लांट लगा सकती थी जो रोजाना दस लाख मरीजों तक ऑक्सीजन की पहुँच सुनिश्चित करते। लेकिन निजीकरण का भूत सरकार पर इस कदर हावी है कि उसने प्लांट लगाने का ठेका किसी निजी कम्पनी को देने के लिए अक्टूबर से मार्च तक इन्तजार किया। लेकिन कोई निजी कम्पनी आगे नहीं आयी।

पहली लहर के दौरान सारी दुनिया ने देखा था कि मुनाफा केन्द्रित निजी अस्पतालों की व्यवस्था महामारी से निपटने में पूरी तरह असफल रही थी। सरकार एक साल में जनता की सम्पदा पूँजीपतियों पर न्योछावर करने और जनता को गुलाम बनाने वाले कड़े से कड़े कानून बनाने जैसे कुकर्मों में मशगूल रही। इस दौरान जहाँ दुनिया आगामी कोरोना लहर से निपटने के लिए स्वास्थ्य प्रणाली को दुरुस्त करने में लगी थी, हमारी सरकार नये संसद भवन ,मोटेरा स्टेडियम और बंगाल चुनाव पर हजारों करोड़ रुपये फूँक रही थी। उसने कोरोना की अगली लहर से निपटने के नाम पर केवल दो काम किये, पूँजीपतियों के लिए कोरोना से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा निचोड़ने का इन्तजाम किया और जनता के लिए फोन की कॉलर ट्यून बदली।

 आजादी के बाद जो एक आधी अधूरी स्वास्थ्य प्रणाली इस देश में तैयार की गयी थी, वैश्वीकरण की नीतियाँ लागू होने के बाद वह भी तबाह हो चुकी है। भारत अपनी जीडीपी का 1.5 फीसद से ज्यादा शायद ही कभी सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च किया हो। सीधे–सीधे स्वास्थ्य पर खर्च होने वाली रकम तो जीडीपी के आधे फीसदी से भी कम है। दुनिया के लगभग सभी देश भारत से ज्यादा खर्च करते हैं। यूरोप तथा अमरीका, ऑस्ट्रेलिया जैसे देश तो जीडीपी का 12 से 16 फीसद लोगों के स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं।

ऐसा नहीं है कि भारत सरकार के पास अपनी जनता के इलाज पर खर्च करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है, समस्या यह है कि इससे मुठ्ठी भर लोगों और कम्पनियों के नाराज हो जाने का खतरा है। अगर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली बेहतर हो जाये तो बीमा कम्पनियों, दवा और चिकित्सा उपकरण बनाने वाली कम्पनियों, जाँच और इलाज के काम में लगी कम्पनियों, इनमे फाइनेंस करने वालों और सट्टेबाजी करने वालों, निजी अस्पताल चलाने वाले लोगो को नुकसान होगा। इनके मुनाफे को बरकार रखने के लिए सरकार ने एक अरब ज्यादा लोगों की जान को संकट में डाल दिया है। वैश्वीकरण ने इलाज का यही मॉडल पूरी दुनिया में चलाया है। भारत के शासकों ने सबसे मुस्तैदी से इसे लागू किया है। वास्तव में यह नरसंहार का ही मॉडल है। इसका संहार किये बिना जनता के लिए सस्ते और अच्छे इलाज की कल्पना नहीं की जा सकती। आज भारत की जनता का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है की संकट की इस घड़ी में भारत में मोदी की अगुआई में भाजपा का शासन है जो इस हत्यारे मॉडल के सबसे बड़े उपासक है। भले ही भारत की धरती लाशों से पट जाये लेकिन वह कम्पनियों और व्यापारियों के मुनाफे पर आँच नहीं आने देंगे बल्कि महामारी में उनके मुनाफे को और बढ़ाने के इन्तजाम करेंगे। यह भारत की जनता के ऊपर है कि वह इसे कब तक सहन करती है।

Leave a Comment

लेखक के अन्य लेख

समाचार-विचार
विचार-विमर्श
राजनीति