14 मई, 2020 (ब्लॉग पोस्ट)

कोविड-19 की दवा रेमडीसिविर के लिए सरकार और बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की मिलीभगत

पूरे विश्व मे कोरोना से उपजे आतंक का खात्मा होने जा रहा है। अब मीडिया धीरे धीरे कोरोना के पैनिक मोड को कम करना शुरू कर देगा, क्योकि फिलहाल कोरोना की एक दवाई मिल गयी है, जिसमे अमेरिका को उम्मीद की किरण दिख रही है उस दवा का नाम है-- रेमडीसिविर।

अमेरिकी वैज्ञानिकों ने कहा है कि इबोला के खात्‍मे के लिए तैयार की गई दवा रेमडीसिविर कोरोना वायरस के मरीजों पर जादुई असर डाल रही है। राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रंप के सलाहकार डॉक्‍टर एंथनी फाउसी कह रहे हैं, “आंकड़े बताते हैं कि रेमडीसिविर दवा का मरीजों के ठीक होने के समय में बहुत स्‍पष्‍ट, प्रभावी और सकारात्‍मक प्रभाव पड़ रहा है।” रेमडीसिविर के बारे में अब अखबार लिख रहे हैं कि 'डॉक्‍टर फॉउसी के इस ऐलान के बाद पूरी दुनिया में खुशी की लहर फैल गई है।

रेमडीसिविर दवा पर हमारी बहुत पहले से नजरे जमी हुई थी, इसलिए मैंने बहुत पहले से इस दवाई का कच्चा चिट्ठा जमा करना शुरू कर दिया था। दरअसल पहले डील जम नही पा रही थी। अब डील जमती नजर आ रही है, कुछ दिनों पहले इसी दवाई के बारे में खबर आई थी कि रेमडीसिविर के कोरोना में फेल होने की रिपोर्ट को डब्लूएचओ ने अपने वेबसाइट पर विस्तार से प्रकाशित किया था। कुछ घण्टे के बाद में इस रिपोर्ट को डब्लूएचओ ने स्वयं ही हटा दिया। इस पर सफाई देते हुए डब्लूएचओ ने कहा कि ड्राफ्ट रिपोर्ट गलती से अपलोड हो गई थी, इसलिए रिपोर्ट को हटा लिया गया। यानी साफ था कि पहले डील नही जमी, अभी डील जम गई है।

शुरु से डब्लूएचओ ने कोरोना के लिए चार दवाओं के ट्रायल पर फ़ोकस किया था। पहली है-- एंटीवायरल रेमडीसिविर, दूसरी थी-- हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन और एचआईवी की दो दवाओं लोपिनाविर और रिटोनाविर का कॉबिंनेशन। बाद में जापान की टोयोमा केमिकल की दवा फेविपिराविर को भी शामिल किया गया। अब इस दौड़ में रेमडीसिविर आगे निकल रही है। इस दवाई को बनाने की कहानी भी बहुत दिलचस्प है।

रेमडीसिविर दवा की खोज 2010 के दशक के मध्य में हुई थी। शुरुआत में जानवरों पर किए गए टेस्ट से सिद्ध हुआ था कि ये दवा इबोला के इलाज में सटीक काम करेगी। लेकिन अफ्रीकी देश कॉन्गो में हुए तीसरे चरण के बड़े परीक्षण के दौरान पता चला कि यह दवा इबोला को पूरी तरह ठीक कर पाने में उतनी कारगर नहीं है। इसके बाद इस दवा की उपयोगिता बेहद कम रह गई थी। इसे भुला दिया गया लेकिन कोरोना के सार्स और मर्स से काफी मिलने के कारण माना जा रहा है कि यह दवा कोरोना के इलाज में कारगर साबित होगी। हाल ही में वॉशिंगटन में कोविड-19 के एक पीड़ित की जब हालत ख़राब हो गई तो उसे यह दवा दी गई। इस दवा के बाद इस पीड़ित की हालत में ज़बरदस्त सुधार हुआ। दी न्यू इंगलैंड जरनल ऑफ़ मेडिसिन में यह केस रिपोर्ट किया गया है। इसके अलावा कैलिफोर्निया में भी डॉक्टरों ने दावा किया है कि एक मरीज़ को इस दवा से लाभ हुआ और वो पूरी तरह से ठीक हो गया।

अमेरिका के शिकागो शहर में कोरोना वायरस से गंभीर रूप से बीमार 125 लोगों को रेमडीसिविर दवा दी गई जिसमें से 123 लोग ठीक हो गए थे। इसके बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने ऐलान किया था कि रेमडीसिविर एक ऐसी दवा है, जिससे कोरोना के खात्‍मे की संभावना देखी जा रही है। डब्ल्यूएचओ के सहायक महानिदेशक ब्रूस आयलवर्ड ने भी कहा था कि रेमडीसिविर ही एकमात्र ऐसी दवा है जिसे उनका संगठन 'वास्तविक प्रभावकारी’ मानता है।

लेकिन इस ड्रग को बनाने वाली कम्पनी गिलियड साइंसेज के साथ एक समस्या है। 23 मार्च को अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन विभाग ने इस दवा को ‘ओर्फान ड्रग’ का दर्जा दिया। यह दर्जा उन दवाओं को दिया जाता है जिनमें किसी रोग को ठीक कर सकने की संभावित क्षमता दिखाई देती है। इन्हें ओर्फान या अनाथ इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनका व्यावसायिक उत्पादन रुका होता है और इसके लिए सरकारी सपोर्ट की जरूरत होती है, इस दर्जे की वजह से गिलियड साइंसेज कंपनी को कई रियायतें मिलेंगी। जैसे सात साल तक बाजार में दवा बनाने का एकाधिकार। साथ ही टैक्स में भी छूट मिलती है जिसका उपयोग दवा को विकसित करने में किया जा सके।

लेकिन गिलियड साइंसेज ने अमेरिकी एफडीए रेमडीसिविर के लिए ‘ओर्फान ड्रग’ पदनाम छोड़ने का निर्णय लिया है। संभवतः गिलियड साइंसेज चीन सरकार के सहयोग से चीन में इसी दवा का क्लीनिकल परीक्षण कर चुकी है। इस दवा को चीन में कोरोना से संक्रमित लोगो के ऊपर बड़े पैमाने पर प्रयोग में लाया गया है।

आपको यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि इस दवा के पीछे चीनी कम्पनिया भी पड़ी हुई है। जिस जगह से यह वायरस फैला है, वही इंस्टिट्यूट इस दवा के लिए पेटेंट प्रस्तुत कर चुका है। वह भी तब, जब दुनिया इस बीमारी के बारे में ही नही जानती थी। 21 जनवरी 2020 को वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी ने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी अकादमी के सैन्य चिकित्सा संस्थान के साथ यह पेटेंट आवेदन संयुक्त रूप से प्रस्तुत किया था और इसका उद्देश्य चीन के राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना बताया था। ख़ास बात यह है कि 21 जनवरी को दुनिया इस बीमारी के बारे में परिचित ही नही हुई थी। अब कोई चीन को यदि निर्दोष समझ रहा है तो उसे यह तथ्य विशेष रूप से समझ लेना चाहिए।

रेमडीसिविर के साथ दो मसले भी हैं, पहला कि यह दवा बहुत महंगी है और दूसरा इस दवा का इस्तेमाल बिमारी के लक्षण नज़र आते ही नहीं किया जा सकाता। इस दवा का इस्तेमाल सिर्फ़ वायरस के पूरी तरह से सक्रिय होने पर ही किया जाता है। कुल मिलाकर 80-85 प्रतिशत मरीजों को यह दवा देना संभव नहीं होता है।

जो लोग सोच रहे हैं कि भारत में यह सस्ती मिलेगी, उन्हें जान लेना चाहिए कि गिलियड ने 2017 में भारत में "फाइलेरोविडे संक्रमण के इलाज के लिए यौगिक" के लिए एक पेटेंट आवेदन दायर किया था और रेमडीसिविर पर भारतीय पेटेंट हाल ही में 18 फरवरी 2020 को दिया गया है। विशेषज्ञ कहते है कि कोरोनोवायरस एक ही परिवार के हैं जो कि फाइलेरोविडे हैं।

इस रेमडीसिविर पुराण का पारायण आपने किया इसका धन्यवाद, निष्कर्ष स्वरूप कह सकते हैं कि बड़ी फार्मा कम्पनिया पूरा गेम सेट कर चुकी है।

संक्षेप में रेमडीसिविर दवा का किस्सा इस तरह है।

1) रेमडीसिविर अमेरिका में बायोफार्मास्युटिकल कंपनी गिलियड साइंसेज द्वारा विकसित एक एंटीवायरल दवा है। हाल ही में अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने रेमडीसिविर को ऐसे मरीजों की आपातकालीन उपचार के लिए अधिकृत किया गया है, जो कोविड-19 की गम्भीर बीमारी के चलते अस्पताल में भर्ती हैं।

2) दिलचस्प बात यह है कि एक समझौते के तहत रेमडीसिविर का पेटेंट चीन और गिलियड साइंसेज के पास है, गिलियड साइंसेज एक अन्य सहायक कंपनी युनिटैड (यूएनआईटीएआईडी) के साथ दवा पेटेंट साझा करती है। यह एक संयोग ही है कि युनिटैड का चीन के वुहान में एक जैव अनुसंधान कार्यालय है।

3) क्या आप अनुमान लगा सकते है कि युनिटैड में मुख्य वित्तीय योगदानकर्ता कौन हैं? अरबपति बिल गेट्स, मेलिंडा गेट्स और जॉर्ज सोरोस। युनिटैड के बोर्ड में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की एक स्थायी सीट है। क्या आप अनुमान लगा सकते है कि कंपनी बोर्ड में डब्लूएचओ के हित का प्रतिनिधित्व कौन करता है? श्री रेन मिंगहुई जो चीन की संस्था हेल्थ एंड फॅमिली कमेटी के भूतपूर्व डायरेक्टर जनरल है! बिल गेट्स ने हाल ही में डब्ल्यूएचओ की फंडिंग को बंद करने पर अमेरिकी सरकार की आलोचना की थी। बिल गेट्स ने ऐसा क्यों किया। क्या वे डब्लूएचओ के माध्यम से युनिटैड में अपनी सहायक कंपनियों के लिए लॉबिंग कर रहे हैं!

4) 2014 में गिलियड साइंसेज ‘हिलेरी क्लिंटन’ नाम के राजनीतिक अभियान को चंदा देने वाली एक प्रमुख संस्था थी। ‘हिलेरी क्लिंटन’ ओबामा प्रशासन की पैरवी करने वाला एक पे बैक अभियान था, ओबामा शासन में अमेरिका के 3.7 मिलियन डॉलर का अनुदान वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी को दिया गया था। चीन की इस प्रयोगशाला को यह अनुदान अमेरिकी करदाताओं के पैसो से दिया गया। आप जानते है कि इस अनुदान को देने के लिए किसने हस्ताक्षर किया था? एंथोनी फौसी, जिन्हें हाल ही में ट्रम्प ने कोविड-19 पर अपना सलाहकार नियुक्त किया है।

5) एक अजीब संयोग है कि 2 दिसंबर, 2014 को राष्ट्रपति बराक ओबामा ने संयुक्त राज्य अमेरिका में अपने नागरिकों को हवा के जरिए फैलने वाली महामारी के लिए तैयार रहने की चेतावनी दी थी। आश्चर्य है कि वह इस साल फैले कोविड-19 के बारे में पहले से कैसे जान गये थे। यह सब एक सुनियोजित मिलीभगत लगता है। वायरस और उसके बाद के कोविड-19 वैक्सीन का विकास सबकुछ पिछले 5 वर्षों की योजना और कड़ी मेहनत का परिणाम हो सकता है। यानी एक ऐसा जानबूझकर किया गया कार्य है जो एक करोड़ इनसान (मात्र) की जिन्दगी को निगलकर अरबों डॉलर का मुनाफा बनाने की स्वार्थपूर्ण प्रेरणा हो सकती है!

6) 2017 में गिलियड साइंसेज ने भारत सरकार के साथ रेमडीसिविर के लिए एक पेटेंट दायर किया और इसे सरकार ने फ़रवरी 2020 को मंजूरी दे दी। भारत में पेटेंट दाखिल करने से पहले अजीब संयोग यह है कि बिल गेट्स ने भारत का दौरा किया और भारतीय प्रशासन के साथ मुलाकात भी की। क्या वह गिलियड साइंसेज में अपने निजी निवेश की पैरवी कर रहे थे या भारत सरकार और प्रशासन के साथ मिलीभगत करके किसी गोपनीय एजेंडे को आगे बढ़ा रहे थे।

7) यह भी अजीब है कि इसी गिलियड ने 2003 में सार्स इलाज के लिए एक फार्मुलेशन को बनाया था और बाद में उसे रॉश को बेच दिया था और सार्स के चीन में फैलने के बाद वे टेमीफ्लू के साथ तैयार थे।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की असली भूमिका

डब्लूएचओ के वर्तमान हेड टेड्रॉस एधेनॉम गैब्रियेसस की असलियत क्या है? किस तरह से यह व्यक्ति बिल गेट्स और चीन के सम्मिलित प्रभाव के अंतर्गत काम करता आया है?

कमाल की बात है कि जब यह लेख लिख रहा हूँ तब राष्ट्रपति ट्रम्प डब्लूएचओ को चीन की पीआर एजेंसी ही बता रहे हैं। 2002 में सार्स की बीमारी चीन में बड़े पैमाना पर फैली थी, उस दौरान डब्लूएचओ ने चीन द्वारा आंकड़ों की प्रस्तुति के तौर-तरीक़ों और अंतरराष्ट्रीय सहयोग में देरी के लिए चीन की कड़ी आलोचना की थी। इसके बाद चीन ने अपने स्वास्थ्य मंत्री और बीजिंग के मेयर को बर्ख़ास्त कर दिया। लेकिन कोविड-19 मामले में चीन अपनी गलतियां मानने को तैयार नही है क्योंकि सैंया डब्लूएचओ के कोतवाल बन कर बैठे हुए हैं!

डब्लूएचओ कोई साधारण संगठन नही है। 1948 में स्थापित यह वैश्विक संस्था है, जो दावा करती है कि वह दुनिया भर में देशों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर आपसी सहयोग एवं मानक विकसित करनेवाली संस्था है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार उसकी इस संस्था का मुख्य काम दुनिया भर में स्वास्थ्य समस्याओं पर नजर रखना है और उन्हें सुलझाने में मदद करना है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का नेतृत्व 2002 में डॉ बार्टलैंड के हाथ मे था, 2007 में 2017 तक डब्लूएचओ की हेड मार्गरेट चैन थी जो चीनी मूल की कनाडाई नागरिक थी लेकिन उनके, चीन की मुख्य भूमि से मज़बूत संबंध भी रहे। उनके उत्तराधिकारी, इथियोपिया के टेड्रोस को भी चीन समर्थित उम्मीदवार ही माना जाता है। 2017 में चीन की लॉबी के प्रभाव के कारण ही इस संगठन के मुखिया टेड्रॉस एधेनॉम गैब्रियेसस चुने गए। वे इथोपिया के नागरिक हैं। वह पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जो डॉक्टर नही हैं और डब्लूएचओ के अध्यक्ष बने। वे 2005 से 2012 तक इथियोपिया के स्वास्थ्य मंत्री रहे थे।

2000 के दशक का अंत आते-आते चीन को समझ आ गया था कि यदि उसे विश्व मे अपना प्रभाव जमाना है तो उसे संयुक्त राष्ट्र के सभी संगठनों पर अपने प्रभाव में वृद्धि करनी ही होगी। चीन उस वक्त अफ्रीकी महाद्वीप की ओर कदम बढ़ा चुका था और इथोपिया को अफ्रीका का पूर्वी प्रवेश द्वार माना जाता है। चीन ने इस देश के रणनीतिक महत्व को देखते हुए उसमे भारी निवेश किया है। आज इथोपिया का 70 प्रतिशत बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर चीन की देन है। टेड्रॉस भी इथियोपिया सरकार के हिस्से के रूप में पहले से ही बीजिंग के साथ लंबे समय तक सहयोग कर चुके हैं। लेकिन इस सहयोग की एक ओर वजह है। टेड्रॉस इथोपिया की टाइग्रे जनजाति से आते है जो वहाँ अल्पसंख्यक है। यह कुछ वैसा ही मामला है जैसा श्रीलंका में तमिल का रहा है। जैसे वहाँ लिट्टे था वैसे ही इथोपिया में टाइग्रे पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट (टीपीएफएल) है। यह भी शुरुआत में आतंकवादी संगठन ही माना जाता रहा। 1965 में जन्मे टेड्रॉस एधेनॉम गैब्रियेसस का राजनीतिक कैरियर इसी संगठन में परवान चढ़ा। इथोपिया में टाइगर (7 प्रतिशत जनजाति) का अमहारा और ओरोमो जातीय समूहों से लंबे समय तक हिंसक संघर्ष चला जो जो इथोपिया में क्रमशः 30 प्रतिशत और 34 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करती हैं।

कई वर्षों के गुरिल्ला युद्ध के बाद, टीपीएफएल ने एक और इरीट्रिया मुक्ति आंदोलन की मदद से इथोपिया के मेंगिस्टु शासन को उखाड़ फेंका, और 1991 में एक मार्क्सवादी-प्रेरित पार्टी, इथियोपिया पीपुल्स डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशनरी फ्रंट (EPDRF) की एक शाखा के रूप में सत्ता संभाली। चीन का जुड़ाव उससे उसकी मार्क्सवादी पृष्टभूमि से भी समझा जा सकता है। टेड्रॉस एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति हैं। 7 साल इथोपिया के स्वास्थ्य मंत्री के रूप में वह एड्स, परिवार नियोजन ओर टीकाकरण कार्यक्रम और उसमे उपजी बिल गेट्स की रुचि को पहचान चुके थे। उन्होंने अफ्रीका में उनके परम सहयोगी की भूमिका निभाना शुरू कर दिया और इसमे उनके अफ्रीका के अन्य देशों से बेहतर रिश्तों ने बड़ा योगदान दिया।

जुलाई 2009 में, टेड्रोस को इथोपिया के स्वास्थ्य मंत्री पद पर रहते हुए दो साल के कार्यकाल के लिए ग्लोबल फंड का बोर्ड चेयरमैन चुना गया। ग्लोबल फंड बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के नेतृत्व में एक साझेदारी है जो एड्स, तपेदिक और मलेरिया से लड़ने के लिए है। 2012 में जब इस ग्लोबल फंड का एक ऑडिट हुआ जिसमे इथियोपिया सहित कई अफ्रीकी देशों में एड्स, तपेदिक और मलेरिया कार्यक्रम के खर्चों को देखा गया तो पता चला कि उन्हें 1.3 अरब डॉलर का अनुदान प्राप्त हुआ था। इस आडिट में बड़ी गड़बड़ियां ओर भयानक भ्रष्टाचार के सुबूत मिले। लेकिन इन गड़बड़ियो को आश्चर्य जनक रूप से दरकिनार कर दिया गया। स्वाभाविक है कि इस पृष्ठभूमि को देखते हुए उनके ओर अच्छे रिश्ते अफ्रीकी देशों के भ्रष्ट राजनेताओं से बने और यही रिश्ते तब काम आए, जब 2017 मे उनका चयन डब्लूएचओ के हेड के रूप में हुआ। कहा जाता है कि बिल गेट्स ने उन्हें डब्लूएचओ का मुखिया बनाने में पूरी ताकत झोंक दी थीं इसके लिए उन्होंने दुनिया की जानी मानी पीआर एजेंसी मर्करी पब्लिक अफेयर्स जिसकी ऐसे राजनीतिक अभियानों में विशेषज्ञता थी उसकी सेवायें ली थी। टेड्रोस को चीन का समर्थन शुरू से हासिल था, अब उन्हें बिल गेट्स का भी साथ मिल चुका था तो उन्हें डब्लूएचओ के सर्वोच्च पद पर बैठने से कैसे रोका जा सकता था?

महाशक्ति बनने की चाहत में चीन ने संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं में अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है। हमे यह पता है कि अमेरिका डब्लूएचओ को फंड देने वाला सबसे बड़ा देश है, लेकिन हमें यह नही पता है कि वर्ष 2014 से चीन विश्व स्वास्थ्य संगठन को देने वाले फंड में इजाफा करता जा रहा है। दरअसल, वर्ष 2014 से लेकर 2018 तक के आंकड़ो पर गौर करें तो चीन के फंड में करीब 52 फ़ीसदी की उछाल आई है। अब जिसका पैसा बोलेगा तो उसका बैठाया आदमी भी तो उसी की तरफ बोलेगा?

कोरोना पर वापस लौटते हैं और जानते है कि डब्ल्यूएचओ निदेशक की मूल्यवान सिफारिशों के आधार पर ही एक समय यूरोप के सर्वाधिक कोरोना प्रभावित देश इटली ने चीन से लौटने वालों पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। दरअसल इटली की सल्विनी सरकार चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना में चीन के साथ आर्थिक साझेदारी जो कर रही है!

आखिरकार इन्हीं सिफारिशों के आधार पर इटली के फ्लोरेंस शहर के मेयर ने अपने शहर के नागरिकों के बीच "गली में एक चीनी को गले लगाने" के लिए आमंत्रित करने का एक राष्ट्रीय अभियान शुरू किया था।

क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ?

बिल गेट्स का भारत पर परोपकारी हाथ

इस सीरीज की शुरुआत अक्टूबर-2019 के मध्य में एक ‘इवेंट 201’ नाम के वैश्विक महामारी पर एक स्वांग का अभ्यास (सिमुलेशन ग्लोबल पेनडेमिक एक्सरसाइज) से हुई थी। इसे बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन और वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के सहयोग से आयोजित किया गया था। याद रहे कि चीन में पहला कोरोना का केस 17 नवम्बर 2019 को सामने आया था।

इस इवेंट से लगभग 20 दिन पहले यानी 25 सितंबर 2019 को पीएम नरेंद्र मोदी को न्यूयॉर्क में प्रतिष्ठित ग्लोबल गोलकीपर्स अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था। यह अवॉर्ड उन्हें सफल स्वच्छता अभियान के लिए दिया गया। इस अवार्ड के प्रायोजक थे-- बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन। मोदी जी को यह सम्मान खुद बिल गेट्स ने अपने हाथों से दिया था।

यह तो थी 20 दिन पहले की बात। अब कमाल की बात यह है कि बिल गेट्स इस 'इवेंट 201' के महीने भर बाद भारत दौरे पर भी आए। सरकार की तरफ से इसकी ऑफशियल जो प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई। वह इसकी कहानी कहती है—

केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, विज्ञान और प्रौद्योगिकी तथा पृथ्वी विज्ञान मंत्री डॉ हर्ष वर्धन और माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स की मीटिंग नई दिल्ली स्थित स्वास्थ्य मंत्रालय में हुई थी। आने वाले समय में आयुष्मान भारत योजना में हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर्स पर हम उनके साथ मिलकर काम करना चाहते हैं। डॉ हर्ष वर्धन ने कहा कि उन्होंने बिल गेट्स को सुझाव दिया है कि भारत इस समय नेशनल डिजिटल हेल्थ मॉडल को पूरी दुनिया में लीड कर रहा है और 30 देशों ने हमारे नेतृत्व में इस मुहीम में शामिल होने का आश्वासन भी दिया है। डब्लूएचओ ने नेशनल डिजिटल हेल्थ मॉडल के लिए अलग से एक सेल खोल दिया है। इसी सन्दर्भ में मंत्रालय ने बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के साथ औपचारिक मेमोरैंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (एमओयू) पर हस्ताक्षर किया। हर्षवर्धन और बिल गेट्स की मौजूदगी में एमओयू पर हस्ताक्षर मंत्रालय में संयुक्त सचिव (अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य) लव अग्रवाल और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन (बीएमजीएफ, एक एनजीओ) के भारत स्थित कार्यालय के निदेशक एम हरि मेनन ने किए।

इस एमओयू में क्या प्रस्ताव था हम नही जानते? 'नेशनल डिजिटल हेल्थ मॉडल' क्या है? हम वह भी नही जानते। लेकिन बिल गेट्स को उनकी कौन सी योग्यता के कारण शामिल किया गया? यह हम जानते हैं। वह योग्यता है-- उनकी डाटा साइंस में विशेषज्ञता और लगभग मोनोपोली! यहाँ से अनुमान लगाया जा सकता है कि ‘आरोग्य सेतु’ जैसे एप से जो अरबों की संख्या में डाटा आयेगा, उसके विश्लेषण का ठेका किसे मिला होगा?

जनवरी 2020 में खबर आती है कि जिस एमओयू पर नवंबर 2019 में हस्‍ताक्षर किए गए थे, उसको 'पूर्व प्रभाव' से मंजूरी दे दी गयी है। इस 'पूर्व प्रभाव" शब्द पर विशेष रूप से ध्यान दीजिए, इसका अर्थ है-- एमओयू से पहले इस प्रोजेक्ट पर जो भी काम इस फाउंडेशन ने किए होंगे, उसे पूर्व प्रभाव से यह अनुमति दे दी गई कि वह सब मान्य होंगे। यह सब बेहद हैरान करने वाला घटनाक्रम है।

जैसे ही कोरोना का संक्रमण भारत में शुरू हुआ बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की तरफ से बिहार को 15,000 कोरोना टेस्ट किट मुहैया कराए गए। जब नवम्बर 2019 में बिल गेट्स भारत आए, तो वे बिहार भी गए थे। दरअसल बिहार सरकार ने पब्लिक हेल्थ एडमिनिस्ट्रेशन के लिए बिल ऐंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन के साथ सहयोग करने की इच्छा जतायी थी। इसके तहत उष्ण कटिबंधीय और संक्रामक रोगों से निपटने के लिए विशेष रूप से काम किये जाने की बात की गयी और इन बीमारियों पर पैनी नजर रखने के लिए तकनीक का भी सहारा लेने की बात की गयी। यानी यहाँ भी वही पब्लिक हेल्थ में डाटा साइंस!

संक्रामक रोगों में बिल गेट्स की रुचि जितनी पुरानी है, उतने ही पुराने बिहार से बिल गेट्स के सम्बंध है। जब बिल गेट्स ने 2010 में इस दशक को ‘टीकाकरण के दशक’ का नाम दिया था, तो उसके तुरंत बाद 2010 में बिल गेट्स ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ एक क़रार किया था, जिसके तहत राज्य में पोलियो, काला अज़ार, टीबी और कुपोषण जैसी बीमारियों से लड़ने के लिए गेट्स की परोपकारी संस्था ने 8 करोड़ डॉलर की राशि प्रदान की थी। दरअसल बिहार में मातृत्व मृत्यु दर देश में सबसे ज़्यादा है। इस भागीदारी का उद्देश्य अगले पांच वर्षों में बच्चों और माताओं के मृत्यु दर में 40 प्रतिशत तक की गिरावट लाना बताया गया था, वैसे आपको बता दूं कि परिवार कल्याण के क्षेत्र में बिल गेट्स साहब ने अफ्रीका में बड़े-बड़े झंडे गाड़े है।

न सिर्फ बिहार में बल्कि उत्तर प्रदेश में भी बिल गेट्स फाउंडेशन बहुत सक्रिय रूप से काम कर रहा है। आपको जानकर बेहद आश्चर्य होगा कि जिस जॉन होपकिन्स यूनिवर्सिटी के साथ मिलकर बिल गेट्स वैश्विक महामारी पर अभ्यास (ग्लोबल पेनडेमिक एक्सरसाइज) करते हैं, उसी जॉन होपकिन्स संस्थान के साथ मिलकर बिल गेट्स एंड मिलिंडा फाउंडेशन, 26 जुलाई 2019 को लखनऊ में यूपी की पब्लिक हेल्थ की व्यवस्था सुदृढ करने के लिए एक सेमिनार आयोजित करता है जिसकी अध्यक्षता करते हैं चिकित्सा स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह। कमाल है न।

 

बिल गेट्स फाउंडेशन द्वारा संचालित टीकाकरण कार्यक्रम की हकीकत

डब्ल्यूएचओ कई बार कह चुका है कि बिना प्रभावी वैक्सीन या दवा के कोरोना वायरस पर क़ाबू पाना मुश्किल है। संयुक्त राष्ट्र का भी कहना है कि सामान्य जीवन में लौटने के लिए वैक्सीन ही एकमात्र विकल्प है। तो सारी आशाए आज भी आखिर वैक्सीन पर ही टिकी है और उसके एक ही बड़े खिलाड़ी है बिल गेट्स।

रॉबर्ट एफ केनेडी जूनियर का भारत के टीकाकरण प्रोग्राम से जुड़ा दावा बिलकुल सच था और उसी कारण उसके बारे में अमेरिकी मीडिया खामोश हो गया। 7 अप्रैल 2020 को अपनी इंस्टाग्राम पोस्ट में उन्होंने दावा किया कि गेट्स फाउंडेशन द्वारा दूरदराज के भारतीय प्रांतों में 23,000 युवा लड़कियों पर ग्लैक्सो स्मिथ क्लाइन (जीएसके) और मर्क द्वारा विकसित प्रयोगात्मक एचपीवी टीकों के परीक्षण के लिए फंडिंग की गयी थी। जिसमें लगभग 1,200 गंभीर दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ा था, जिसमें ऑटोइम्यून और प्रजनन संबंधी विकार शामिल हैं और सात की मौत भी हो गई थी। भारत सरकार की जांच में यह आरोप लगाया गया था कि गेट्स द्वारा की गयी फंडिंग से शोधकर्ताओं ने व्यापक नैतिक उल्लंघन किए थे। मुकदमे में गांव की कमजोर लड़कियों पर दबाव डालना, माता-पिता को धमकाना, सहमति के लिए मजबूर करना और घायल लड़कियों को चिकित्सा देखभाल से इनकार करने जैसे आरोप लगाये गए थे।

इस मामले की सच्चाई तो सबसे पहले स्वदेशी जागरण मंच ने ही सामने लायी थी तो यह कैसे झूठ हो सकता है? साल 2017 के दिसंबर माह में स्वदेशी जागरण मंच ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी भेजकर सर्वत्र टीकाकरण कार्यक्रम में एचपीवी नाम की इस वैक्सीन को इंट्रोड्यूस करने का विरोध किया था, क्योंकि इसे पंजाब के दो जिलों और दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर इंट्रोड्यूस किया गया था, जिसके घातक परिणाम आये थे।

एचपीवी वैक्सीन क्या है? पहले वह समझिए? कैंसर इंडिया नाम के एक एनजीओ के मुताबिक, हिंदुस्तान में हर साल 67 हज़ार मौतें सर्वाइकल कैंसर की वजह से होती हैं। इस तरह के कैंसर के 70-75 फीसद मामलों से बचा जा सकता है। उसके लिए पीरियड्स आने के बाद लड़कियों को एक वैक्सीन लगवाना होता है। इस वैक्सीन का नाम है एचपीवी वैक्सीन। इसके सिर्फ दो डोज़ एक लड़की को सर्वाइकल कैंसर से बचा सकते हैं। एचपीवी वैक्सीन दो तरह की होती हैं।

2013 में ‘आजतक’ में अनु जैन रोहतगी ने एक रिपोर्ट लिखी, जिसमे उन्होंने बताया कि कम उम्र की लड़कियों पर 'ह्यूमन पैपीलोमा वायरस' वैक्सीन का क्लीनिकल ट्रायल विवादों में घिर गया है। संसदीय हेल्थ कमिटी ने इस ट्रायल को बिल्कुल गलत और नियमों के खिलाफ बताया है। सर्वाइकल कैंसर से बचने के लिए इस्तेमाल होने वाले इस वैक्सीन के ट्रायल के दौरान कई लड़कियों की मौत भी हो गई थी। 31 सांसदों की संसदीय हेल्थ कमेटी ने अपनी 44 पेज की रिपोर्ट में इस ट्रायल को गलत, नियमों से परे और सरकारी एजेंसियों की लापरवाही का नमूना बताया है। कमेटी ने ट्रायल करने वाली विदेशी कंपनी पैथ के साथ आईसीएमआर और ड्रग कंट्रोलर ऑफ इंडिया के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने को कहा है।

स्वदेशी जागरण मंच के हवाले से हरिभूमि ने 2017 में खबर छापी कि बीएमजीएफ के कुछ दवा बनाने वाली उन कंपनियों के साथ व्यावसायिक रिश्ते भी हैं, जिन्हें सरकार देश में चलाए जाने वाले राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान में शामिल करने की योजना बना रही है। श्वेतपत्र लाने के पीछे एसजेएम का उद्देश्य सरकार को आमजन के स्वास्थ्य से संबंधित मामले में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध कराना है। इससे उन्हें सही निर्णय लेने में आसानी होगी। एसजेएम के विशेषज्ञों ने सरकार के टीकाकरण अभियान के तहत बच्चों को डायरिया के लिए लगाए जाने वाले रोटावायरस और डिपथिरिया, टिटनेस, वूपिंग कफ, हेपेटाइटस-बी, हीमोफिलस इनफ्लूएंजा जैसी पांच बीमारियों से बचाने के लिए लगाए जाने वाले एक संयुक्त पेंटावेंलेट वैक्सिन के परीक्षणों को लेकर भी चिंता जाहिर की है। डॉ महाजन का कहना है कि जल्द जारी किए जाने वाले श्वेतपत्र के जरिए हम सरकार से अपील करेंगे कि वह अलग-अलग मामलों के साथ रोटावायरस के फील्ड परीक्षणों के डेटा की जानकारी सार्वजनिक करे। इसमें खासकर वेल्लौर के मामलों पर जोर रहेगा। इस बाबत रोटोवैक क्लिनिकल परीक्षणों की शुरूआत वर्ष 2011 से 2013 के बीच में हुई थी। तब दिल्ली, पुणे और वेल्लौर में कुल 6 हजार 799 नवजात बच्चों पर परीक्षण किए गए थे। इन दोनों वैक्सिन से बच्चों पर कुछ दुष्प्रभाव भी हुए हैं, जिसमें उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता पर गंभीर असर पड़ने की बात कही गई है।

बता दें कि एचपीवी वैक्सीन का ट्रायल पहले विवादों में आ चुका था जब आंध्र प्रदेश के खम्मम जिले में टीकाकरण के बाद सात लड़कियों की मौत हो गई थी। स्वास्थ्य पर संसद की 72वीं स्थाई समिति ने इस तथ्य को हाईलाइट किया था। गौरतलब है कि नवंबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए केन्द्र सरकार से इससे जुड़े फाइलों को प्रस्तुत करने का आदेश दिया था। आंध्रप्रदेश तथा गुजरात के आदिवासी इलाकों के 24 हजार लड़कियों को ‘अवलोकन अध्ययन’ के नाम पर लगाया गया था। इस पुनीत काम को गेट्स फाउंडेशन से फंड लेने वाली संस्था पथ (प्रोग्राम फॉर एप्रोप्रियेट टेक्नोलॉजी इन हेल्थ) ने अंजाम दिया था। वैक्सीन की सप्लाई विदेशी दवा कंपनी मर्क तथा ग्लैक्सो ने की थी। पथ के इस काम में इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने भी सहयोग दिया था। इससे हुई लड़कियों की मौत के बाद इसे रोक दिया गया था।

संसद की स्थाई कमेटी की रिपोर्ट की अनदेखी करते हुए इसे देश भर में उतारा गया। इस कमेटी ने अपनी 72वीं रिपोर्ट में आईसीएमआर की भूमिका को लेकर चौंकाने वाले तथ्यों का हवाला दिया है। क्या आईसीएमआर बिना अनुमति मानव पर क्लिनिकल ट्रायल को बढ़ावा दे रहा है।

इस मामले के तूल पकड़ने पर जांच कमेटी का गठन किया गया। लेकिन स्थाई समिति ने पाया कि कमेटी में शामिल डॉक्टरों में से एक डॉक्टर उस कंपनी की मेहमान-नवाजी का आनंद ले रहा था, जो ट्रायल करा रही है। कमेटी ने यह भी पाया कि आईसीएमआर ने अमरीकी एजेंसी ‘पथ’ के साथ सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं जिसे बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की ओर से फंड मिलता है। देश में वैक्सीन इस्तेमाल की मंजूरी से पहले ही यह हो गया था। मोदी सरकार पहले ही इन तथ्यों से परिचित थी और बदनामी न बढ़े इसलिए उसने गेट्स फाउंडेशन की फंडिंग को रोक देने का फैसला लिया।

इसका अर्थ यह है कि भारत में एचपीवी टीको के बारे में रॉबर्ट एफ केनेडी जूनियर बिलकुल सही थे। लेकिन यकीन जानिए अभी आपने भारत में बिल गेट्स फाउंडेशन के खेल का सिर्फ एक ही हिस्सा देखा है।

बिग मनी, बिग फार्मा और बिग करप्शन

आज से दो साल पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गर्भ नाल से जुड़ा हुआ संगठन स्वदेशी जागरण मंच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर एक अजीब सी माँग करता है कि हितों में टकराव के आधार पर नचिकेत मोर को भारतीय रिजर्व बैंक के बोर्ड से हटाया जाए।

आप कहेंगे कि यहाँ नचिकेत मोर का क्या काम? इकनॉमी से जुड़े लोग नचिकेत मोर को एक बैंकर के बतौर जानते है। उन्होंने कुछ समितियों का नेतृत्व भी किया है जिनकी सिफारिशों के आधार पर जनधन योजना जैसी बड़ी ओर महत्वपूर्ण योजना की परिकल्पना की गई थी।

आपकी जानकारी के लिये बता दूं कि 2016 के मध्य से 2019 तक नचिकेत मोर बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन (बीएमजीएफ, एक एनजीओ) के अध्यक्ष थे, कमाल की बात यह है कि इस पद पर रहते हुए भी उन्हें मोदी सरकार ने आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड के सदस्य के रूप में नियुक्ति दे दी थी, जबकि मोदी सरकार लगातार बड़े एनजीओ के पर कतरने का काम करती आई थी तो फिर नचिकेत मोर में ऐसा क्या खास था?

मंच के सह-संयोजक अश्विनी महाजन ने मोदी को लिखे गए पत्र में कहा, ‘भारतीय रिजर्व बैंक के बोर्ड में नचिकेत मोर को बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं है। यह हितों में टकराव का बिल्कुल सीधा मामला है, क्योंकि उनके प्रधान नियोक्ता बीएमजीएफ को विदेशी फंड प्राप्त होता है और आरबीआई फंड का नियामक है। मोर बीएमजीएफ के भारत मे पूर्णकालिक प्रतिनिधि हैं। बीएमजीएफ केंद्रीय गृह मंत्रालय की सख्त निगरानी में है और विदेशी स्रोतों से सक्रियता से धन प्राप्त कर रहा है।

लेकिन सिर्फ एक यही वजह नही थी जिसकी वजह से मंच उनकी आरबीआई में उपस्थिति का विरोध कर रहा था, मंच अपने पत्र में आगे लिखता है, 'गृह मंत्रालय बीएमजीएफ पर इन आरोपों के कारण नजर रख रहा है कि यह फाउंडेशन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए काम कर रहा है ताकि स्वास्थ्य एवं कृषि क्षेत्रों में सरकारी नीतियों को उनके पक्ष में प्रभावित कर सके।' ध्यान दीजिए 'स्वास्थ्य एवं कृषि क्षेत्रों में'। आगे अपने इस पत्र में स्वदेशी जागरण मंच मांग करता है कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अलावा नीति आयोग, भारतीय मेडिकल अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) और केंद्रीय कृषि, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालयों को निर्देश दिए जाएंगे कि वे ऐसे संगठनों एवं उनके प्रतिनिधियों से दूरी बनाए रखें।

मंच के सह-संयोजक आगे कहते है कि 'हाल में मीडिया में कुछ खबरें आई थीं जिनमें आरोप लगाए गए थे कि बीएमजीएफ ग्लोबल हेल्थ स्ट्रेटेजीज (जीएचएस) नाम के एक एनजीओ की फंडिंग कर रहा है ताकि वह भारत में वैश्विक तौर पर व्यर्थ दवाएं इस्तेमाल करने के लिए जरूरी प्रयास करे।' यह एक बड़ी महत्वपूर्ण बात हमे पता लगती है जो बिल गेट्स फाउंडेशन के द्वारा तथाकथित रूप से किये जा रहे 'परोपकार' की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है और वो है वैश्विक तौर पर व्यर्थ दवाओं को भारत मे इस्तेमाल किये जाने का प्रयास करना। ये सब तथ्य आरएसएस के एक सबसे महत्वपूर्ण संगठन स्वदेशी जागरण मंच के हैं। आप चाहें इन्हें झुठला दीजिये!

2017 में टीकाकरण के मामले में बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन का भारत में भंडाफूट चुका था। 2017 में बिल गेट्स और भारत सरकार के बीच हुआ एक अहम करार तोड़ दिया गया। ये करार इम्युनाइजेशन टेक्निकल सपोर्ट यूनिट (आईटीएसयू) से जुड़ा हुआ था। दरअसल गेट्स फाउंडेशन पिछले कई वर्षों से इम्युनाइजेशन टेक्निकल सपोर्ट यूनिट के लिए फंडिंग कर रहा था। जिसके तहत करीब 2.7 करोड़ शिशुओं का हर साल टीकाकरण किया जाता था। गेट्स फाउंडेशन राजधानी में टीकाकरण के काम को देखता था, उसकी रणनीति तय करता था और सरकार को सलाह देता था।

ग्लोबल हेल्थ स्ट्रेटेजीज असलियत

मंच ने ग्लोबल हेल्थ स्ट्रेटेजीज (जीएचएस, एनजीओ) का नाम लिया था। जीएचएस क्या काम करता है? यह जानना जरूरी है? उसकी वेबसाइट पर जो जानकारी मिलती है, उसके अनुसार डेविड गोल्ड और विक्टर ज़ोनाना ने वर्ष 2002 में जीएचएस की स्थापना की। जीएचएस की स्थापना के समय उन्होंने एचआईवी एक्टीविज्म, मीडिया, उद्योग और सरकारी संस्थाओ में अपने व्यक्तिगत कार्य के अनुभवों से आधार निर्मित किया। इसके परिणामस्वरूप एक ऐसी कंपनी सामने आई, जो उन्नत संचार व एडवोकेसी के माध्यम से संस्थाओं की मदद करती है। यानी कि एक तरह का पीआर का काम करना।

वो आगे लिखते हैं 'संक्रामक रोगों पर काम के अपने आरंभिक अनुभव से आगे बढ़ते हुए हमने मुद्दों पर विशिष्ट विशेषज्ञता का विस्तार किया, जिसमें स्वास्थ्य और विकास संबंधी चुनौतियों की विविधता शामिल है, जिसका क्षेत्र शोध एवं विकास से लेकर जलवायु परिवर्तन से होते हुए परिवार नियोजन सेवाओं तक है। अब हमारे राष्ट्रीय कार्यालय अमेरिका, ब्राजील, भारत, चीन, अफ्रीका और यूरोप में है।'

जीएचएस इंडिया की स्थापना नई दिल्ली में वर्ष 2010 में हुई। यह वही समय था जब बिल गेट्स इस दशक को टीकाकरण का दशक घोषित कर रहे थे। जीएचएस इंडिया अपने बारे में बताते हुए लिखता है
'नीति निर्माताओं, प्रोग्राम मैनेजरों और अन्य निर्णय लेने वालों के बीच महत्वपूर्ण स्वास्थ्य समस्याओं की प्राथमिकता सुनिश्चित करने के लिए, हम भारत सरकार और राज्य सरकारों के साथ ही साथ अन्य प्रमुख हितधारकों और तमाम क्षेत्रों के प्रभावी लोगों और संस्थाओं के साथ भी मिलकर काम करते हैं। हम क्षेत्रीय, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों पर 'मीडिया' के साथ मिलकर भी काम करते हैं, ताकि स्वास्थ्य संबंधी विमर्श को अधिक विस्तार मिले और भारतीय मीडिया में स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों को उजागर करने के लिए अधिक अनुकूल वातावरण निर्मित हो सके।'

शायद अब आपके समझ मे आ सके कि मीडिया वैक्सीन के बेजा इस्तेमाल के बारे में, व्यर्थ दवाओं के भारत मे इस्तेमाल होने के बारे में कोई खबरे क्यो नही दिखाता है। सिर्फ पॉजिटिव खबरे ही क्यो दिखाई जाती है?

(सभी फोटो गूगल से साभार लिया है.)

 
 

 

 

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