12 अप्रैल, 2021 (ब्लॉग पोस्ट)

पंजाब का कृषि क्षेत्र बदलती जमीनी हकीकत और संघर्ष का निशाना

पंजाब विकसित खेतीवाला राज्य है जहाँ लगभग एक करोड़ एकड़ (40 लाख हैक्टेयर) जमीन पर खेती की जाती है। यहाँ की जमीन पूरी तरह से समतल है। दूसरे राज्यों के बनिस्पत इसके समतलपन में एक खासियत है। पिछले दशकों का रिकार्ड बताता है कि यहाँ की पैदावार देश के औसत से काफी अधिक है। बाढ़ आये, चाहे सूखा पड़े, यह राज्य दोनों हालातों में पैदावार को बनाये रखता है। बाढ़ के दौरान ऊँचे स्थानों पर और सूखे के दौरान निचले स्थानों पर हुई फसल, सामान्य परिस्थितियों वाली औसत फसल का रिकॉर्ड दे देती है। कुदरती नुकसान, ओलावृष्टि आदि से होने वाले नुकसान क्षेत्रीय होते हैं। इस बार कपास की फसल की तबाही, बीमारी से निपटने के लिए सरकार और कृषि विभाग की विफलता के साथ–साथ मुनाफे के लिए दवा कम्पनियों, डीलरों और सरकारी अधिकारियों के भ्रष्ट गठजोड़ का नतीजा है। सरकार को बरी नहीं किया जा सकता।

पंजाब का किसान मेहनती है। यह दुनिया भर में प्रसिद्ध है। वह ज्ञान प्राप्त करने में बहुत आगे है। कृषि में प्रयोग की जाने वाली आधुनिकतम मशीनों और उनके इस्तेमाल के बारे में उसे जानकारी है। वह उनका इस्तेमाल करता भी है। उसका सामाजिक ज्ञान भी अच्छा है। वह उत्पादन, वितरण और खपत के विभाजन को भी समझने लगा है। पहले के मुकाबले उसमें ज्यादा जागृति है, लेकिन ऐसे किसान उ़परी तबकेवाले ही ज्यादा हैं। नीचे की परत वाले इससे अनजान लगते हैं। उन्हें राजनीतिक चेतना की ओर बढ़ने से रोकने के लिए पूरा जाल बिछा हुआ है। राजनीतिक ज्ञान, वर्गीय ज्ञान को दर्शाता है। वर्गीय समझ विकसित न हो, इसके लिए पूरा सरमायादारी प्रबन्ध लगातार प्रयासरत रहता है। सरकार, उसके प्रचार माध्यम, मीडिया, समय–समय पर बनने वाले कमिशन (स्वामीनाथन कमिशन सहित), यहाँ तक कि किसानों की अपनी यूनियनें भी इस रोग से मुक्त नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर पंजाब सरकार ‘किसान हितैषी सरकार’ होने का दावा करती है। उसने किसानों को ‘बिजली–पानी’ मुफ्त दिया हुआ है। स्वामीनाथन रिपोर्ट सुझाव देती है कि किसान के लिए लागत–खर्च के उ़पर 50 फीसदी मुनाफा देने वाले भाव निश्चित होने चाहिए। साथ ही, सब्सिडी जारी रहनी चाहिए, बल्कि इसमें वृद्धि होनी चाहिए और ऋण माफ होना चाहिए जैसी माँगों को किसान संगठन उभारते रहते हैं। भारतीय किसान यूनियन (लखोवाल) का वरिष्ठ अगुआ पिछले सात–आठ सालों से मण्डीकरण बोर्ड का मुखिया है। किसानों के ‘हक’ में ‘डटने’ वाली किसान यूनियनें राजनीतिक पार्टियों के साथ हैं। ‘लखोवाल’ अकाली–भाजपा से है तो ‘राजोवाल’ काँग्रेस के साथ है। ये ही राज करने वाली ‘राजनीतिक पार्टियाँ’ हैं।

आखिर क्या कारण है कि किसान–खुदकुशियाँ रुकना तो दूर, दिन–प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। औसतन चार–पाँच समाचार हर रोज ही होते हैं। खुदकुशी का मुआवजा एक से बढ़ा कर दो लाख कर दिया गया था। अब मुआवजा 10 लाख और परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी तक की माँग की जा रही है। किसानों की रोष–भरी सभाएँ होती हैं, लेकिन कोई यह सवाल नहीं उठा सकता कि किसानों के ‘उग्र’ संघर्षों के होते हुए भी किसान क्यों बर्बाद हो रहे हैं और खुदकुशियाँ क्यों बढ़ रही हैं? ‘किसान बर्बादी’ का हो–हल्ला दिन–प्रतिदिन ऊँचा होता जा रहा है, लेकिन हालात सुधरने के बजाय और बिगड़ रहे हैं।

पिछले महीने महाराष्ट्र में 60 किसान संगठनों ने एक साझा मुहिम चलाने का निर्णय किया है कि जब तक किसानों की खुदकुशियाँं नहीं रुकती तब तक केन्द्र सरकार के कर्मचारियों का 7वें वेतन आयोग का बढ़ा वेतन भुगतान रोक दिया जाये और यह रकम किसानों को दी जाये। राजोवाल ग्रुप (भारतीय किसान यूनियन) द्वारा पंजाब में इसकी शुरुआत 28 नवम्बर से किये जाने का समाचार है। किसान की बुरी हालत को देखते हुए हर जज्बाती आदमी एक बार तो इस बहाव में बह ही जाता है। जोशीले प्रचार के असर में आकर वह कहेगा कि ‘इकनाँ को गफ्फे, किसानों को धक्के’ नहीं चलेगा। कुछ और चाहे हो या न हो, लेकिन इसका एक लाजिमी नतीजा यह निकलेगा कि मेहनतकश मुलाजिमों और किसानों में फासला बढ़ता जायेगा। कुल मिलाकर उनके बीच का यह फासला लुटेरे खेमे के हक में जायेगा। लुटेरे खेमे का मुनाफा कमेरे खेमे की बर्बादी का सूचक है। किसान कमेरे खेमे का एक अहम हिस्सा है। वह ऐसा क्यों करने जा रहा है? या उससे ऐसा कौन करवा रहा है? क्या वह इतना भोला है? क्या वह गुमराह है? बहुत से ऐसे सवाल हैं जो जवाब माँगते हैं।

सबसे अहम सवाल यह है कि यदि अब तक सरकारी नीतियों ने किसान को नहीं बचाया है तो आगे कैसे बचायेंगी? कौन–सी छिपी हुई ताकत है जो मेहनतकशों की साझी दुश्मन है और इन नीतियों को चला रही है? इन सवालों का जवाब राजनीतिक चेतना के धुँधलेपन को हटाकर ही ढूँढा जा सकता है और नया इतिहास बनाया जा सकता है। ‘अभी तक का सभी समाजों का ज्ञात (लिखित) इतिहास वर्ग–संघर्ष का इतिहास है’ और ‘हर वर्ग–संघर्ष राजनीतिक संघर्ष होता है।’ यदि किसान को बचाने का इतिहास बनाना है तो वर्गीय संघर्ष यानी राजनीतिक संघर्ष की ओर बढ़ना होगा और यह बिना राजनीतिक चेतना के सम्भव नहीं है। यही वर्गीय हितों की सचेतनता है। सरमायादारों के हित में है कि वे किसानों को वर्गीय चेतना से महरूम रखने के लिए खेती–बाड़ी के काम और किसान को एक ही इकाई के रूप में पेश करें। किसान तबके के भीतरी बँटवारे को नजरअन्दाज करने वाली राजनीति अमल करें। ‘किसानी बर्बाद हो रही है’! ‘किसानों के कर्ज माफ हों’, ‘किसानों को सब्सिडी मिले’, ‘किसानों को लागत प्लस 50 फीसद मुनाफा भाव मिले’ आदि नारों से वे किसान तबके को एक ही इकाई में पेश करते हैं। जज्बाती बनाने और सच को छुपाने के लिए वे ‘अन्नदाता भूखा मर रहा है’ का राग अलापते हैं, ताकि उनका हित सुरक्षित रहे। क्या सभी किसान परिवारों की माली हालत एक जैसी है? यह सवाल भी जवाब माँगता है कि यदि छोटी–जोत के मालिकाने वाली जमीन घटी है तो दूसरी ओर दस एकड़ से ज्यादा की जोतवाले मालिकाने की जमीन बढ़ी क्यों है? यानी किसान तबके के भीतर कुछ की तबाही बढ़ रही है तो कुछ मालामाल भी हो रहे हैं। कृषि क्षेत्र की समस्यायें और किसान तबके की समस्याएँ एक समान नहीं हैं।

किसानों का विभेदीकरण 

पूरे देश और पंजाब में भी किसान तबके की तीन परतें हैं। जो किसान अपने गुजारे के लिए अपनी ही जमीन पर अपने परिवार के साथ श्रम करते हैं और उन्हें अपनी श्रम–शक्ति कहीं बाहर नहीं बेचनी पड़ती, उन्हें मध्यम किसान या ‘किसान’ कहा जा सकता है। जो किसान इतनी जमीन नहीं रखते कि अपनी जमीन पर खेती से गुजारा कर सकें और उन्हें अपनी श्रमशक्ति बाहर भाड़े पर बेचकर जरूरतें पूरी करनी पड़ती हैं, उन्हें ‘छोटे किसान’ या ‘सीमान्त किसान’ कहा जाता है। जो किसान जमीन की जोत बड़ी होने के चलते उत्पादन में परिवार की मेहनत के साथ–साथ, भाड़े के श्रम से, दिहाड़ीदार आदि रखकर खेती करता हैय उसे बड़ा किसान कहा जाता है। इस तरह छोटा किसान, किसान और बड़ा किसान तीन परतें हैं। इसके अलावा चैथी सरमायादारी ढंग की खेती है। जिसका आधार जमीन के आकार या मालिकाने के बजाय सरमाया लागत होता है। कोई मुलाजिम अपनी जमीन पर भाड़े के मजदूर रखकर भी इस ढंग की खेती कर सकता है और कोई जमीन ठेके पर लेकर भी सरमायादारी ढंग की खेती कर सकता है। पंजाब के 51 लाख परिवारों में से करीब 9 लाख परिवार खेती करते हैं। खेती करने वाले परिवारों की संख्या लगातार कम हो रही है। छोटी जोत वाले भारी संख्या में खेती से बाहर होते जा रहे हैं। यह कहना ज्यादा सही होगा कि नीतियों ने उन्हें खेती से बाहर जाने के लिए मजबूर कर दिया है। दो–तिहाई (66 फीसदी) किसान 6 एकड़ से छोटी जोत वाले हैं जिन्हें छोटे किसान या सीमान्त किसान कुछ भी कह सकते हैं।

पंजाब में खेती का मशीनीकरण हो चुका है। खेती में प्रति–एकड़, प्रति–साल 30 से 40 दिन (दिहाड़ी) का काम है जो फसल की किस्म के कारण घटता–बढ़ता है। इसलिए जमीन की जोत के मुताबिक किसान परिवार के लिए अपने खेत का काम दिहाड़ी है। औसतन एक एकड़ वाले परिवार के पास साल में 40 दिन, तीन एकड़ वाले के पास 100 से 120 दिन, 6 एकड़ वाले के पास 180 से 240 दिन काम है। सारा परिवार ही काम में शामिल रहता है। यदि कपास चुगनी है, मटर तोड़नी है या मिर्च तोड़नी है तो घर की औरतें (माँ–धी) भी काम करती हैं।

इस तरह छोटी जोत वाले परिवार को अपनी जमीन में पर्याप्त काम नहीं मिलता, वे बेकार हैं। वे जीवन–निर्वाह के लिए अपनी श्रम–शक्ति बेचने को बेताब रहते हैं। निराशा के अलावा उनके हाथ कुछ नहीं लगता। ऐसे किसानों का बड़ा हिस्सा दूध–उत्पादक है। एक–दो गाय या भैंस से जीवन–निर्वाह का आरजी सहारा ही मिलता है। कुछ फीसदी परिवारों की औरतें कपड़े सीने जैसे काम भी करती हैं। ऐसे किसान भाड़े पर श्रम करने को तैयार रहते हैं, पर कोई काम नहीं मिलता।

‘बड़े–किसान’, जिनके पास अपनी खेती–मशीनरी है, और सरमायादारी ढंग से खेती करने वाले ‘ठेकेदार’ जमीन ठेके पर लेकर खेती करते हैं। यह रुझान पिछले दस सालों में बढ़ा है। ठेका कम–ज्यादा भी है, लेकिन औसतन 30 से 45 हजार रुपये प्रति एकड़ सालाना है। यह साबित करता है कि निश्चय ही उपज इससे ज्यादा होगी। पंजाब की जमीन उपजाऊ, सिंचित और सुरक्षित है। इसलिए यह लागत खर्च से ज्यादा लौटा देती है। यही कारण है कि यहाँ ‘ठेका–खेती’ को बढ़ावा देने वाली नीतियों पर अमल किया जा रहा है। कोई ‘आर्गेनिक खेती’ की बीन बजा रहा है, कोई फल–सब्जियों को बाहर भेजने के लिए हवाई–अड्डे का हब बनाने और सड़कों का जाल बिछाने का आह्वान कर रहा है, कोई पानी की कमी के कारण ‘डार्क–जोन’ घोषित किया जाना दिखा रहा है और कोई पंजाब की मिट्टी–पानी जहरीला होने की रिपोर्टें दे रहा है। ऐसी रिपोर्टें सरसरी तौर पर देखने से अन्तर्विरोधी लगती हैं, लेकिन ये सभी एक लक्ष्य की पूर्ति की ओर बढ़ती हैं। उदाहरण के तौर पर यदि पानी और मिट्टी जहरीले हैं तो इसकी फल–सब्जियों (जहरीली) का बाहर अधिक दाम कौन चुकायेगा? ‘हवाई–अड्डा’ या ‘हब’ किस काम आयेंगे? इसका उत्तर भी दूसरी ओर से मिल जाता है कि आर्गेनिक खेती को बढ़ावा देंगे। जमीन समतल है, कम पानी की जरूरत है, दो साल खाली रखेंगे तो जहर–मुक्त हो जायेगी। हिमालय की बर्फ में जहर नहीं है, उस शुद्ध (जहर–मुक्त) पानी से खेती करेंगे, जिसकी बाहर बहुत माँग होगी, मालामाल हो जायंेगे। लेकिन यह करेगा कौन? क्या किसान कर सकता है? नहीं कर सकता। केवल सरमायादारी ढंग की ‘ठेका–खेती’ ही यह काम करेगी।

भारत सरकार ने कृषि क्षेत्र में सौ फीसदी विदेशी निवेश (एफ डी आई) को मंजूरी यूँ ही नहीं दी। यह भविष्य की ‘ठेका–खेती’ की वैश्विक नीतियों को मंजूरी देने का नतीजा है। अब दुनिया में कहाँ क्या पैदा करना है, इसका फैसला स्थानीय लोगों के बजाय वित्तीय सरमाये की वैश्विक नीति कमेटियाँ करती नजर आती हैं। इसके साथ ही वे इन्फ्रास्ट्रक्चर या सहायक ढाँचा (बेहतर सड़कें, बड़े–बड़े गोदाम, हवाई अड्डे–हब आदि) का निर्माण करती हैं। पंजाब में भी इनका निर्माण और तैयारी नजर आती है।

बाकी देश और दुनिया की तरह पंजाब के सामने भी एक बड़ा सवाल

क्या पंजाब को वित्तीय सरमाये की नीतियों का हिस्सा बनते जाना है या इसे इन नीतियों के विरोध का रुख अपनाना है? लेकिन अभी तक का अमल (सभी पक्षों का, किसान यूनियनों सहित) इन नीतियों का हिस्सा बनकर चलने वाला ज्यादा है। यही कारण है कि एक ओर तो रियायतें हासिल हो रही हैं, दूसरी और संकट के कारण खुदकुशियाँ बढ़ रही हैं। कृषि–क्षेत्रों में रियायतों का अधिकतर लाभ बड़ी काश्त करने वाले और बड़ी–जोत वाले हासिल करते हैं। खुदकुशियाँ करने वालों की बड़ी संख्या ‘किसानों’ और ‘छोटे–किसानों’ की है।

वित्तीय सरमाये का बड़ा शिकार और भरोसेमंद ग्राहक समूचा किसान तबका है। पिछले पाँच–छह सालों में वित्तीय सरमाये की बहुतायत ने पंजाब के गाँवों के गरीब आँगनों की औरतों को भी अपना शिकार बनाया है। इससे पंजाब का कोई गाँव नहीं बचा होगा, लेकिन यह अभी तक अखबारी खबरों का हिस्सा नहीं बना। वित्तीय सरमाये के ‘वर्कर’, ‘कमीशन एजेंट’, ‘कारिन्दे’ गाँव की 10–10 औरतों के समूह को 15–15 हजार रुपये एक साल के लिए कर्ज देते हैं। इस कर्ज की उगाही के अलग–अलग तरीके हैं। साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक। मासिक वाले से हर माह 1350 रुपये की किस्त वापस ली जाती है। पहले महीने की किस्त 1050 रुपये है। कुल 13 किस्तों में उगाही की जाती है। कोई औरत उगाही वाली मीटिंग में गैरहाजिर नहीं हो सकती। अगर कोई औरत किस्त नहीं भरती तो इसकी जिम्मेवारी बाकी औरतों को भी होती है। गैरहाजिर होने वाले पर 50 रुपये से 100 रुपये तक जुर्माना लगाया जाता है। एक साल तक अच्छा व्यवहार करने वाली कमेटी को अगले साल के लिए 30 हजार रुपये तक का कर्ज भी दिया जा रहा है। कुछ कमेटियाँ तो 50 हजार रुपये सालाना कर्ज वाली भी हैं। अब देखा–देखी और आर्थिक तंगी की सतायी हुई ‘किसान’ परिवारों की औरतें भी इसका शिकार हो रही हैं। इस रकम का ब्याज इतना ज्यादा है कि 37 महीनों में ही रकम को दोगुनी कर देता है। सर्वे में देखा गया है कि यह कारोबार आपसी–साझी जिम्मेवारी से ही फल–फूल रहा है। कोई लिखित गारन्टी वगैरह नहीं है। मुनाफे की ललक और रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करने में होने वाली तंगी किसान परिवारों को इस जाल में फँसा देती है। रोजमर्रा की जरूरतों में सबसे बड़ा खर्च शिक्षा और इलाज पर होने वाला खर्च है। आज शिक्षा मुफ्त नहीं रही। निजीकरण के चलते शिक्षा का खर्च सबसे बड़ा खर्च बन गया है। मध्यवर्गीय किसान को बच्चों की पढ़ाई के लिए कर्ज लेना पड़ता है। सरकारी अस्पताल के स्थान पर कॉरपोरेशन और निजी अस्पतालों की व्यवस्था इलाज के लिए कर्जा उठाने को मजबूर करती है। इस तरह वित्तीय सरमाया बिना शोर–शराबे के, चुपचाप अपने स्थायी ग्राहक तैयार करने के लिए सरकारों को निजीकरण की ओर धकेल रहा है। एक सदी के दौरान वित्तीय सरमाये की बहुतायत वाली स्थिति पैदा हो गयी है। जब वित्तीय सरमाये को ग्राहक नहीं मिलता तो उसका विकास रुक जाता है। इसे ही वित्तीय सरमाये का संकट कहा जाता है। इसकी बढ़ोतरी मानवता विरोधी रूप धारण करती है। आज किसान को वित्तीय सरमाये का ‘कारिन्दा’ बना दिया गया है। अतीत में किसान का रुतबा गौरवमयी होता था। वह गर्व से कहता था कि मैं किसान हूँ। मेरे पास जमीन है। मेरे पास अपना अनाज है। पशु मेरे अपने हैं। दूध मेरा है। फल–सब्जियाँ मेरी अपनी हैं। मैं आजाद हूँ। मुझे किसी से क्या लेना–देना। यही उसका स्वभाव था। कर्ज ने उसकी सारी इज्जत का नाश कर दिया। वह टूटकर मजदूर बन सकता था, लेकिन उसका यह रास्ता तकनीकी क्रान्ति ने रोक दिया। आधुनिक मशीनरी पहले से लगे श्रमिकों को ही काम से बाहर कर रही है। नये के लिए तो शुरुआत से ही दरवाजे बन्द हैं। ये हालात उसे खुदकुशी की ओर धकेल रहे हैं। वह जिस रास्ते पर अभी तक चलता रहा है लेकिन जो उसे बचाने में सक्षम नहीं है, उस रास्ते के बजाय उसे कोई दूसरा रास्ता चुनना होगा।

अब तक क्या उपाय सुझाये गये

अन्नदाता मुश्किल में है तो इसे बचाने के लिए ‘किसान एकता’! भाव कम है तो इसके लिए लागत–खर्च से 50 फीसद से अधिक भाव निश्चित करना, किसान ऋणी है तो सारा कर्ज माफ हो, कृषि–क्षेत्र और उद्योग में कर्ज का ब्याज एक–समान हो, बिजली–पानी मुफ्त मिले, सब्सिडी में बढ़ोतरी हो आदि। लेकिन लागत–खर्च कम करने की नीति, सहूलियत देने की नीति, छोटे किसान और किसान की कोऑपरेटिव (सहयोगी) खेती की पहल के आधार वाली सरकारी सुरक्षा नीति पूरी तरह गायब है। किसान तबके में उभारे जाने वाले ‘हावी’ पक्ष, ‘मद्धिम’ पक्ष और ‘नजरअन्दाज’ पक्ष को लेकर सरकारी तरजीह बदल जाने के विस्तार में जाने से पहले कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के वरिष्ठ अर्थशास्त्री डॉ. सुखपाल सिंह का हवाला इस तरह है–– ‘‘भारत में बड़ी संख्या छोटे किसानों की है। यहाँ 71 फीसदी सीमान्त किसान और 17 फीसदी छोटे किसान हैं जबकि बड़े किसानों की संख्या काफी कम है। भारत के विपरीत पंजाब में छोटी–किसानी की संख्या कम रही है। इस कारण जोत का आकार बड़ा रहा है। बड़े किसान के पास ज्यादा जमीन होने के कारण सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी/राहत या सहूलियत का ज्यादा फायदा भी बड़े किसानों को ही पहुँचता है। बिजली, सिंचाई, खाद पर सब्सिडी का छोटी–किसानी, को, जो कुल किसानी का 34 फीसद है, महज 6 फीसद हिस्सा ही मिलता है। स्पष्ट है कि छोटी–किसानी कम जमीन, कम आमदनी और कम राहत के कारण घोर संकट में है।’’

राजनीतिक समझदारी बताती है कि ‘कृषि–क्षेत्र’ अलग चीज है। जबकि किसान तबका और किसानों का विभाजन (छोटा–किसान, किसान, बड़ा–किसान और सरमायादार–किसान), उनके हित, अपने–अपने वर्गीय हितों के घेरे में आते हैं। हितों की पूर्ति करने का तरीका तय करता है कि यह कॉरपोरेट (वित्तीय सरमाया) की नीतियों के हक में है या उन नीतियों के खिलाफ है।

‘कृषि–क्षेत्र’, ‘उद्योग–क्षेत्र’ और ‘सेवा–क्षेत्र’ का बँटवारा और सबसिडी

समाज में मोटे रूप से ‘कृषि–क्षेत्र’, ‘उद्योग–क्षेत्र’ और ‘सेवा–क्षेत्र’ का बँटवारा मिलता है। समाज इन क्षेत्रों की उपज/सेवा का बँटवारा करके इस्तेमाल/खपत करता है। यदि बँटवारा न्यायपूर्ण न हो तो जो अन्याय का शिकार क्षेत्र है, वह बर्बाद हो जायेगा। इसके लिए सरकार की जिम्मेदारी होती है कि वह सन्तुलन बनाये रखने के लिए प्राथमिक क्षेत्र को रियायत/सब्सिडी दे ताकि उसे उत्पादन के योग्य बनाये रखा जाये। इसी नीति के तहत दुनिया में कृषि–क्षेत्र की उत्पादकता, दूसरे दोनों क्षेत्रों के मुकाबले कम होने के कारण, विकसित देश भी इसे सब्सिडी देते हैं। सब्सिडी सामाजिक जरूरत होती है। यह किसी की ‘कृपा–दृष्टि’ नहीं होती। यह ‘कृपा–दृष्टि’ तब बनती है, जब इसका दुरुपयोग होता है, सामाजिक हितों के स्थान पर निजी हित हावी होते हैं और सब्सिडी का प्रयोग भी किसी खास मकसद की पूर्ति के लिए किया जाने लगता है। वर्गीय समाज में जो हावी वर्ग है, वही ऐसा करता है। सब्सिडी के दुरुपयोग से हमारा मतलब है कॉरपोरेट कृषि–क्षेत्र का निर्माण।

कृषि–क्षेत्र बुनियादी क्षेत्र है। इसके बगैर समाज तो छोड़ो, मानवीय अस्तित्व भी खतरे में होता है। सामाजिक और मानवीय जरूरत के लिए भोजन, खेतों में ही पैदा होता है। इस क्षेत्र का महत्त्व हमेशा बना रहेगा और आबादी के बढ़ने से बढ़ेगा। राजनीतिक चेतना और सही राजनीति के बगैर इसे सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। संकीर्ण–राजनीति या बदनाम–राजनीति के स्थान पर सही राजनीति ही इसकी सुरक्षा की गारंटी दे सकती है। यह एक पल के लिए भी नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति वर्गीय हितों की भिड़न्त होती है। कृषि–क्षेत्र विशाल है। इसमें शामिल हैं किसान, खेत, पानी, औजार और खेती का सहायक ढाँचा (इन्फ्रास्ट्रक्चर)। पंजाब के राजनीतिज्ञों की ‘बेअकली’, ‘कम–अकली’ की बात की जाये तो ‘राजनीतिक हितों’ की राजनीति, पंजाब मतलब पाँच–आब, पानी के राज्य में पानी की समाप्ति (डार्क जोन), ‘सूखा–क्षेत्र’ घोषित करने के सर्वे और प्रचार पर तो खर्च करती है, पर जमीन को सींचने के लिए नहीं, बल्कि नदियों के पानी को बारिश के दिनों में बहने दिया जाता है। उसकी देख–रेख की कोई योजना नहीं है। क्या सतलुज नदी को जरूरत के अनुसार गहरा करके एक या दो किलोमीटर लम्बी झीलों में बदलना, पानी को सम्भालना और मछली–पालन के लिए केन्द्र स्थापित करना कोई मुश्किल काम है? बिलकुल नहीं। यह बहुत आसान और बहु–उद्देश्य बन सकता है। जमीन को पानी जीरने (रिचार्ज) से पानी का स्तर ऊँचा होगा। शुरू में जमींदोज पाइपों से, रजबाहों से, नालियों से, 10–15 किलोमीटर दूर मालवा क्षेत्र को पानी दिया जा सकेगा। इससे खेती को बारिश का शुद्ध पानी भी मिलेगा और बिजली की बचत भी की जा सकेगी। मछली–फॉर्म विकसित किये जा सकेंगे। रोजगार और आय के नये साधन पैदा होंगे। ऐसी योजना, कमीशन खाकर किसी विदेशी–देशी कॉरपोरेट घराने को तो दी जा सकती है, लेकिन सरकार खुद इस काम की शुरुआत नहीं करेगी। ऐसा करने के लिए सही राजनीति की जरूरत है।

‘कृषि–क्षेत्र’ और ‘कृषि–अर्थव्यवस्था’ दोनों अलग–अलग हैं। इनका आपस में घालमेल नहीं करना चाहिए। ये ‘दो होकर एक और एक होकर भी दो’ की धारणा के अधीन विचारणीय हैं। जो कृषि–क्षेत्र के लिए लाभदायक है, जरूरी नहीं कि वह कृषि–अर्थव्यवस्था के लिए भी पूरी तरह लाभदायक हो। कृषि–क्षेत्र की नीतियों का कृषि–अर्थव्यवस्था की श्रेणियों (छोटे–किसान, किसान, बड़े–किसान और सरमायेदार–किसान) पर अलग–अलग असर पड़ता है। ये किसी को बना देती हैं और किसी को बर्बाद कर देती हैं। ‘कृषि–अर्थव्यवस्था’ उत्पादन के तरीके से सम्बन्धित है। ‘कृषि–क्षेत्र’, देश के समूचे अर्थतंत्र का एक अंग है।

कृषि–आयोग की चर्चित सिफारिशों को ‘कृषि–क्षेत्र’ के समर्थक, किसान यूनियनों के नेता और पंजाब सरकार के वित्तमंत्री तक अपने बजट भाषण में उठाते हैं कि ‘‘न्यूनतम समर्थन मूल्य नाकाफी रहा और यह प्रसिद्ध कृषि–अर्थशास्त्री डॉ. एम– एस– स्वामीनाथन द्वारा सुझाये गये उत्पादन लागत–खर्च जमा 50 फीसद मुनाफे के बराबर होना चाहिए।’’ कौन ‘मूर्ख’ इस पर सवाल उठायेगा। कृषि–क्षेत्र के इस ‘लुभावने’ मकसद को कौन समझेगा? इसके दूरगामी नतीजे होंगे। कृषि–अर्थव्यवस्था के छोटे घटक छोटा–किसान, किसान, बड़ा–किसान भी इस मीठे जहर की भेंट चढ़ जायेंगे। इससे कॉरपोरेट खेती को पैर पसारने में मदद मिलेगी। यह सब तब समझ आयेगा जब हम ‘कृषि–आयोग’, ‘कृषि–क्षेत्र’ और ‘कृषि–अर्थव्यवस्था’ के अन्तर्विरोध को समझेंगे। ‘कृषि–आयोग’ का वर्गीय हित ‘कृषि–क्षेत्र’ की मजबूती है। उसके लिए ‘कृषि–अर्थव्यवस्था’ कोई मायने नहीं रखती। ये (किसान) तबाह होते हैं तो हों। इसके स्थान पर ‘कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग’ कॉरपोरेट खेती अपने आप पैर पसार लेगी। सरमाया मुनाफे की स्थायी गारंटी चाहता है। कृषि–क्षेत्र का कोई विकल्प है ही नहीं, यही अब सरमाये की तरजीह है।

आर्थिक नियम गौर करने लायक हैं

सरमायादारी के अधीन कृषि–क्षेत्र की तथाकथित मजबूती की रफ्तार किसानों को जोत के आकार के अनुसार प्रभावित करती है। छोटी जोत का उत्पादन लागत–खर्च, बड़ी–जोत के उत्पादन लागत–खर्च से ज्यादा होता है। इसलिए जितनी बड़ी–खेती, उतना बड़ा लाभ और जितनी छोटी खेती, उतना ही कम हिस्सा मिलता है। नतीजा यह है कि छोटी–जोत की खेती घाटा सहती हुई बड़ी–जोत के सामने घुटने टेक देती है। इस तरह ‘बड़ी–खेती’, कॉरपोरेट खेती के लिए रास्ता साफ हो जाता है। इसके योजनाकार इसकी रफ्तार को अपने काबू में रखते हैं ताकि कोई असुखकर विरोध ना खड़ा हो जाये। जैसे–जैसे सहनशीलता बढ़ती जाती है और कॉरपोरेट खेती के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हो जाता है, यह गुणात्मक अन्तर वाले परिवर्तन में बदल जाता है। लोगों के सामने कृषि–क्षेत्र को करिश्मा बनाकर पेश किया जाता है। इस रास्ते पर चलकर छोटे की बर्बादी और खुदकुशी को रोका नहीं जा सकता, बल्कि इसमें वृद्धि होना लाजिमी है।

कृषि–अर्थव्यवस्था की सुरक्षा और विकास का रास्ता, कृषि–क्षेत्र के विकास के रास्ते से अलग है। दोनों की तरजीह अलग होती है। कृषि–अर्थव्यवस्था की सुरक्षा और विकास के लिए सांगठनिक पहचान भी अलग होगी। इसकी समझदारी भी अलग है। इसका अमल भी अलग है। इसकी राजनीति भी अलग है।

कृषि–अर्थव्यवस्था की सुरक्षा क्या है?

सरमायेदारी के अधीन अर्थव्यवस्था का नियम है कि उच्च–वर्ग टूटकर निम्न–वर्ग में शामिल होता जाता है। किसान टूटकर उजरती मजदूरों में और फिर सर्वहारा में बदलता जाता है, जिसका और नीचे जाना रुक जाता है। ‘वैज्ञानिक तकनीकी क्रान्ति’ ने उजरती मजदूरों की खपत को इतना कम कर दिया है कि नयी भर्ती तो दूर, पहले वालों को भी काम से बाहर किया जा रहा है। बेकारी का बोलबाला है। इन परिस्थितियों में किसानों को खेती में रोके रखना ‘कृषि–अर्थव्यवस्था की सुरक्षा’ के विषय को सम्बोधित करना है। यदि सबसे ज्यादा उत्पादन लागत–खर्च करनेवाले छोटी–जोत के किसान को बचाने की नीति पर अमल हो तो उससे ठीक ऊपर वाले भी सुरक्षित हो जायेंगे। इन दोनों की संख्या पंजाब के समूचे किसानों का दो–तिहाई है। इनमें 34 फीसद छोटे–किसान हैं। इनकी सुरक्षा की नीति पर विचार करते हुए इनका समर्थक कहेगा कि इनके उत्पादन लागत–खर्च को कम करके इनको राहत दी जा सकती है। सरमायादारी के विपरीत समाज की अनिवार्य आवश्यकता है कि किसान को जमीन से उखड़ने–उजड़ने से रोका जाये। इसके लिये समाजवादियों की जिम्मेदारी है कि वे इनकी सुरक्षा और विकास की नीति पर अमल, संगठन और राजनीति को प्राथमिकता दें। अकेले–अकेले किसान का लागत–खर्च कम नहीं किया जा सकता। इसके लिए कार्य–सूची में सहकारिता होगी। क्या मौजूदा ‘सहकारी समितियाँ’ किसान को जमीन से उजड़ने से रोकने में सहायक हुई हैं? इसका उत्तर ‘न’ में इसलिए मिलता है, क्योंकि ये सहकारी समितियाँ बड़े–छोटे किसानों का घालमेल होने और अफसरशाही द्वारा बड़ों का हित साधने के कारण बड़ों की ‘बन्द–मुट्ठी’ समिति बन गयी हैं। इन्होंने सहकारिता लहर की रूह को मार दिया है।

अफसरशाही के दखल से मुक्त, ‘स्वैच्छिक सहकारी खेती कमेटियाँ’ इसका विकल्प बन सकती हैं। कामयाबी के लिए जरूरी है कि एक समान जोत को तरजीह दी जाये। इस तरह बड़ी–जोत वाले द्वारा छोटी–जोत वाले को नुकसान पहुँचाने का भय समाप्त हो जायेगा। कल्पना कीजिये कि एक गाँव में ‘छोटे–किसान’, मतलब तीन एकड़ से कम वाले, सहकारी खेती के लिए सहमत हो जायें तो ये 8–10 परिवार एक इकाई के रूप में मशीनरी आदि को मालिक की तरह इस्तेमाल कर सकेंगे, जिसके खर्च को अपनी जोत के अनुपात में वहन कर सकेंगे। इन सहयोगी कमेटियों की लेन/देनदारियों की जोत के अनुसार जिम्मेवारी हो। इनके उत्पादन लागत–खर्च कम करने के लिए लचीली सरकारी नीति हो। सब्सिडी की तरजीह जोतों पर आधारित यूनियनों के पास हो। मण्डीकरण की तरजीह तय हो। उपज के सालाना भाव उतार–चढ़ाव तय हो, बेचने वाले को होने वाले घाटे की पूर्ति का मण्डी बोर्ड जिम्मेदार हो। सहकारी खेती कमेटियों की अपनी (स्थानीय, जिला और राज्यस्तरीय) यूनियनें हों। उसकी अपने हितों की पूर्ति की राजनीति हो। तभी पंजाब की खेती और अर्थव्यवस्था को सुरक्षित और विकास के रास्ते पर चलाया जा सकता है। कृषि–अर्थव्यवस्था सामाजिक इन्कलाबी बदलाव चाहती है।

‘‘यहाँ आओ दिल करड़ा करके

यहाँ किसी का कुछ न सँवरे डर–डर के।’’

(किसान पुस्तिका एक से साभार)

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