जून 2021, अंक 38 में प्रकाशित

कोरोना महामारी और जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था

डॉक्टरों के सामने अपने मरते पिता के लिए एक महिला बेड की गुहार लगाती रही लेकिन कहीं भी उसके पिता को बेड नहीं मिला। कुछ ही देर में ऑक्सीजन की कमी से उसके पिता ने दम तोड़ दिया। उत्तर प्रदेश के अस्पताल में रोते हुए एक आदमी ने बताया कि कैसे इलाज न मिलने के कारण तड़प–तड़पकर उसकी पत्नी और गर्भ में पल रहे अजन्मे बच्चे की मौत हो गयी। पिछले दिनों अखबार और टीवी में ऐसी दिल दहला देनेवाली घटनाओं की बाढ़ आ गयी। अप्रैल माह की शुरुआत से ही अचानक कोरोना संक्रमण के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी होने लगी। यूपी, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली समेत पूरे देश में कोरोना संक्रमण की घटनाएँ तेजी से फैल गयीं। पिछले साल के मुकाबले संक्रमण की दर इस बार 40 फीसदी अधिक है।

संक्रमित मरीजों में ऑक्सीजन का स्तर गिरता गया, जिससे अस्पतालों में मरीजों की बाढ़ उमड़ आयी। लेकिन इस संकट के सामने इतने बड़े देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पल भर भी नहीं टिक सकी। कुछ ही समय में देश के कोने–कोने से आईसीयू बेड और ऑक्सीजन की भारी किल्लत की खबरें आने लगीं। समय पर ऑक्सीजन और आईसीयू बेड न मिलने के कारण देश में हाहाकार मच गया। कुछ अस्पतालों ने “ऑक्सीजन आउट ऑफ स्टॉक” की तख्ती लगा दी और मरीजों को अस्पताल के बाहर ही तिल–तिल मरने को छोड़ दिया गया।

कानपुर के सबसे बड़े अस्पताल ‘हैलट’ में एक बेड पर मजबूरन दो–दो मरीजों को लिटाया गया। हालात इतने भयावह हो गये कि छोटे–छोटे पाउच में बमुश्किल थोड़ी बहुत ऑक्सीजन उपलब्ध हो पायी। सुल्तानपुर में तो ऑक्सीजन और दवा न होने पर डॉक्टर, नर्स और कर्मचारी अस्पताल छोड़कर चले गये। गुजरात के कच्छ में बेड और ऑक्सीजन के लिए गोलियाँ तक चल गयीं। इक्के–दुक्के अस्पताल का नहीं बल्कि देश के तमाम अस्पतालों का ऐसा मंजर नजर आने लगा। जनता पर संकट का पहाड़ टूट पड़ा, हर कोई मजबूर और परेशान नजर आया। अकूत मुनाफे की हवस के पुजारी ज्यादातर निजी डॉक्टर अपनी दुकानें बन्द करके छिप गये। इनसानियत के लिए अपनी जान जोखिम में डालनेवाले डॉक्टर रात–दिन काम करने के बाद भी लोगों को बचा नहीं पाये, अपनी इस बेबसी पर अनेक डॉक्टरों के आँसू तक छलक गये। देश के सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल एम्स के पूर्व निर्देशक एमसी मिश्रा ने कहा कि “मैं इस पेशे में 50 साल से हूँ–––लेकिन आज किसी की मदद नहीं कर पा रहा।” कोई उम्मीद नजर न आते देख लोग अपने परिजनों की जान बचाने के लिए खुद ऑक्सीजन और आईसीयू बेड की व्यवस्था करने के लिए इधर–उधर भटकते रहे। व्हाट्सएप, फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया पर मदद की गुहार की बाढ़ आ गयी। कई जगह मरीजों के बेहाल परिजन खुद ऑक्सीजन सिलिण्डर लेकर टी–फिलिंग सेण्टर के बाहर घण्टों लाइन में खड़े रहे। कालाबाजारी इतनी बढ़ी की ऑक्सीजन सोने से भी महँगी हो गयी। 600 रुपये का सिलिण्डर 50 हजार तक बिका। प्रशासन इसे काबू में करने के बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। हैदराबाद में एक ऑक्सीजन प्लांट के बाहर जमा भीड़ पर काबू पाने के लिए पुलिस बुलानी पड़ी। हर सम्भव कोशिशों के बावजूद भी लोग अपने परिचितों की जान बचाने में असफल हो गये। ऐसी भयावह हालत न केवल आज भी जारी है, बल्कि कोरोना महामारी के कई नये और भयानक हमले सामने आ रहे हैं और जनता की बदहाली बढ़ती जा रही है।

आज भी स्थिति इतनी भयावह है कि मृतक के परिजनों को अन्तिम संस्कार के लिए लम्बा इन्तजार करना पड़ रहा है। इससे पहले हर शहर के शमशान घाटों पर जगह कम पड़ गयी। दिल्ली की राजधानी सीमापुरी शमशान घाट में कोहराम मचा गया। 28 अप्रैल को वहाँ 122 लाशें जलीं। अन्तिम संस्कार करने वाले ने बताया कि पिछले साल यहाँ लाये गये मृतकों की अधिकतम संख्या 22 ही थी। लेकिन अब इसका कोई हिसाब रखनेवाला ही नहीं है। दिल्ली ही नहीं बल्कि सूरत, लखनऊ, पुणे और देश के हर हिस्से से ऐसी मातम और निराशाभरी खबरें आ रही हैं। कितने ही शहरों में नये शमशान बनाने पड़े।

आखिर पूरे देश में लाखों लोगों को मौत के मुँह में धकेलने का जिम्मेदार कौन है ? दिल्ली सरकार केन्द्र सरकार को जिम्मेदार बता रही है तो केन्द्र सरकार राज्य सरकारों पर ठीकरा फोड़ रही है। जबकि सभी जानते हैं कि बद–इन्तजामी और सही उपचार के अभाव में लोग मर रहे हैं। पिछले साल भर में जब से महामारी शुरू हुई है, तब से व्यवस्था को दुरुस्त क्यों नहीं किया गया ? कोरोना की दूसरी लहर की पहले से तैयारी क्यांे नहीं की गयी, जबकि वैज्ञानिक लगातार इसकी चेतावनी दे रहे थे ? यह सब जाँच–पड़ताल का विषय है।

यह बात गौर करने वाली है कि जब तमाम देशों की सरकारें कोरोना वायरस की पहली लहर से सबक लेकर जरूरी कदम उठा रही थी तब भारत सरकार इससे निपटने की कोई भी कार्य–योजना नहीं बना रही थी। इस साल की जनवरी में प्रधानमंत्री बेहद गैर–जिम्मेदारी का परिचय देते हुए खुद अपनी पीठ थप–थपाते रहे थे। उन्होंने कहा कि हमने अपने देश से कोरोना वायरस को खत्म कर दिया है। मुख्यधारा की मीडिया मोदी को विश्व गुरु प्रचारित करने में व्यस्त थी। यह वही समय था, जब अनेक राष्ट्रीय–अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएँ कोरोना की दूसरी लहर के बारे में चेतावनी दे रही थीं। लेकिन झूठे अभिमान में चूर सरकार ने कोरोना को खत्म बताकर देश को भयंकर संकट में डाल दिया। यह बात पिछले साल ही समझ आ गयी थी कि हमारे पास संकट की स्थिति से निबटने के लिए पर्याप्त अस्पताल, दवाइयाँ, चिकित्सा उपकरण, चिकित्साकर्मी और ऑक्सीजन नहीं हैं। इसके बावजूद सरकार ने इन सबकी व्यवस्था के लिए कोई योजना नहीं बनायी और विशेषज्ञों की राय नहीं ली। हद तो तब हो गयी जब साल की शुरुआत में भारी मात्रा में ऑक्सीजन को दूसरे देशों में बेच दिया गया। सरकार ने मेडिकल ऑक्सीजन के उत्पादन और भण्डारण के लिए कोई काम नहीं किया। 90 फीसदी ऑक्सीजन की आपूर्ति उद्योगों को की गयी। यह असंवेदनशीलता की अन्तिम सीमा थी। आज ऑक्सीजन की कमी से होने वाली मौतों की जिम्मेदारी सरकार की नहीं तो और किसकी है ? सरकार देश की जनता को मौत के मुँह में झोंककर मुट्ठीभर अडानियों और अम्बानियों का हित साधने में लगी रही।

उत्तर प्रदेश की सरकार ने ऑक्सीजन माँगने वालों और उन्हें मदद देने वालों पर एफआईआर दर्ज करके अपना मुँह काला कर लिया। जौनपुर के एक एम्बुलेंस ड्राईवर ने जब लोगों को मरते देखा तो उसने अपनी पत्नी के जेवरात बेचकर 27 लोगों को ऑक्सीजन दिलाकर उनकी जान बचायी। इस महान और मानवतावादी काम के लिए कोई भी सरकार उसे पुरस्कार देती, लेकिन योगी सरकार ने उस पर एफआईआर दर्ज कर जेल में डाल दिया, लेकिन चारों ओर से जब थू–थू हुई तो उससे घबराकर सरकार को उसे छोड़ना पड़ा। जनता की जान बचाना तो दूर उनकी मदद करने वालों को भी बर्दाश्त नहीं किया जा रहा है।

आखिरकार, दिल्ली हाई कोर्ट ने जब सरकार को लताड़ा और अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में हो रही किरकिरी के चलते सरकार ने नींद से जागने का प्रयास किया, तब भी हालात जस के तस बने रहे क्योंकि जितना नुकसान कर दिया गया था, उसे रातोंरात सुधारा नहीं जा सकता था। जैसे–– नवउदारवादी व्यवस्था ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का पूरा ढाँचा तोड़ दिया था, जिसे रातोंरात फिर से खड़ा करना असम्भव है। पहले हर सरकारी अस्पताल के पीछे ऑक्सीजन का प्लांट होता था, जिससे अस्पताल में ऑक्सीजन की सप्लाई होती थी, लेकिन इस व्यवस्था को खत्म कर दिया गया। अब उस प्लांट के केवल खण्डहर बचे हुए हैं। निजी अस्पताल अपना प्लांट लगाने के बजाय सिलेण्डर पर ही निर्भर रहते हैं। इन सबके चलते बाहर से ऑक्सीजन सिलेण्डर की आपूर्ति की भारी जरूरत पड़ने लगी। जब औद्योगिक ऑक्सीजन की सप्लाई की व्यवस्था की गयी, तो उसे ढोने वाले वाहन की कमी पड़ गयी, जिसे तुरन्त बनाना असम्भव था। यानी पूरी व्यवस्था ही चरमरा गयी।

इण्डियन एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार, पिछले साल कोरोना महामारी के समय दिल्ली में 4 स्थायी अस्पताल बनाये गये थे जो जुलाई तक तैयार हो गये थे। छत्तरपुर में 10 हजार बेड का एक अस्पताल बनाया गया था जिसमें एक हजार बेड ऑक्सीजन वाले थे। लेकिन फरवरी 2021 में ये सारे अस्पताल बन्द कर दिये गये। अगर उन अस्पतालों को बन्द नहीं किया जाता तो दिल्ली की ऐसी बुरी गत न होती। उत्तर प्रदेश जो संक्रमण के मामले में महाराष्ट्र के बाद आज दूसरे नम्बर पर है, यहाँ पिछले साल 503 कोविड अस्पताल और डेढ़ लाख बेड तैयार करने का दावा किया गया था, लेकिन यह जानकर हैरानी होगी कि अब तक केवल 83 अस्पताल और 17 हजार बेड ही बन पाये हैं। यानी 15 फीसदी काम भी पूरा नहीं किया गया, जिससे पूरे प्रदेश में हाहाकार मचा हुआ है। इसी तरह पुणे में भी पिछले साल 800 बेड वाला एक अस्पताल बनाया गया था लेकिन जनवरी में वह भी बन्द कर दिया गया। पिछले साल कर्नाटक कोरोना मामलों में दूसरे स्थान पर था, लेकिन इस साल केवल 18 अतिरिक्त बेड ही बढ़ाये गये मतलब किसी भी बुरी परिस्थिति में आम जनता का मारना तय है। बेंगलुरु में केवल 117 आईसीयू बेड हैं। राँची के सबसे बड़े अस्पताल “राजेन्द्र इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइन्स” में एक भी सिटी स्कैन मशीन नहीं है। जबकि यह बात जगजाहिर है कि कोरोना संक्रमण का पता लगाने के लिए सिटी स्कैन की बेहद जरूरत पड़ती है। लेकिन उसके बाद भी पूरे एक साल में कोई इन्तजाम नहीं किया गया। बिहार के 38 जिलों में से केवल 10 में ही 5 से ज्यादा वेंटीलेटर हैं। बिहार में 5000 डॉक्टरों के पद रिक्त हैं और कोरोना महामारी के समय भी ये पद नहीं भरे गये हैं। न तो केन्द्र और न ही किसी राज्य सरकार ने पिछले एक साल में कोई इन्तजाम किया।

सरकारों ने कोरोना महामारी को अनदेखा ही नहीं किया बल्कि अपने स्वार्थ के लिए गाँव–गाँव तक फैलाने का काम भी किया। 5 राज्यों में चुनाव प्रचार में किसी भी तरह के महामारी नियम–कानून का पालन नहीं किया गया। समाचार एजेंसी रायटर्स के अनुसार, भारत सरकार की बनायी गयी वैज्ञानिकों की एक संस्था ने मार्च के शुरुआत में ही प्रधानमंत्री को नये वायरस के बारे में चेतावनी दी थी। इसे गम्भीरता से लेकर कोई कदम उठाने की जगह प्रधानमंत्री सत्ता के लालच में चुनावी रैलियाँ करते रहे। हिन्दू वोटों के तुष्टीकरण के लिए एक साल पहले ही कुम्भ मेला भी आयोजित करवा दिया, जिससे लाखों लोगों में संक्रमण फैला। उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव में ड्यूटी करते वक्त हजारों शिक्षक और शिक्षा मित्र कोरोना संक्रमित हो गये। जिनमें से सात सौ से अधिक की मृत्यु तक हो गयी और लाखों बीमार हो गये। इन्हीं में एक 8 माह की गर्भवती भी थी जिसे जबरन चुनाव में ड्यूटी करने को विवश किया गया और बाद में कोरोना से उसकी और अजन्मे बच्चे की मौत हो गयी। इन मौतों का जिम्मेदार कौन है ? हमें सोचना चाहिए कि आज के हालात में क्या चुनाव इनसानी जिन्दगी से भी ज्यादा जरूरी है ?

मद्रास हाई कोर्ट ने सरकार के रवैये पर कटाक्ष करते हुए चुनाव आयोग पर हत्याओं का मुकदमा तक चलाने की बात कही। लेकिन चुनाव आयोग पर इसका कोई असर नहीं हुआ। आज वह कोई स्वतंत्र संस्था नहीं रह गयी है, बल्कि मौजूदा केन्द्र सरकार के हाथों की कटपुठली बन गयी है। चुनाव प्रक्रिया में बदइन्तजामी और कोरोना प्रोटोकाल की अनदेखी के लिए कार्रवाई करके सजा देने के बजाय, मोदी सरकार ने मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा को गोवा का राज्यपाल नियुक्त करके सम्मानित किया। इस तरह करोड़ों मासूम देशवासियों को मौत के मुँह में धकेल कर भी चुनाव करवाने का ईनाम सुनील अरोड़ा को मिल गया।

आपदा के इस भयावह समय को भी कुछ लोग अवसर में बदलने से बाज नहीं आ रहे हैं। चैतरफा संकट के दौर में भी लाशों के चारों ओर मुनाफे के गिद्ध इकट्ठे हो रहे हैं। ये मुर्दाखोर टीकाकरण के नाम पर जनता को लूट रहे हैं। भारत में कोवैक्सीन और कोविशील्ड नाम से दो तरह के टीके को भारत सरकार ने मंजूरी दी है। कोवैक्सीन को ‘भारत बायोटेक’ और कोविशील्ड को ‘सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया’ नामक निजी कम्पनी बना रही हैं। ‘भारत बायोटेक’ के चेयरमेन डॉ– कृष्णा ऐल्ला ने कहा था कि कोवैक्सीन की लागत 4 रुपये से भी कम है। लेकिन आज मोटा मुनाफा कमाते हुए यह वैक्सीन केन्द्र सरकार को 150 रुपये में, राज्य सरकार को 600 रुपये और निजी अस्पतालों को 1200 रुपये में बेची गयी। सरकार ने दावा किया था कि सबको फ्री में वैक्सीन लगायी जाएगी, लेकिन आज पूनावाला सरकारी खर्च से शोध करके तैयार किये गये वैक्सीन से मोटी कमाई कर रहा है। हाई कोर्ट ने इस लूट पर हस्तक्षेप करते हुए पूछा कि आखिर वैक्सीन में इतना ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए सरकार ने मंजूरी क्यों दी ? सरकार ने पूरे देश से टीकाकरण की उपलब्धता के बारे में भी झूठ बोला। आज केन्द्र सरकार के पास पूरे देश के लिए टीके उपलब्ध नहीं हैं। दूसरी ओर दिल्ली सरकार बार–बार केन्द्र सरकार से अपील कर रही है कि वह इन दोनों कम्पनियों से टीके का फॉर्मूला लेकर विशाल पैमाने पर या तो खुद ही टीका बनाये या देश की सभी निजी कम्पनियों को इसे बनाने की इजाजत दे। नहीं तो मौजूदा दर से देश के टीकाकरण में 2 से 3 साल लग जायेगा, लेकिन निरंकुश सरकार किसी बात पर भी ध्यान नहीं दे रही है।

पिछले साल सरकार ने कोरोना महामारी से निबटने के लिए ‘पीएम केयर्स फण्ड’ बनाया था। एक रिपोर्ट के अनुसार शुरुआती 3 महीनों में ही इसमें 10 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा जमा हो चुके थे। एक साल बाद भी महामारी से बचाव के लिए सरकार ने इस फण्ड का कोई इस्तेमाल नहीं किया तो आखिर इतने पैसों का हुआ क्या ? दरअसल सरकार ने यह फण्ड भी पूँजीपतियों को मालामाल करने में उड़ा दिये। पिछले साल सरकार ने तीन निजी कम्पनियों को वेंटीलेटर बनाने का ठेका दिया था, जिसके लिए करोड़ों रुपये एडवांस दिये गये। चैकाने वाली बात यह है कि किसी भी कम्पनी के पास वेंटीलेटर बनाने का कोई अनुभव नहीं था। जैसा की स्वाभाविक था तीनों कम्पनियों के वेंटीलेटर बार–बार क्लिनिकल ट्रायल में फेल पाये गये। साफ जाहिर होता है कि कम्पनियों ने मोटा मुनाफा कमाया और जनता के हिस्से में मौत आयी। ऐसा काम करनेवाले को ही मौत का सौदागर कहते हैं।

आज हम अपने सगे–सम्बन्धियों को सामने मरते हुए देखने के लिए अभिशप्त हैं। इस संकट की घड़ी में अधिकतर निजी अस्पतालों ने अपने दरवाजे आम जनता के लिए बन्द कर दिये हैं, जो निजी अस्पताल खुले हुए भी हैं उनमें लूट के हर रोज नये कीर्तिमान बन रहे हैं, लाखों रुपये वसूले जा रहे हैं। यह साफ हो चला है कि इनका वास्ता केवल मुनाफे से है न कि जनता के दुख–दर्द से। जिस निजी मॉडल को सर्वाेत्तम कहकर पूरे देश में लागू किया गया, आज उसका चेहरा बेनकाब हो गया है। आज इस संकट के समय में सरकारी अस्पताल ही लोगों की थोड़ी बहुत उम्मीद बने हुए हैं। जिन नवरत्नों को मोदी सत्ता में आते ही बेचने के लिए आमादा हैं आज उन्हीं में ऑक्सीजन का उत्पादन हो रहा है। डबल्यूएचओ के अनुसार प्रत्येक 1000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए, लेकिन हमारे देश में यह संख्या बहुत पीछे है। स्वास्थ्य ढाँचे को मजबूत करने की जगह सरकार उसका पूरी तरह निजीकरण करने पर जोर दे रही है, जिसके दुष्परिणाम इस संकट में साफ नजर आ रहे हैं। दरअसल, नवउदारवादी व्यवस्था के तहत निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया जा रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र को बर्बाद किया जा रहा है। दुनिया को चलाने का नवउदारवादी मॉडल मुट्ठी भर धनपशुओं को ध्यान में रखकर बनाया गया है जिसमें करोड़ों लोगों की जिन्दगी कीड़े–मकोड़ों से भी गयी गुजरी है। इस मॉडल के तहत सरकार लड़कर हासिल की गयी जनता की सारी रियायतों को एक–एक कर खत्म कर रही है। अब सरकार खुलकर पूँजीपतियों के साथ है। जनता का भला तभी होगा, जब मौजूदा आदमखोर व्यवस्था की जगह एक बेहतर व्यवस्था का निर्माण हो, अब हमारे सामने एकमात्र विकल्प बचा है कि जल्दी से एक नयी बेहतर व्यवस्था का निर्माण करने के लिए आगे बढ़ें।

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