17 सितम्बर, 2020 (ब्लॉग पोस्ट)

इनसान की जिन्दगी में मनोविज्ञान का महत्त्व

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) देश के सर्वोत्तम तकनीकी संस्थानों में गिने जाते हैं। एमएचआरडी ने चैंकाने वाली खबर में बताया कि 2014 और 2019 के बीच 10 आईआईटी के सत्ताईस छात्रों ने पिछले पाँच वर्षों में आत्महत्या की है। इस सूचना ने एक बार फिर आत्महत्या, असफलता, अलगाव को समझने में मनोविज्ञान की भूमिका को कार्यसूची पर ला दिया है। अब तक माना जाता था कि देश के किसान और मजदूर अपनी आर्थिक समस्याओं के चलते आत्महत्या करते हैं। हालाँकि इन समस्याओं में आर्थिक पहलू के बावजूद मनोवैज्ञानिक पहलू से इनकार नहीं किया जा सकता।

मनोविज्ञान को मानव व्यवहार और मानसिक प्रक्रियाओं का वैज्ञानिक अध्ययन माना जाता है। आज दुनिया भर में मनोविज्ञान का महत्व बहुत अधिक बढ़ गया है। शिक्षा, चिकित्सा विज्ञान, युद्ध और सैन्य मामले, समाज के अध्ययन, भीड़ की बढ़ती हिंसा और कट्टरता को समझने, मीडिया द्वारा लोगों की सोच–समझ को नियन्त्रित करने और सरकारी नीतियों के निर्माण जैसे मामलों में मनोविज्ञान जबरदस्त भूमिका निभा रहा है। 

आज मनोविज्ञान को मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के मूल्यांकन और उसके उपचार के लिए लागू किया जा रहा है। मनोवैज्ञानिक लोगों की मानसिक प्रक्रियाओं और व्यवहार से जुड़े पहलुओं के बारे में अनुसंधान करते रहते हैं और रोज नये–नये आविष्कार कर रहे हैं। विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के शिक्षक अपने छात्रों को इस विषय से परिचित कराते हैं। अगर कोई शिक्षाशास्त्री स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम को बनाते समय छात्रों के मानसिक विकास और व्यवहार को ध्यान में रखता है, तभी वह एक बेहतरीन पाठ्यक्रम तैयार कर पाता है। वह इस बात का भी ध्यान रखता है कि छात्रों के सामने मनोरंजक विषयवस्तु प्रस्तुत की जाये। उम्र बढ़ने के साथ व्यवहार में बदलाव और कानून के कई पहलुओं के अध्ययन में मनोविज्ञान का इस्तेमाल हो रहा है। फोरेंसिक जाँच में भी इसका इस्तेमाल होता है।

इतिहास के कुछ बिन्दु

पुरानी सभ्यताओं में मनोविज्ञान का अध्ययन दर्शन की एक शाखा के रूप में किया जाता था, लेकिन 1870 के दशक में यह वैज्ञानिक अध्ययन की एक स्वतंत्र शाखा के रूप में अलग हो गया। आज मनोविज्ञान का विकास नयी–नयी ऊँचाइयाँ छू रहा है। विज्ञान के रूप में इसे बहुत सम्मान मिला हुआ है।

हालाँकि यह बहुत पुराना विज्ञान नहीं है। फिर भी मिस्र, यूनान, चीन, भारत और फारस की प्राचीन सभ्यताओं में मनोवैज्ञानिक अध्ययन किये जाते थे। लेकिन यह विज्ञान के तौर पर प्रतिष्ठित नहीं था। इन अध्ययनों में मनगढ़न्त बातों और झूठे किस्सों का बोलबाला अधिक था। फिर भी कुछ दार्शनिकों ने काम की बातें भी बतायी हैं। यूनानी दार्शनिक थेल्स, प्लेटो और अरस्तू ने मन के काम करने के तरीके के बारे में लिखा है। यूनानी चिकित्सक हिप्पोक्रेट्स ने कहा था कि व्यक्ति के अजीबो–गरीब व्यवहार के पीछे कोई अलौकिक शक्ति नहीं होती है, बल्कि इसके लिए शारीरिक और मानसिक विकार जिम्मेदार होते हैं।

19वीं सदी में प्रशियाई जर्मन दार्शनिक इमैनुअल कांट ने खुलेआम प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के विचार को खारिज कर दिया और इस क्षेत्र को विज्ञान का रूप देने का विरोध किया। उसने कहा कि मन के अनुभवजन्य सिद्धान्त कभी रसायन विज्ञान की तरह विश्लेषणात्मक या प्रयोगात्मक सिद्धान्त का रूप में नहीं ले सकते हैं।

विल्हेल्म वुंड्ट ने अपने सहयोगियों के साथ अपनी मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की। यह सब उसने पहली बार किया। गुस्ताव फेचनर ने 1830 के दशक में लीपजिग में साइकोफिजिक्स अनुसंधान का संचालन शुरू किया। उसने अपने सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए कहा कि किसी उद्दीपन के प्रति इनसान का ग्रहणबोध उसकी तीव्रता के साथ लघुगणकीय रूप से बदलती है। इस तरह फेचनर के साइकोफिजिक्स के तत्वों ने मन के मात्रात्मक अध्ययन का विरोध करने वाले कांट को कड़ी चुनौती दी। इसी के साथ हीडलबर्ग में, हरमन वॉन हेल्महोल्त्ज ने संवेदी ग्रहणबोध पर अनुसंधान किया और फिजियोलॉजिस्ट विल्हेम वुंड्ट को प्रशिक्षित किया। वुंड्ट ने लीपजिग विश्वविद्यालय में मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला की स्थापना की जिससे प्रयोगात्मक मनोविज्ञान की शुरुआत हुई। वुंड्ट के सहायक ह्यूगो मुंस्टरबर्ग ने हार्वर्ड में नरेंद्र नाथ सेन गुप्ता को मनोविज्ञान पढ़ाया, जिन्होंने 1905 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग और प्रयोगशाला की स्थापना की।

इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ साइकोलॉजी की पहली बैठक अगस्त 1889 में फ्रांस की क्रान्ति के शताब्दी वर्ष के जश्न के बीच पेरिस में हुई थी। इसके तुरन्त बाद 1892 में अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन की स्थापना हुई थी। इन सभी संस्थाओं ने अलग–अलग देशों में मनोविज्ञान के विकास को बढ़ावा दिया।

रॉकफेलर परिवार ने व्यवहार और मानसिक बीमारी की अवधारणा से जुड़े अनुसंधान पर ढेर सारा धन लगाया। जैसा कि अकसर होता है, नयी वैज्ञानिक खोज का फायदा ऐसे व्यवसायी उठाते हैं, जिनके पास अकूत धन हो। वे पैसे के दम पर अनुसंधान और उससे निकले नतीजों पर अपना एकाधिकार कायम कर लेते हैं और उसी के जरिये खूब पैसा कमाते हैं। औद्योगिक, राजनीतिक और बैंकिंग क्षेत्र में राज करने वाले अमरीका के रॉकफेलर परिवार ने मनोविज्ञान के क्षेत्र में भी यही किया।

ऐसा नहीं है कि मनोविज्ञान का इस्तेमाल केवल शान्तिपूर्ण और लोक कल्याणकारी कामों में किया गया। इसका इस्तेमाल करके युद्ध की रणनीति भी बनायी गयी और इनसानियत का खून बहाया गया। 1950 के दशक में, रॉकफेलर फाउंडेशन और फोर्ड फाउंडेशन ने मनोवैज्ञानिक युद्ध पर होने वाले अनुसंधान के लिए केंद्रीय खुफिया एजेंसी (सीआईए) के साथ सहयोग किया था। सीआईए ने कई देशों में षड़यत्र रचा, तख्तापलट करवाया और राजनीतिक नेताओं की हत्या की।

प्रोजेक्ट कैमलॉट अमरीका के कुख्यात मैनहट्टन प्रोजेक्ट का ही एक हिस्सा था, जो 1965 में विवादों से घिर गया। यह एक ऐसा प्रयास था जिसने युद्ध के लिए मनोवैज्ञानिक रणनीति बनाने के लिए दूसरे देशों को सूचीबद्ध किया था। दक्षिण अमरीका के प्रोफेसरों ने इस प्रोजेक्ट का विरोध करते हुए कहा था कि यह अमरीका का साम्राज्यवादी प्रयास है, जिसके तहत वह दूसरे देशों को अपना गुलाम बनाना चाहता है। इसके बाद 8 जुलाई 1965 को प्रोजेक्ट कैमलॉट बन्द कर दिया गया, लेकिन उससे जुड़े मनोवैज्ञनिक शोध को चोरी छिपे जारी रखा गया।

जर्मनी में, हिटलर जब सत्ता में आया तो उसने अपनी रणनीति बनाने के लिए मनोविज्ञान का भरपूर उपयोग किया। स्विस मनोचिकित्सक कार्ल जी जुंग ने अपनी पुस्तक ‘नाजीवादी जर्मनी की मनोदशा’ में इसे विस्तार से बताया है। हिटलर के द्वारा जर्मनवासियों को महानता के अहंकार में उन्मादी और पागल बना दिये जाने पर उन्होंने कहा कि “गर्व की भावना के जरिये हम खुद को धोखा दे रहे हैं। अन्तरमन की सतह के नीचे से अब भी धीमी लेकिन गहरी आवाज आती है कि कुछ गड़बड़ चल रहा है।” नाजी पार्टी का बड़ा नेता हरमन गोरिंग का चचेरा भाई मैथियास गोरिंग था। उसने बर्लिन मनोविश्लेषण संस्थान का नाम बदलकर गोरिंग इंस्टीट्यूट कर दिया। मनोवैज्ञानिक फ्रायड के अधिकांश शिष्य यहूदी थे। नाजी पार्टी की यहूदी विरोधी नीति के तहत उन्हें सताया गया और इंस्टीट्यूट से निष्कासित कर दिया गया।

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रूस की क्रांति के बाद, समाजवाद के निर्माण के दौरान ‘नये इनसान’ की अवधारणा सामने आयी। विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग ने बड़ी संख्या में छात्रों को नये विचारों से लैश किया। उन्हें दुनिया को नये और सकारात्मक नजरिये से देखना सिखाया। पुरानी समाज व्यवस्था की गन्दगी और मानसिक विकारों को दूर करने की वैज्ञानिक विधियों को काफी हद तक खोज निकाला गया। बाल मनोविज्ञान के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया। प्रेम को बढ़ावा दिया गया और यौन व्यवहार से सम्बन्धित दिक्कतों को हल करने के लिए मनोविश्लेषण के सिद्धान्त को लागू किया गया।

भारत में मनोविज्ञान अभी शैशवावस्था में है। इसके विकास की राह में कई गम्भीर चुनौतियाँ हैं। जैसे–– भारतीय समाज में वैज्ञानिक मनोवृत्ति का अभाव है। लोग अपनी मानसिक और व्यवहारिक दिक्कतों को सुलझाने के लिए बाबा–ओझा या पीर–फकीर के पास जाना पसन्द करते हैं। झाड़–फूँक और जादू–टोने के जरिये समस्या हल करने की कोशिश की जाती है। मामला हाथ से निकलता देखकर कुछ लोग मनोचिकित्सक के पास जाते हैं। लेकिन वे भी अपने चिकित्सक पर पूरा यकीन नहीं करते और दुविधाग्रस्त बने रहते हैं।

मनोवैज्ञानिक प्रणालियाँ

मनोविश्लेषण एक ऐसी विधि है जिसमें मन की जाँच और अनुभव की व्याख्या की जाती है। इसकेे तहत मानव व्यवहार के बारे में कई सिद्धान्त आते हैं। किसी व्यक्ति की मानसिक बीमारी या भावनात्मक संकट का इलाज भी मनोविश्लेषण के जरिये ही किया जाता है। मरीज से सवाल–जवाब करके उसके अचेतन मन में फँसी गुत्थियों का पता लगाया जाता जो बचपन की किसी दुर्घटना से बनी हो सकती हैं। इसके बाद उसका इलाज किया जाता है।

फ्रायड का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त काफी हद तक व्याख्यात्मक तरीकों, आत्मनिरीक्षण और नैदानिक अवलोकन पर आधारित है। यह अब बहुत प्रचलित हो गया है, क्योंकि यह सेक्स, उसके दमन, यौन सम्बन्ध और अचेतन से जुड़ी समस्याओं को हल करता है। समाज में इन मुद्दों पर बात करना वर्जित होता है और फ्रायड ने अपने सिद्धान्तों के जरिये इस पर खुली चर्चा के लिए एक प्लेटफार्म उपलब्ध कराया है। फ्रायड के सिद्धान्तों से कार्ल जुंग बहुत प्रभावित थे। उन्होंने सभी मनुष्यों में एक साथ मौजूद ‘सामूहिक अचेतन’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, जो मन पर गहरा प्रभाव डालने वाली एक बड़ी शक्ति होती है। जुंग ने भी अपने अध्ययन में विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान को आधार बनाया, जिससे आर्काटाइपल (मूल आदर्श–विषयक) मनोविज्ञान और प्रक्रिया उन्मुक मनोविज्ञान का विकास हुआ।

कई विद्वान मनोविश्लेषण की विधि को ठीक नहीं मानते। जैसे–– हंस एसेनक और दार्शनिक कार्ल पॉपर ने मनोविश्लेषण की आलोचना की है। पॉपर ने तर्क दिया है कि मनोविश्लेषण को वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में पेश करना गलत है। जबकि एसेनक ने कहा कि प्रयोगात्मक तथ्यों ने मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्तों का खण्डन किया है।

मानवतावादी मनोविज्ञान 1950 के दशक में व्यवहारवाद और मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त दोनों की प्रतिक्रिया में विकसित हुआ। इसने व्यक्तित्व के अलग–अलग हिस्सों या अलग–अलग संज्ञानों को नहीं बल्कि पूरे व्यक्ति को देखने पर जोर दिया। इसने विशिष्ट मानवीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया, जैसे–– मुक्त इच्छा, व्यक्तिगत विकास, आत्म–बोध, आत्म–पहचान, मृत्यु, अकेलापन, स्वतंत्रता और आशय। इसने मनोगत पहलुओं और सकारात्मक विकास पर जोर दिया तथा नियतिवाद का विरोध किया। मानवतावादी मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैस्लो ने ‘मानव की जरूरतों’ का एक पदानुक्रम तैयार किया, जिसमें उन्होंने ‘आत्म–बोध‘ को सबसे ऊपर रखा और उसके नीचे ‘आदर भाव’, प्रेम, सुरक्षा और शारीरिक आवश्यकताओं को घटते हुए क्रम में दर्शाया। अमरीकी मनोवैज्ञानिक रोलो मे ने अस्तित्ववादी मनोचिकित्सा को विकसित किया। इसमें माना जाता है कि किसी व्यक्ति के भीतर आन्तरिक संघर्ष उसके ‘अस्तित्व के  लिए जरूरी शर्तों’ के टकराव के कारण होती है।

व्यक्तित्व मनोविज्ञान व्यवहार, विचार, और भावना के स्थायी प्रतिमानों से सम्बन्धित है। फ्रायड के अनुसार, व्यक्तित्व इड, अहम (इगो) और अति–अहम (सुपर–इगो) की परस्पर क्रिया पर आधारित है। उन्होंने अवचेतन मन की अवधारणा को लोकप्रिय बनाया। अवचेतन मन व्यक्ति के मन का वह हिस्सा होता है जो उसके नियन्त्रण में नहीं रहता है। लेकिन उसके विचार और व्यवहार को प्रभावित करता है। अवचेतन मन का प्रमाण फ्रायडियन स्लिप या पैराप्रैक्सिस के रूप में सामने आता है। किसी की बातों या कार्रवाइयों में ऐसी गड़बड़ी या त्रुटि हो जाती है, जिसका पता व्यक्ति को नहीं चल पाता। अवचेतन इच्छा या विचार के गुपचुप हस्तक्षेप के कारण ऐसा होता है। इसे ही फ्रायडियन स्लिप कहा जाता है।

प्रेरणा (मोटिवेशन) मानव व्यवहार का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। यह काम करने की उस इच्छा की ओर संकेत करती है जो काम के लिए व्यक्ति को संचालित करती है। भूख, प्यास, भय, मातृत्व, नींद, यौन इच्छा और ताप–नियामक सभी जानवरों के लिए मूलभूत प्रेरणा का निर्माण करते हैं। मनुष्य में भी ये सभी मूलभूत प्रेरणाएँ होती हैं। लेकिन उसमें प्रेरणाओं का अधिक जटिल जाल होता है। व्यक्ति में आत्म–छवि, भविष्य की सुरक्षा, सच्चाई, प्रेम और दुश्मनी आदि भी प्रेरणा का काम कर सकते हैं। कुछ लोगों में इससे और जटिल प्रेरणा काम करती है जैसे–– एक लेखक को लिखने की प्रेरणा, किसी जज को न्याय करने की प्रेरणा और लोगों के अन्दर एक–दूसरे की मदद करने की प्रेरणा आदि। यह भी ध्यान रखने की बात है कि प्रेरणा के न होने पर कोई काम करने की इच्छा खत्म हो जाती है। सोई प्रेरणा को जगाया भी जाता है। कुशल नेतृत्व अपने अनुशरणकर्ताओं को खास काम करने के लिए प्रेरित कर लेता है।

विकासमूलक मनोविज्ञान के तहत मानव मन के विकास का अध्ययन किया जाता है और यह समझने की कोशिश की जाती है कि मौजूदा हालात में लोग कैसा अनुभव करते हैं, समझते हैं और कार्य करते हैं और ये प्रक्रियाएँ कैसे बदल जाती हैं जैसे उम्र बढ़ने के साथ इनसान के सोचने की पद्धति में बदलाव आता रहता है।

हर इनसान के लिए मनोविज्ञान जरूरी है

अकसर लोग किसी मुद्दे पर विचार करते समय सोचते हैं कि वे उसके सही और गलत पहलू पर ध्यान दे रहे हैं। लेकिन कार्ल जुंग ने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा, “मन का पेंडुलम सही और गलत के बीच नहीं बल्कि सेंस और नॉन–सेंस के बीच झूलता रहता है।” यानी हम तर्क और कुतर्क के बीच फँसे रहते हैं और विज्ञान को अंधविश्वास से अलग नहीं कर पाते। ज्यादातर मामलों में स्थापित मान्यताएँ हमारे चिन्तन की सीमा तय कर देती हंै। चिन्तन की सही विधि क्या है ? इसके बारे में पता नहीें किया जाता। किसी समस्या को हल करने के लिए पारम्परिक तौर–तरीके अपनाये जाते हैं, ये तरीके नयी परिस्थितियाँ आ जाने पर समस्या को हल करने में असफल सिद्ध होते हैं।

व्यक्ति का व्यवहार और उसका चिन्तन कई घटनाओं से प्रभावित होता है, जो उसके इर्दगिर्द घटती रहती हैं। जैसे–– आज ज्यादातर लोग रिश्तों में उथल–पुथल, जिन्दगी में आगे बढ़ने की जद्दोजहद, कार्यस्थल के तनाव, बढ़ते अपराध और वित्तीय कठिनाइयों से परेशान हो उठते हैं। कई बार समझना मुश्किल हो जाता है कि इन कठिनाइयों से कैसे उबरा जाये।

एक मनोचिकित्सक या मानसिक परामर्शदाता (मेंटल काउंसलर) सबसे पहले पीड़ित व्यक्ति को भावनात्मक सहारा देकर मानसिक सुकून पहुँचाता है। वह समस्याओं और खतरों से निपटने के लिए जरूरी मानसिक सहायता प्रदान करता है यानी लोगों की मानसिक और व्यवहारिक गुत्थियों को सुलझाता है।

मनोविज्ञान लोगों को बड़ी मदद पहुँचाता है। एक मनोवैज्ञानिक किसी व्यक्ति के पिछले व्यवहार का अध्ययन करके उसके भविष्य के व्यवहार के बारे में सही अनुमान लगाता है और उसे उसके बारे मंंेे सतर्क रहना सीखाता है। वह लोगों को अपने निर्णय लेने मदद करता है। तनाव को कम करने और व्यवहार को सुधारने की कला सीखाता है। इससे व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है और वह लोगों से मेल–जोल बढ़ाने, रिश्ते को बेहतर बनाने और अपनी रोजी–रोटी जुटाने की राह की बाधाओं को दूर कर सकता है।

मनोविज्ञान का क्षेत्र बहुत व्यापक है। उद्योग, परिवार, खेल, व्यवसाय, मीडिया, फोरेंसिक, राजनीति आदि में मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का उपयोग होता है। संगठन बनाने और समाज की समस्याओं को हल करने में इससे मदद मिलती है। भीड़ के मनोविज्ञान के अध्ययन से साम्प्रदायिकता, फासीवाद और मॉब लींचिंग जैसी समस्याओं की बेहतर व्याख्या की जा सकती है।

मनोविज्ञान का अध्ययन करने से कई फायदे होते हैं। जैसे–– विचित्र व्यवहार करने वाले व्यक्ति को देखकर हमारे मन में कोतूहल पैदा होता है। उसे देखना मनोरंज होता है। पागल व्यक्ति का व्यवहार देखकर या उल्टी–सीधी बात करके हास्य पैदा करने वाले व्यक्ति के सानिध्य में हमें मजा आता है। इसी तरह लोगों के व्यवहार के बारे में जानना मनोरंजक होता है। इसी तरह हम सीख पाते हैं कि लोगों के बीच मनोरंजक प्रभाव कैसे पैदा करें या अपनी तरफ लोगों को कैसे आकर्षित करें या हमारे कौन–कौन से व्यवहार लोगों को पसन्द नहीं आते।

मनोविज्ञान के अध्ययन से हम मानसिक विकारों और उनके उपचार के बारे में जान पाते हैं। इसके अभाव में व्यक्ति अपने व्यवहार से जुड़ी समस्याओं का खुद हल तलाश नहीं कर पाता। मनोविज्ञान के अध्ययन से हमें लोगों के व्यवहार को समझने में मदद मिलती है। लोगों को किन बातों से प्रेरणा मिलेगी ? हम उनके व्यवहार को कैसे प्रभावित कर सकते हैं ? लोग तनाव में होने पर कैसा व्यवहार करते हैं ? क्या मानसिक प्रशिक्षण के बाद हमारा प्रदर्शन बेहतर हो सकता है ? किसी खास इनसान के लिए प्यार की भावना हमारे अन्दर क्यों पैदा हो जाती है ? दो व्यक्तियों के बीच प्रतिभा, योग्यता और कौशल के अन्तर का क्या अर्थ है ? ऐसा क्यों है कि कुछ लोगों का व्यवहार हमेशा मित्रवत होता है और वे तनावमुक्त कैसे रह लेते हैं ? इन सभी सवालोें का जवाब ढूँढने के लिए मनोविज्ञान का विधिवत अध्ययन अपरिहार्य है। यूँ तो लग सकता है कि हम अगर लोगों के व्यवहार को नोट करते रहें तो बहुत कुछ जान सकते हैं। लेकिन रूसी मनोवैज्ञानिक इवान पावलोव ने कहा था कि “केवल तथ्यों को नोट करने वाला न बनें, बल्कि उनके मूल में छिपे रहस्यों को भेदने की कोशिश करें।” हम ऐसा तभी कर सकते हैं, जब हम घटनाओं को संचालित करने वाले सिद्धान्तों को जान लें।

मनोविज्ञान की आलोचना

कुछ विद्वान नैतिक और दार्शनिक आधार पर मनोविज्ञान की आलोचना करते हैं। उनका कहना है कि इनसान पर वैज्ञानिक प्रयोग करना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा करते हुए इनसान को वस्तु के रूप में मान लिया जाता है, इसलिए ऐसा प्रयास अमानवीय नहीं हो सकता है। अगर कोई मनोवैज्ञानिक स्थापित मानवीय मूल्यों की अवहेलना करके अपना प्रयोजन सिद्ध कर रहा है तो उसे कभी उचित नहीं कहा जा सकता लेकिन ऐसे किसी प्रयास की आलोचना करने के बजाय पूरे मनोविज्ञान को कटघरे में खड़ा करना उचित नहीं है। इसलिए किसी इनसान के ऊपर प्रयोग करना तब तक गलत नहीं माना जा सकता, जब तक मानवीय मूल्यों की अवहेलना न हो।

दार्शनिक थॉमस कुन्ह ने आलोचना की कि मनोविज्ञान विरोधाभासी स्थिति में फँस गया है, क्योंकि यह रसायन और भौतिकी जैसे विज्ञानों की तरह प्रयोगशाला आधारित अनुसंधान पर खरा नहीं उतरता है। आत्मविश्लेषण और मनोविश्लेषण जैसे तरीके स्वाभाविक रूप से मनोगत हैं। वस्तुनिष्ठता, वैधता और दृढ़ता विज्ञान की प्रमुख विशेषताएँ हैं, इन दृष्टिकोणों से मनोविज्ञान को विज्ञान की श्रेणी में रखने की अपनी कठिनाइयाँ भी हैं। इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए सांख्यिकीय विधियों और ज्यादा परिष्कृत अनुसंधान विधियों का अधिक से अधिक उपयोग किया जाना चाहिए। हम किसी भी ज्ञान की शाखा को तभी विज्ञानसम्मत मान सकते हैं, जब वह प्रायोगिक और तार्किक हो तथा उसे व्यवहार में लागू किया जा सके। प्रायोगिक मानदण्ड पर मनोविज्ञान पूरी तरह खरा नहीं उतरता। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह इनसान की व्यवहारिक समस्याओं को नहीं सुलझाता। तर्कशीलता के मानदण्ड पर भी मनोविज्ञान काफी सुसंगत है। मन या मष्तिस्क सामान्य पदार्थ की तुलना में अधिक जटिल तरीके से काम करता है। वह पदार्थ पर लगनेवाले सामान्य नियमों को पालन हूबहू नहीं करता। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि वह किसी विज्ञान के अधीन काम नहीं करता या मन का कोई विज्ञान नहीं है। मन की क्रियाओं के सिद्धान्तों को वैज्ञानिक तरीके से खोजा और समझा जा सकता है लेकिन वह कहीं अधिक जटिल है और विकास की निरन्तर प्रक्रिया में है। इसलिए कहा जा सकता है कि विज्ञान के रूप में पूरी तरह विकसित होने के लिए मनोविज्ञान को एक लम्बी यात्रा करनी होगी। 

अनुभव आधारित मनोवैज्ञानिक प्रणालियों के बीच काफी अन्तर पाया जाता है कि जैसे–– एक ही मनोविकार को दूर करने के लिए अलग–अलग मनोचिकित्सक अलग–अलग तरीका अपनाते हैं। यह अन्तर शोधकर्ताओं के बीच काफी उलझन पैदा करता है। इसके साथ ही मनोवैज्ञानिकों का सीमित दृष्टिकोण और गैर–वर्गीय नजरीया भी एक बड़ी बाधा है। ये चीजें उन्हें विज्ञान की इस विधा का समग्र अध्ययन से रोक देती हंै।

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आधुनिक समाज में अलगाव ने कई बड़ी समस्याओं को को जन्म दिया है। अकेलापन, बोरियत, अजनबियत, इनसान–इनसान के बीच बढ़ती खाई, किसी पर विश्वास न होना, दोस्ती–प्यार–रिश्तों का टूटना, भावनात्मक बिखराव की हालत में किसी का साथ न देना आदि इस समस्या की अभिव्यक्तियाँ हैं। फ्रित्ज पापेनहाइम ने अपनी किताब ‘द एलिएनेशन ऑफ मॉर्डन मैन’ (आधुनिक मानव का अलगाव) में इस समस्या के बारे में गहराई से विचार किया है। उन्होंने अलगाव का वर्णन करने के लिए टॉनीज के गेमाइनशैफ्ट और गेसेल्शाफ्ट अवधारणाओं का इस्तेमाल किया। इसके साथ ही वे मार्क्स द्वारा प्रस्तुत उत्पादन की प्रक्रिया में अलगाव की अवधारणा को भी उठाते हैं। इस तरह इस समस्या को ठोस धरातल पर ले जाकर हल करते हैं।

मनोवैज्ञानिकों के ऊपर जिस समस्या को हल करने का दरोमदार है, वे खुद भी उसी समस्या से ग्रस्त हैं। यानी अलगाव। यहाँ इनसान–इनसान के बीच अलगाव का पहलू तो है ही। इसके साथ ही अकादमिक जगत में व्याप्त ज्ञान की अलग–अलग विधाओं के बीच अलगाव है। यह अलगाव इनसान के व्यवहार के समग्र अध्ययन में बहुत बड़ी बाधा है क्योंकि इनसान का दिमाग अलग–थलग पड़ा हुआ कोई मांस का टुकड़ा नहीं है, बल्कि वह अभिन्न रूप से शरीर से जुड़ा हुआ है, अपने अस्तित्व के लिए उसी से पोषण प्राप्त करता है, और सूचनाओं के लिए शरीर के विभिन्न अंगों की संवेदी कोशिकाओं पर निर्भर होता है, जो बहुत विशिष्ट होती हैं। जैसे–– आँख बाहर के दृश्यों की सूचना मष्तिस्क को उपलब्ध कराती है। शरीर पर बाह्य कारकों का जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। यानी राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक और जैविक संरचनाएँ लगातार बदल रही होती हैं और शरीर पर बहुत जटिल प्रभाव डालती रहती हैं, जिससे मष्तिस्क अप्रभावित नहीं रहता। इन बदलती जटिल संरचनाओं के साथ मष्तिस्क का अध्ययन करना अनिवार्य है। यह तभी सम्भव है जब अनुसंधानकर्ता खुद सामाजिक व्यवहार से जुड़ा हो और वह जिस हद तक और जिस रूप में सामाजिक व्यवहार से जुड़ा होता है, उसी हद तक मानव व्यवहार और मष्तिस्क से जुड़े विज्ञान का पता लगा पाता है और उसे आत्मसात कर पाता है। यानी मगरमच्छ के व्यवहार का अध्ययन करने के लिए पानी में उतरना पड़ेगा। आधुनिक मनोविज्ञान ने ज्ञान पाने की इस प्रक्रिया से दूरी बनाकर अपनी सीमाएँ खुद तय कर दी हैं, जिसे तोड़ना जरूरी है।

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