अप्रैल 2022, अंक 40 में प्रकाशित

उत्तर–आधुनिकतावाद और मौजूदा व्यवस्था के कुतर्क

(पूंजीवादी राजनीतिक प्रबन्धकों का तिकड़म, साम्राज्यवादी तबाही पर पर्दा डालने की एक घिनौनी कोशिश)

 

उत्तर आधुनिकतावादी विचारों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

मध्य युग में सामन्तवादी शोषण से पीड़ित जनता ने सामन्तवाद के विरुद्ध विद्रोह की अलख जगा दी थी। चर्च की निरंकुशता चरम पर पहुँच चुकी थी। चर्च स्वर्ग के लिए टिकट भी देने लगा था। यूरोप के लगभग चैथाई हिस्से पर चर्च का कब्जा था। दशमांश की लूट से किसान भयावह पीड़ित थे। अन्धविश्वास का बोलबाला था। राजा खुद को भगवान का पुत्र बताता था। राजा चर्च के अनुसार चलता था। चर्च स्वयं में प्रभु था। जमीन से बेदखल कर दिये गये मेहनतकश लोगों की जिन्दगी बहुत पीड़ादायक थी। रोटी, सड़े गले मकान, सामन्ती मूल्य–मान्यताएँ जैसी तमाम समस्याएँ उनकी जिन्दगी को बहुत बदहाल बना दे रही थीं। उनके लिए जीविका का संकट प्रधान था। लियो हयूबरमन ने अपनी पुस्तक मनुष्य की भौतिक सम्पदाएँ में इसका बहुत स्पष्ट विवरण प्रस्तुत किया है।

एक समय ऐसा आया जब सामन्ती व्यवस्था चैतरफा संकट की गिरफ्त मंे आ गयी। उभरता व्यापारी वर्ग (बुर्जआ वर्ग का पूर्ववर्ती) व्यापार के लिए दूर इलाकों तक जाता था। दूर–दराज घूमने से उसकी चेतना के क्षैतिज का निरन्तर विस्तार हो रहा था। वह तमाम तरह की सांस्कृतिक, सामाजिक और कलात्मक अभिरुचियों से रूबरू होता जा रहा था। उसके पास निजी सम्पत्ति इकट्ठी हो रही थी। उत्पादन की अधिकता में उसे लाभ नजर आ रहा था। नये–नये बाजारों की उपलब्धता ने उत्पादन की माँग को बहुत तेज कर दिया था। शासन व्यवस्था पर सामन्ती प्रभुत्व कायम था जो सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को जकड़े हुए था। चुगिंयों और करों के रूप में व्यापारी वर्ग सेे सामन्त काफी बड़ी रकम की वसूली कर रहे थे। व्यापारी वर्ग के लिए सामन्तवादी बेडियाँ बुनियादी अन्तरविरोध थीं। उत्पादन शक्तियाँ सामन्तवादी व्यवस्था से अधिक विकसित हो चुकी थीं। ऐसे वक्त में आधुनिकता का उदय हुआ। स्वंतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व के झण्डे तले अवाम एकजुट होती गयी। नये सामाजिक अनुबन्ध तैयार हुए। नयी–नयी वैज्ञानिक खोजों का सिलसिला बढ़ता गया। पृथ्वी दुनिया के केन्द्र मंे नहीं है, खगोलविदों ने यह साबित कर दिया (इस मामले में गिर्दानो ब्रूनों के बलिदान को नहीं भुलाया जा सकता)। चर्च दुनिया की सचंालक शक्ति है, इस पर सवाल उठने शुरू हो गये। रूसो, दिदेरो, वाल्तेयर और मांतेक्स्यू ने लोकतन्त्र की प्रस्थापना प्रस्तुत किया। इस संघर्ष में उभरते व्यापारी वर्ग ने मेहनतकश जनता को साथ लेकर सामन्तवाद के विरुद्ध विद्रोह की अलख जगायी। यह पूँजीवाद की शुरुआती अवस्था थी और तर्क प्रधानता को समाज में स्थापित करने का दौर था। यह एक पुरातन व्यवस्था के विरुद्ध नवीन व्यवस्था की शुरुआत थी। इससे सामाजिक बन्धनों, रीति–रिवाजों, सास्ंकृतिक, आर्थिक, तकनीक आदि सभी क्षेत्रों में आमूलचूल परिवर्तन ने गति पकड़ी। एक नयी व्यवस्था के जन्म के साथ आधुनिकतावाद आया। फ्रांस इस संघर्ष की जन्म–भूमि थी, जहाँ से यह अमरीका, इंग्लैण्ड और यूरोप के बाकी देशों में फैला। सभी धीरे–धीरे अपनी सामन्ती गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर आजाद हो गये। कितनी अजीब और दुखद बात है कि अब यही देश तीसरी दुनिया के देशों को अंधविश्वास, अज्ञानता, धार्मिक कट्टरपंथ और अवैज्ञानिकता जैसे पुरातनपंथ तथा सामन्ती विचारों की ओर धकेल रहे हैं।

 औद्योगिक व्यवस्था और तर्कसगंकता, धर्मनिरपेक्षता, नौकरशाही, व्यक्तिवाद जैसे विचारों का उदय हुआ। आधुनिकतावाद दुनिया में मध्य–युग के समापन और पूँजीवाद के उदय के साथ प्रारम्भ हुआ। उद्योगों का मशीनीकरण होने लगा और दुनिया मंे सामन्ती व्यवस्था की अपेक्षा उत्पादन का स्तर बहुत तीव्र गति से बढ़ने लगा। निजी पँूजी का आकार दिनोंदिन बढ़ा। पूँजीवाद की अन्तरवस्तु निजी पूँजी संचय और मुनाफे ने दुनिया पर वर्चस्व स्थापित कर लिया। दुनिया में नये बाजारों और कच्चे माल की तलाश के लिए त्राहि–त्राहि तथा लूट–खसोट ने तीसरी दुनिया और लातिन अमरीका के देशों को उपनिवेशों में तब्दील कर भयावह गर्त में पहुँचा दिया। एदुआर्दो गालेआनो ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक लातिन अमरीका के रिस्ते जख्म में पूँजी की इस नग्न और भयावह लूट का बहुत स्पष्ट और विस्तृत चित्र प्रस्तुत किया है।

नयी समाज व्यवस्था अपने अन्तरविरोधों के साथ निरन्तर आगे बढ़ती गयी। पूँजी का आकार लगातार बढ़ता गया। अंशत: पूँजीपतियों की आपसी होड़ के कारण और अंशत: तकनीकी विकास के कारण निजी पँूजी कुछ हाथों में केन्द्रित हो गयी। बढ़ते हुए श्रम–विभाजन ने उत्पादन की लघुत्तर इकाइयों की कीमत पर वृहत्तर इकाइयों के निर्माण को प्रोत्साहित किया। उत्पादन के स्तर और मात्रा में तीव्र वृद्धि हुई। पूँजी की बढ़ती लूट ने नये उपनिवेशों के बँटवारे को लेकर दुनिया को दो विश्व युद्धों जैसी त्रासदी झेलने के लिए मजबूर किया। पँूजी और पूँजीवाद का अस्तित्व ही लूट पर टिका था। विश्व–युद्धों के बाद भी पूँजी का आकार लगातार बढ़ता गया जो अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए लगातार नये बाजारों, उपनिवेशों की तलाश करती रही। पूँजी ने इतना विभ्राट रूप धारण कर लिया कि उसने दुनिया का बँटवारा अपने हितों के अनुसार करने के लिए युद्धों को जन्म दिया।

पूँजी के राज में बेकारों की फौज लगभग हमेशा घूमती रहती है। मजदूर हरदम काम छिन जाने से भयभीत रहता है। तकनीकी प्रगति सबके काम का बोझ घटाने के बजाय लगातार और अधिक बेकारी पैदा करती है। प्रतियोगिता का मकसद ही पूँजी के संचय के साथ अस्थिरता को पैदा करना है। पूँजी समाज को उत्तरोत्तर गहन महामन्दी की ओर ले जाती है। उपभोग में लगभग अराजकता का माहौल बना रहता है।

उत्तर–आधुनिकतावाद की हकीकत

पूँजी चूँकि पूँजीवादी समाज का आधार है इसलिए वह अधिरचना में भी परिवर्तन करती है। 1990 में नव उदारवाद के जरिये तीसरी दुनिया के देशों को आर्थिक रूप से नये उपनिवेश के तहत फिर से गुलाम बना दिया गया। समाज में उपभोक्तावाद को बढ़ावा देना, इनसानी चेतना को मण्डी में तब्दील करना और  साम्राज्यवादी संस्कृति का प्रचार–प्रसार करना आज इसका मुख्य उद्देश्य बन गया है। पूँजीवाद को अति–उत्पादन का संकट घेरे हुए है। वह अब अपने महामन्दी और अति–संचय के संकट को हल नहीं कर पा रहा है। व्यवस्था के प्रति लोगों की नफरत से आये दिन कोई न कोई हलचल होती रहती है। उत्तर–आधुनिकतावाद लोगों के असन्तोष को भरमाने का एक सुविचारित प्रयास है। उत्तर–आधुनिकतावाद यह साबित करने का प्रयास कर रहा है कि अब हम पूँजीवादी आधुनिकता से भी अगले चरण में प्रवेश कर चुके हैं। दुनिया अब आधुनिकता की भी अगली और अधिक विकसित अवस्था उत्तर–आधुनिकता के चरण में प्रवेश कर चुकी है।

यह लोगों के बीच मिथ्या प्रचार करता है और उन्हें अगली व्यवस्था में होने का भ्रम बनाने का प्रयास करता है। ताकि लोग इस साम्राज्यवादी तबाही से आँख मूँदकर इसकी नृशंसता को स्वीकार कर लें। उत्तर–आधुनिकतावाद जनप्रिय, उपभोक्तावाद, चयन, खुलापन, अवसर, लोक संस्कृति और संस्कृति का पण्यीकरण, श्रद्धाहीन मिश्रगीत, कृत्रिम गहन शून्यता, मौजमस्ती, खुदवाद, सापेक्षतावाद, अनिश्चिता, विकेन्द्रिता, जीवन इतिहास, व्यक्तिवाद, प्रयोग धर्मिता, उपयोगितावाद, अनेकरूपता, संकेतक, संदेहवाद, विखडंनवाद, असंगत यथार्थ आदि अवधारणाओं के जरिये खुद को स्थापित करता है। दरअसल इस तरह के विचार से आधुनिकतावाद और साम्रज्यावादी व्यवस्था के घाल–मेल की गन्ध आती है, यानी एक ऐसी मानिसकता वाला व्यक्तित्व जो खुद को न आधुनिक माने न पूँजीवादी न सामा्रज्यावादी शोषण का समर्थक। बल्कि वह खुद को इन सबसे ऊपर एक नये विचार वाले व्यक्ति के रूप में उत्तर–आधुनिक होने का दावा करें। उत्तर–आधुनिक व्यक्ति साम्राज्यवादी शोषण के खिलाफ भी खड़ा दिखे और पूँजीवाद का पक्ष भी लेता न दिखे और नयी व्यवस्था का भी समर्थक लगेे किन्तु समाजवाद के सवाल पर सहमत न हो। यह केवल उसकी नैतिक तटस्थता भर है, परन्तु अन्तत: वह यथास्थिति को बरकार रखने का पक्षधर पूंजीवाद का एक राजनीतिक प्रबन्धक ही होता है। यही उत्तर–आधुनिकता को विकल्प के तौर पर प्रस्तुत करने का साम्राज्यवादी मंसूबा है।

उत्तर–आधुनिकतावाद खाये–अघाये पूँजीवादी बौद्धिक भस्मासुरों की खोखली बौद्धिक कसरत के अलावा कोई ठोस विचार साबित नहीं हो पा रहा है। ये खुद को प्रगतिशील और नयी व्यवस्था के पैरोकार होने का दावा करते हैं और पर्दे की आड़ में साम्राज्यवाद को ही दिनोंदिन जिन्दा रखने के नये–नये मंसूबे गढ़ते हैं। इन सबके बावजूद भी ऐसे बुद्धिजीवी मौजूदा व्यवस्था की उम्र को बढ़ाने में मददगार साबित नहीं हो पा रहे हैं। इस खोखले अर्थशास्त्र के निस्तेजक पूरक के तौर पर उत्तर–आधुनिकतावाद का कमजोर सामाजिक–दार्शनिक सिद्धान्त उपस्थित होता है। जो हमें अपने दैनंदिंन जीवन में व्यवस्था के साथ ताल–मेल बैठाने और खुश रहने का उपदेश देता है और उन अभूतपूर्व दैत्यकार विभीषिकाओं की ओर से आँख मूँद लेने के लिए प्रेरित करता है, जो यह व्यवस्था हमारे लिए तैयार कर रही है। इस तरह ,उत्तर–आधुनिकतावाद उन पूँजीवादी राजनीतिक प्रबन्धकों की तिकडमों को अपने तरीके से न्याय संगत ठहराता है जिनके लिए लोकतन्त्र को एक निम्न स्तर की गतिविधि के रूप में सीमित कर दिया जाना चाहिए, भले ही समाज का यह उपकरण ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया जाये कि लोगों की नजर में यह लुंजपंुज खोखला और नपुंसक बन जाये।

दुनिया के सबसे निर्धनतम देशों की जनता 100 रुपये से कम पर अपना गुजारा करने को मजबूर है। दूसरी तरफ दुनिया के सबसे अमीर आदमी की दौलत 23 लाख 40 हजार रुपये प्रति मिनट की दर से बढ़ रही है। मौजूदा व्यवस्था में दुनिया की लगभग 72 फीसदी वयस्क आबादी इलाज के अभाव और अज्ञानता की शिकार है। लगभग 4–6 करोड़ लोग प्रतिवर्ष पर्यावरणीय आपदाओं को झेलते हुए मौत के मुँह में समा जाते है। दुनियाभर में लगभग 8–4 करोड़ बेघर लोगों की एक पूरी जमात दर–ब–दर की ठोकरें खाती घूम रही है, जिनके भविष्य का कोई ठिकाना नहीं है। दुनिया में करीब 15–5 करोड़ लोग खाद्य असुरक्षा के भीषण संकट का सामना कर रहे हैं। लगभग 11 लोगों की प्रति मिनट भूख से मौत हो जाती है। दुनिया के 43 देशों की लगभग पौने पाँच करोड़ से अधिक आबादी भयावह अकाल, कगांली और भुखमरी से पीड़ित मौत के मुँहाने पर खड़ी है। भयावह असमानता और पर्यावरण की तबाही, प्राकृतिक संसाधनों की बेतहाशा लूट और बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी एक दहकते हुए गोले में तब्दील होने केे कगार पर है। ‘जलवायु आपातकाल’ घोषित किया जा चुका है। परमाणु परीक्षण, युद्ध सामग्रियों की अंधी प्रतियोगिता, वित्तीय पूँजी का बढ़ता वर्चस्व जिसने पूरे समाज को जुआरी बना दिया है। मध्य पूर्व का बहुत बड़ा हिस्सा लम्बे समय से गृह युद्ध की आग में जल रहा है। वहाँ दुधमँुहें बच्चे सिसक–सिसक कर मर रहे हैं। तीसरी दुनिया के देशों पर भयावह कृषि और खाद्य संकट मँडरा रहा है। पूरी व्यवस्था ढाँचागत संकट की गिरफ्त में है। दुनिया भर के अमीरों को व्यवस्था के ढह जाने का डर दिन–रात सता रहा है। उत्तर–आधुनिकता जैसे खोखले दार्शनिक विचारों से शासक वर्ग कुछ समय के लिए इस डर का सामना कर लेते हैं। लेकिन यह खोखला दार्शनिक सिद्धान्त स्थायी समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकता।

उत्तर–आधुनिकतावाद मानवजाति द्वारा अर्जित भौतिक सम्पदाओं के इतिहास और तर्क का खण्डन करते हुए यह साबित करने का प्रयास करता है कि दार्शनिकों और इतिहासकारों द्वारा लिखे गये मत केवल उनके द्वारा अर्जित तथ्यों का सार भर है। यह बात मौजूदा शासक वर्ग को बहुत रास आती है क्योंकि इस मत में वह अपना वर्ग–हित देखता है। उत्तर–आधुनिकतावाद का विचार भी मौजूदा शासक वर्ग की ही सेवा करता है। “इतिहास जैसा कुछ भी मौजूद नहीं है” उत्तर–आधुनिकतावाद इस तर्क की दलील देता है और यथास्थिति को चिरन्तन साबित करता है। जबकि सच्चाई इसके विपरीत है। मनुष्य ने आदिम समाज से मौजूदा समाज व्यवस्था तक एक लम्बी संघर्ष भरी यात्रा के दौरान अथक श्रम से मौजूदा दुनिया की रचना की है। विराट बौद्धिक सम्पदा हासिल की है। ज्ञान को विकसित किया है। प्रकृति और समाज में मौजूद तमाम चीजों के पैदा होने की एक लम्बी द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक प्रक्रिया है जो तर्क और तथ्यों पर आधारित है। मेहनतकश वर्ग का संघर्ष निरन्तर जीवन को बेहतर बनाने की ओर रहा है। समय–समय पर आये विभिन्न अन्तरविरोधों को मेहनतकशों ने बड़ी कुशलता और आत्मबलिदान से हल किया है। मानव–समाज निरन्तर प्रगतिशील है। गति प्रकृति का सार्वभौम नियम है। पुराने का खात्मा और नये का अविष्कार प्रकृति की एक अनिवार्य प्रक्रिया है। विरोधी चीजों के बीच संघर्ष और एकता से प्रकृति लगातार विकसित हो रही है। समाज व्यवस्था भी प्रकृति का ही विस्तृत रूप है जो निरन्तर गतिमान है। मौजूदा व्यवस्था में अन्तरनिहित कमजोरियाँ और इसके विरोधाभास इस बात को साबित करते हैं कि यह व्यवस्था टिकाऊ नहीं है।

आज जनपक्षधर प्रगतिशील लोग पँूजीवाद के अन्तर्गत सामाजिक अस्तित्व के स्वसंचालित, प्रथक और असम्बद्ध प्रतीत होने वाले खण्ड–खण्ड साहित्य, कला, राजनीति, आर्थिक व्यवस्था, विज्ञान, संस्कृति और लोगों की मानसिक अवस्था, इस सब को केवल तभी समझ सकते हैं, जब वे उन्हें ऐतिहासिक प्रक्रिया की समग्र सम्पूर्णता के हिस्से के रूप में स्पष्ट रूप से देखें। हमें मनुष्य के स्वास्थ्य, विकास और खुशहाली की प्रकृति, उसे हासिल करने के साधन और उसके लिए जरूरी परिस्थितियों पर चर्चा के दौरान असहमतियों, बहसों और तार्किक विश्लेषण और समाधान के माहौल को तैयार करने के काम में पूरी ऊर्जा के साथ लग जाना चाहिए। यह मानवता के विकास के लिए अपनी व्यक्तिगत खुशहाली पर मँडराने वाले खतरों का बहादुरी से सामना करने और अपने निजी स्वार्थों से ऊपर समाज के हितों को रखने की जीवन शैली को खुले दिल से स्वीकार और प्रचारित करने का वक्त है। इसके लिए आज हमें अधिक साहस, अधिक सत्यनिष्ठा और अधिक क्षमता की जरूरत है जो सभी प्रभुत्वशाली स्वार्थों, अज्ञेयवाद, निराशावाद और अमानवीयता के सभी हमलों के खिलाफ हमारे उसूलों और मानवता की गरिमा की हिफाजत करंेगे।

(इस लेख की सामग्री नोम चोमस्की, अरुन्धति राय आदि विचारकों के लेखों से ली गयी है।)

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