एजाज अहमद से बातचीत : “राजसत्ता पर अन्दर से कब्जा हुआ है”
प्रस्तुत साक्षात्कार के एक बड़े भाग का सम्बन्ध हिन्दुत्व की साम्प्रदायिकता, फासीवाद, धर्मनिरपेक्षता और भारतीय सन्दर्भ में वामपंथ के लिए मौजूद सम्भावनाओं से है। दूसरे हिस्सों में वे वैश्वीकरण, वामपंथ के लिए वैश्विक सम्भावनाओं, अन्तोनियो ग्राम्शी के विचारों के उपयोग और दुरुपयोग और हमारे अपने काल के लिए कार्ल मार्क्स की प्रासंगिकता पर बात करते हैं। यह साक्षात्कार भारत में हाल के आम चुनाव से काफी पहले का है और चुनाव परिणाम आने के बाद इसमें जरूरी फेरबदल किये गये।
एजाज अहमद का कथन है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) समेत उसके मुखौटा संगठनों में स्पष्ट फासीवादी विशेषताएँ नजर आती हैं। लेकिन भारतीय राजसत्ता उदारवादी उपदेशों पर चल रही है, भले ही भारत की उदारवादी संस्थाएँ कितनी ही खोखली हो चुकी हों। वे इस प्रस्थापना को एक सुस्पष्ट सैद्धान्तिक आधार पर खड़ी करते हैं।
एजाज अहमद मानते है कि लोकतंत्र और उदारवाद के बीच एक बुनियादी अन्तर्विरोध हैं, पर यह भी कहते हैं कि धुर दक्षिणपंथ के शासन और राज्य के उदारवादी संस्थागत ढाँचे के बीच कोई अन्तर्विरोध नहीं है। उदारवाद लोकतंत्र को कमजोर करता है और धुर दक्षिणपंथ को मजबूती देता है। यही कारण है कि बहुत सारे देशों–– अमरीका, इसराईल, तुर्की, भारत आदि–– में धुर दक्षिणपंथ की शक्तियाँ उदारवादी संस्थाओं के जरिये ही शासन कर रही हैं।
वे यह भी मानते हैं कि फासीवाद के सवाल पर दो बहुत अलग–अलग खाँचों में विचार करने की जरूरत है जबकि उनको गडमड कर दिया जाता है। इनमें से सैद्धान्तिक खाँचे में फासीवाद को एक सामान्य प्रवृत्ति माना जा सकता है जो साम्राज्यवाद के पूरे दौर में पूँजीपति वर्ग की राजनीति के सभी रूपों में एक स्थायी और अन्तर्भूत तत्व है। अनेक राजनीतिक दल जो फासीवादी प्रवृत्तियाँ दर्शाते हैं, उदारवादी/नव–उदारवादी पूँजीवाद के शासन में मजे से काम कर रहे हैं, मिसाल के लिए पूरे यूरोप में।
लेकिन एक अधिक संकीर्ण खाँचे में देखें तो जर्मनी, इटली और स्पेन जैसे पूर्णरूपेण फासीवादी आन्दोलन और राज्य विश्वयुद्धों के बीच के बरसों में बहुत विशेष परिस्थितियों में पैदा हुए। उन देशों में वर्गीय शक्तियों का सन्तुलन ऐसा था कि स्वयं पूँजी के शासन के लिए खतरे पैदा करनेवाले बहुत शक्तिशाली क्रान्तिकारी मजदूरवर्गीय आन्दोलनों के खिलाफ जंग–जैसी हिंसा शुरू करने के लिए राज्य के उददारवादी ढाँचे को नष्ट करना जरूरी था। किसी ही देश को लें तो वहाँ मजदूरवर्गीय आन्दोलन आज पिछली लगभग एक सदी के मुकाबले बहुत कमजोर हैं। तो एक फासीवादी व्यवस्था की जरूरत है ही नहीं। धुर दक्षिणपंथ और उदारवादी तंत्र आज आपस में मजे से गलबहियाँ डाल सकते हैं।
एजाज अहमद अंग्रेजी और उर्दू में लिखते हैं। चीनी, तुर्की, पुर्तगाली, कोरियाई, फ्रांसीसी और अरबी भाषाओं में उनकी रचनाओं के अनुवाद हो चुके हैं। अंग्रेजी में उनकी कुछ पुस्तकें गजल्स ऑफ गालिब (न्यूयॉर्क 1971य नयी देहली 1994), इन थियरी : क्लासेज, नेशन्स, लिटरेचर्स (लन्दन 1992य नयी देहली 1995), लिनीएजेज ऑफ द प्रजेन्ट (नयी देहली 1996य लन्दन 2000), ग्लोबलाइजेशन एण्ड कल्चर : ऑफेन्सिव्स ऑफ द फार राइट (नयी देहली 2004)य और अफगानिस्तान, इराक एण्ड द इम्पिरियलिज्म ऑफ आवर टाइम (नयी देहली 2004) हैं।
मई 2019 में नरेंद्र मोदी ने फिर से जनादेश प्राप्त किया है। इस वापसी को आप कैसे देख रहे हैं? एक ऐतिहासिक जनादेश के साथ सत्ता में भाजपा की वापसी के प्रमुख कारण क्या हैं? संघ–भाजपा के दूसरे कार्यकाल में आप भारत का क्या भविष्य समझते हैं?
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने यकीनन भारी चुनावी कामयाबी पायी है। लेकिन इसे “जनादेश” कहा जा सकता है कि नहीं, इसमें शक है। जनता अपना जनादेश दे सके, इसके लिए जरूरी है कि उसे तथ्यों पर आधारित एक प्रबुद्ध राजनीतिक वाद–विवाद का लाभ मिले। परस्पर विरोधी दलों की वैकल्पिक नीतियों की धीर–गम्भीर और स्पष्ट प्रस्तुति की बात तो जाने दें, राजनीतिक दल अगर तथ्यों पर आधारित बुद्धिसंगत नीतियाँ पेश भी कर सकते हों तो भी अब वे जनता की पहुँच से बाहर हैं क्योंकि भारत में कॉर्पोरेट मीडिया लगभग पूरी तरह संघी तंत्र की पूँछ से बँधी हुई है और सार्वजनिक सभ्याचार और तथ्यों व नीतियों की निष्पक्ष प्रस्तुति अब उसका सरोकार नहीं रहा। कोई भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया जिसके द्वारा जनता अपनी राय दे सके, सभी सम्बन्धित संस्थाओं से और खासकर चुनाव आयोग, उच्चतर न्यायपालिका और कानून लागू करनेवाले संगठनों से नैतिक, संवैधानिक और कानूनी मानदण्डों का कड़ाई से पालन करने का तकाजा भी करती है। एक समय था कि भारतीय शासन–व्यवस्था एक बहुत उल्लेखनीय सीमा तक इन लोकतांत्रिक मानदण्डों का पालन करती थी। लेकिन भारत में उस तरह की नागरिक संहिता पिछले कुछ दशकों से धूल चाट रही है और समय बीतने के साथ अधिकाधिक भ्रष्ट होती जा रही है। “भ्रष्ट” से मेरी मुराद सिर्फ धन–बल के भारी उपयोग से नहीं है जो खुद ही चुनाव के नतीजे तय करनेवाला एक बड़ा कारण है। मेरी मुराद जिस चीज को लोकतांत्रिक प्रक्रिया कहा जा सकता है उसके सर्वग्रासी क्षय से है। लगता है 2019 ही वह नुक्ता है जहाँ चुनावी विजय की विशालता और लोकतांत्रिक मानदण्डों की बुनियादी बातों के बीच का सम्बन्ध एक सिरे से गायब हो चुका है।
भारतीय राजनीति का आश्चर्यजनक सीमा तक अमरीकीकरण हो चुका है। एक ओर परम नेता का–– मसीहा का, रक्षक का सम्प्रदाय और दूसरी ओर खौफ और जुनून का व्यवस्थित उत्पादन, ये अब आम हो चुके हैं। आज राजनीति को संचालित कर रहे हैं 24ग7 टीवी चैनल, मत–सर्वेक्षण और वे विशाल खर्चीले अभियान जो कॉर्पोरेट घरानों से मिले अरबों रुपये के बल पर चलाये जा रहे हैं। नागरिकों और गैर–नागरिकों के सवाल पर बढ़ता हुआ जुनून, जो अब अमित शाह के गृहमंत्री रहते पागलपन की सीमाओं तक जा सकता है, खुद ही अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प की उन नस्लवादी, लगभग नरसंहार वाली नीतियों की कार्बन कॉपी है जिनका सम्बन्ध अमरीका में दक्षिण अमरीका से आनेवाले आर्थिक शरणार्थियों से है। हाँ, तीन अन्तर तो हैं–– नंगा जुनून भारत में लगभग सभी टीवी चैनलों में अब पहले से ज्यादा आम हैय 2019 में भाजपा की मशीनरी को तेल पिलाने के लिए जो पैसा बहाया गया उसके स्रोत अमरीका से कहीं ज्यादा पोशीदा हैं जबकि ये रकम वहाँ से कहीं ज्यादा हैंय और संघ परिवार आज जिस कम तीव्रता वाली मगर अन्तहीन हिंसा का नियमित रूप से सहारा ले रहा है वह ट्रम्प की बर्बरताओं से कहीं आगे है।
मुझे क्या 2019 के नतीजों से कोई तअजजुब हुआ? जी हाँ, जैसे 2014 के नतीजों से हुआ था। मैं रोजमर्रा की चुनावी राजनीति का कोई अध्येता नहीं हूँ। इस चुनाव के बारे में मेरे अपने अन्दाजे बहुत कुछ वामपंथी और उदार वामपंथी स्रोतों से मिलनेवाले अनुमानों पर आधारित थे। और आप जानते ही हैं कि ये अनुमान क्या थे–– 19–20 के फर्क के साथ सम्भवत: एक त्रिशंकु संसद। जब मैं उन फौरी अनुमानों के असर से बाहर आया तो अपने ढाँचागत विश्लेषण की ओर फिर से प्रवृत्त हुआ।
धर्मनिरपेक्षता : हमेशा अल्पमत का रुख
मैंने हमेशा इस बात पर जोर दिया है कि धर्मनिरपेक्षता से सच्ची प्रतिबद्धता किस तरह भारतीय समाज और राजनीति में हमेशा एक अल्पमत का रुख रही है, कि भारतीय समाज अब किस तरह हिन्दुत्व के साँचे में बहुत अधिक ढल चुका है, किस तरह साम्प्रदायिक हिंसा भाजपा और उसके सहयोगियों को भारी चुनावी लाभ दिलाती है, किस तरह चुनाव आयोग और उच्चतर न्यायपालिका समेत भारतीय राजसत्ता की सभी अहम संस्थाएँ घिस रही हैं और भाजपा के हितों को अधिकाधिक पूरा कर रही हैं। 2014 के चुनावों के बाद 2015 में मैंने व्यापकतर प्रवृत्तियों पर एक अधिक धारणात्मक लेख लिखा था जिसे सोशलिस्ट रजिस्टर ने 2016 में छापा था। वह लेख फिर ब्रिटेन और भारत में कुछ दूसरी जगहों पर भी छपा और अब उसे फ्रंटलाइन ने इण्डिया : लिबरल डेमोक्रेसी एण्ड द एक्सट्रीम राइट, 7 जून 2019, प्रकाशित किया है। उसके बाद जो कुछ हुआ है वह उन्हीं प्रवृत्तियों का तीव्र रूप है जिनकी पहचान तब मैंने भारतीय राजनीति की प्रमुख विशेषताओं के रूप में की थी।
उन दिनों मैंने कहा था कि एक ओर कांग्रेस और दूसरी ओर वामपंथ का चुनावी ह्रास कम से कम उतना अहम जरूर था जितना लोक सभा में भाजपा को मिला बहुमत था। मैंने कहा था कि मोदी वे पहले प्रधानमंत्री हैं जिनको चुनावों के रंग पकड़ने से पहले ही बड़े पूँजीपति सेठों का लगभग मुकम्मल समर्थन हासिल हो चुका था और यह कि उन्होंने न सिर्फ भारतीय राजनीति को अमरीकी तर्ज की राष्ट्रपति व्यवस्था अपनाने की ओर धकेला था, बल्कि अपने चुनाव में लगभग उतनी ही रकम खर्च की थी जितनी पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने चुनाव में खर्च की थी। कुछ बेहद पारखी नजर वाले छात्रों से भी गालिबन जो बात चूक गयी, यह थी कि कॉर्पोरेट सेक्टर से जो रकम उन्होंने जमा की और आगे भी जमा करते रहने की उम्मीद रखते हैं उसने उनको संघ से, विश्व हिन्दू परिषद से, बल्कि भाजपा से भी, काफी–कुछ स्वतंत्र बना दिया है क्योंकि अब उनके पास इतनी रकम है कि वे अपनी वफादारी के ढाँचे में उस काडर को भी खींच सकते हैं जो संघ ने भाजपा को चुनाव–अभियानों के लिए दिया था, भाजपा के दरम्यानी दर्जे के पदाधिकारियों की बात तो रहने ही दीजिए कि उनको भी पैसे से खरीदा जा सकता है। मोदी–शाह जोड़े की अपनी दुनिया में उनकी अजेय शक्ति का कम से कम आंशिक कारण वह कारू का खजाना है जो आज उनके नियंत्रण में है।
मैंने तब विस्तार से यह तर्क दिया था कि संघ बहुत पहले ही एक रणनीति स्वीकार कर चुका था जिसके अनुसार वह उदारवादी संस्थागत ढाँचों को तो अपनाएगा मगर अन्दर से राज्य की संस्थाओं पर कब्जा करके सत्ता पाने के लिए संघर्ष करता रहेगा। 1960 के दशक के एक मशहूर वामपंथी नारे को विडम्बना के साथ याद करते हुए तब मैंने इसे “संस्थाओं के रास्ते लम्बी कूच” का नाम दिया था। एक और भी व्यापक स्तर पर मैंने तर्क दिया था कि धुर दक्षिणपंथ की परियोजनाओं और उदारवादी संस्थागत ढाँचों के बीच कहीं कोई बुनियादी अन्तर्विरोध नहीं हैय संघ इन संस्थाओं पर कब्जा करके उनके जरिये भी शासन कर सकता है। उस पहले वाले विश्लेषण की यह और बहुत सी दूसरी प्रस्थापनाएँ अब भी मेरे लिए ऐसे विचार हैं जिनको विकसित करके इसका विश्लेषण भी किया जा सकता है कि आज हम कहाँ खड़े हैं। इसलिए, और पिछले कुछ बरसों के दौरान कही गयी बातों के आधार पर, मुझे तरह–तरह के चुनावी धोखेबाजियों पर कोई हैरानी नहीं हुई और न इस तथ्य पर हुई कि भारतीय राजसत्ता की हर प्रमुख संस्था ने संघ–भाजपा से मिलीभगत की और उनको प्रतिकूल परिणामों से बचाये रखा। राजसत्ता पर काफी हद तक कब्जा किया जा चुका है–– अन्दर से।
तल्ख सच्चाइयाँ
एक अधिक पेचीदा विश्लेषण कभी बाद में। लेकिन कुछेक तल्ख बातें तो कहनी ही होंगी। पहली बात यह है कि आज भाजपा वास्तव में अकेली राष्ट्रीय पार्टी है और उस संरचना में मोदी–शाह जोड़ा एक स्थिर केन्द्र की हैसियत रखता है। दूसरे, वामपंथ को छोड़ दें तो कांग्रेस समेत आज कोई राजनीतिक पार्टी ऐसी नहीं जिसके लिए धर्मनिरपेक्ष सभ्याचार के सवाल पर सामूहिक संघर्ष उसके अपने संकीर्ण हितों और कॉर्पोरेट हितों से अधिक महत्त्वपूर्ण हो। इस मान्यता का एक गौण निष्कर्ष यह है कि “धर्मनिरपेक्ष दलों” जैसी कोई चीज नहीं जिससे वामपंथ अपने आपको भरोसे के साथ जोड़ सके। उनमें से हरेक के लिए धर्मनिरपेक्षता बारात का लिबास है और इस सवाल पर वामपंथ का अलगाव मुकम्मल है। तीसरे, कांग्रेस का पतन अब पक्की बात है और उसकी वापसी के लिए कुछ अहम तब्दीलियों की जरूरत होगी जो फिलहाल नजर नहीं आती हैं।
चैथे, उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों से पता चलता है कि मजहबी जुनून की सियासत और जातिगत राजनीति के खंडित दायरे में समाजी इंजीनियरिंग का मेल इतना जबरदस्त हो सकता है कि वह राज्य में जातिगत राजनीति के दो प्रमुख प्रतिनिधियों, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की मिली–जुली शक्ति को भी धूल चटा सके। गाँधी से लेकर आरएसएस तक का सपना यही रहा है कि रियायतों की एक व्यवस्था के जरिये जातियों के विरोधों को व्यापकतर हिन्दू समाज के दायरे में नियंत्रित रखा जा सकता है। यूँ कह लीजिए कि यह ऊँची और निचली जातियों के सह–अस्तित्व के लिए मझोली जातियों वाला समाधान है! इस सवाल पर गुजरात से लेकर उत्तर–पश्चिम तक आरएसएस ने जो कामयाबियाँ हासिल की हैं उनमें उत्तर प्रदेश के परिणाम बस सबसे हाल के हैं। हमें अपने इस रूढ़ विचार को दोबारा परखना होगा कि जाति का सवाल किसी न किसी तरह हिन्दुत्व की परियोजना को मात देगा।
आखिरी बात। मुक्ति और पुनर्निर्माण की सम्भावना के किसी भी दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में पश्चिम बंगाल में वाम–समर्थक मतों में गिरावट और लगता है इन मतों का काफी बड़ा हिस्सा भाजपा की ओर खिसक गया है, 2019 का गालिबन सबसे दिलशिकन हादसा है। यह कोई पहला मौका नहीं है और न पश्चिम बंगाल कोई पहला स्थान हैं जहाँ हमने यह देखा हो कि उदारवादी राजनीति की बर्बरताएँ और पाखण्ड इस धरती के कीटपुत्रों के लिए कितने जानलेवा हो सकते हैं। ये वंचित, हताश और अभावग्रस्त लोग क्या करें जब उनका सामना भौतिक अभावों से हो और वे तृणमूल कांग्रेस और भाजपा जैसी अपराधी राजनीतिक शक्तियों की आपसी गोलाबारी के बीच फँस जायें? चुनावों से पहले मैंने कहा था कि उदारवादी राजनीति के इन खण्डहरों में वामपंथ इस तरह अलग–थलग पड़ा है कि उसे अब सिर्फ जीवनरक्षा के लिए भी सख्त लड़ाई लड़नी होगी। अब जबकि चुनावी नतीजे आ चुके हैं, स्थिति और भी कठोर बन गयी है।
वामपंथ की भूमिका
इतना सब कहने के बाद अब मैं भारत में वामपंथ के बारे में तीन बातों पर जोर देना चाहूँगा। एक, उसके पास राजनीतिक अनुभव और सांगठानिक गहराई का जो सरमाया है वह एकदम बेजोड़ है। कोई अगर यह सोच रहा हो कि सामाजिक आन्दोलन, गैर–सरकारी संगठन और यहाँ–वहाँ के छोटे–छोटे समूह उस जगह को भर देंगे जहाँ से वामपंथ को धकेलकर निकाला जा रहा है, तो ये तो होनेवाला ही नहीं है। दूसरे, वामपंथ भारत में अकेली राजनीतिक शक्ति है जिसके पास गरीबों के और पूरे मजदूर वर्ग के दृष्टिकोण से इतनी सुगठित दृष्टि और व्यापक सामाजिक समझ है। तीसरे, भारत के बौद्धिक और कलात्मक जीवन में वामपंथ की उपस्थिति इतनी असाधारण है कि कोई और राजनीतिक शक्ति उसके आसपास भी नहीं पहुँचती। तो बुनियादी संसाधन अपनी जगह पर हैं, भले ही पुनर्निर्माण के लिए भी बेपनाह मेहनत की दरकार हो।
तो पिछले पाँच बरसों में जो कुछ हुआ है, उसे देखते हुए 2019 के चुनावों के बारे में वाकई कोई हैरानी की बात नहीं है–– यह सम्भावना भी नहीं कि अगले पाँच बरस और भी भयानक हो सकते हैं। हमारी आजादी ने जिस दौर की शुरुआत की थी वह अब खत्म होता हुआ लग रहा है और नौजवानों को अब विरासत में ऐसा देश मिलेगा जो बुरी तरह टूटा–फूटा है और जिसे बुनियाद से ही फिर से बनाने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं होगा।
मोदी काल में हिन्दुत्व का दक्षिणपंथी हमला नयी ऊँचाइयों को छूने लगा है। भीड़ के हमले, निर्मम हत्याएँ, कत्ल की योजनाएँ, दक्षिणपंथी समूहों द्वारा विरोध के सुरों का दमन, देश में पिछले पाँच बरसों में ये सब आये दिन की बातें हैं और यह सिलसिला जारी है। आप उनका विश्लेषण कैसे करेंगे?
इनके बढ़ने के बारे में आपकी बात यकीनन सही है, लेकिन इनको एक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। हमारे गणराज्य का जन्म एक घोर साम्प्रदायिक नरसंहार के और मानव–इतिहास में धर्म के आधार पर आबादी के सबसे बड़े तबादले के बीच हुआ था जब हिन्दू और सिख पाकिस्तान से निकले और मुसलमान भारत से निकले। साम्प्रदायिक हिंसा तभी से हमारे बीच रही है, बल्कि आजादी और विभाजन के पहले से रही है। बेशक ऐसे करोड़ों भारतवासी हैं जो सामाजिक जीवन में सहिष्णु और राजनीतिक आचरण में धर्मनिरपेक्ष हैं। लेकिन यह भी याद रहे कि एक जाति–आधारित और धर्मभीरु समाज कितना सहिष्णु और धर्मनिरपेक्ष हो सकता है, इसकी भी सीमाएँ हैं। यह तो रही पहली बात।
दूसरी बात यह है कि 1980 के दशक के मध्य से ही हमने बार–बार देखा है कि साम्प्रदायिक हिंसा भारी सांस्कृतिक और चुनावी लाभ दिलाती है। देश की राजधानी में हजारों सिखों के कत्ल ने हिन्दू राष्ट्र को एकजुट कर दिया और कांग्रेस को सांसदों की सबसे बड़ी संख्या दिलाई। इस बहुसंख्यक हिन्दू को कांग्रेस से दूर करने और संघ परिवार की तरफ लाने के लिए ही रामजन्मभूमि आन्दोलन शुरू किया गया। इस आन्दोलन के कोई पाँच बरस बाद, जिसमें हिंसा की होमियोपैथिक खुराकें भी शामिल थीं, भाजपा लोक सभा में दो सीटों से उछलकर 89 तक जा पहुँची। उसके बाद रथयात्राओं और खून की नदी के दो बरस बाद भाजपा 120 तक चली गयी। फिर बाबरी विध्वंस के बाद हुए पहले चुनाव में उसे लोक सभा में काफी सीटें, 161, मिलीं और उसने केन्द्र में एक अल्पजीवी सरकार बनायी।
इस रेकॉर्ड को देखते हुए संघ के लिए उस साम्प्रदायिक हिंसा से हाथ धो लेना राजनीतिक मूर्खता ही होगी जिससे उसका चोली–दामन का साथ रहा है। यहाँ मैं यह भी कह दूँ कि 2002 के गुजरात नरसंहार से पहले मोदी एक छुटभैये थे। इस कत्ले–आम के बाद उनको और अमित शाह को, पहले राज्य और फिर केन्द्र के स्तर पर, कोई रोकनेवाला नहीं रहा। हो सकता है कि चुनावी गणित में उसे कभी–कभार वक्ती झटका लग जाये, लेकिन 1980 के दशक के मध्य के बाद संघ परिवार की शक्ति और प्रतिष्ठा में इजाफा ही हुआ है।
बात सिर्फ यह नहीं है कि केन्द्र और राज्य के स्तर पर संघ परिवार की शक्ति बढ़ती ही आई है, बल्कि वह राष्ट्र का सामाजिक और सांस्कृतिक मिजाज बदलने में भी कामयाब रहा है। भारत 20 साल पहले के मुकाबले आज कहीं बहुत अधिक हिन्दुत्वमय है और यह बात संघ के रंगरूटों पर उतनी ही लागू होती है जितनी धनी किसानों पर, यहाँ तक कि देश के बड़े–बड़े भागों में निचली जातियों पर भी।
मिसाल के लिए वाजपेयी सरकार ने अपने आरंभिक दिनों में गोमांस पर पाबन्दी लगाने की कोशिश की मगर संसद में हंगामे के बाद उसे पीछे हटना पड़ा। मोदी–शाह सरकार ने इसी को किसी खास विरोध के बिना लागू कर दिया। संघ अपने एजेण्डा का काफी भाग लागू करने में कामयाब रहा है। वाजपेयी के मुकाबले, बल्कि आडवाणी के मुकाबले भी जिन्होंने संसद में एक छोटी सी पार्टी के नेता के रूप में एक लम्बा समय बिताया, मोदी से लेकर योगी तक नेताओं का नया समूह कहीं बहुत ज्यादा अक्खड़ और खून का प्यासा है। विपक्ष के बिखराव के बारे में तो मुझे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है। संक्षेप में, संघ के बदतरीन तत्व ठीक उस समय सत्ता में आये हैं जब भाजपा अपनी चुनावी शक्ति के चरम पर है। तो जो कार्यनीति उनको सत्ता में ले आई उसे भला वे क्यों छोड़ने लगे?
आप उन बुद्धिजीवियों में पहले थे जिन्होंने बाबरी विध्वंस के सन्दर्भ में देश में फासीवाद के उभार की चेतावनी दी थी। आपका व्याख्यान, जो बाद में एक लेख फासिज्म एण्ड नेशनल कल्चर : रीडिंग ग्राम्सी इन द डेज ऑफ हिन्दुत्वा, की शक्ल में प्रकाशित हुआ, भारत में हिन्दुत्व के फासीवाद के उभार पर एक उम्दा लेख था। उसमें आपने लिखा था कि “हर देश को वह फासीवाद मिलता है जिसका वह पात्र है।” तो क्या भारत को उसका फासीवाद मिल चुका है?
जी हाँ, वह मेरी आरंभिक प्रतिक्रिया थी और उन दिनों मैं “फासीवाद” शब्द का कुछ ज्यादा ही इस्तेमाल करता था। लेकिन उस शुरुआती घड़ी के बाद मैंने बहुत सी सावधानियाँ बरतीं। मैं अभी भी मानता हूँ कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस एक फासीवादी कारनामा था और यह कि आरएसएस में क्लासिक फासीवाद की बहुत सी विशेषताएँ पायी जाती हैं। लेकिन मैं संघ और उसके जन–राजनीतिक मोर्चे यानी भाजपा में, जो एक अलग किस्म की पार्टी है, अन्तर भी करता हूँ। इस पार्टी पर कोई ठप्पा लगाने से पहले उसकी ढाँचागत नवीनता को समझने के लिए हमें बहुत सटीक द्वन्द्ववादी पद्धति अपनानी होगी। आपने मेरे जिस व्याख्यान/लेख का हवाला दिया वह अयोध्या विध्वंस के कुछ ही बाद लिखा गया था। लेकिन वह “हिन्दुत्व के फासीवाद के उभार” पर नहीं था जोकि आपने इसे कहा। बल्कि यह संकट की एक विशेष घड़ी में भारत के अन्दर किया गया एक मनन था और एक विशेष समस्या पर था जिसे ग्राम्शी ने अपने सामने रखा था। 1920 में इतालवी वामपंथ अपेक्षाकृत छोटे और बिखरे हुए फासीवादी दल के मुकाबले कहीं बहुत अधिक शक्तिशाली था। तीन साल बाद, जर्मनी में नाजियों के सत्ता में आने से बहुत पहले ही, बेनिटो मुसोलिनी सत्ता में था और 1926 तक उसे निरंकुश सत्ता प्राप्त थी जबकि एक राजनीतिक शक्ति के रूप में वामपंथ खत्म हो चुका था। उसी सन्दर्भ में ग्राम्शी ने खुद से पूछा–– हमारे इतिहास और समाज में क्या ऐसा है, हमारे देश के बुर्जुवा राष्ट्रवाद में क्या ऐसा था कि फासीवाद को इतनी आसानी से जीत और वामपंथ को इतनी आसानी से मात मिली? प्रिजन नोटबुक का एक बहुत बड़ा हिस्सा इटली के इतिहास पर, उस इतिहास में वेटिकन के स्थान पर, रिसोर्गिमेंटो और इटली के एकीकरण पर, इतालवी पूँजीपति वर्ग और उसके औद्योगिक नगरों के बौनेपन पर, लोक साहित्य, आदि, आदि पर किया गया मनन है, ताकि लोकचेतना के ढर्रों को समझा जा सके। मैंने भारत के बारे में इसी तरह के प्रश्न उठाने की कोशिश की। उस लेख के सिलसिले में समस्या यह है कि वह काफी–कुछ सादृश्य–चिन्तन पर आधारित है जोकि चिन्तन का एक बहुत घटिया रूप है। जल्द ही मैंने इतालवी फासीवाद पर एक बहुत लम्बा लेख लिखा जो मुझे अधिक पसन्द है।
जब मैंने लिखा कि “हर देश को वह फासीवाद मिलता है जिसका वह पात्र है” तो मेरे मन में जर्मनी और इटली का, इटली या जर्मनी और स्पेन का अन्तर था जिसका मतलब तब यह था कि अगर कभी भारत में फासीवाद आया तो वह किसी और से बिलकुल अलग, हमारे अपने इतिहास और समाज की उपज होगा। आपने पूछा कि क्या भारत में फासीवाद आनेवाला है। जवाब है–– “नहीं!” फासीवाद की जरूरत न तो भारतीय पूँजीपति वर्ग को है न आरएसएस को। विश्वयुद्धों के बीच यूरोप में अलग–अलग तरह के फासीवाद उन देशों में आये जहाँ मजदूर वर्ग का आन्दोलन बहुत शक्तिशाली था और एक कम्युनिस्ट क्रान्ति की भारी सम्भावना थी। भारत में ऐसी कोई स्थिति नहीं है। साम्प्रदायिक हिंसा चाहे जितनी ही घिनावनी या नियमित हो, वह फासीवाद नहीं है। क्या आरएसएस और उसके बहुत से असंसदीय मोर्चा संगठनों में कुछ फासीवादी लक्षण पाये जाते हैं? हाँ, पाये जाते हैं। लेकिन वो तो दुनिया भर में धुर दक्षिणपंथ के दूसरे बहुत से आन्दोलनों और दलों में भी पाये जाते हैं। 1880 के दशक से ही एक फासीवादी रुझान पूँजीवादी राजनीति का अंग रहा है। लेकिन बहुत थोड़े से राज्यों और राजनीतिक दलों को सही मानों में फासीवादी कहा जा सकता है।
आपने कहा कि भारत में संघ परिवार जैसी दक्षिणपंथी शक्तियों के लिए उदारवादी राजनीतिक ढाँचे को पूरी तरह ध्वस्त और नष्ट करना आवश्यक नहीं है? इसके बजाय वे इसके अन्दर काम करके इनका इस्तेमाल कर सकती हैं। क्या हमारी लोकतांत्रिक परम्परा और उदार राजनीतिक व्यवस्था इतनी मजबूत हैं कि दक्षिणपंथी सर्वाधिकारवादी प्रवृत्तियों के आगे लड़खड़ाये बिना उदार लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था को कायम रख सकें?
संविधान के कुछ पहलुओं को बदलना उदारवादी व्यवस्था को नष्ट करना नहीं होता। अमरीकी संविधान में बहुत से संशोधन हुए हैं। किसी संविधान में नये तत्व लाने के लिए कुछ संसदीय तरीके होते हैं। हो सकता है आपको या मुझे वे परिवर्तन पसन्द न हों, पर जब तक इन संसदीय तरीकों को जारी रखा जाता है तब तक उदारवादी व्यवस्था कायम रहती है। आप इस बात को समझें कि मैं लोकतंत्र का भारी समर्थक हूँ पर उदारवाद मुझे नापसन्द है। मैंने तो बल्कि लोकतंत्र के उदारीकरण की भर्त्सना करते हुए एक लेख भी प्रकाशित कराया है। पिछले पाँच बरसों का एक बहुत भयानक विकासक्रम यह रहा है कि भाजपा उदारवादी व्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों, जैसे न्यायपालिका का, चुनाव आयोग का और बिना शक इलेक्ट्रोनिक मीडिया के एक बड़े भाग का, प्रमुख टीवी चैनलों आदि का समर्थन पाने में कामयाब रही है। हमारा लोकतंत्र हमेशा से कमजोर रहा है और जो कुछ शक्ति उसमें थी वह रफ्ता–रफ्ता कम हो रही है। प्रसंगवश, मुझे “सर्वाधिकारवादी” शब्द से चिढ़ है। इसको कम्युनिस्ट देशों की निन्दा के लिए और फिर यह जताने के लिए गढ़ा गया था कि कम्युनिज्म और फासीवाद एकसमान सर्वाधिकारवादी हैं।
बीसवी सदी के उपनिवेशी सन्दर्भ में आप आरएसएस और हिन्दुत्व की राजनीति के उदय को कैसे देखते हैं? आपने पहले लिखा था कि युद्धों के बीच के दौर में उसी तरह की प्रतिक्रान्तिकारी शक्तियाँ, मिसाल के लिए मुस्लिम ब्रदरहुड, दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में सामने आयीं। उनके उदय का कारण क्या था? उनका चरित्र समान कैसे है?
किसी सन्तोषजनक उत्तर के लिए बहुत समय और स्थान की आवश्यकता होगी। संक्षेप में तीन बातें कही जा सकती हैं। पहली, खुद यूरोप में क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति, बुद्धिसंगत और बुद्धिविरोधी, राष्ट्रवाद की धर्मनिरपेक्ष परिभाषाओं और राष्ट्रवाद की नस्ली या धर्म पर आधारित परिभाषाओं, तरह–तरह की उदारवादी संस्थाओं और तरह–तरह के सर्वाधिकारवादों आदि के बीच संघर्षों का एक बहुत लम्बा इतिहास रहा है। उपनिवेशवाद इस पूरे तामझाम को उपनिवेशों में ले आया और ये टकराव हमारे समाजों में भी आम हो गये। इसलिए हिन्दू राष्ट्रवाद या मुस्लिम राष्ट्रवाद में कुछ भी खासुल–खास भारतीय नहीं है। वे यूँ कहिए कि उस फ्रांसीसी प्रतिक्रान्तिकारी परम्परा के मात्र उपनिवेशी संस्करण हैं जो फ्रांसीसी क्रान्ति से इसलिए नफरत करती थी कि उसने राजतंत्र का और कैथलिक चर्च के विशेषाधिकारों का उन्मूलन कर दिया था। धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ साम्प्रदायिक हिंसा और कुछ नहीं, यूरोपीय यहूद–विरोध का ही एक उपनिवेशी संस्कारण है।
दूसरे, हिन्दू महासभा और मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठन यूरोप के फासीवादी आन्दोलनों से बखूबी परिचित थे और अंशत: उनसे कुछ सीख भी रहे थे–– मिसाल के लिए, सावरकर ने कहा था कि हिन्दुओं को मुस्लिम समस्या का वैसे ही समाधान करना चाहिए जिस तरह नाजियों ने जर्मनी की यहूद–समस्या का समाधान किया था, अर्थात नरसंहार के द्वारा। तीसरे, इस या उस देश में, इस या उस काल में, ऐसे आन्दोलनों के उदय, सफलता या असफलता के अमूमन हर देश में बहुत अलग–अलग कारण होते हैं। ऐसे सवालों पर बहुत अधिक सामान्यीकरण बहुत भ्रामक भी हो सकता है।
धर्मनिरपेक्षता का विचार कितना अहम है?
धर्मनिरपेक्षता सभी सन्दर्भों में एक उम्दा विचार है। हमारे लिए इस पर कायम रहना जरूरी है। लेकिन हिन्दुत्व के बहुसंख्यकवाद के खिलाफ संघर्ष में तमाम तरह के दूसरे विचारों की भी आवश्यकता है। कांग्रेस छाप धर्मनिरपेक्षता और भाजपा छाप बहुसंख्यकवाद एक ऐसी व्यवस्था में परस्पर टकरा रही विचारधाराएँ हैं जो दमन और शोषण के बेहद निर्मम रूपों पर आधारित है। भारत में चुनावी राजनीति बड़ी हद तक जाति, धर्म और सम्पत्ति के विभिन्न रूपों से संचालित होती है। धर्मनिरपेक्षता का विचार प्रबोध–काल के नारे “समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व” पर आधारित है। धर्मनिरपेक्षता का सम्बन्ध “बंधुत्व” की एक अधिक व्यापक श्रेणी से है। क्या एक जाति–आधारित समाज में “बंधुत्व” सम्भव है? अगर नहीं तो वह समाज क्या बामानी ढंग से धर्मनिरपेक्ष हो सकता है? “बंधुत्व” क्या “समानता” के बिना सम्भव है–– यानी कि क्या समाजवाद के बिना लोकतंत्र सम्भव है? बोल्शेविक क्रान्ति को तो छोड़िए, फ्रांसीसी क्रान्ति से भी बहुत पहले रूसो ने इसका उत्तर दिया था–– जो लोग भौतिक वस्तुओं की सुलभता के सिलसिले में असमान हैं वे कानून की नजरों में कभी समान नहीं हो सकते। जैसा कि हम जानते हैं, कम्युनिज्म का विचार सबसे पहले फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान ही उपजा था जिसने धर्म की शक्ति के विरोध में धर्मनिरपेक्षता का विचार पेश क्या था और जो बैब्योफ के “कांस्पिरेसी ऑफ द इक्वल्स” को, एक सच्चे कम्युनिस्ट संगठन को सामने लाया था। इस कम्युनिस्ट रुझान को मात मिली थी और इसलिए हमारे पास सिर्फ धर्मनिरपेक्षता और उदारवाद ही बचे। तो आज 200 साल बाद भी सवाल अपनी जगह है–– क्या उदारवाद धर्मनिरपेक्षता को सुरक्षित रख सकता है? क्या समाजवाद के बिना धर्मनिरपेक्षता सम्भव है?
मेरा उत्तर है–– नहीं! स्वयं उदारवादी फ्रांस में और पूरे उदारवादी यूरोप में यहूद–विरोध और इस्लाम के हव्वा के इतिहासों को देखिए। तो यह रहा आपके सवाल के बारे में–– धर्मनिरपेक्षता का विचार बहुत ही अहम है। लेकिन यह विचार भौतिक जगत में साकार हो सके, इसके लिए एक सच्चे समाजवादी समाज का होना आवश्यक है। आज के भारत में इस विचार पर सच्चा अमल नामुमकिन है। हमें पता है कि बहुसंख्यकवाद कितना जहरीला विचार है। लेकिन हम अकसर भूल जाते हैं कि उदारवाद ने हमेशा धर्मनिरपेक्षता को धोखा दिया है और आगे भी देता रहेगा।
दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में वामपंथी आन्दोलन आज जोर पकड़ रहा है। फिर भी भारत में वामपंथ को 2019 के चुनाव में भारी धक्का लगा। तो भारत के मौजूदा सन्दर्भ में वामपंथी राजनीति की क्या प्रासंगिकता है?
सवाल अगर “दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों” का है तो इसका दारोमदार इस पर है कि “वामपंथ” से आपकी मुराद क्या है और आप दुनिया के किस हिस्से की बात कर रहे हैं? इसका रेकॉर्ड एकसमान नहीं है। लातीनी अमरीका का वामपंथ–– कथित “गुलाबी उभार”–– आज बड़ी हद तक पस्त हो चुका है। दक्षिण अमरीका का सबसे बड़ा देश ब्राजील, लूला का ब्राजील, आज एक धुर दक्षिणपंथी शासन के नीचे है जिसे मोदी के भारत से भी ज्यादा बर्बर कहा गया है। यही हाल इक्वाडोर का है। अर्जेंटीना थोड़ा कम बर्बर शासन के अन्तर्गत है लेकिन दो पिछली सरकारों के तहत वह मजदूर वर्ग को हासिल उपलब्धियों को पलटने पर आमादा है। वेनेजुएला में शाविस्ता सरकार और आन्दोलन अभी बचे हुए तो हैं पर अमरीका की लगायी हुई पाबंदियों और फन्दों के चलते नाकाबिले–जिक्र तकलीफों से कराह रहा है। दूसरी ओर यूरो–अमरीकी प्रभावक्षेत्र के कुछ अहम देशों की दक्षिणपंथी सरकारों को वामपंथ से चुनौतियाँ मिल रही हैं और अमरीका में सरकार को धुर दक्षिणपंथ से चुनौती मिल रही है। इसे भी एक परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है।
अमरीका में बर्नी सैण्डर्स को सही मानों में शायद ही समाजवादी कहा जा सके। वे बहुत शिष्ट स्वभाव के न्यू डील डेमोक्रेट हैं–– मजदूर वर्ग के लिए न्यूनतम मजदूरी में इजाफा, जन–स्वास्थ्य की कनाडा और पश्चिमी यूरोप से मिलती–जुलती प्रणाली और इसी तरह के दूसरे सुधार–– जो बहुत हलके किस्म के सामाजिक जनवाद के करीब पहुँचते हैं। ब्रिटेन में जेरेमी कोर्बिन आज भी वही है जो हमेशा रहे हैं–– लेबर पार्टी 1950 और 1960 के दशकों में जो कुछ हुआ करती थी उसके बाएँ बाजू के नुमाइन्दे। फ्रांस में हमेशा की मध्यमार्गी पर अब भ्रष्ट हो चुकी सोशलिस्ट पार्टी के भूतपूर्व सदस्य ज्यां–लुक मेलांशों ने फ्रांस में 30 साल या अधिक के दौरान पिछले राष्ट्रपति पद की राजनीति में कुछ अधिक मूलगामी कार्यक्रम लेकर उल्लेखनीय प्रदर्शन किया। उन सबको किसने रोका था? सैण्डर्स के मुआमले में डेमोक्रेटिक पार्टी के बड़े नेताओं ने, कोर्बिन के सिलसिले में लेबर पार्टी के ब्लेयरवादी धड़े ने और फ्रांस में मेलांशों के साथ हाथ मिलाने से अब काफी सिकुड़ चुकी सोशलिस्ट पार्टी के इनकार ने। संक्षेप में, नर्म किस्म के समाजवादी वामपंथ को सुस्थापित उदारवादियों के धोखे ने। वही पुरानी कहानी!
मारक घड़ी
भारत में वामपंथ हमेशा से भारी घाटे का शिकार रहा है। भारतीय राजनीति में आरएसएस के चुनावी उत्थान के आरम्भ से ही, जो वास्तव में पीछे आपातकाल से जुड़ा हुआ है और जिसे हमारे वर्तमान की मजबूरियों से बल मिला, वामपंथ के बहुत से लोग इस बात को भुला ही बैठे कि तेलंगाना में कम्युनिस्टों के खिलाफ किसने फौज भेजी और केरल में दुनिया की पहली चुनी हुई (कम्युनिस्ट) सरकार को किसने भंग किया। चुनावी राजनीति में ऐसे मोड़ भी आते हैं जब किसी को इस या उस विरोधी से हाथ मिलाना पड़ता है, पर जरूरत उन विरोधियों की फितरत को याद रखने की होती है। यहाँ समाजवादियों के जिक्र की–– जेपी, राममनोहर लोहिया और उनके चेलों के जिक्र की जरूरत ही नहीं जो कांग्रेस से ज्यादा कम्युनिस्टों से नफरत करते थे। आपातकाल में पानी जब सर तक आ गया तो जेपी ने एक आपातकाल–विरोधी गठबंधन कायम करने के लिए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बजाय संघ से हाथ मिलाना बेहतर समझा। इस तरह उन्होंने जनता पार्टी की उस सरकार का दक्षिणपंथी चरित्र सुनिश्चित कर दिया जो आपातकाल समाप्त किये जाने के बाद बनी थी–– यह एक ऐसी घड़ी थी जो आनेवाले कई दशकों तक भारतीय राजनीति के लिए मारक साबित हुई। वही समय था जब समाजवादियों और कांग्रेस से टूटे हुए लोगों, मसलन मुरारजी देसाई और उनके गिरोह की मदद से आरएसएस सत्ता में आया। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा भी उसी 1977 में सत्ता में आया, इस सच ने इस बात की पर्दापोशी की कि लगभग उन्हीं दिनों में वामपंथ का राजनैतिक अलगाव भी आरम्भ हुआ।
तो अब मैं वामपंथ की भूमिका पर आपके सवाल की ओर पलटता हूँ। चूँकि हम भाजपा और हिन्दुत्व के बहुसंख्यकवाद पर बात कर रहे थे, इसलिए मैं आपको उसी सवाल के हवाले से जवाब दूँगा। मेरी राय में भारत में कम्युनिस्ट वामपंथ ऐसी अकेली शक्ति है जो देश में एक धर्मनिरपेक्ष समाज और शासन के लिए घोर प्रतिबद्ध है। सभी क्षेत्रीय दलों ने संघ के राजनीतिक मंच यानी भाजपा से कभी न कभी सहयोग किया है। जैसाकि मैं कह रहा था, जेपी आन्दोलन और आरएसएस उन इंदिरा–विरोधी, आपातकाल–विरोधी आन्दोलनों में सहयोगी थे जिसके कारण जनता सरकार बनी जिसमें जनसंघ सबसे बड़ा और सबसे शक्तिशाली धड़ा था। आजादी से पहले भी महात्मा की अपनी कांग्रेस पार्टी में एक ताकतवर साम्प्रदायिक धड़ा मौजूद हुआ करता था। हिन्दू साम्प्रदायिकता भारतीय समाज और राजनीति में हमेशा एक प्रमुख धारा रही है।
आजादी के बाद के कुछ दशकों में धर्मनिरपेक्ष धारा का वर्चस्व रहा जिसका आंशिक कारण देश के अनेक भागों में कम्युनिस्ट आन्दोलन की शक्ति और प्रतिष्ठा थी और आंशिक कारण यह था कि एक बड़ी सीमा तक जवाहरलाल नेहरू और उनके थोड़े से सहयोगियों के असर से खुद शासक कांग्रेस पार्टी ने अपने आपको इस धारा से जोड़ रखा था, खासकर 1950 में वल्लभभाई पटेल के निधन के बाद। कांग्रेस का यह चरित्र आपातकाल के बाद, इंदिरा गाँधी के जीवनकाल में ही घिसने लगा था। बाबरी मस्जिद के सवाल पर संघ परिवार का जमकर सामना करने से नरसिंह राव के इनकार के समय तक वामपंथी पार्टियों को छोड़ सभी दलों के अभिजात नेताओं के बीच गुप्त सहमति का एक लम्बा–चैड़ा ढाँचा तैयार खड़ा था। आपको याद होगा कि इन अभिजात नेताओं ने संसद को गुजरात नरसंहार पर चर्चा तक करने नहीं दिया था। वैसे मैं समझता हूँ कि पूरे देश में हिन्दुत्व के उपदेशों और योजनाओं का पूरा पैकेज हिन्दू मध्य वर्ग को पहले के मुकाबले आज कहीं बहुत अधिक स्वीकार्य है और केरल या बंगाल भी अपनी लम्बी कम्युनिस्ट परम्पराओं के बावजूद इससे सुरक्षित नहीं हैं। इसलिए वामपंथ जो कुछ कर सकता है वह तो उसे करना ही होगा, हालाँकि उसके विकल्प बहुत सीमित हैं। केरल में संघ और पश्चिम बंगाल में तृणमूल के हाथों उसे साल–दर–साल जिस हिंसा का सामना करना पड़ रहा है उसे तो देखिए। आरएसएस के हाथों और उदारवादियों के हाथों भी, भारतीय राजनीति का ऐसा पतन हुआ है कि वामपंथ को सबसे पहले अपने बचाव के लिए लड़ना होगा और फिर उसे, जहाँ तक हो सके, भारतीय राजनीति को बुद्धिसंगत, धर्मनिरपेक्ष दिशाओं में ले जाना होगा।
दुनिया के अनेक भागों में नव–उदारवादी पूँजीवाद के खिलाफ विद्रोह बढ़ रहे हैं। क्या आपकी राय में क्षितिज पर विश्व–क्रान्ति की कोई बिजली कौंध रही है? आज समाजवादी क्रान्तिकारी उथलपुथल की क्या गुंजाइशें, सम्भावनाएँ और चुनौतियाँ मौजूद हैं?
पूँजीवाद चैतरफा क्रूरता का एक बर्बर रूप है, खासकर अपने अतिवादी नव–उदारवादी रूप में। ये क्रूरताएँ जब तक जारी रहेंगी, विद्रोह भी होते ही रहेंगे, जिनमें से कुछ वामपंथ की तरफ से भी होंगे। लेकिन मैं यह नहीं समझता कि कोई विश्व–क्रान्तिकारी मोड़ आ चुका है। एक वैश्विक प्रवृत्ति के रूप में समाजवाद एक अरसे से पीछे हटता जा रहा है, चीन में 1970 के दशक के अंतिम बरसों में देंग शियाओ पिंग के मशहूर सुधारों के समय से ही। अपने समय के बारे में–– 1930 के दशक के, फासीवाद के उत्थान के बारे में–– ग्राम्शी के इस मशहूर कथन का हवाला अनेक लोगों ने दिया है कि यह वह समय था जब पुरानी दुनिया मर रही थी मगर एक नयी दुनिया अभी पैदा नहीं हुई थी और इसलिए दुनिया असाध्य रोगों के बहुत से लक्षणों से ग्रस्त थी। नस्ली और मजहबी नफरतें और हिंसा ऐसे ही लक्षण हैं और ये लक्षण जितना विजेताओं में पैदा हो रहे हैं उतना ही हारनेवालों में हो रहे हैं। जेहादी पागलपन के घोर अतिवादी रूप–– तथाकथित इस्लामिक स्टेट–– को उसके रंगरूट सबसे अधिक इराक पर अमरीकी हमले के शिकार लोगों में से मिले। वामपंथ फिलहाल तो बहुत कुछ बचाव की मुद्रा में है–– भारत में भी और बाकी दुनिया में भी।
मार्क्स आज के दिन
साल 2019 मार्क्स की दूसरी जन्मसदी का साल था। मार्क्स का वह सबसे अहम योगदान क्या है जो हमेशा प्रासंगिक रहेगा? और मार्क्स ही क्यों?
बहरहाल जो सवाल अपने किया है वह इतना अहम है और इतना व्यापक भी है कि मेरी तो जैसे साँस ही रुक गयी है। तो मुझे वह दोहराने की इजाजत दीजिए जो ज्यां–पल सार्त्र से आधी सदी से ज्यादा अरसा पहले कहा था। अपनी रचना क्रिटिक ऑफ डायलेक्टिकल रीजन की लम्बी–चैड़ी प्रस्तावना में सार्त्र ने कहा था कि मार्क्सवाद पूँजीवादी उत्पादन पद्धति का अकाट्य विज्ञान है और इसलिए जब तक पूँजीवाद रहेगा, यह भी क्षितिज पर रौशन रहेगा। मैं समझता हूँ कि बात का निचोड़ यही है। लेकिन सार्त्र ने यह भी कहा था कि मार्क्सवाद अपनी प्रकृति के ही कारण एक अपूर्ण और अन्तहीन विज्ञान है क्योंकि यह उस विद्यमान जगत का विज्ञान है जो बदलता चल रहा है। मार्क्सवाद भी कोई जड़ नहीं बल्कि गतिमान ज्ञान है जो बराबर खुद को अधुनातन बना रहा है, खुद का नवीनीकरण कर रहा है, खुद को बदल रहा है क्योंकि उसके ज्ञान का विषय, भौतिक जगत, निरंतर परिवर्तन के भँवर में है। दूसरे शब्दों में, मार्क्स हमारे बीच दो रूपों में जिन्दा हैं–– उन्होंने हमारे लिए अपने कृतित्व की जो विरासत छोड़ी है उसकी भव्यता में और मार्क्सवादियों की अनेक पुश्तों ने उस विरासत को आधार बनाकर जो बौद्धिक और राजनीतिक योगदान दिये हैं उनमें।
यहाँ मैं कुछ और जोड़ना चाहूँगा। कैपिटल की महानता इतनी अभिभूत करती है कि आर्थिक विश्लेषण के सिद्धान्तों और उसकी पद्धतियों के लिए मार्क्स की ओर तथा क्रान्तिकारी राजनीति की रणनीति और कार्यनीति के लिए लेनिन की ओर देखने की एक प्रवृत्ति ही चल पड़ी है। मैं लेनिन के महत्त्व को कम दिखाना नहीं चाहता, पर इस बात पर जरूर जोर देना चाहता हूँ कि स्वयं राजनीति की धारणा के सिलसिले में मार्क्स एक प्रमुख पात्र थे, एक अमली क्रान्तिकारी थे और मजदूरवर्गीय राजनीति के संस्थापक दार्शनिक थे। वामपंथ के इतिहास में बुद्धिजीवी–कार्यकर्ता की महान परम्परा सीधे–सीधे स्वयं मार्क्स के जीवन और कृतित्व के साँचे में ढली है।
जाति का तत्व
भारत के सामाजिक सन्दर्भ में कुछ लोग मार्क्सवाद की आलोचना “वर्ग सम्बन्धी अंधापन” और “यूरो–केन्द्रीयता” के कारण और जाति के तत्व पर पर्याप्त ध्यान न देने के कारण करते हैं। यह आलोचना कम्युनिस्ट आन्दोलनों के खिलाफ भी होती रही है। मार्क्सवाद जाति के प्रश्न की विवेचना कैसे करेगा? जाति के उन्मूलन का एजेण्डा आगे ले जाने के सिलसिले में वामपंथी आन्दोलन की कारगुजारी का आप क्या मूल्यांकन करते हैं?
मैं यकीनन मानता हूँ कि भारत में वर्गीय क्रान्ति का प्रश्न जाति के प्रश्न से जुड़ा हुआ है और जाति के उन्मूलन के बिना भारत में कोई समाजवादी क्रान्ति मुमकिन ही नहीं है। जाति के सुधार के बजाय उसके उन्मूलन पर डॉ अम्बेडकर का जोर देना सही था। उनका यह कहना भी सही था कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने इस बात को वाकई समझा ही नहीं था कि ऐतिहासिक दृष्टि से जातिप्रथा किस हद तक वर्गीय ढाँचे को और हावी विचारधाराओं को समझने की कुंजी है और इस सवाल पर गाँधी की नकारात्मक सोच और उनके अवसरवाद पर उनकी चिढ़ भी सही थी। मेरी राय में यह कहना भी सही ही होगा कि आजादी के बाद से वर्ग और जाति के ढाँचों में जो भी उथलपुथल हुए हैं उनके बावजूद वर्ग और जाति के बीच मोटे तौर पर एक सहसम्बन्ध बना हुआ है। आजाद भारत में पूँजीवाद के प्रसार की काफी बढ़ी हुई गति ने और नवस्थापित पूँजीवादी–संसदीय शासन व्यवस्था ने मझोली जातियों के, बल्कि कुछ बेहद उत्पीड़ित जातियों के भी, कुछ चुनिन्दा हिस्सों के लिए सामाजिक गतिशीलता की भारी सम्भावनाएँ पैदा की हैं। इसमें चुनावी प्रतीकवाद के कदम भी शामिल थे मगर राज्य की बहुत सी पेशकदमियाँ भी शामिल थीं, जैसे भूमि के वितरण की अपेक्षाकृत मामूली योजनाओं और हरी क्रान्ति से लेकर आरक्षण आदि नीतियों तक जिनसे मझोली जातियों को भारी फायदे मिले बल्कि दलित जातियों के कुछ चुनिन्दा हिस्सों को भी मिले।
इन सबके कुछ कारण जातिवादी अभिजात समूह, सत्ता के स्थानीय दलाल और तरह–तरह के ऊपर चढ़ रहे समूह पैदा हुए हैं जबकि खुद जातिप्रथा संसदीय व्यवस्था में और समाज के दूसरे पक्षों में भी एक प्रमुख राजनीतिक तत्व बनकर उभरी है। वर्ग से कहीं बहुत अधिकरू सचमुच! मिसाल के लिए, स्कूलों और कालिजों में, सरकारी नौकरियों में तथा राज्यों की विधायिकाओं और लोक सभा में मजदूर वर्ग के लिए सीटों के आरक्षण पर जोर भला कौन देगा? खुद उदारवादी पूँजीपति वर्ग की राजनीति में जातिप्रथा को एक अलग किस्म की प्राथमिकता प्राप्त हुई है। इस राजनीति के मैदान में इस सवाल को मुख्य रूप से उन्हीं मध्य वर्ग और उत्पीड़ित जातियों से निकलनेवाले नये अभिजातों ने हड़प लिया है। कांग्रेस और भाजपा जैसी बड़ी पूँजीवादी पार्टियों के पास जाति के सवाल का इस्तेमाल करने के बारे में अपने ही बेहद शातिराना ढंग हैं। ये नये जातिवादी समूह एक बहुत ही जोरदार विचार का प्रचार कर रहे हैं जो यह है कि किसी जाति के भौतिक हितों की नुमाइन्दगी उस जाति के सदस्य ही करते हैं। इस तरह की जातिवादी राजनीति अकसर वर्गीय राजनीति से टकराती है। मेरा तजरबा यह है कि वामपंथ ने उत्पीड़ित जातियों की हरेक प्रगतिशील पहल का समर्थन किया है और उसने जमीनी सतह पर जाति के सवाल पर खुद भी बहुत सी पेशकदमियाँ की हैं जिन पर मीडिया ने ध्यान नहीं दिया और जिनको ऊपर चढ़ रहे अभिजातों ने मान्यता नहीं दी। वामपंथ जब शहरों और गाँवों के कामगार वर्गों को संगठित करता है तो लाजमी तौर पर उत्पीड़ित जातियों के लोगों को भी संगठित करता है–– ठीक इसीलिए कि मजदूर वर्ग का और खासकर ग्रामीण भूमिहीनों और नगरों में शारीरिक श्रम करनेवालों का अधिकांश भाग इन्हीं उत्पीड़ित जातियों से आता है। इसलिए, जी हाँ, जातिके सवाल पर और भी संवेदनशीलता की और अधिक मेहनत की, वामपंथी कार्यकर्ताओं को और अधिक शिक्षित करने की जरूरत है। लेकिन जातिवादी अभिजातों ने जाति के सवाल को इस कदर अपना इजारा बना लिया है कि वामपंथ क्या कर सकता है, इस पर गम्भीर सीमाएँ लग गयी हैं। वह जो कुछ भी करे, उसे समुचित मान्यता तो मिलनी ही चाहिए। यूरो–केन्द्रीयता का इलजाम ज्यादा तर इन्हीं ऊपर चढ़ रहे अभिजातों की तरफ से लगाया जाता है।
कुछ वामपंथी लेखकों का कहना है कि मार्क्स के यहाँ कुछ छिटपुट हवालों को छोड़ दें तो “वर्ग” की कोई ठोस परिभाषा नहीं मिलती। माओ ने चीनी समाज का निरूपण और विश्लेषण प्रतिभापूर्ण ढंग से किया। समीर अमीन आधुनिक पूँजीवादी समाज में छ: वर्गों की बात करते हैं। मार्क्सवादी शब्दावली में वर्ग क्या है और वह वर्ग की उदारवादी समझ से किस तरह भिन्न है?
जो कोई भी यह सोचता है कि मार्क्स ने वर्ग की कोई परिभाषा नहीं दी, उसकी “परिभाषा” की समझ बहुत यान्त्रिक ही होगी। माओ और समीर अमीन समेत जिस मार्क्सवादी ने भी वर्गीय विश्लेषण किया है उसने विश्लेषण के साधन मार्क्स से ही लिए हैं। यह सब सम्भव ही नहीं होता अगर वर्ग क्या है, अगर इस बारे में मार्क्स की अपनी रचनाओं ने बहुत सटीक मानदण्ड पेश न किये होते। वैसे मार्क्स कोई प्रत्यक्षवादी नहीं थे और न अमरीका–छाप समाजशास्त्री थे जिसे 11 या 7 शब्दों की ऐसी परिभाषा की तलाश हो जिस पर किसी बहु–उत्तरी पर्चे में सही या गलत का निशान लगाया जा सके। मार्क्स एक द्वन्द्ववादी थे। उनके लिए वर्ग सबसे बढ़कर एक सम्बन्ध था–– यानी कि एक सामाजिक सम्बन्ध, खुद पूँजी जैसा। न तो उत्पादन के साधन अपने आपमें पूँजी होते हैं, न मुद्रा होती है। ये कुछ विशेष परिस्थितियों में ही पूँजी के संचय के साधन और स्वरूप बनते हैं। इसी तरह स्वयं में या स्वयं के लिए कोई सर्वहारा वर्ग नहीं होता। उसका अस्तित्व उसके विरोधी ध्रुव के, अर्थात पूँजीपति वर्ग के, सापेक्ष ही होता है और वर्गीय सम्बन्धों के एक लम्बे–चैड़े ढाँचे के अन्दर होता है जिसकी समग्रता को हम पूँजीवाद कहते हैं। अगर कोई पूँजीवाद या पूँजीपति वर्ग न हो और “कम्युनिज्म” का अर्थ ही इनका न होना है, तो इनसान काम तो कर रहे होंगे पर सर्वहारा नहीं होंगे। मजदूर वर्ग के विभिन्न रूपों और भागों का अस्तित्व सम्पत्ति, उत्पादन और वितरण की एक समग्र, ऐतिहासिक रूप से निर्धारित व्यवस्था में ही होता है। किसी विशेष सामाजिक संरचना में हम विशेष वर्गों या वर्गों के हिस्सों की ढाँचागत स्थितियों और विशेषताओं का निश्चय कर सकते हैं पर मार्क्सवाद स्वयं में वर्ग की कोई रूपवादी, परा–ऐतिहासिक परिभाषा नहीं देता, ऐसी परिभाषा जो सभी कालों में सभी वर्गों पर लागू हो सके।
ग्राम्शी का योगदान
एक सोच वह है जो ग्राम्शी को वर्गीय विश्लेषण से कटे हुए एक शुद्ध बुद्धिजीवी और संस्कृति के सिद्धान्तकार के रूप में प्रस्तुत करती है। कुछ ने ग्राम्शी की रचनाओं को उस समय तक मार्क्सवादी परम्परा से कटी हुई और एक मानी में उसके प्रति बहुत आलोचनात्मक भी कहा है। आप ग्राम्शी को किस रूप में देखते हैं और मार्क्सवाद में उनका बुनियादी योगदान क्या है?
ग्राम्शी तब 22 साल के थे जब से इतालवी सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए जिसने आगे चलकर खुद को तीसरे अन्तरराष्ट्रीय से जोड़ा। वे तेजी से उभरते हुए, पार्टी के एक प्रमुख नेता बन गये। वे औद्योगिक नगर तुरिन के वर्कर्स काउंसिल मूवमेंट के भारी समर्थक थे। इस आन्दोलन के आलोचकों के साथ अपने तर्क–वितर्क में अकसर लेनिन के नारे “सारी शक्ति सोवियतों के लिए” को दोहराया करते थे। उनको उम्मीद थी कि ये काउंसिलें एक नये कम्युनिस्ट संरचना के नाभिक बन जायेंगी। वे 1921 में इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख संस्थापकों में शामिल थे और 1924 में उसके प्रमुख नेता बने। इस बीच वे मास्को में भी रहे जहाँ से वे तीसरी अन्तरराष्ट्रीय के ब्यूरो की इस हिदायत के साथ लौटे कि सभी वामपंथी पार्टियों और शक्तियों का ऐसा फासीवाद विरोधी मोर्चा कायम किया जाये जिसकी धुरी इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी होय यह एक ऐसा रुख था जिसका विरोध उनके अनेक सहयोगियों ने किया। उनको गिरफ़्तार करके कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और प्रमुख सिद्धान्तकार के तौर पर 20 साल की कैद में डाल दिया गया।
प्रिजन नोटबुक्स के लगभग 30,000 पन्नों में उनके मनन के दो प्रमुख विषय थे–– इटली में वामपंथ की शिकस्त और फासीवाद की फतह के ढाँचागत–– ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक–– कारण कौन से थे और एक कम्युनिस्ट पार्टी का पुनर्गठन इस तरह से कैसे किया जाये कि वह इटली की स्थिति की विशिष्टताओं पर खरी उतरेय इसी पार्टी के लिए उन्होंने “आज का बादशाह” और “सामूहिक बुद्धिजीवी” शब्दों का प्रयोग किया था। इस सारे इतिहास को देखते हुए ग्राम्शी के विचारों को उनकी बुनियादी कम्युनिस्ट जमीन से काटने की कोशिश करना शुद्ध बकवास है।
ग्राम्शी का बुनियादी सरोकार एक अर्थ में चीन में माओ के सरोकार से बहुत भिन्न नहीं था। 1927 में शंघाई में सर्वहारा की शिकस्त के बाद पार्टी जब बिखराव की हालत में थी तब माओ ने खुद से एक मामूली सा सवाल किया था–– चीन जैसे एक विशाल, अर्ध–उपनिवेशी, मुख्यत: किसान मुल्क के हालात में क्रान्ति के लिए मार्क्सवाद–लेनिनवाद को किस तरह से ढाला जाये? उनका समाधान बुद्धिमत्ता की मिसाल था–– एक सर्वहारा क्रान्ति के भाव को लागू करना मगर एक किसान सेना लेकर, औद्योगिक नगरों में नहीं बल्कि खेतिहर इलाकों में क्रान्तिकारी शक्ति का विकास करके, राजसत्ता के किलों पर सीधा हमला बोलकर नहीं, जैसा कि विंटर पैलेस पर किया गया था, बल्कि गाँवों से शहरों को घेरने की कार्यनीति अपनाकर। मार्क्सवादी–लेनिनवादी परम्परा में माओ ने सोच के एक बिलकुल नये ढर्रे का इजाफा किया।
ग्राम्शी ने जब फासीवादी जेल में कदम रखा तब इटली की कम्युनिस्ट पार्टी ब–मुश्किल पाँच साल की थी। उस जेल से वे तभी बाहर निकले जब वे सख्त बीमार पड़े और मौत के बहुत करीब जा पहुँचे। हमें याद रखना होगा कि ग्राम्शी जिन्दगी में ज्यादा तर बीमार रहे और 46 की उम्र में चल बसे। इसलिए एक प्रमुख यूरोपी मुल्क में क्रान्तिकारी कर्म की समस्या पर उनका बहुत ही मौलिक दृष्टिकोण चिन्तन के क्षेत्र तक ही सीमित रहा और उसे वास्तविक व्यवहार में कभी आजमाया नहीं गया। इसलिए माओ से उनकी तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन उद्यम मिलता–जुलता था–– समुचित कम्युनिस्ट रणनीति विकसित करने के लिए खुद की राष्ट्रीय स्थिति पर ठोस सोच–विचार करना।
आधार और ऊपरी ढाँचा
ग्राम्शी मार्क्स के गम्भीर अध्येता थे और 1859 की प्रस्तावना के कुछ हिस्सों में उनका दिल मानो अटका हुआ था। इसका एक अंश इस प्रकार से है––
“आर्थिक आधार के परिवर्तन देर–सवेर पूरी विशाल अधिसंरचना में रूपान्तरण लाते हैं। ऐसे रूपान्तरणों के अध्ययन के लिए, उत्पादन की जिन आर्थिक दशाओं का निश्चय प्राकृतिक विज्ञानों जैसी सटीकता से किया जा सकता है उनके भौतिक रूपान्तरण के और मनुष्य जिनमें इस टकराव की चेतना विकसित करते और संघर्ष चलाते हैं उन कानूनी, कलात्मक, दार्शनिक रूपों, संक्षेप में उन वैचारिक रूपों के बीच अन्तर करना हमेशा आवश्यक होता है।”
ग्राम्शी ने इससे कई नतीजे निकाले। पहला, आधार और ऊपरी ढाँचे (अधिसंरचना) का सम्बन्ध द्वन्द्वात्मक होता है और किसी को घटाकर दूसरे द्वारा एकतरफा निर्धारण के स्तर तक नहीं लाया जा सकता। दूसरे, जिस वैज्ञानिक पद्धति के द्वारा हम उत्पादन की आर्थिक दशाओं का विश्लेषण प्राकृतिक विज्ञानों जैसी भारी “सटीकता” के साथ कर सकते हैं वह पद्धति हमें “वैचारिक रूपों” का उतना ही सटीक बोध नहीं करा सकतीय उसके लिए हमें ऊपरी ढाँचे के एक पूरक मगर थोड़े अलग विज्ञान की आवश्यकता होगी। तीसरे, ये “वैचारिक रूप” बहुत सारे हैं और उनके परस्पर व्याप्त लेकिन अपेक्षाकृत स्वायत्त इतिहास होते हैं।
बुर्जुवा यूरोप का कानूनी ढाँचा न सिर्फ उसके पूँजीवादी वर्तमान को सामने लाता है बल्कि वह उन तहदार, बेहद खंडित आधारों पर भी टिका हुआ है जो पीछे कैथलिक चर्च के कैनन लॉं और प्राचीन साम्राज्य के रोमन लॉं तक पहुँचते हैं। जो धार्मिक ढाँचा कैथलिक इटली का खासुल–खास ढाँचा है वह आंग्ल ब्रिटेन का या वहाबी इस्लाम के सऊदी संस्करण का ढाँचा नहीं है–– इनमें से हरेक की अपनी ऐतिहासिकता है और अपना ठोस चरित्र है। चैथी और सबसे अहम बात यह है कि जहाँ क्रान्तिकारी रूपातंरण की सम्भावना पैदा करनेवाले बुनियादी कारण और संकट उत्पादन की शक्तियों और सम्बन्धों के क्षेत्र में पैदा होते हैं, वहीं मनुष्य इन दूसरे “वैचारिक रूपों” के दायरे में ही टकराव की चेतना विकसित करते और संघर्ष चलाते हैं।”
इस तरह वैचारिक रूपों का संघर्ष और उन रूपों से पैदा होनेवाली ठोस चेतना को क्रान्ति के कर्म के लिए बेपनाह अहमियत हासिल है। इतालवी इतिहास और समाज में इन अनेक वैचारिक रूपों के वास्तविक और अनुभवाश्रित विश्लेषण में ग्राम्शी की भारी दिलचस्पी और उनकी ऊपरी ढाँचे का एक विज्ञान विकसित करने की महत्त्वाकांक्षा क्रान्ति की आवश्यकता से पैदा हुई, किसी नये–नये चालू होनेवाले उत्तर–आधुनिक संस्कृतिवाद से नहीं।
एक आरोप यह है कि सोवियत संघ में सर्वहारा की तानाशाही और जनवादी केन्द्रीयता के मार्क्सवादी विचारों ने लोकतंत्र की बलि ले ली, खासकर जोसेफ स्तालिन के काल में। दूसरी ओर अन्तोनियो नेग्री जैसे वामपंथी विचारक परम्परागत मजदूर वर्ग नहीं बल्कि भीड़ के विद्रोह का नजरिया सामने रखते हैं, वह भी किसी एक पार्टी के नेतृत्व के बिना। एक कम्युनिस्ट पार्टी की प्रासंगिकता और महत्ता के बारे में आपका क्या विचार है?
आपने जिन दो धारणाओं की बात की उनके मूल अलग–अलग हैं। “सर्वहारा की तानाशाही” की धारणा खुद मार्क्स की रही है। मार्क्स ने घोषणापत्र में ही उदारवादी राजसत्ता का वर्णन पूरे पूँजीपति वर्ग की प्रबन्ध समिति के रूप में किया था। एक अन्य स्थान पर उन्होंने उस तरह के राज्य को बाकी समाज पर और खासकर सर्वहारा पर पूँजीपति वर्ग की तानाशाही करार दिया है, अर्थात वह एक भारी बहुमत पर छोटे से अल्पमत की तानाशाही है। आज की भाषा में आप कह सकते है–– “99 फीसद पर 1 फीसद की तानाशाही।” “सर्वहारा की तानाशाही” से मुराद पूँजीपति वर्ग की तानाशाही के मुकम्मल निषेध से है। दूसरे शब्दों में, इसका मतलब हुआ एक छोटे से अल्पमत पर भारी बहुमत की तानाशाही, या आप चाहें तो इसे पूँजी पर श्रम की तानाशाही कह लें। लेनिन के मशहूर नारे “सारी शक्तियाँ सोवियतों के लिए” का अर्थ मोटे तौर पर “सर्वहारा की तानाशाही” ही था, अर्थात एक कहीं अधिक मुकम्मल लोकतंत्र जिसमें संगठन के नये रूपों के द्वारा विभिन्न प्रकार के श्रम को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।
इसके विपरीत जनवादी केन्द्रीयता से मुराद निरंकुश जारशाही के हालात में और इसे विस्तार देकर सामान्य अर्थ में कहें तो राज्य के भारी दमन के हालात में, गैरकानूनी, भूमिगत क्रान्तिकारी पार्टी के लिए लेनिन की सांगठनिक धारणा से है। लेनिन के अपने समय में ही रोजा लुक्जेमबर्ग ने चेतावनी दे दी थी कि भिन्न परिस्थितियों में संगठन की यह धारणा पतित होकर एक छोटे से गिरोह का निरंकुश शासन या एक व्यक्ति की तानाशाही भी बन सकती है। वैसे मैं तो कहूँगा कि पार्टी या राज्य के हर रूप में पतन की सम्भावना छिपी होती है और कोई धारणा किस तरह व्यवहार में साकार होती है इसका दारोमदार उसे लागू करनेवाली जनता पर और उस जनता के व्यवहार को निर्धारित करनेवाली वस्तुनिष्ठ दशाओं पर होता है। स्तालिन के नेतृत्व–काल में जो एकाधिकारवादी राजसत्ता पैदा हुई उसका बहुत ही जटिल स्रोत उन दिनों मौजूद भौतिक दशाओं में था और उसे घटाकर किसी भी तरह इस या उस धारणा तक नहीं लाया जा सकता।
अन्तोनियो नेग्री तो आरम्भ में वे एक मजदूरवादी प्रकार के अति–वामपंथी थे और इटली में एक अति–वामपंथी हिरावलवादी प्रकार के आतंकवादी समूहों से भी जुड़े हुए थे। कोई तीन दशक के बाद वे एक ऐसा सिद्धान्त लेकर सामने आये जिसे मैं एक अतिवादी प्रकार का अराजकवाद समझता हूँ लेकिन जो इतना बेढब था कि अमरीकी साम्राज्यवाद की या कॉर्पोरेट शक्ति के किसी भी स्पष्ट केन्द्र की वास्तविकता से ही इनकार करता था। उनके “भीड़” सम्बन्धी विचार को अनेक ढंगों से समझा जा सकता है पर मूलत: वह इसी प्रकार की सैद्धान्तिक गडमड से पैदा हुआ है। अमल में यह गैर–सरकारी संगठनों की विश्वदृष्टि को ही स्वीकार करता है जो वर्ग संघर्ष की हकीकत से इनकार करता है और “सत्ता छीने बिना दुनिया को बदलने” का नारा देता है–– संक्षेप में, ऐसे समाजसुधारों की एक शृंखला का नारा जो थोड़ा अधिक मानवीय रूप वाले पूँजीवाद की ओर ले जायें।
अरब दुनिया में हाल के उभारों से हमने कम से कम दो बातें सीखी हैं। जिस चीज को जनता के “स्वत:स्फूर्त,” किसी सुस्पष्ट सोच वाले नेतृत्व से रहित विद्रोह–– या यूँ समझिए कि नेग्री का “भीड़” का विद्रोह–– कहा जा सकता है, वह आसानी से दूसरों के जोड़तोड़ का शिकार हो सकता है। यही तो हुआ मिस्र में जहाँ एक शक्तिशाली जन–आन्दोलन को जल्द ही मुस्लिम ब्रदरहुड ने हथिया लिया और कथित इस्लामवादियों की चुनावी सफलता का कारण बना जिससे फिर मिस्र की जनता की एक बड़ी संख्या इतनी भयभीत हो उठी कि उसने वास्तव में मुस्लिम ब्रदरहुड की सरकार को उखाड़नेवाले फौजी तख्तापलट का भी स्वागत किया और इस तरह तहरीर चैक के भारी उभार का एक दुखद अन्त हुआ। दूसरी तरफ, वैश्विक इलेक्ट्रानिक मीडिया पर कॉर्पोरेट इजारादारी और दुनिया के बारे में उनकी दृश्य प्रस्तुति के इस दौर में “भीड़” गोया कि हवा से भी पैदा की जा सकती हैं, जैसा कि लीबिया और सीरिया में हुआ। पहले के इतिहास को लें तो इससे इनकार किया ही नहीं जा सकता कि हिटलर और मुसोलिनी दक्षिणपंथी, जुनूनी “भीड़” के बल पर ही सत्ता में आये। “जनता,” “जनसमूह,” “भीड़” आदि में लाजमी तौर पर कुछ भी प्रगतिशील नहीं है। जनता के वर्गों के आन्दोलनों और विद्रोहों को एक प्रगतिशील अन्त:तत्व देने के लिए वर्गीय संगठनों और संघर्षों की आवश्यकता है।
दुनिया का अमरीकीकरण
वैश्वीकरण के अनेक रुख हैं। अहम बात यह भी है कि वह संस्कृति को कैसे प्रभावित करता है। वैश्वीकरण का यह सांस्कृतिक रुख क्या है? वैश्वीकरण हमारी संस्कृति को कैसे प्रभावित करता है?
शब्द वैश्वीकरण साम्राज्यवाद के हालिया चरण का बुर्जुवा नामकरण है। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद हमेशा से ही साम्राज्यवाद का एक बुनियादी पहलू रहा है। साम्राज्यवादी शक्ति के प्रसार या उसकी गहराई में कोई भी इजाफा लाजमी तौर पर साम्राज्यवादी संस्कृति की पकड़ को भी मजबूत बनाता है। नयी सूचना प्रौद्योगिकी और खासकर दृश्य–प्रस्तुति की प्रौद्योगिकी ने हमारे दौर में इसे भारी बढ़ावा दिया है। यह बात जन–संस्कृति के रूपों पर जितनी लागू होती है उतनी ही उच्च संस्कृति पर लागू होती है। हॉलीवुड सिनेमा फिल्मों का प्रमुख बुनियादी रूप है और एशिया या अफ्रीका के राष्ट्रीय फिल्म उद्योग बुनियादी तौर पर उसी के स्थानीय संस्करण हैं जिनमें उस चीज की भारी खुराकें दी जाती हैं जिसे मैं “नक्काली की मौलिकता” कहता हूँ। आज अमरीकी संगीत अकेला वैश्विक संगीत है और दुनिया के मध्य वर्ग का बहुमत अमरीकी संगीत और उसके स्थानीय संस्करणों की रुचि को छोड़ किसी और संगीत की रुचि से वंचित हैय और तो और, इसमें भी “नक्काली की मौलिकता” की भारी खुराकें शामिल हैं। जीन्स वैश्विक वस्त्र संस्कृति के सर्वप्रमुख तत्व हैं और अब तो ये लिंगभेद को भी बड़ी तेजी से पार कर रहे हैं। मेरा तात्पर्य बिलकुल यह नहीं है कि जीन्स पहनना या अमरीकी संगीत सुनना प्रतिक्रियावाद है। लेकिन रोजमर्रा के जीवन के ऐसे परिवर्तनों और अमरीकी सांस्कृतिक रूपों के बीच एक वस्तुगत सम्बन्ध जरूर मालूम होता है।
दूसरे सिरे पर अमरीकी विश्वविद्यालय व्यवस्था दुनिया के लगभग हर देश के लिए तकनीकी–प्रबन्धकीय वर्ग को, बल्कि कूटनीतिज्ञों के और ऊँचे नौकरशाहों को भी, प्रशिक्षण देनेवाला प्रमुख स्थल है। विश्व के स्तर पर राष्ट्रीय शिक्षा प्रणालियों में अमरीकी शिक्षा प्रणाली का ही अधिकाधिक अनुकरण किया जा रहा है। मैं यह भी नहीं कहता कि जो कोई किसी अमरीकी विश्वविद्यालय में पढ़ या पढ़ा रहा है, वह प्रतिक्रियावादी है। ऐसी संस्थाओं में भी हमेशा कुछ मूलगामी, प्रतिरोधी अल्पमत होते हैं। मैं सिर्फ वैश्विक स्तर पर जीवन के सभी क्षेत्रों में वैचारिक पुनरोत्पादन की इस बेपनाह शक्तिशाली व्यवस्था के कार्य की तरफ इशारा कर रहा हूँ। गहन सिद्धान्त से लेकर सांस्कृतिक वस्तुओं के उत्पादन तक और फास्ट फूड जैसी रोजमर्रा की आदतों तक उत्तर–आधुनिकता के सभी रूप मूलत: दुनिया का अमरीकीकरण ही हैं। अपने समाज के वर्गीय ढाँचे में आप जितना ही ऊपर जाएँगे, अमरीकी संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से खुद को जोड़ने की प्रवृत्ति उतनी ही आम पाएँगे। संस्कृति के क्षेत्र में अमरीका की जीत जंग के मैदानों में उसकी जीतों से कहीं अधिक प्रभावशाली है। एक प्रतियोगी आर्थिक शक्ति के रूप में चीन उभर तो रहा है, पर वहाँ भी अमरीकी संस्कृति के रूपों का प्रसार बहुत ही आँखफाड़ है।
तीसरी दुनिया या ट्राइकंटिनेंटल?
‘दक्षिण’ के देशों का वर्णन करने के लिए “तीसरी दुनिया” शब्द आम है। लेकिन आप जैसे लोग इसके बजाय ट्राइकंटिनेंटल शब्द का प्रयोग करते हैं। “तीसरी दुनिया” शब्द किस तरह आम प्रचलन में आया और ट्राइकंटिनेंटल शब्द की ओर यह परिवर्तन क्या दिखाता है?
“तीसरी दुनिया” शब्द एक फ्रांसीसी पत्रकार द्वारा 1955 के बाण्डुंग सम्मेलन के समय, गुटनिरपेक्षता की नयी–नयी उभर रही प्रवृत्ति के लिए, अपने पाठकों का ध्यान खींच सकनेवाले शब्द के तौर पर गढ़ा गया था। यह नाम चल पड़ा और विभिन्न लोग, विभिन्न देश भी, इसका प्रयोग भिन्न–भिन्न अर्थों में करने लगे। मैंने अपनी किताब ‘इन थियरी’ के आखिरी अध्याय में इसका इतिहास दिखाया है। बाण्डुंग सम्मेलन लगभग पूरी तरह एक अफ्रो–एशियाई प्रयास था जिसमें अकेले बाहरी व्यक्ति युगोस्लाविया के टीटो थे। “ट्राइकंटिनेंटल” शब्द क्रान्तिकारी क्यूबा में उपजा और उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के शिकार लातीन अमरीका, अफ्रीका और एशिया की बुनियादी एकता दिखाने के सिलसिले में यह चे ग्वेरा का प्रिय शब्द था। इस शब्द को क्रान्तिकारी प्रकाशनों, अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों आदि ने लोकप्रिय बनाया। मैं कभी–कभी “तीसरी दुनिया” शब्द का इस्तेमाल जरूर करता हूँ, पर सिर्फ इसलिए कि यह बहुत सारे लोगों की जबान पर चढ़ा हुआ है। पर इसका फ्रांसीसी पत्रकारिता वाला मूल मुझे पसन्द नहीं है। मुझे “ट्राइकंटिनेंटल” शब्द उसके क्रान्तिकारी मूल और क्यूबा से उसके जुड़ाव के कारण ज्यादा पसन्द है।
धर्म का व्यवसायीकरण
बहुत से लोगों का खयाल था कि आधुनिकता और “समय–प्रवाह” के साथ धर्म सार्वजनिक जीवन से बाहर हो जायेगा और विज्ञान व बौद्धिकता की प्रगति के साथ आधुनिक मानव के लिए इसका महत्त्व घट जायेगा। लेकिन पूरी दुनिया में धार्मिकता में भरी इजाफा हुआ है। इस बढ़ती धार्मिकता की व्याख्या आप कैसे करेंगे?
यूरोप का सच हमेशा उसके शिकार लोगों की निगाह से देखा जाना चाहिए। निश्चित ही अधिकांश पश्चिमी देशों में चर्च और धर्म के औपचारिक अलगाव के अर्थ में धर्मनिरपेक्षता का व्यवहार हुआ लेकिन सार्वजनिक जीवन से धर्म गायब नहीं हुआ। अपने लेख “यहूद प्रश्न” में मार्क्स ने बड़े प्रतिभाशाली ढंग से दिखाया है कि अमरीका में धर्म के औपचारिक निजीकरण ने किस तरह उसे राज्य की पहुँच से बाहर करके उसे और भी महिमामंडित कर दिया। नाजियों द्वारा यहूदियों के कत्ले–आम जैसे अंतिम विनाशलीला से पहले तक यहूद–विरोध कमोबेश सीमा तक तमाम पश्चिमी समाजों की विशेषता बना रहा।
एडवर्ड सईद ने विस्तार से दिखाया है कि इस्लाम से यूरोप की नफरत किस कदर पुरानी, नियमित और असाध्य है। थियोडोर एडोर्णों के इस तल्ख जुमले मे काफी सच्चाई है कि धर्म के गायब होने के बजाय उसका व्यवसायीकरण हुआ है और यह कि ईसाई विश्वास में जो अकेली चीज अब बची है वह है–– पड़ोसी से नफरत। इस्लाम का हव्वा सिर्फ एक पुरानी बीमारी का नया नाम है। वैसे पिछले कोई दो दशकों में इस बीमारी में नये–नये और खतरनाक लक्षण देखे गये हैं क्योंकि लाल सागर और लेवाँ से लेकर उत्तर और पश्चिम अफ्रीका तक के विशाल क्षेत्र में पश्चिम आज मुस्लिम जनता के खिलाफ एक वहशी जंग छेड़े हुए है।
दुनिया में हमारे अपने खित्ते में बढ़ती धार्मिकता हमारे दौर में दक्षिणपंथ के उभार के अनेक रूपों में एक है और वामपंथ की शिकस्त या उसके पीछे हटने या दोनों से उसका ढाँचागत सम्बन्ध है। अनेक मुस्लिम देशों में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद और कम्युनिज्म कभी प्रमुख राजनीतिक रुझान हुआ करते थे, मसलन इण्डोनेशिया, ईरान, इराक, मिस्र, सूडान आदि में, यानी ठीक वहीं जहाँ सलफी और जेहादी रूपों समेत इस्लामियत आज हावी है। अगर आप आज के भारत की तुलना 50 साल पहले के भारत से करें तो मोटे तौर पर यही बात भारत के बारे में कही जा सकती है। यह कोई स्थानीय विकासक्रम हरगिज नहीं है। साम्राज्यवाद ने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद के खिलाफ उतनी ही सख्त लड़ाई लड़ी जितनी सख्त कम्युनिज्म के खिलाफ लड़ी क्योंकि दोनों ही साम्राज्यवादी हितों के लिए खतरा पैदा कर रहे थे। तमाम रंगत की दक्षिणपंथी शक्तियों को उन साम्राज्यवादी हमलों से नाकाबिले–बयान फायदे हुए।
विभिन्न देशों में इस्लामियत की राजनीति अलग–अलग रूपों में खेली जा रही है। राजनीतिक इस्लाम का इतिहास और विकास का ढर्रा क्या है? इस्लामियत की राजनीति और इस्लाम का हव्वा किस तरह एक दूसरे को बल पहुँचा रहे हैं?
अलग–अलग रूपों वाले जिस राजनीतिक इस्लाम को हम जानते हैं वह कोई 70 साल पहले, ट्रूमन सिद्धान्त की मुताबिकत में, तैयार किया गया था जिसकी मान्यता यह थी कि इस्लाम–– सऊदी अरब का वहाबी इस्लाम और मुस्लिम ब्रदरहुड का सलफी इस्लाम–– मध्य पूर्व (पश्चिम एशिया) में कम्युनिज्म के खिलाफ सबसे भरोसेमन्द ढाल थे। पश्चिम के लिए मध्य पूर्व को नियंत्रण में रखना इसलिए भी जरूरी था कि वह ऐसा खित्ता था जहाँ कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के, औद्योगिक जगत के लिए सबसे अहम, रणनीतिक कच्चे मालों के, सबसे बड़े भण्डार मौजूद थे। अमरीका के खुफियातंत्र और विद्रोहविरोधी तंत्र ने दुनिया भर में बड़े पैमाने पर इस्लामी उग्रवादी पैदा किये और उनको प्रशिक्षित किया।
अफगानिस्तान में जैसे ही एक प्रगतिशील, कम्युनिज्म–मुखी सरकार कायम हुई, अमरीका ने सीआईए से–– और सऊदिया से–– पैसा पानेवाले मुजाहिदीन का एक कम्युनिस्ट–विरोधी दस्ता खड़ा कर दिया जिसमें कोई 40 देशों के जेहादी उन अल्लाह–दुश्मन साम्राज्य–विरोधियों से लोहा लेने के लिए शामिल हुए। व्हाइट हाउस में मुस्लिम ब्रदरहुड के नेताओं का स्वागत सबसे पहले राष्ट्रपति आइजनहावर ने किया था। मुजाहिदीन के इस नये गैंग के प्रमुख नेताओं का व्हाइट हाउस में स्वागत रोनल्ड रीगन ने किया। ओसामा बिन लादेन अमरीका के खिलाफ जाने से पहले सीआईए का ही चहबच्चा था। जब अमरीका और उसके सहयोगियों ने मुस्लिम देशों के खिलाफ ताबड़तोड़ जंगें छेड़ीं तो हरेक स्वतंत्र पत्रकार और विद्वान ने चेतावनी दी थी कि ये हमले लाजमी तौर पर पश्चिम–विरोधी आतंकवादियों की एक पूरी नयी नस्ल पैदा करेंगे।
लेकिन अमरीका को पता था कि वह क्या कर रहा है। उसने पश्चिमी देशों से जेहादी आतंक को दूर रखने में काबिले–जिक्र कामयाबी पायी हैय पिछले कोई दो दशकों में बस आधा दर्जन वारदातें हुई हैं और वे भी मामूली–मामूली, जबकि उसने लाखों लोगों को मौत, तबाही और बेघरी के दहाने में झोंक दिया है। पूरी–पूरी आबादियों के खिलाफ इन अन्तहीन लड़ाइयों की पृष्ठभूमि में अमरीका विभिन्न जेहादी संगठनों के साथ एक टेढ़ा खेल जारी रखे हुए है–– जो उसके हितों के खिलाफ हैं उनसे वह लड़ रहा है लेकिन बहुतों को रिजर्व में रखे हुए है कि जब और जहाँ जरूरत हो, उनको झोंक सके। लीबिया और सीरिया में वह उनका इस्तेमाल तो कर ही रहा है, वह निकट भविष्य में मध्य एशिया के मुस्लिम–बहुल गणराज्यों के खिलाफ और चीन के मुस्लिम–बहुल इलाकों के खिलाफ भी उनका इस्तेमाल कर सकता है। पश्चिम के बहुत थोड़े से लोग जेहादी आतंक की भेंट चढ़े, लेकिन दूसरे देशों और महाद्वीपों में इस आतंक ने लाखों लोगों की बलि ली है। अपने इन विशेष रूपों में साम्राज्य के ये खेल भी हमारे दौर की सबसे ज्यादा सड़ांध पैदा कर रही बीमारियों में शामिल हैं।
एजाज अहमद भारतीय मूल के मार्क्सवादी विचारक तथा आधुनिक इतिहास, राजनीति और संस्कृति के अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठाप्राप्त सिद्धान्तकार हैं। वे भारत, कनाडा और अमरीका के अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ा चुके हैं और फिलहाल कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, इर्विन के तुलनात्मक साहित्य विभाग में यशस्वी प्रोफेसर हैं जहाँ वे आलोचनात्मक सिद्धान्त पढ़ाते हैं।
––– जिप्सन जॉन, जीतेश पी एम
(जिप्सन जॉन और जीतेश पी एम ‘ट्राइकंटिनेंटल’ सामाजिक अनुसंधान संस्थान में फेलो हैं और द हिन्दू, द कैरेवन, द वायर और मंथली रिव्यू समेत बहुत से राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय प्रकाशनों के लिए लिखते रहते हैं।)