4 दिसंबर, 2020 (ब्लॉग पोस्ट)

नए कृषि कानून : किसान बड़े निगमों के हवाले

           21 सितंबर को देश की संसद ने तीन नए कृषि कानूनों पर मुहर लगा दी। ‘‘सबका साथ, सबका विकास’’ के झंडाबरदार मोदी जी ने इसे किसानों के लिए एक ‘‘वाटरशेड मोमेंट’’ (ऐतिहासिक क्षण) बताया और किसानों की मुक्ति की घोषणा की- अब किसान आजाद है, जहां चाहे,  जैसे चाहे,  जिसको चाहे, अपनी फसल बेच सकता है।

            इन कानूनों को पास कराने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का खून बहाया गया- सबसे पहले ‘प्रश्नकाल’ की बलि दी गयी, विचारार्थ सेलेक्ट कमेटी के पास भेजने की मांग ठुकरा दी गयी और मत-विभाजन करवाना जरूरी नहीं समझा गया। इन किसान-विरोधी कानूनों और अगले दिन कुछ श्रमिक-विरोधी कानूनों को असामान्य फुर्ती दिखाते हुए आनन-फानन में पास करवा लेने के बाद, जबकि कई विपक्षी पार्टियों के नेता संसद का बायकाट कर रहे थे और उन्होंने इन महत्वपूर्ण कानूनों को पारित किए जाते वक्त अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए लिखित अनुरोध भी किया था, संसद अनिश्चित काल के लिए भंग कर दी गई।

            लेकिन किसान संसद के बहुमत के इस फैसले को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। वे सड़कों पर हैं- ‘‘देशद्रोह’’ पर आमादा। सरकार के ‘‘बहरे कानों’’ तक अपनी आवाज पहुंचाने की पुरजोर कोशिश में ‘रेल रोको’ आंदोलन से लेकर ‘भारत बंद’ तक की कोशिश कर रहे हैं। हरियाणा में उनके ऊपर लाठी चार्ज किया गया लेकिन मीडिया में सरकार इस बात से इंकार करती रही। और अब विपक्ष द्वारा ‘‘गुमराह’’ इन किसानों के घर-घर जाकर भाजपा और संघ के कार्यकर्ता उन्हें जबरन इन कानूनों के फायदे समझाएंगे। लेकिन किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की मांग को लेकर कोई बात समझने को तैयार नहीं हैं। मोदी जी के आश्वासनों पर किसान भरोसा नहीं कर रहे हैं।

            विपक्षी पार्टियों, खासकर एनडीए में शामिल क्षेत्रीय दलों का अवसरवाद सामने आ चुका है। नितीश कुमार की पार्टी जेडीयू इन कानूनों के समर्थन में है लेकिन MSP की किसानों की मांग का समर्थन करने लगी है। मंत्री हरसिमरत कौर के इस्तीफे के बाद भी अकाली दल ऊहापोह में था कि सरकार का समर्थन जारी रखे या अलग हो जाए। किसानों के विरोध के बाद मजबूरन उसने समर्थन वापस ले लिया है। किसानों के आक्रोश का लाभ उठाने के लिए विरोधी दल विरोध करते हुए दिखने की कोशिश में हैं लेकिन कुल मिलाकर देखा जाए तो संसदीय परिसर में रस्मी विरोध के अलावा उनकी कार्रवाइयां कहीं भी दिखाई नहीं दे रही हैं। इस बीच कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने MSP पर खरीद सुनिश्चित करने को कानून का हिस्सा बनाने से स्पष्ट इनकार कर दिया है- ‘‘MSP कानून का अंग पहले भी नहीं थी और आज भी नहीं है।’’

            यह सब सरकार और तमाम पार्टियों की मंशा पर संदेह पैदा करता है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि भारत की कृषि अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त है। खास तौर पर, उदारीकरण और वैश्वीकरण के पिछले 30 सालों में किसानों की दुर्दशा की नयी छवियां सामने आई हैं- 3,00,000 से ज्यादा किसानों की आत्महत्या, कर्ज के बोझ से दबे हुए किसान, सूदखोरों और बहुराष्ट्रीय बीज निगमों द्वारा अदालतों में घसीटे जाते किसान और उनके लठैतों द्वारा किसानों की पिटाई और लूट। किसानों के कर्जों को माफ करने और उनकी आमदनी बढ़ाने की मांग अब एक राष्ट्रव्यापी मांग बन चुकी है जिसका वायदा वोट लेने के लिए हर पार्टी चुनाव के समय किसानों से करती है। लेकिन पार्टियां चुनाव जीत जाती हैं- किसान और बदहाल हो जाता है। इसलिए किसानों के लिए बनाए गए इन तथाकथित ‘‘ऐतिहासिक’’ कानूनों पर एक गंभीर बहस की जरूरत है। आइए पहले एक नजर इन कानूनों के प्रमुख प्रावधानों पर डाल ली जाए।

(1)  कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020

इस कानून को सारतः मंडी समिति बाईपास कानून कहा जा सकता है। इस कानून के तहत कृषि उपज को अब राज्य के भीतर और बाहर, देश भर में कहीं भी बेचा जा सकेगा: (i) राज्य के कृषि उपज और मंडी समिति (APMC) कानून के तहत गठित मंडी समितियों द्वारा संचालित बाजार-परिसर के भीतर, या (ii) इस कानून के तहत अनुसूचित अन्य बाजारों में- ‘बाहरी बाजार’ के ये इलाके कृषि उपज के उत्पादन, संग्रह और भंडारण से जुड़ी कोई भी जगह हो सकती है जैसे सीधे खेत, गोदाम, खत्तियां, कोल्ड स्टोर या फैक्ट्री परिसर।

            इस कानून के तहत अब APMC कानून में अनुसूचित कृषि उपजों की इलेक्ट्रानिक खरीद-फरोख्त और भुगतान की इजाजत होगी। कृषि उपज की सीधे या आनलाइन खरीद-फरोख्त को प्रोत्साहित करने के लिए निम्नलिखित लोग ई-व्यापार और भुगतान प्लेटफार्म बना सकेंगे और उन्हें किसी लाइसेंस की दरकार नहीं होगी:

(i) कंपनियां, साझा फर्म या पंजीकृत सोसाइटी जिनके पास PAN नंबर हो या केंद्र सरकार द्वारा जारी अनुमति पत्र हो।

(ii) कोई किसान उत्पादक संगठन (FPO) या कृषि कोआपरेटिव सोसाइटी।

            इस कानून के एक और महत्वपूर्ण प्रावधान के अनुसार राज्य सरकारें अब मंडी के बाहर होने वाली इस खरीद पर किसान, व्यापारी या ई-व्यापार प्लेटफार्म संचालक से कोई मार्केट फीस या टैक्स नहीं ले सकेंगी।

(2) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा के लिए किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) अनुबंध अधिनियम 2020 :

आसान भाषा में इस कानून को ‘ठेका खेती कानून’ कहा जा सकता है। इस कानून के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं :

            (i) कृषि अनुबंध: किसान और खरीददार (जो कोई ‘कृषि निगम, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, थोक व्यापारी, निर्यातक या बड़े खुदरा विक्रेता’’ हो सकते हैं) के बीच फसल तैयार होने या जानवरों के पालन के लिए पहले अनुबंध होगा जो कम से कम एक फसल चक्र या जीवन चक्र के लिए और अधिकतम 5 साल के लिए वैध होगा।

            ये अनुबंध ‘‘व्यापार और वाणिज्य अनुबंध’’ हो सकते हैं जिनमें किसान उत्पाद का मालिक होगा और कंपनी खरीददार, या ‘‘उत्पादन अनुबंध’’ हो सकते हैं जिनमें उत्पाद की मालिक कंपनी होगी और किसान सिर्फ उसके मजदूर या सेवक।

            अधिनियम की धारा 7(1) के तहत ‘‘किसी कृषि उपज के बारे में एक बार अनुबंध हो जाने के बाद... उसकी खरीद-फरोख्त को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया राज्य का कोई भी कानून उस पर लागू नहीं होगा, चाहे उसका कोई भी नाम क्यों न हो।’’

            (ii) कृषि उपज का खरीद मूल्य : खरीद मूल्य,  खरीद मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया और कीमतों में उतार-चढ़ाव की स्थिति में न्यूनतम गारंटी मूल्य का ब्योरा अनुबंध में साफ तौर पर दर्ज किया जाएगा। मूल्य निर्धारण के लिए “उत्पाद की गुणवत्ता, ग्रेडिंग, उत्पादन के लिए तय प्रक्रिया के पालन” इत्यादि के लिए प्रमाणीकरण सेवाओं, और किसान को खाद, बीज, कीटनाशक इत्यादि की आपूर्ति और सलाह देने के लिए कृषि सेवाओं को देने वाले बिचैालिए अलग (थर्ड पार्टी) होंगे जिसका समुचित भुगतान करना होगा। इसके अलावा बिक्री या अनुबंध के लिए किसानों को कंपनी के पास लाने वाले संग्रहकर्ता (एग्रीगेटर) भी बिचैालिए की भूमिका में होंगे।

            (iii) विवाद-निपटारा प्रक्रिया : विवादों के निपटारे के लिए ‘सुलह बोर्ड’ होंगे जिनमें दोनों पक्षों का उचित प्रतिनिधित्व होगा। यदि सुलह बोर्ड 30 दिन के भीतर समझौता नहीं करवा पाता तो पहले एसडीएम और फिर उसके 30 दिन बाद कलेक्टर के पास अपील की जा सकती है, जिनके पास दोषी पक्ष पर जुर्माना लगाने के लिए अधिकार होंगे। कानून की धारा 18 के अनुसार इस कानून के प्रावधानों के तहत ‘‘गुड फेथ में किए गए...’’ एसडीएम या कलेक्टर के फैसले अंतिम होंगे और उन्हें किसी भी सिविल कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। 

(3) आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम 2020

यह अधिनियम 1955 के कानून में संशोधन के लिए बनाया गया है। इसके मुताबिक अब खाद्यान्न, दालें, तिलहन, खाद्य तेल, आलू, प्याज को आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से बाहर कर दिया गया है। केवल कुछ असामान्य परिस्थतियों, जैसे कीमतों में असामान्य वृद्धि, युद्ध, अकाल और भीषण प्राकृतिक तबाही, के मामले में ही उनकी आपूर्ति को नियंत्रित किया जा सकेगा।

            कानून आगे कहता है, ‘‘जमाखोरी को नियंत्रित करने वाले आदेश किसी भी कृषि उत्पाद का प्रसंस्करण करने वाले या उसकी कीमत में इजाफा करने वाली प्रक्रिया में भागीदार व्यक्ति पर लागू नहीं होंगे अगर उनके पास जमा भंडार, प्रसंस्करण इकाई की क्षमता से ज्यादा ना हो और निर्यातक के मामले में निर्यात की मांग से ज्यादा न हो...’’

            कीमतों में असामान्य वृद्धि तभी मानी जाएगी जब बागवानी के उत्पादों के मामले में किसी माल की खुदरा कीमतें पिछले 12 महीने या 5 साल की औसत कीमत से (इनमें से जो भी कम हो, उससे) दो गुनी हो जाएं। खराब न होने वाले खाद्य पदार्थों (जैसे खाद्य तेल) के मामले में खुदरा कीमतों में डेढ़ गुनी वृद्धि को असामान्य वृद्धि माना जाएगा।

            उपभोक्ता मामलों, ,खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के एक नोट के मुताबिक अब भारत में खाद्यान्नों की प्रचुरता है। 1955-56 की तुलना में गेहूं का उत्पादन 10 गुना, चावल का 4 गुना और दालों का ढाई गुना बढ़ चुका है और भारत कई कृषि उत्पादों का निर्यातक है। इसलिए खाद्यान्नों की कमी के दौर के इस कानून को बदला जा रहा है, ताकि कृषि बाजारों पर लगी पाबंदियों खत्म हो जाएं और उपरोक्त वस्तुओं के भंडारण और प्रसंस्करण के क्षेत्र में निजी निवेश आकर्षित हो सके।

कानूनों को लाने का उद्देश्य

सरकार और उसके प्रवक्ता मंडी समितियों को ‘‘विलेन और शोषणकर्ता’’ बता रहे हैं और इन तीनों कानूनों का उद्देश्य किसानों को उनके चंगुल से आजाद करवाना बताया जा रहा है। इस तरह भाजपा सरकार खुद को किसानों के ‘‘मुक्तिदाता’’ के रूप में पेश कर रही है।

            यह बात सही है कि मंडी समितियों का वर्तमान ढांचा समस्याग्रस्त था। उनके ऊपर थोड़े से आढ़तियों का दबदबा था। मंडियों की संख्या बहुत कम थी और 496 वर्ग किमी इलाके में एक मंडी थी। इसके चलते गरीब किसान जिसके पास माल को सुदूर मंडी तक ले जाने की हैसियत नहीं थी या जो सरकार द्वारा खरीद करने का इंतजार करने की स्थिति में नहीं होते थे- निजी व्यापारियों को अपनी फसल कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर हो जाते थे। मंडियों के विस्तार और उनकी कार्यप्रणाली में सुधार की जरूरत थी जिसके लिए स्वामीनाथन आयोग (2006) और कई विशेषज्ञ समितियों ने सुझाव दिए थे कि 80 वर्ग किमी के दायरे में एक मंडी समिति बनायी जाए और पंचायतों के स्तर पर मौजूद 22 हजार हाट बजारों को भी केंद्र सरकार के खर्च से विकसित किया जाए ताकि कम उत्पादन करने वाले गरीब किसान भी अपनी फसल इन बाजारों में बेच सकें। केंद्र की कई सरकारों ने 2003, 2007 और 2013 में और वर्तमान सरकार ने भी 2017 में मंडी व्यवस्था में सुधार के लिए माडल कानून प्रस्तावित किए थे और राज्य सरकारें उन पर विचार-विमर्श करके उन्हें अपने हिसाब से लागू भी कर रही थीं- 18 राज्य प्राइवेट बाजार कायम करने की इजाजत दे चुके थे, 19 राज्यों ने कृषि उपज की निजी व्यापारियों और उद्योगपतियों द्वारा सीधे खरीद की इजाजत दे दी थी और 20 राज्य ठेका खेती के लिए कानून बना चुके थे। अधिकांश राज्य फल और सब्जियों पर मार्केट फीस और टैक्स माफ कर चुके थे।

            जिन राज्यों में मंडी समितियों को पूरी तरह खत्म कर दिया गया था, उनके अनुभव हमारे सामने हैं। बिहार में 2006 में मंडी समिति कानून के खात्मे के बाद पहले से मौजूद बाजार सरकारी उपेक्षा और रख-रखाव के अभाव में क्षरित होते गए। परिणामस्वरूप, बेलगाम निजी बाजारों में किसानों को बुरी तरह लूटा गया- उनसे ऊंचे ‘‘ट्रांजेक्शन चार्ज’’ (सौदा शुल्क) लिये गए और बाजार में माल की आमद और कीमतों के उतार-चढ़ाव के बारे में जरूरी सूचनाएं नहीं दी गयीं। 2010 में राज्य मंत्रियों के समूह ने पाया कि बाजारों को पूरी तरह नियंत्रण मुक्त करने से कोई निजी निवेश नहीं आया। उन्होंने उचित कानूनी और संस्थागत ढांचे और नियामकों की अहमियत पर जोर दिया। 2018-19 में कृषि की स्थायी संसदीय समिति ने बिहार जैसे राज्यों में, जहां मंडी समितियों द्वारा संचालित बाजार नहीं थे, केंद्र सरकार के निवेश से बाजारों के निर्माण की जरूरत को रेखांकित किया।

            लेकिन केंद्र सरकार इन तमाम अनुभवों और तमाम तय प्रक्रियाओं को नजरंदाज करके इन कानूनों को लेकर आई है जो मंडी समितियों के भीतर होने वाली खरीद के समानांतर बाजार का एक दूसरा ढांचा खड़ा करेंगे जिसमें खरीद करने वालों को न तो लाइसेंस की जरूरत होगी, न वे राज्य सरकारों को कोई टैक्स देंगे, न उनके ऊपर जमाखोरी को रोकने और जरूरी खाद्य पदार्थों की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए राज्य सरकारों के कानून लागू होंगे। सवाल यह उठता है कि पिछले 20 सालों से मंडी समिति की कार्यप्रणाली में सुधार और बाजारों के दायरे के विस्तार की जो कोशिशें हो रही थीं, उनको दरकिनार करके अचानक ऐसे कानून क्यों लाए गए जो राज्यों के अधिकार क्षेत्र और उनकी शक्तियों का उल्लंघन और उसमें घुसपैठ करते हैं और क्यों तमाम लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और मर्यादाओं को ताक पर रखकर इनको पारित करवाने में असमान्य तेजी दिखाई गई? आखिर यह सरकार किसको खुश करना चाहती है? आखिर वे लोग कौन हैं? जिनकी इन कानूनों से ‘‘मुक्ति’’ हुई है?

MSP  का धोखा

            एमएसपी का निर्धारण करने के लिए तीन तरह से किसान की लागत की गणना की जाती है।

(1) A2 लागत: इसमें किसान की कुल लागत - बीज, खाद, दवा, बिजली, पानी इत्यादि को जोड़ा जाता है।

(2) A2+FL लागत: इसमें किसान द्वारा लगायी गयी कुल लागत के अलावा उसके परिवार की मजदूरी भी जोड़ी जाती है।

(3) C2 लागत: इसमें किसान की कुल लागत के और परिवार की मजदूरी के अलावा कृषि भूमि के लगान, लागत पर ब्याज इत्यादि को भी जोड़ा जाता है।

            इस हिसाब से गेहूं की सबसे निम्न स्तर की वेरायटी की A2 लागत 600 रुपए, (A2+FL) लागत 800 रुपए और C2 लागत 1200 रुपए आंकी गई है।     स्वामीनाथन आयोग (2006) के मुताबिक सरकार को एमएसपी देते समय C2 लागत में 50 प्रतिशत जोड़कर मूल्य निर्धारण करना चाहिए। यानी गेहूं की इस वैरायटी का एमएसपी 1800 रुपए होगा।

            लेकिन अगर सरकार सी2 के बजाय A2 ले तो एमएसपी 900 रुपए और अगर (A2 + FL) ले तो MSP 1200 रुपए निर्धारित होगा। यह एक कड़वी सच्चाई है कि किसी भी फसल के मामले में सरकार स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश परा अमल नहीं करती और अधिकांश मामलों में A2 लागत और कुछ मामलों में (A2+FL) लागत फार्मूला इस्तेमाल करके किसानों की आंखों में धूल झोंकने का प्रयास करती है कि देखो हमने MSP दे दिया।

            इस तरह किसान को वास्तव में सही MSP के आधे से दो तिहाई तक ही दाम मिल पाते हैं। हमारे गेहूं के इस उदाहरण में किसान 600-900 रुपए प्रति कुंटल का धोखा खाता है।     और ये धोखा कौन देता है- हमारी अपनी चुनी हुई सरकारें और सचिवालयों में इसकी तिकड़में भिड़ाते बुद्धिजीवी-नौकरशाह।

           हमारे देश में छोटे (1 से 2 हेक्टेअर जमीन के मालिक) और सीमांत (1 हेक्टेअर से कम जमीन के मालिक) किसान 86 प्रतिशत हैं जिनके पास बेचने के लिए 1-2 टन से ज्यादा अतिरिक्त उत्पादन नहीं होता। ये लोग 20-25 किमी दूर मंडी समिति के बाजारों तक ही अपनी उपज बिक्री के लिए नहीं ले जा पाते क्योंकि उसे बोरियों में भरने, लादने, परिवहन, मंडी में उसकी उतराई वगैरह के खर्चे ही उन पर बोझ होते हैं। राष्ट्रीय सेंपल सर्वे 2013 के मुताबिक इन किसानों के अधिकांश के मासिक खर्चे उनकी विभिन्न स्रोतों- खेती, पशुपालन, सीजनल मजदूरी इत्यादि से होने वाली कुल मासिक आय से ज्यादा होते हैं। छोटे किसानों के पास थोड़ी सी बचत होती है लेकिन वह किसी गंभीर बीमारी, प्राकृतिक आपदा या फसल के दामों में असामान्य गिरावट का मुकाबला करने के लायक नहीं होती। परिणामस्वरूप इन्हें अपनी जरूरतें पूरी करने, खेत में बीज, खाद, कीटनाशक डालने के लिए कर्जे लेने पड़ते हैं और उन्हें चुकाने का कोई जरिया न होने की स्थिति में वे कर्ज के मकड़जाल में फंसकर रह जाते हैं। क्या यही वे किसान हैं जिनकी मुक्ति का दावा किया जा रहा है? जो किसान 20-25 किमी दूर स्थित मंडी तक अपनी फसल ले जाने की हैसियत नहीं रखते और सरकारी रेट पर खरीद का इंतजार इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें बीज, खाद और कीटनाशक बेचने वाले दुकानदार का उधार चुकाना है या सूदखोरों को उनकी किश्त चुकानी है जो पहले से ही फसल आने के इंतजार में घात लगाए बैठे हैं- उनके लिए ‘‘कहीं भी ले जाकर बेचने’’ की इस आजादी का क्या अर्थ है? छोटी बचत वाले किसान, जो कुछ दिन अपनी फसल को ऊंची कीमत के इंतजार में रोकने की क्षमता रखते हैं, अक्सर बाद में पछताते रहते हैं क्योंकि न तो उनके पास फसल को सुरक्षित रखने की जगह होती है और न सही जानकारी। मुझे याद है कि हमारे बचपन में गन्ने की फसल से गुड़ बनाकर घर में ही रखा जाता था ताकि बाद में ऊंची दर मिलने पर बेचा जा सके। लेकिन अक्सर यह जुआ किसान के लिए घाटे का सौदा ही साबित होता था। अगर बरसात के आने के पहले गुड़ नहीं बेचा जा सका तो बरसात में उसे संभालना मुश्किल हो जाता था। सारा गुड़ सील जाता था। भारी बारिश में छतें टपकने लगती थीं तो पूरा परिवार गुड़ के चारों तरफ बर्तन लेकर पानी रोकने की कोशिश में रातें काली करता रहता था। किसानों के मोहल्ले ततैयों से भर जाते थे जो ईंट की दीवारों से रिसते गुड़ पर भिनभिनाते रहते थे। इस जुए से इलाके के किसानों को तभी मुक्ति मिली जब वहां चीनी मिल लग गयी और उसने सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य पर गन्ना लेना शुरू किया।

            स्पष्ट है कि देश के इन 86 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसानों को कोई आजादी नहीं मिलने जा रही है। बल्कि ये कानून उनके खरीददारों को आजाद करेंगे जिन्हें कानून के मसौदे में बकायदा स्पष्ट किया गया  है- बहुराष्ट्रीय निगम, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग (जूस, तेल इत्यादि बनाने वाले) के मालिक, कृषि उपज के निर्यातक, थोक व्यापारी, मोसेंटो जैसे बड़े बीज विक्रेता और वालमार्ट और रिलायंस फ्रेश जैसे बड़े खुदरा विक्रेता। लंबे समय से ये लोग गिद्ध दृष्टि से देश के कृषि बाजार को देख रहे हैं। देश की खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से बनाए गए आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी और उनके मुक्त व्यापार पर रोक जैसे कानून उनके मुनाफा कमाने के रास्ते में रोड़ा हैं। वे चाहते हैं कि सरकार द्वारा होने वाली खरीद बंद हो और उसकी जगह वे खरीदें। मंडी समितियों और फूड कारपोरेशन आफ इंडिया (FCI) के जरिए होने वाली गेहूं और चावल जैसी प्रमुख फसलों की खरीद, जो पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में 50-75 प्रतिशत तक है, अगर बंद हो जाएगी तो फिर बाध्य होकर किसान उनके पास आएगा। न्यूनतम समर्थन मूल्य की बाध्यता न होने के चलते (कानून इसके लिए उन्हें बाध्य नहीं करता) वे कम दाम पर फसलें खरीदेंगे और उनका भंडारण करके (जिस पर अब कोई रोक नहीं होगी) बाद में ऊंची दरों पर देश के किसी भी दूसरे हिस्से में जाकर (जिस पर अब कोई रोक नहीं होगी) या विदेशों में निर्यात करके (जो अब नियंत्रण मुक्त है) बेचेंगे। साल-दर-साल बार-बार अच्छी कीमत न मिलने पर किसान उनसे फसल की कीमत की गारंटी के लिए अनुबंध करने पर मजबूर हो जाएंगे।

            ठेका कानून के प्रावधानों के अनुसार यह काम कंपनियां अपने संग्रहकर्ताओं (एग्रीगेटर) के मार्फत करेंगी, जो संभवतः गांव के दबंग लोग होंगे जो कंपनी के एजेंट के तौर पर किसानों को तैयार करेंगे और फिर बेहतर कीमत और तरक्की के लिए कंपनियों के साथ ठेका खेती के अनुबंध के लिए किसान को कायल करेंगे। इन अनुबंधों के साथ बिचैलियों की एक पूरी फौज किसान की छाती पर आकर खड़ी हो जाएगी जिन्हें कानून में ‘‘कृषि सेवा प्रदाता’’ (फार्म सर्विस प्रोवाइडर) और ‘‘प्रमाणीकरण’’ (सर्टिफिकेशन) सेवा प्रदाता कहा जा रहा है। कृषि सेवा देने वाले किसान को बीज, खाद, कीटनाशक इत्यादि की आपूर्ति करने वाले या इसके लिए परामर्श देने वाले लोग होंगे और प्रमाणीकरण करने वाले किसान की फसल की गुणवत्ता की जांच, ग्रेडिंग और सही प्रक्रिया का पालन किया गया है या नहीं, यह चेक करके उसे प्रमाण पत्र देंगे, जिसके हिसाब से ही उसे फसल के दाम मिलेंगे। इन सभी को उनकी सेवाओं के बदले भुगतान की गारंटी करने के लिए किसान कानूनन बाध्य है, लेकिन खरीददार कम से कम न्यूनतम समर्थन मूल्य दे, इसको कानून का हिस्सा बनाने के लिए सरकार तैयार नहीं है।

            और अंत में विवाद के निपटारे की प्रक्रिया- क्या देश के 80 प्रतिशत सीमांत और छोटे किसानों की हैसियत है कि वह बड़ी-बड़ी कंपनियों के खिलाफ शिकायत लेकर 3 महीने तक सुलह बोर्डों, एसडीएम और कलेक्टर के चक्कर लगाता रहे, जिनके निर्णय के खिलाफ सिविल अदालत में अपील कर सकने का अधिकार भी उसे नहीं दिया गया है। जो किसान मंडी समितियों से नहीं लड़ सके, निजी बीमा कंपनियों द्वारा जबरन प्रीमियम की कटौती नहीं रोक पाए, कस्बे के बीज, खाद, कीटनाशक देने वाले रिटेलर और सूदखोर के आगे मजबूर हैं, वे कारपोरेट के वकीलों और उनके जरखरीद अधिकारियों से अपने हितों की हिफाजत कैसे कर सकेंगे?

            देश के मुट्ठी भर (4.1 प्रतिशत) बड़े फार्मरों (3.69 लाख किसान परिवार जिनके पास 10 हेक्टेअर से ज्यादा खेती है) या बड़े मध्यम किसानों (4-10 हेक्टेअर के मालिक) को हो सकता है कि नई व्यवस्था में भी कुछ फायदा हो जाए, क्योंकि अपनी बेहतर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हैसियत के चलते और शिक्षित और जागरूक होने के कारण वे सौदेबाजी की बेहतर स्थिति में होंगे। लेकिन अमरीका जैसे देशों के अनुभव हमें यही बताते हैं कि ये किसान भी बिना सरकारी सहायता और संरक्षण के, बिना सब्सिडी और मुआवजे के बड़ी कारपोरेट कंपनियों का मुकाबला नहीं कर सकेंगे। यह बात बड़े किसान भी समझ रहे हैं कि अगर समर्थन मूल्य को कंपनियों के लिए बाध्यकारी नहीं बनाया गया तो नई मंडी व्यवस्था में उनके लिए भी मुश्किलों का सामना होगा। लेकिन एग्रीगेटर, लागत सप्लायर, परामर्शदाता इत्यादि के रूप में उनके सामने कुछ नए अवसर भी खुलेंगे।

            जाहिर है कि सरकार बड़े निगमों, उद्योगपतियों, निर्यातकों, थोक व्यापारियों, बड़े खुदरा व्यापारियों और कंपनियों के लिए ही यह सब कर रही है। इन कानूनों को लागू करके वह इन्हीं को बताना चाहती है कि वही उनकी सबसे बड़ी सेवक है, और कांग्रेस और दूसरी पार्टियां उससे ज्यादा नहीं कर सकतीं। भाजपा और महामहिम प्रधानमंत्री मोदी जी राज्य सरकारों को साथ मिलाकर चलने और किसानों के भी भले के बारे में सोचने में वक्त जाया नहीं करना चाहते। कोविड महामारी की ‘‘आपदा को अवसर में बदलते हुए’ वे जल्दी से जल्दी इन कानूनों को देश पर थोप देना चाहते हैं, ताकि किसानों के विरोध को आसानी से कुचला जा सके।

            क्या इन कानूनों से निजी निवेश बढेगा और बाजार में खरीददारों की प्रतियोगिता की वजह से किसानों को अच्छे दाम मिलेंगे, जैसा कि सरकार दावा कर रही है। यह सरकार की खामख्याली से ज्यादा कुछ भी नहीं है। बड़ी पूंजी, निगमों, खाद्य-उत्पाद तैयार करने वाले उद्योगपतियों, निर्यातकों और खुदरा विक्रेताओं की नजर अपने मुनाफे को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने पर होगी- मंडियों के निर्माण में निवेश वे क्यों करेंगे जबकि वे सीधे खेत से या गोदामों से खरीद सकते हैं। डब्बाबंद खाद्य पदार्थों को बनाने के लिए वे जरूर निवेश कर सकते हैं और इसके लिए किसान को ठेका खेती के अनुबंधों में बांधकर उनका काम चल जाएगा। उनकी कोशिश होगी कि जरूरी पूंजीनिवेश सरकार करे और मुनाफा कमाने के लिए उन्हें छोड़ दे। पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत सरकार पैसा लगाए, या उन्हें आसान शर्तों पर ऋण दे जो वे न चुकाएं और बाद में उसे बट्टेखाते में (NPA) डाल दिया जाए। वे कौड़ियों के मोल देश के बने बनाए कृषि बाजारों, मंडियों के ढांचे और भंडारण की व्यवस्था पर कब्जा करना चाहते हैं जैसा कि उन्होंने बीएसएनल या रेलवे के मामले में किया है। अगर मंडी समितियों के थोड़े से व्यापारी गठजोड़ कर सकते हैं, तो ये मुट्ठीभर बड़ी कंपनियां क्यों गठजोड़ नहीं करेंगी और कार्टेल नहीं बनाएंगी? दरअसल सरकार को गठजोड़ से दिक्कत नहीं है बल्कि वह चाहती है कि इसका मौका बड़े खिलाड़ियों को मिले। वह कृषि को बड़े निगमों और उद्योगों के रहमोकरम पर छोड़ चुकी है।

            इसके बाद सरकार जमीन को पट्टे पर देने के कानून में भी संशोधन लेकर आने वाली है जिसका माडल का प्रारुप तैयार है। नीति आयोग के पूर्व चेयरमैन अरविंद पनगढ़िया इस कानून का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहते हैं : ‘‘एक उदारीकृत और सुरक्षित भूमि पट्टा मार्केट (लेंड लीज बाजार) का सबसे बड़ा फायदा होगा कि यह उन किसानों को बाहर जाने का रास्ता दिखाएगा जो खेती को आकर्षक नहीं समझते, जिनके लिए वह घाटे का सौदा है और उन किसानों को मजबूत करेगा जो खेतों में रुचि रखते हैं और टिके रहना चाहते हैं... और हमारी जोतों के आकार को बढ़ाएगा’’ (कृषि पर स्टेटस रिपोर्ट- 2015)। जाहिर है बाहर जाने का रास्ता दिखाने की बात 86 प्रतिशत छोटे और मझोले किसानों के लिए ही की जा रही है जिनके लिए खेती किसी तरह भुखमरी से बचने का साधन है। इस प्रस्तावित कानून के तहत कंपनियां गैर-कृषि फार्मों के लिए भी जमीन पट्टे पर ले सकेंगी। दूसरी ओर अभी खेती को बटाई या पट्टे पर लेकर खेती करने वाले गांव के बेरोजगार, खेत मजदूर या छोटे किसानों से उनकी आय का जरिया छिन जाएगा।

            इस तरह इन तीनों कानूनों का मकसद जहां बड़े निगमों और उद्योगपतियों और व्यापारियों को फायदा पहुंचाना है, वहीं देश के बहुसंख्यक छोटे किसानों, सीमांत किसानों और खेत मजदूरों को खेती से बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है या उन्हें अपने ही खेत पर मजदूर बना कर छोड़ दिया जाएगा (देखें उत्पादन अनुबंध)। खेत में लगने वाली तमाम लागत वह कंपनी से खरीदेगा और उसी कंपनी को अपना माल भी बेचेगा और कंपनी दोनों तरफ से मुनाफा कमाएगी। वह मालिक बनाए रखा जाएगा ताकि प्राकृतिक आपदाओं की मार कंपनी को न सहन करनी पड़े, उसकी बीमारी का खर्च कंपनी को न उठाना पड़े और 4-6 साल के बाद जब खेत की पूरी जीवन शक्ति चूंस ली गई हो, कंपनी उस तबाह खेत को छोड़कर दूसरे शिकार की तलाश के लिए आजाद हो।           

समाधान क्या है :

स्पष्ट है कि सरकार जिसे किसानों की आजादी बता रही है कि वह दरअसल बड़ी पूंजी- बहुराष्ट्रीय निगमों, उद्योगपतियों, निर्यातकों और खुदरा विक्रेताओं की आजादी है। आढ़तियों के चंगुल से निकलकर उन्हें उनसे भी बड़े पूंजीपतियों के चंगुल में फंसाया जा रहा है। मंडी समितियों के बिचैलियों से बचाने के नाम पर उन्हें नए कारपोरेट बिचैलियों और दबंग एग्रीगेटरों के द्वारा नोंचने-खसोटने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

            किसान की गुलामी की वजह, इन शार्कों के चंगुल में उसके फंसने की वजह, और सब कुछ जानते हुए सूदखोरों के हाथों अपनी मेहनत की कमाई लुटाने और फिर आत्महत्या कर लेने की वजह एक है-- किसान के हालात। वे भौतिक परिस्थितियां जिनमें वह खेती करने के लिए बाध्य है।

            देश के 70 प्रतिशत सीमांत किसान और 17 प्रतिशत छोटे किसान अपनी छोटी जोतों के कारण और खेती के साथ पशुपालन और मजदूरी करने के बावजूद अपने खर्चे पूरे नहीं कर पाते। खेती उनके लिए घाटे का सौदा बन चुकी है। देश के 82.6 प्रतिशत दलित किसान सीमांत किसान हैं और केवल कर्नाटक को छोड़कर बाकी तमाम राज्यों में उनकी आय खर्चों से कम है। नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद के 2015 के एक अध्ययन के मुताबिक 0.63 हेक्टेअर से कम की जोत से इतनी आय नहीं नहीं होती कि किसान गरीबी रेखा से ऊपर आ सके। देश के एक सीमांत किसान के पास औसत 0.37 हेक्टेअर खेत है जो एक बड़े फार्मर की जोत का 45वां हिस्सा भी नहीं बैठता। खराब आर्थिक-सामाजिक हैसियत के चलते न तो इनकी सरकारी मंडी तक पहुंच है और न ही इन्हें बैंकों और दूसरी सहकारी संस्थाओं से उचित सहायता मिल पा रही है। इसलिए इनकी फसल इन्हें जरूरतमंद और लाचार होने के कारण सस्ते में बेचनी पड़ती है और कर्जों के लिए प्राइवेट सूदखोरों के पास जाना पड़ता है जो 3 प्रतिशत मासिक ब्याज लेते हैं।

पिछले तीन दशकों की निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीति ने इन किसानों के हालात बद से बदतर कर दिए हैं जिसकी प्रमुख विशेषताएं हैं: (1) कृषि पर तमाम सब्सिडी की चरणबद्ध ढंग से 2023 तक खत्म कर देना (2) कृषि उपज को अंतराष्ट्रीय बाजार के लिए खोलना (3) कृषि को वित्त मुहैया करने की व्यवस्था का निजीकरण (4) कृषि में निजी निवेश और सट्टेबाजी को बढ़ावा देना।

            इन नीतियों के परिणामस्वरूप किसानों को खाद, बीज, पानी महंगे मिलने लगे, ग्रामीण विकास खासकर सिंचाई और परिवहन पर सरकारी निवेश में कटौती होने से कृषि अर्थव्यवस्था के विकास में गिरावट आई, वित्तीय क्षेत्र के निजीकरण से बैंकों ने ग्रामीण क्षेत्रों में विस्तार की कोशिशें बंद कर दीं और किसानों को बैंकों और सरकारी संस्थाओं से मिलने वाले सस्ते ऋणों में तेजी से कमी आई। सरकारी बजट के अभाव में कृषक सहायता सेवाएं और शोध लगभग ठप्प हो गए। इन सभी कारणों से किसान की लागत बढ़ गयी और उसके ऊपर कर्ज बढ़ने लगा। अधिक उत्पादन करके कर्ज उतारने के लालच में किसान नकली बीजों और कीटनाशकों के चक्कर में पड़कर और तबाह हो गए। मोंसेंटो जैसे बहुराष्ट्रीय बीज निगमों ने इस स्थिति का फायदा उठाकर उन्हें अधिक उत्पादन देने वाले जैविक संवर्धित बीज (जीएम सीड) बेचे जिनमें टर्मिनेटर जीन का इस्तेमाल करके किसानों को हर साल नया बीज लेने के लिए बाध्य किया गया। इन बीजों के बारे में सही जानकारी और परामर्श सेवाओं के अभाव में किसानों ने खादों और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल किया और बुरी तरह कर्जों के मकड़जाल में फंसते चले गए।

            अंतर्राष्ट्रीय बाजार से भारत के बाजार को जोड़ने के लिए कृषि निर्यातों पर लगी रोक हटा दी गयी, पहले गेहूं, चावल समेत प्रमुख कृषि उपजों के निर्यात को खोला गया और उसके बाद दाल, सब्जियों और डब्बाबंद खाद्य पदार्थों का निर्यात भी खोल दिया गया। आयात पर लगी रोक भी हटा दी गई और शुल्क बढ़ाकर नियंत्रण करने का रास्ता अपनाया गया। बहुत सी कृषि उपजों के आयात पूरी तरह निजी क्षेत्र के लिए खोल दिए गए। इसके विनाशकारी परिणाम सामने आए। घरेलू बाजार के अंतर्राष्ट्रीय बाजार से जुड़ जाने के कारण कीमतें अस्थिर हो गयीं और किसानों का संकट और ज्यादा बढ़ गया। 1996-2002 के बीच दुनिया के बाजारों में खाद्यान्नों की कीमतों में भारी गिरावट दर्ज की गयी जिसके चलते हमारे देश में भी किसानों को उनकी उपज के सही दाम नहीं मिल सके। भारी मात्रा में सस्ते आयात से देश के मामले में इसका सबसे बुरा असर पड़ा। जहां 1994-95 में आत्मनिर्भरता 94 प्रतिशत थी वहीं 2014-15 तक आते-आते घटकर केवल 43 प्रतिशत रह गई। देश की प्रतिव्यिक्ति खाद्यान्न उपलब्धता भी 1990 में 435.3 ग्राम प्रति व्यक्ति से घटकर 2012 में 408.6 ग्राम प्रति व्यक्ति रह गई।

            इस तरह पिछले तीन दशक की इन नीतियों का ही परिणाम है कि आज भारतीय किसान एक बेहद अस्थिर और अनिश्चितता के माहौल में खेती करने के लिए बाध्य हो गया है। उन्हें बहुत ज्यादा सब्सिडी पाने वाले विकसित देशों के फार्मरों और व्यापारी निगमों के साथ प्रतियोगिता करनी पड़ रही है। सरकार की उपेक्षा के कारण वह कर्ज के दल दल में फंस चुका है और उससे निकलने का कोई रास्ता उसके सामने नहीं है।

            यह देश का दुर्भाग्य है कि देश की तमाम चुनी हुई सरकारें वोट लेने के बाद किसानों को भूल जाती हैं और रिलायंस वालमार्ट और मोसेंटो जैसी बड़ी कंपनियों की सेवा करने लगती हैं। वे एक-दूसरे के साथ इस काम में होड़ करने लगती हैं। यह और भी त्रासद है कि हममें से अधिकतर लोग इस सच्चाई को देखने के लिए तैयार नहीं हैं और आज भी धर्म और जाति के नाम पर कभी इस तो कभी उस पार्टी का समर्थन करने लगते हैं। हमारे बीच के इस बंटवारे को, इस नफरत को उभारकर ही ये पार्टियां अपना उल्लू सीधा करती हैं और हमें और गर्त में धकेल देती हैं।

            देश की जनता और बुद्धिजीवी वर्ग कब इस बात का अहसास करेगा यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन देश के 86 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसानों के सामने आज एक वास्तविक संकट मुंह बाए खड़ा है- एक किसान के तौर पर उनका अस्तित्व संकट में है- वे अपने ही खेत पर खेतिहर मजदूर बन जाएंगे या फिर प्रेमचंद के हल्कू की तरह खेती से बाहर हो जाएंगे। उनकी लड़ाई न्यूनतम समर्थन मूल्य की ही नहीं है- एक लंबी लड़ाई है।

इस संकट से किसान तभी आजाद हो सकते हैं जब कृषि के बारे में कोई भी नीति उनको केंद्र में रखकर बनाई जाए, जब उन्हें गुलाम और मजबूर करने वाले उनके हालात बदलें। उन्हें सरकार के सक्रिय समर्थन की जरूरत है- उनके कापरेटिव बनाए जाएं, सस्ती लागत और सस्ती तकनीक उपलब्ध करवाई जाए, आसान शर्तों पर ऋण दिए जाएं और फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने की व्यवस्था की जाए। इसके लिए सरकार को मंडी व्यवस्था को मजबूत बनाना होगा और उसका विस्तार करके हर गांव और कस्बे तक पहुंचाना होगा ताकि गरीब किसान की भी उन तक पहुंच हो सके। निजी कंपनियां यह सब कभी नहीं करेंगी।

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