14 मई, 2021 (ब्लॉग पोस्ट)

फिलिस्तीन में बगावत

(मई 2021 की शुरुआत में इजरायल और फिलीस्तीनी लोगों के बीच संगर्ष फिर भड़क उठा. इजरायल सेना ने अल-अक्सा मस्जिद पर हमला करके नमाज अदा कर रहे फिलीस्तीनी लोगों पर जुल्म ढाया. इस संघर्ष में सैकड़ों लोग घायल हुए. इजरायल और फिलीस्तीन के बीच का संघर्ष दशकों पुराना है, इसकी जड़ें इतिहास में हैं, अक्टूबर 1988 में मंथली रिव्यु में छपा यह लेख आज भी इस संघर्ष की प्रकृति को समझने में हमारी मदद करता है.)

गाजा के वेस्ट बैंक में रह रहे फिलिस्तीनियों के प्रतिरोध ने इजराइली कब्जे के बाद लगभग इक्कीस वर्षों के दौरान अलग–अलग रूप अख्तियार किये हैं। मौजूदा बगावत का पैमाना और चरित्र, जो एकदम जुदा और नया है, जनता के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की छाप लिये हुए है। विद्रोह के आकार और तीव्रता का अनुमान इसके फलस्वरूप होने वाली मौतों से लगाया जा सकता है। विद्रोह के शुरुआती नौ महीनों में ही 221 फिलिस्तीनियों को मौत के घाट उतार दिया गया। (द न्यू यॉर्क टाइम्स, 19 अगस्त 1988) कुल जनसंख्या के अनुपात में देखें तो यह अमरीकी आबादी में से 38,800 लोगों की मौत के बराबर है या लगभग नौ सालों तक चले वियतनाम युद्ध में मारे गये कुल अमरीकियों का 82 प्रतिशत है। घायलों और कैदियों पर विश्वसनीय आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन यह साफ है कि गोली से, पिटाई से और आँसू गैस से घायल होने वालों की संख्या हजारों में होगी। जून के अन्त तक आते–आते यह अन्दाजा लगाया गया था कि वेस्ट बैंक और गाजा के 600 से अधिक फिलिस्तीनियों को कैदखानों में डाल दिया गया था।(1) आनुपातिक रूप से, मानो यह लाखों प्रदर्शनकारियों को अमरीकी बन्दी शिविरों में पहुँचा देने के समान था।

ये आँकड़े केवल विद्रोह को कुचलने के प्रयासों की कठोरता को ही नहीं, बल्कि इस भू–भाग पर लगातार बढ़ रहे इजराइली आधिपत्य के खिलाफ होने वाले प्रतिरोध की ताकत की भी पुष्टि करते हैं। दिसम्बर 1987 में सेना द्वारा एक सड़क को अवरूद्ध करने के प्रयास में हुई चार फिलिस्तीनियों की मौतों को लेकर अनायास पफूटा गुस्सा एक तीव्र और व्यापक जन–आन्दोलन में तब्दील हो गया जिसने रोजमर्रा की जिन्दगी और सम्पूर्ण भू–भाग को अपनी गिरफ्त में ले लिया। विद्रोह और इसकी तीव्रता के कारणों को खोजना मुश्किल नहीं है। नि:सन्देह इसके पीछे मिले–जुले कारण थे– विरोध–प्रदर्शनों का क्रूरतापूर्वक दमन; विदेशी सेना और प्रशासन की बढ़ती कटुता और प्रताड़ना; अरब के स्वामित्व वाली भूमि का अधिग्रहण; न केवल इजराइली सीमा पर, बल्कि फिलिस्तीनी क्षेत्र के भीतर भी इजराइली बस्तियों में बढ़ोत्तरी; यहाँ तक कि कब्जे वाले इलाकों को स्थायी रूप से इजराइल में मिला लेने के संकेत भी मिल रहे थे। फिर भी इस विशाल और टिकाऊ प्रतिरोध का प्रेरणास्रोत राष्ट्रीय मुक्ति के लिए अथक प्रयास में पाया जा सकता है।

आत्मनिर्णय के लिए जनता की आकांक्षा न केवल मानवतावादी दृष्टिकोण से बल्कि उपनिवेशवाद के इतिहास द्वारा सिखाये गये सबक से भी समझी जा सकती है। लेकिन इजराइली कब्जे वाले क्षेत्र के मुद्दे पर उनमें भी विभ्रम की स्थिति बनी हुई है, जो इजराइली सरकार की नीतियों का विरोध करते हैं। इजराइली सुरक्षा की चिन्ता को प्रतिबिम्बित करने के अलावा गड़बड़ी इजराइली इतिहास, फिलिस्तीनी जनता और पेलिसटाईन लिबरेशन ऑरगेनाइजेशन (पीएलओ) के इतिहास के बारे में ठंडे बस्ते में बन्द अवधारणा में भी निहित थी।

चूँकि जीतने वाले और हारने वाले इतिहास को अलग–अलग नजरिये से देखते हैं और प्रचारों को तथ्य की तरह स्वीकार लिया जाता है, इसलिए ऐसे मामलों की यथार्थपरक तस्वीर पेश करना कठिन है। पश्चिम में और खासकर अमरीका में इजराइल–फिलिस्तीन संघर्ष को इजराइली नजरिये से देखा जाता है। इजराइली सूत्रों द्वारा एक नया संशोधनवादी इतिहास प्रतिपादित किया जा रहा है, हालाँकि इसे अभी तक नजरन्दाज किया गया है। यह संशोधनवाद कुछ हद तक वियतनाम युद्ध के दौरान अमरीका में घटित उन घटनाओं से मिलता–जुलता है। एक अध्ययन से पता चला है कि युद्ध की प्रकृति और कारण पर आमतौर पर प्रचलित तथ्य सच्चाई से बिलकुल मेल नहीं खाते। इजराइल में, लेबनान पर हमला बेरूत पर बेतहाशा बमबारी करके कब्जा कर लेना, और सबरा और शतीला में फिलिस्तीनी शरणार्थी शिविरों में हुए खून–खराबे ने विद्वानों को इतिहास को नये सिरे से खंगालने के लिए प्रोत्साहित किया था। चाहे जो भी प्रेरक शक्ति रही हो, वहाँ एक नयी शुरुआत के लिए महत्त्वपूर्ण आधार था जो मौलिक स्रोत सामग्री की बढ़ती उपलब्धता पर आधारित था। इजराइल के सरकारी अभिलेखागार और सेन्ट्रल जियोनिस्ट आर्काइव द्वारा हजारों गुप्त दस्तावेज जारी किये गये और बेन–गुरियन की पुस्तक वार डायरीज को प्रकाशित किया गया। (बेन–गुरियन ने इजराइल राष्ट्र की स्थापना के लिए युद्ध छेड़ा था और उसके पहले प्रधानमंत्री बने थे।)

नये प्रमाणों पर आधारित संशोधित ऐतिहासिक दृष्टि का एक प्रमुख उदाहरण सिमहा फ्लेपन की पुस्तक बर्थ ऑफ इजराइल: मिथ्स एण्ड रियलिटीज (न्यूयार्क: पेंथिआन 1987) में मिलता है। यह किताब न केवल इसमें दी गयी जानकारी के चलते, बल्कि इसके लेखक की पहचान के कारण भी विचारणीय है। फ्लेपन, जिनकी मृत्यु इस पुस्तक के प्रकाशित होने के कुछ ही समय पहले हुई, एक आजीवन जियोनवादी और मापाम (यूनाईटेड वर्कर्स पार्टी) के अगुआ सदस्य थे, जो बेगिन के प्रभुत्व से पहले उस गठबन्धन में अकसर शामिल थे, जिसका इजराइल में शासन था। उन्होंने पार्टी में राष्ट्रीय सचिव की भूमिका निभायी और अरब मामलों को निर्देशित किया। उन्होंने मध्य–पूर्वी मामलों को समर्पित मासिक पत्रिका न्यू आउटलुक निकाली और दशकों तक इजराइल–फिलिस्तीन विवाद के न्यायपूर्ण और शान्तिपूर्ण समाधान के लिए किये गये क्रियाकलापों में शामिल रहे। इजराइल के इतिहास के साथ अपने घनिष्ठ सम्बन्ध और मध्य–पूर्व की अच्छी जानकारी के बावजूद नये उद्घाटित प्रमाणों ने उन्हों आश्चर्य में डाल दिया, जिसे उनकी पुस्तक की भूमिका से लिये गये इस उद्धरण में देख सकते हैं।

‘‘अधिकांश इजराइलियों की तरह मैं भी हमेशा कुछ निश्चित मिथकों के प्रभाव में रहा हूँ जिन्हें एक ऐतिहासिक सत्य की तरह स्वीकार कर लिया गया था और क्योंकि मिथक किसी सोच या प्रचार की बुनावट के केन्द्र में होते हैं, इसलिए इन मिथकों ने पिछले साढ़े तीन दशकों में इजराइली नीतियों को बनवाने में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इजराइल के मिथक इस राष्ट्र के आत्मबोध के मर्मस्थल में मौजूद हैं। बावजूद इसके कि इजराइल इस क्षेत्र में सबसे परिष्कृत सेना रखता है और एक उच्चस्तरीय नाभिकीय क्षमता से लैस है, यह आज भी अपने आपको खून के प्यासे एक अजेय शत्रु (हिटलर) के महाविध्वंश (होलोकोस्ट) का शिकार होने के रूप में प्रस्तुत करता है। इस प्रकार इजराइली जो भी करते हैं या अपना स्वार्थ साधने के लिए जो भी कदम उठाते हैं; उन्हें हम आत्मरक्षा कहकर न्यायसंगत ठहराते हैं कि हम कुछ भी गलत नहीं करते। राष्ट्र का गठन करते समय गढ़े गये मिथकों ने इस दुर्भेद्य और खतरनाक वैचारिक ढाल को कठोर बना दिया है। फिर भी मेरे अध्ययन से जो बात सामनेे आयी, वह यह थी कि खासकर 1948 से 1952 के बीच इन मिथकों ने लोगों का विश्वास जीता, लेकिन मौजूदा दस्तावेज उनमें से किसी भी बात को प्रमाणित करने में असफल हैं, बल्कि उनका खुलकर खण्डन करते हैं।

चूँकि फ्लेपन का उद्देश्य, प्रचार का जो ढाँचा उनके अनुसार उनके देश में शान्ति बनाये रखने वाली ताकतों को बाधित कर रहा था, उसे नष्ट करना था, इसलिए उनकी किताब इतिहास के रूढ़िगत चित्रण से हट कर है। एक बेहतर अकादमिक परम्परा के तहत पाठकों के लिए स्रोत बताने वाली ढेर सारी टिप्पणियाँ दी गयी हैं, लेकिन सीधे–सीधे वर्णन करने के बजाय, यह पाठ इजराइली फिलिस्तीनी सम्बन्धों से जुड़े सात प्रचलित मिथकों को जाँचने के इर्द–गिर्द संगठित और प्रस्तुत किया गया है। इतिहास के वर्णन का यह तरीका गैर पारम्परिक हो सकता है। मगर यह फिलिस्तीनी अरबों के मौजूदा विद्रोह पर प्रकाश डालने के लिहाज से उपयोगी है। अत: सातों मिथकों की जाँच के बाद कोई भी यह देख सकता है कि 1967 में जीते गये फिलिस्तीनी भू–भाग पर कब्जा बनाये रखना इजराइल की निर्बाध, दीर्घकालिक योजना रही है। 1947 से पहले स्वीकृत औपचारिक जियोनवादी उद्देश्य पूरे फिलिस्तीन को यहूदी राष्ट्र बनाने का था। अनुमान है कि इसे यहूदियों और अरबवासियों के झगड़े का समाधान करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से फिलिस्तीन के बँटवारे का प्रस्ताव आने के बाद बदल दिया गया। इस बदलाव से सम्बन्धित मिथक का वर्णन करते हुए फ्लेपन कहते हैं–

‘‘29 नवम्बर, 1947 के संयुक्त राष्ट्र बँटवारा प्रस्ताव (यूनाईटेड नेशन्स पार्टिशन रेज्योलूशन) को जियनवादियों द्वारा स्वीकार कर लेना एक दूरगामी नतीजों वाला समझौता था, जिसके चलते यहूदी समुदाय ने पूरे फिलिस्तीन को यहूदी राष्ट्र बनाने के विचार का परित्याग कर दिया और फिलिस्तीनियों के अलग राज्य के अधिकार को मान्यता देने पर सहमत हो गया। इजराइल ने इस समझौते को स्वीकार कर लिया, क्योंकि उसे फिलिस्तीनियों द्वारा इस समाधान में शान्तिपूर्वक सहयोग करने का पूर्वानुमान था।’’

असल में, प्रमाण बताते हैं कि बँटवारे के समाधान को स्वीकार करना एक रणनीति के तहत सोची–समझी चाल थी जिसका उद्देश्य फिलिस्तीन के एक बड़े हिस्से को हड़पना और शेष फिलिस्तीन में फिलिस्तीनी अरब राज्य को स्थापित होने से रोकना था। बटँवारे के समाधान को संयुक्त राष्ट्र की अनुमति तथा अमरीका और सोवियत संघ द्वारा समर्थन किये जाने के चलते अरब की जनता की इच्छाओं के विरुद्ध इजराइल को राष्ट्र के रूप में वैधता मिल गयी। योजना और नीतियों में मतभिन्नता के बावजूद जियोनवादी नेतृत्व अवसर का लाभ उठाने के बारे में एकमत था, लेकिन बँटवारे को सिद्धान्तत: स्वीकार कर लिये जाने पर भी संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रस्तुत समाधान में सरहद के सीमांकन को अंगीकार करने के संकेत नहीं मिल रहे थे। संयुक्त राष्ट्र संघ में मतदान के चार दिन बाद श्रमिक संघ ‘‘हिस्ताद्रुत’’ की केन्द्रीय कमेटी में भाषण देते हुए बेन–गुरियन ने घोषणा की कि ‘‘सैन्य और राजनीतिक दृष्टिकोणों से सरहदें बुरी हैं।’’

‘‘यहूदी राष्ट्र को जो क्षेत्र आबंटित किया गया, उसमें 5,20,000 से अधिक यहूदी नहीं हैं और लगभग 3,50,000 गैर–यहूदी हैं, जिसमें अधिकतर अरबी हैं (जेरूसलम के यहूदियों को छोड़कर जो राज्य के नागरिक थे।) जेरूसलम के यहूदियों को मिलाकर यहूदी राष्ट्र की स्थापना के समय इसकी कुल आबादी लगभग 10 लाख होगी जिसमें लगभग 40 प्रतिशत गैर–यहूदी होंगे। इस प्रकार का संयोजन एक यहूदी राज्य के लिए एक मजबूत आधार उपलब्ध नहीं करता। इस तथ्य को साफ–साफ और तीक्ष्ण रूप में देखा जाना चाहिए था। इस तरह का संयोजन हमे इस बात के लिए पूरी तरह आश्वस्त नहीं करता कि नियंत्रण यहूदी बहुमत के हाथों में बना रहेगा।’’ (जोर लेखक का)।

जिन सरहदों की बेन–गुरियन बात कर रहे थे, संलग्न मानचित्र–1 में उन्हें दर्शाया गया है। जैसा देखा जा सकता है, प्रत्येक प्रस्तावित राज्य धारीदार हिस्से के टुकड़ों से भिन्न तीन भागों में बँटा था, जिसमें जेरूसलम को एक ‘‘अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र’’ की तरह स्थापित किया गया था। किसी भी दृष्टिकोण से कोई राज्य जीवन यापन के लायक नहीं था। फिर भी संयुक्त राष्ट्र परियोजना में निहित अनुमान यह था कि अरबी और यहूदी समुदाय दोनों ही जमीन के इस बँटवारे को स्वीकार करें और एक आर्थिक संघ में शान्तिपूर्ण सहयोग दें। लेकिन न तो फिलिस्तीनी अरबों और न ही अरब लीग (अरब राज्यों का गठबन्धन) ने इस योजना को स्वीकार किया, बल्कि इसके अलावा एक नये लिखित प्रमाण से और रोजमर्रा की घटनाओं से यह साफ है कि जियोनवादी नेता एक स्वतंत्र फिलीस्तीनी अरब राष्ट्र के निर्माण के सख्त खिलाफ थे। संयुक्त राष्ट्र द्वारा अनुमानित शान्तिपूर्ण समझौते के बजाय दो युद्धों ने फिलिस्तीन के बँटवारे और इजराइल की सरहदों को खींच दिया।

विरोध की पहली शुरुआत तो संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रस्तावित समाधान के साथ ही हो गयी थी, इजराइली राष्ट्र के गठन के कुछ ही क्षण बाद संयुक्त राष्ट्र समाधान को स्वीकारने के साथ ही जेरूसलम में स्थानीय फिलिस्तीनी अरब लड़ाकों की इकाइयाँ उठ खड़ी हुर्इं। अरब लिबरेशन आर्मी बनाने के लिए दूसरे अरब देशों से लगभग 300 स्वयंसेवक आये और यहूदी नेताओं ने भी 17 से 25 साल के युवाओं का आह्वान किया कि वे पहले से स्थापित सेना (हगानाह) में भर्ती होने के लिए आवेदन करें। उस समय फिलिस्तीन की सत्ता ब्रिटेन के हाथों में थी, जो प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हासिल किये गये जनादेश के मातहत थी। ब्रिटिश जनादेश की सत्ता ने ऐसा कोई भी पैफसला लेने से इनकार कर दिया जो अरबों और यहूदियों को स्वीकार्य नहीं थे और जो लड़ाई छिड़ी हुई थी, उससे अपने हाथ खींच लिये। युद्ध के दौरान यहूदी सेना ने गैलिली के कई क्षेत्रों और तेल अबीब से जेरूसलम के उन रास्तों पर कब्जा जमा लिया जो फिलिस्तीनी अरब राज्य को आबंटित किये गये थे। इसने संयुक्त राष्ट्र द्वारा खींची गयी सीमा रेखा में हुए पहले संशोधन को जन्म दिया, क्योंकि कब्जे वाले भू–भाग नये राज्य का हिस्सा बन गये।

इजराइल की स्वतंत्रता घोषणा और कामचलाऊ सरकार का गठन ब्रिटिश जनादेश सत्ता की समाप्ति के साथ, 14 मई, 1948 को किया गया, जबकि संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित तारीख को अभी चार महीने से ज्यादा समय बाकी था। नये राष्ट्र के गठन ने एक नये तरीके के युद्धकाल की शुरुआत के संकेत दिये, क्योंकि अरब सेनाएँ (मिश्र, इराक, लेबनान, सीरिया और ट्रांसजॉर्डन) फिलिस्तीन में दाखिल हो गर्इं और उन सब ने इजराइल के कई मोर्चों पर हमला किया। 1949 के शुरुआती दिनों में ही इजराइली लड़ाकू सेनाओं ने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी। उन्होंने न सिर्पफ अपने नये जन्मे राज्य को बनाये रखा, बल्कि शान्तिपूर्ण समझौता करने से पहले अतिरिक्त भूमि पर कब्जा करके उसे सुदृढ़ कर दिया। परस्पर युद्धरत प्रत्येक अरब राष्ट्र के साथ अलग–अलग सैन्य सन्धियाँ हुर्इं। युद्ध विरामसन्धि के आधार पर सीमांकन किया गया जो तथ्यत: कापफी समय पहले ही सीमाओं में परिवर्तित हो चुकी थी। लोगों का तेजी से पलायन और नयी बस्तियों ने जीते गये भू–भाग को इजराइल के अभिन्न अंग में बदल दिया। सम्पूर्णता में 1947 और 1949 में युद्धों के दौरान कब्जाया गया भू–भाग जो मानचित्र–2 में बिन्दुओं द्वारा दर्शाया गया है– ने इजराइली क्षेत्रफल को संयुक्त राष्ट्र आबंटन की अपेक्षा लगभग 40 पफीसदी बढ़ा दिया।

अभिलेखीय दस्तावेज ऊपर उद्धृत मिथक और यथार्थ के बीच एक और अन्तर को उद्घाटित करते हैं। हालाँकि जियोनवादी नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र के बँटवारे की योजना को समर्थन देने की घोषणा की और बाद में इस धारणा को बढ़ावा दिया कि कोई भी अरबवासी इजराइल के साथ शान्ति नहीं चाहता, लेकिन लिखित प्रमाण बिलकुल नयी कहानी पेश करते हैं। तथ्य यह है कि गोल्डा मायर (जो बाद में इजराइल के प्रधानमंत्री बने) और जियोनवादी अधिकारियों ने संयुक्त राष्ट्र समाधान से पहले और बाद में ट्रांसजॉर्डन (जिसे दूसरा नाम जॉर्डन दिया गया) के राजा अब्दुल्लाह के साथ गुप्त वार्ताएँ की थी। ये वार्ताएँ इजराइली कब्जे से मुक्त फिलिस्तीनी भू–भाग के प्रबन्धन और दोनों देशों के बीच शान्तिपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने से सम्बन्धित थीं।(2) राजा अब्दुल्लाह की मंशा अपने राज्य की सीमा को उस विरल आबादी वाले क्षेत्र तक फैलाने की थी जो उसे ब्रिटेन ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ऑटोमन तुर्कों को हराने में मदद करने के लिए भेंट स्वरूप दिया था। आखिरकार उसकी महत्त्वकांक्षा वृहद सीरिया पर राज करने की थी, जिसके हिस्से में जॉर्डन नदी के पश्चिमी भाग की जमीन भी आती। जियोनवादी नेतृत्व के उद्देश्य पूर्ति के लिए परिस्थितियाँ उस समय अनुकूल नहीं थीं, जब यहूदी आबादी स्पष्ट अल्पमत में थी। प्रत्यक्ष रूप से वार्ताकारों के दीर्घकालिक लक्ष्य विपरीत दिशाओं में जा रहे थे, लेकिन उनके पास एक अल्पकालिक लक्ष्य था– एक स्वतंत्र फिलिस्तीनी अरब राज्य का विरोध करना। केवल समय को ही निश्चित करना था कि किसकी रणनीति सफल होगी– अब्दुल्लाह की या जियोनवादी नेतृत्व की। इस दौरान समझौता करने वाली प्रत्येक पार्टी यह मान चुकी थी कि एक स्वतंत्र फिलिस्तीनी अरब राज्य अन्तत: उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के मार्ग में बाधा बनकर खड़ा होगा।

गुप्त कूटनीति एक समझौते पर केन्द्रित थी, जिसमें तय हुआ था कि ट्रांसजॉर्डन संयुक्त राष्ट्र द्वारा आबंटित इजराइली सीमाओं में हस्तक्षेप नहीं करेगा और उसके बदले इजराइल अब्दुल्लाह द्वारा फिलिस्तीन के उस क्षेत्र को कब्जाने का विरोध नहीं करेगा जो फिलिस्तीनी अरबों के हिस्से में आता था। जब दूसरे अरब देशों ने इजराइल पर हमला किया तो अब्दुल्लाह ने दोहरी चाल चली। युद्ध में शामिल होने के बावजूद उसने एक यहूदी राज्य के गठन में हस्तक्षेप न करने के अपने महत्त्वपूर्ण वादे को निभाया। ट्रांसजॉर्डन की सेना संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित इजराइली सीमाओं के बाहर ही लड़ी।

जब 1949 में सैन्य सन्धियों पर हस्ताक्षर किये गये तो फिलिस्तीन के बँटवारे का कार्य पहले ही सम्पन्न  हो चुका था। सम्भावित फिलिस्तीनी अरब राज्य कभी बन ही नहीं पाया। इसके बजाय जिस भू–भाग को इजराइल नहीं कब्जा पाया था, उसे दो देशों ने कब्जा लिया: वेस्ट बैंक और आधा जेरूसलम ट्रांसजॉर्डन को मिला और गाजा पटटी मिस्र को। यह स्थिति 1967 में हुए युद्ध तक बनी रही। इसके बाद पूरा फिलिस्तीन इजराइल के हाथों में सिमट गया, जैसा मानचित्र–3 में देखा जा सकता है। भूरे रंग का हिस्सा इजराइल को दर्शाता है। समानान्तर रेखाओं से चिन्हित हिस्सा ‘‘फिलिस्तीन का बचा हुआ अरब क्षेत्र’’ इजराइल द्वारा घेरा गया भाग है और 1967 से उसके नियन्त्रण में है।

इस धरती और इसके लोगों पर इतने लम्बे समय से और एक अन्तहीन कब्जा क्यों ? जवाब शायद यही है कि इजराइली नेता (चाहे उदारवादी हांे या दकियानूस), फिलिस्तीनी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार का दृढ़ता से विरोध करते हैं और उन्हें इसका अपने लिए कोई लाभप्रद विकल्प नजर नहीं आता। अनौपनिवेशीकरण के दौर में सम्मिलित करने का विकल्प अन्तरराष्ट्रीय और घरेलू जटिलताओं को पैदा कर सकता है। किसी न किसी रूप में ये क्षेत्र वास्तविकता में उपनिवेश बन चुके हैं। क्लासिकीय औपनिवेशिक परम्परा के अनुरूप जमीन पर उपनिवेशवादियों के इस्तेमाल के लिए कब्जा किया गया और श्रमशक्ति के एक बड़े हिस्से को इजराइली कम्पनियों के लिए बेरोजगारों की औद्योगिक सुरक्षा सेना में तब्दील करके और इजराइली उत्पादों के लिए एकाधिकारी बाजार बनाकर अर्थव्यवस्था को उनका आश्रित बना दिया गया।

जियोनवादी सन्दर्भ में भौगोलिक क्षेत्र को समायोजित करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, क्योंकि अगर ऐसा होता तो इजराइल एक यहूदी राज्य रह ही नहीं जाता।(3) आज इजराइल की आबादी में अरब जनता का हिस्सा लगभग 15 पफीसदी है। इतनी कम आबादी महज इजराइल की आजादी के बाद वहाँ भारी पैमाने पर हुए यहूदी बसावट की वजह से ही नहीं, बल्कि 1948 में लाखों फिलिस्तीनियों को वहाँ से निकाले जाने के कारण भी है। दूसरी ओर, कब्जा किये गये भौगोलिक क्षेत्रों को मिला लिये जाने पर तो सापेक्ष अरब आबादी 40 प्रतिशत तक हो जानी चाहिए। इसके अलावा जनसंख्या सम्बन्धी मौजूदा रुझान को देखते हुए वहाँ यहूदियों से अधिक संख्या अरबों की होती। यह वास्तव में इजराइली रणनीति के बिलकुल खिलाफ होता– फिलिस्तीन के बहुत बड़े इलाके में जितना सम्भव हो, उतनी अल्पतम अरबी आबादी के बल पर एक समरूप राज्य हासिल करना। दरअसल 1948, के बाद इजरायल की जो सीमाएँ बनीं, उसके भीतर 1948 से पहले के फिलिस्तीनी अरब समुदाय का विनाश ही उस उद्देश्य की पूर्ति करने में सहायक बना जो फ्लेपन के मिथक विश्लेषण में साफ–साफ सामने आता है–

‘‘इजराइली राष्ट्र की स्थापना के पहले और बाद में फिलिस्तीनियों द्वारा देश को छोड़ना अरब नेतृत्व के उस आह्वान का नतीजा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि वे एक विजयी अरबी सेना के साथ लौटकर आने के लिए अस्थायी तौर पर पलायन कर रहे हैं। यहूदी नेतृत्व द्वारा उन्हे वहाँ रुकने के लिए राजी करने के बाद भी वे वहाँ से चले गये।’’

मध्य–पूर्व के विद्वान और फिलिस्तीनी प्रत्यक्षदर्शियों ने बहुत पहले ही यह खुलासा कर दिया है कि यह मिथक सच्चाई से कितना अलग है।4 नयी सामग्री के रूप में प्राप्त दस्तावेज यह दर्शाते हैं कि किस हद तक इजराइली राजनीतिज्ञों और सैन्य नेताओं ने फिलिस्तीनी जनता के विस्थापन को अन्जाम दिया। 1947 के आखिर से 1949 में पूरे साल तक फ्लेपन के अनुसार–

‘‘6,00,000 से 7,00,000 फिलिस्तीनी अरब उन क्षेत्रों से निष्कासित कर दिये गये जो यहूदी राज्य को आबंटित किये गये थे या यहूदी सेनाओं ने लड़ाई के दौरान कब्जा कर लिये थे और बाद में पूर्णत: इजराइल में मिला लिये गये थे। इस विस्थापन के दौरान और बाद में हर प्रयास किया गया––– गाँवों को उजाड़ने से लेकर कानून के प्रवर्तन तक, ताकि उन्हें वापस लौटने न दिया जाये––– हालाँकि यह भी सत्य है कि बहुत से फिलिस्तीनी स्वेच्छा से गये थे। सामुदायिक नेताओं, व्यापारियों, जमींदारों और बुद्धिजीवियों ने, जिनके पास साधन था, अपने परिवारों को इस लड़ाई से बचाने के लिए दूर भेज दिया। हजारों सरकारी अधिकारियों, पेशेवरों, और कार्यकुशल मजदूरों ने यहूदी राज्य में रहने की अपेक्षा अरबी क्षेत्रों में पलायन किया, क्योंकि वहाँ उन्हे बेरोजगारी और भेदभाव का भय सता रहा था––– लेकिन लाखों लोग डर और आतंक के कारण वहाँ से भाग गये। बाकी लोगों को यहूदी सेना ने खदेड़ दिया, जो बेन–गुरियन के नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र के बँटवारा प्रस्ताव की आड़ में निष्कासन को लागू कर रही थी।

फिलिस्तीनी जनता के निष्कासन को अरब नेतृत्व द्वारा ‘‘ऊपर का आदेश’’ कहना असम्भव बात होने के बावजूद कई वर्षों तक अच्छा प्रचार साबित हुआ। वास्तव में, सैनिक सहायता के लिहाज से देखा जाये तो यह दावा करना कि फिलिस्तीनी अरब नेतृत्व ने अरब की जनता से अपना घर–बार छोड़ने की अपील इसलिए की, ताकि आक्रमणकारी सेना को इजराइल पर हमला करने में सहूलियत होगी, बिलकुल बेहूदा लगता है। क्योंकि जो अरब सेना लम्बा सफर तय करके फिलिस्तीन के अरब क्षेत्रांे में कार्रवाई करने आती, उसे स्थानीय जनता से खाना, ईधन, पानी, वाहन, श्रमशक्ति और सूचना के लिए मदद की जरूरत होती।

हाल ही में राज्य में प्रकाशित हजारों दस्तावेज और जियन अभिलेखागार, यहाँ तक कि बेन–गुरियन की युद्ध डायरी भी दर्शाती है कि इस इजराइली दावे को साबित करने का कोई प्रमाण नहीं है। असल में सार्वजनिक किये गये खुफिया दस्तावेज ‘‘आदेश’’ सिद्धान्त का खण्डन करते हैं। इन नये स्रोतों में कुछ दस्तावेज ऐसे हैं, जो एएचसी (अरब हाईयर कमेटी) और अरब राज्यों द्वारा फिलिस्तीनी जनता के पलायन को रोकने के लिए किये गये महत्त्वपूर्ण प्रयासों को प्रमाणित करते हैं।

आज चालीस साल देर से और प्राकृतिक वृद्धि के द्वारा परिवर्धित 40 साल फिलिस्तीनी कब्जाये क्षेत्रों, अरब राष्ट्रों और पूरी दुनिया में हर जगह पफैले हुए हैं। इजराइल से भागे हुए लोगांे की वापसी में कानूनी बाधाओं के अलावा दूसरी रुकावटें भी मौजूद हैं, जो 1947 के विनाश ने पैदा की थीं। जिनमें अरब आबादी वाले लगभग 360 गाँवों और 14 कस्बों को नष्ट कर दिया गया और यहूदी अप्रवासियों को वहाँ बसा दिया गया।

फिलिस्तीनियों का पलायन ऐच्छिक था, यह मिथक इजराइल द्वारा शरणार्थी समस्या की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने को उचित ठहराने के लिए इस्तेमाल किया गया। इसके अलावा यह उन दूसरे मिथकों के साथ गुँथा हुआ है, जो फिलिस्तीनी अरब राज्य के विरोध को न्यायसंगत ठहराते हैं। अत: इजराइल की शासकीय विचारधारा और उसके द्वारा प्रचारित मिथक इस बात का खण्डन करते हैं कि राष्ट्र के तौर पर फिलिस्तीनियों की अपनी एक पहचान है। जबकि सच्चाई यह है कि 1948 तक फिलिस्तीन एक ऐतिहासिक यथार्थ था, जिसमें एक भिन्न सामाजिक और वर्गीय संरचना, अर्थव्यवस्था और संस्कृति विकसित हुई थी। यहाँ तक कि शताब्दियों लम्बे विदेशी कब्जे के अधीन, फिलिस्तीन पर एक अलग देश की तरह शासन किया जाता था। सन् 1516 से प्रथम विश्व युद्ध के अन्त तक यह ऑटोमन तुर्की साम्राज्य का एक प्रान्त था। युद्ध के बाद लीग ऑफ नेशन्स ने मध्य–पूर्व में ऑटोमन उपनिवेश के अधिपत्य को ब्रिटेन और फ़्रांस के बीच बाँट दिया जबकि ब्रिटेन को फिलिस्तीन पर शासन का जनादेश दिया गया। जैसा उम्मीद थी, फिलिस्तीनियों की राष्ट्रवादी चेतना विदेशी कब्जे के अधीन और उपनिवेशवाद से संघर्ष करते हुए मजबूत होती गयी। यदि कुछ कसर बाकी थी तो उसे आखिरी हमले–– उन्हों उनके देश से बेदखल किये जाने और शरणार्थी बनाकर खदेड़े जाने के बाद पूरी हो गयी, जिसने फिलिस्तीनियों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को और भी प्रबल बना दिया।

फिलिस्तीनियों की राष्ट्रीय आकांक्षा को नामंजूर करते हुए इजराइल पेलिसटाइन लिबरेशन ऑरगेनाइजेशन (पीएलओ) की भूमिका को भी नकारता है और इसकी छवि को विकृत करता है, जिसने वास्तव में एक फिलिस्तीनी राज्य के लिए सरकारी ढाँचे का भ्रूण रूप निर्मित किया था। पीएलओ को फिलिस्तीन नेशनल काउंसिल द्वारा उसी तरह निर्देशित किया जाता है जैसे एक सरकार को संसद द्वारा निर्देशित किया जाता है। माना जाता है कि काउंसिल के सदस्य विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों, राजनीतिक पार्टियों और जन संगठनों को प्रतिबिम्बित करते हैं। वे तीन श्रेणियों से आते जुझारू प्रतिरोध संगठन (फतह, पॉपुलर फ्रंट फॉर दि लिबरेशन ऑफ फिलिस्तीन, पॉपुलर डेमोक्रेटिक फ्रंट, इत्यादि); लोकप्रिय संस्थाएँ जैसे अध्यापकों, औरतों, मजदूरों व विद्यार्थियों के संघ इत्यादि; और निर्दलीय कांउसिल का काम पीएलओ की नीतियों का निर्धारण तथा कार्यकारिणी समिति और इसके अध्यक्ष का चुनाव करना है। इसके बदले कार्यकारिणी समिति विभिन्न संस्थानों को संचालित करती है जो फिलिस्तीनी समुदाय, अस्पतालों, स्कूलों, वर्कशाप और सामाजिक व सांस्कृतिक सभाओं से सम्बन्धित हैं।(5)

पीएलओ द्वारा स्वशासन को कार्यान्वित करने की क्षमता का सबसे अच्छा उदाहरण लेबनान में देखने को मिला, जहाँ इसके अधिकारी तंत्र का एक बड़ा हिस्सा रहता था और जहाँ एक सापेक्षत: स्वतंत्र सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ढाँचे ने आकार ग्रहण किया था। इसी सांस्कृतिक ढाँचे और खुद पीएलओ को इजराइल ने 1982 में बेरूत के फिलिस्तीनी क्षेत्रों पर हवाई आक्रमण करके खत्म करना चाहा था और इसके बाद लेबनान पर भी सैन्य हमला किया गया। इस आक्रमण के दौरान 40,000 फिलिस्तीनी और लेबनानी मारे गये, हजारों घायल हुए और हजारों बेघर हो गये। हवाई हमलों के कुछ ही महीनों में आतंक, डर और विध्वंश छा गया। इस आक्रमण ने पीएलओ को कमजोर बना दिया और ऐसा लगने लगा मानो वेस्ट बैंक और गाजा में एक स्वतंत्र राज्य की बहस खत्म हो चुकी है।

इस पृष्ठभूमि के आधार पर समकालीन विद्रोह के असली महत्त्व का पता चलता है। अगिन पक्षी की तरह अद्वितीय लड़ाकू संघर्ष का बार–बार खड़ा हो जाना यह दर्शाता है कि आत्मनिर्णय के अधिकार की आकांक्षा कितनी गहरी और टिकाऊ होती है। इसके अतिरिक्त कब्जाये गये क्षेत्रों में जनता में एकीकरण के लिए तड़प और विषम परिस्थितियों के बावजूद लड़ाई को जारी रखना इशारा करता है कि आजादी की ओर बढ़ते कदम एक नये मुकाम तक पहुँच चुके हैं। इस प्रगति का ही परावर्तन है जो एक फिलिस्तीनी राष्ट्र का मुद्दा अन्तरराष्ट्रीय मंच पर उभर आया, एक ऐसा मुद्दा जिसे न तो वाशिंगटन और न ही जेरूसलम अब किसी कम्बल के नीचे छुपाने की सोच सकते हैं।

जिस पर कोई भी सवाल नहीं उठा, वह है इजराइल का अस्तित्व और आजादी। किसी भी प्रकार वहाँ कोई राजनीतिक या सैन्य खतरा नजर नहीं आता। इस तरह के खतरे की बात करना फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र की ओर संकेत करना है जो पीएलओ का आधार प्रपत्र है। प्रतिज्ञापत्र इस बात का दावे के साथ उल्लेख करता है कि संयुक्त राष्ट्र बँटवारा नीति और इजराइल की स्थापना गैर कानूनी गतिविधियाँ थीं। यह प्रपत्र फिलिस्तीन को एक अरब राष्ट्र की तरह मुक्त करने की वकालत भी करता है। 1964 में इस प्रतिज्ञापत्र को पारित करने से लेकर अब तक बहुत सी घटनाएँ हो चुकी हैं– तीन युद्ध (1967, 1973 और 1982 का लेबनान पर आक्रमण); गाजा के वेस्ट बैंक पर कब्जा; 1970 में जॉर्डन द्वारा फिलिस्तीनी प्रतिरोध आन्दोलन का बहिष्कार; मध्य पूर्व में राजनीतिक बदलाव और अमरीका तथा सोवियत संघ के रिश्तों में परिवर्तन। इन सभी छोटे–बड़े बदलावों ने पीएलओ को अपनी उन रणनीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए प्रभावित किया जो प्रतिज्ञापत्र में निहित थीं। असल में ऐसे कई प्रमाण मिले हैं, जिनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि 1970 के बाद से पीएलओ इजराइल का बहिष्कार करने के बजाय उससे समझौता करने की तरफ बढ़ा है।6 कब्जाये गये क्षेत्रों में बगावत साफ तौर पर छिटके हुए फिलिस्तीनियों द्वारा इजराइल से अलग एक आजाद राष्ट्र प्राप्त कर लेने की राष्ट्रीय आकांक्षाओं पर आधारित है। इस तरह के राष्ट्र का निर्माण वस्तुत: और कानूनी रूप में प्रतिज्ञापत्र को निष्क्रिय कर देगा क्योंकि यह फिलिस्तीन के बँटे हुए दोनों पक्षों की मंजूरी और राष्ट्रों के बीच रेखांकित सीमाओं को शामिल करता है।

इजराइल को अगर कोई खतरा है तो आने वाले समय से है। इसका कारण यह है कि इजराइल ने तलवार के बल पर चलने का पफैसला किया है और एक ऐसी रणनीति को अपनाया है जो हिंसा के चक्रों को पुनरुत्पादित करती है। हमेशा यह भयावह युद्ध को भड़कने या तीव्र करने में लगी रहती है। असलियत में रणनीति का चुनाव आवश्यकता के एक दौर की याद दिलाता है जो न सिर्पफ महाविध्वंश (होलोकोस्ट) की यादों को बल्कि यहूदी शरणार्थियों के उन समूहों को खत्म करने के मंसूबों को भी प्रतिबिम्बित करता है जो मृत्यु शिविरों से भाग निकले थे। लेकिन और भी बहुत कुछ दाँव पर लगा है, जैसा संशोधनवादी इतिहासकारों ने कहा– मुख्यधारा के जियनवादियों की फिलिस्तीन के अधिकतर हिस्से को हड़प लेने की नीति। फिलिस्तीनी राष्ट्रीय अस्मिता का परवर्ती खण्डन, फिलिस्तीनी अरब राष्ट्र को स्वीकृति और पीएलओ को फिलिस्तीनी लोगों का प्रतिनिधि मानने से इनकार करना उन विकल्पों को बहिष्कृत करना था जो फिलिस्तीनियों और अरब राष्ट्रों के बीच शान्ति स्थापित करने के रास्ते खोल सकता था। सीधे शब्दों में कहें तो एक शान्तिपूर्ण निष्कर्ष को सुनिश्चित नहीं किया गया और शान्ति का कभी मौका ही नहीं दिया गया। अरब राष्ट्रों की प्रकृति के बारे में बिना किसी भ्रम के यह कहा जाता है कि उनकी प्रतिस्पर्धी महत्त्वाकांक्षाएँ और युद्ध की प्रवृत्ति पीएलओ के साथ व्यवहार करते समय मुश्किलें पैदा कर देतीं, बल्कि जो विकल्प चुने गये उनके चलते इजराइल एक छोटी महाशक्ति के रूप में उभर रहा है और अमरीका और उसके साम्राज्यवादी मंसूबों के साथ गठजोड़ कर रहा है।

फिलिस्तीन में और मध्य–पूर्व में शान्ति स्थापित करने के लिए इजराइली नीति में एक अहम बदलाव की जरूरत है जो उसे महँगे और बेहद सैन्यीकृत समाज से दूर रखे, जो कब्जाये गये क्षेत्रों का शोषण करते हैं, जबकि प्राथमिक सरोकार इजराइल में रह रहे यहूदियों और अरबों की जरूरतें पूरी करना होना चाहिए।

इजराइल जो भी कदम उठाता है, निश्चित ही उस देश के लोगों को ध्यान में रखकर उठाता है। लेकिन अमरीका में रहने वाले हम लोगों के पास भी एक विकल्प है। इलराइल अपने आर्थिक बोझ और विशाल सैन्य शक्तियों का इस्तेमाल करने में सक्षम है, क्योंकि उसे अमरीका से निजी और सरकारी सहायता मिल रही है। इसलिए हम इस देश में रहने वाले भी इन सब में शामिल हैं और अमरीका की मध्य–पूर्व से सम्बन्धित नीतियों में बदलाव करवाकर उपनिवेशवाद के खिलाफ अपनी स्वाधीनता के लिए संघर्षरत फिलिस्तीन की जनता को मदद पहुँचाना हमारी जवाबदेही है।

इस दिशा में एक सफल संघर्ष की सम्भावनाएँ बढ़ रही हैं। विद्रोह और प्रताड़नाओं की निर्मम कार्रवाइयों के बाद से लोगों ने यह सवाल उठाया है कि वेस्ट बैंक और गाजा में वास्तव में क्या चल रहा है। अमरीका के यहूदी और फिलिस्तीनी समुदायों द्वारा शान्ति स्थापित करने के लिए दो अलग राष्ट्रों के गठन की आवाज उठायी जा रही है।

उपनिवेशवाद विरोधी और समाजवादी होने के नाते हमारे लिए यह कार्यभार निकलता है कि हम अपने लोगोंे को शिक्षित करें और ऐसी अमरीकी नीति के समर्थन को गति प्रदान करें जो दो अलग राष्ट्रों के गठन का वास्तविक समाधान प्रस्तुत करता हो।

टिप्पणियाँ:–

1. द इकोनोमिस्ट (25 जून, 1988) के अनुसार जो यह भी बताता है कि अल–हक, वेस्टबैंक स्थित संगठन जो इंटरनेशनल कमीशन ऑफ ज्यूरिश्ट्स से जुड़ा है, उसका अनुमान है कि 17 हजार से अधिक फिलिस्तीनी वहाँ बगावत शुरू होने के बाद से नजरबन्द किये गये हैं।

2. प्रसिद्ध इजरायली इतिहासकार द्वारा लिखी ‘संशोधनवादी रचना’ जो इसी विषय पर केन्द्रित है, वह है अवी स्लेम की कोलूजन एक्रास दि जॉर्डन (न्यू यॉर्क– कोलम्बिया यूनिवर्सिटी प्रेस, 1988)।

3. एक बड़ी इजरायली पार्टी– लिकुड यह नहीं मानती कि वेस्ट बैंक और गाजा कब्जाये हुए इलाके हैं। इसके बजाय यह उन्हें मुक्त किया गया भू–भाग कहती है। हालाँकि यह पार्टी इस द्वन्द्व में है कि बिना जनता के कोई इलाका काबू में कैसे कर पायेगी।

4. फिलिस्तीनी परिप्रेक्ष्य से फिलिस्तीन–इजरायल टकराव का एतिहासिक विश्लेषण के लिए देखें– एडवर्ड डब्ल्यू सईद की द क्येश्चन ऑफ पेलेस्टाइन (न्यूयार्क– विंटेज बुक्स, 1980): इब्राहिम अबू–लुगोद द्वारा सम्पादित दि ट्रांसफारमेशन ऑफ पेलेस्टाइन (इवान्स्टन, आईएल– नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी प्रेस, 1976): और वालिद खलीदी द्वारा सम्पादित फ्राम हैवन टु कान्क्वेस्ट: रीडिंग्स इन जियोनिज्म एंड दि पेलेस्टाइन प्राब्लम अनटिल 1948 का नया संस्करण (वाशिंगटन, डीसी– इन्स्टीट्यूटट फॉर पेलेस्टाइन स्टडीज, 1987)। ––– पलायन करने वाले फिलिस्तीनी अरब जनता के बारे में एक संशोधनवादी इजरायली अध्ययन के लिए देखें बेन्नी मोरिस, दि बर्थ ऑफ दि फिलिस्तीनियन रिफ्यूजी प्राब्लम (कैम्ब्रिज और न्यूयार्क– कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1988)।

5. यह विवरण एक तथ्यपूर्ण रचना ‘‘ए प्रोफाइल ऑफ दि पेलेस्टीनियन पीपुल,’’ पर आधारित है, जो एडवर्ड डब्ल्यू सईद और क्रिस्टोफर हीचेंस द्वारा सम्पादित, ब्लेमिंग दि विक्टिम्स (लन्दन और न्यूयार्क– बर्सो, 1988) में संकलित है।

6. देखें नोम च्मोस्की, दि फेटफुल ट्रैंगिल (बोस्टन– साउथ एंड प्रेस, 1988)। पीएलओ रणनीति से सम्बन्धित भाग ‘‘रिजेक्शनिज्म एंड एकोमोडेशन’’ शीर्षक लेख में है, जो जेम्स पेक द्वारा सम्पादित दि चोम्स्की रीडर (न्यूयार्क– पैंथियन, 1987) में संकलित है।

(अनुवाद–जीत सिंह)

(गार्गी प्रकाशन की किताब 'इतिहास जैसा घटित हुआ' से साभार)

 
 

 

 

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