27 दिसंबर, 2021 (ब्लॉग पोस्ट)

पूंजी, प्रौद्योगिकी और मानव नियति!

 पुस्तक-समीक्षा : ‘सैपियन्स – अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ मैनकाइंड’ एवं ‘21 लेसन्स फॉर द 21स्ट सेंचुरी’ - युवाल नोह हरारे

पूंजीवादी सभ्यता के स्वर

वर्तमान मानव सभ्यता को विभिन्न कसौटियों पर परखने और सकारात्मक या नकारात्मक दिशा में उसकी प्रगति को समझने के बड़े प्रयास काफी पहले से होते रहे हैं। 19वीं सदी में विकसित औद्योगिक पूंजीवाद के चरित्र और सर्वहारा के शोषण की पृष्ठभूमि में पहली बार राज्य के मूलभूत संगठन और उसके आर्थिक ढांचे के बीच सम्बन्धों और उसके सामाजिक निहितार्थों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ। निसंदेह यह कार्ल मार्क्स ही थे जिन्होंने अपने महान ग्रंथ ‘दास कैपिटल’(1867) में मानव सभ्यता के विभिन्न चरणो में उत्पादन के स्वरूप और उसके सम्बन्धों पर पहला गंभीर और विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया। इसके अनंतर मानव संवेदनाओं के स्तर पर इस आर्थिक व्यवहार को सम्यक रूप से समझते हुए विशाल साहित्य की रचना भी चलती रही। इनमें प्रमुखत: जॉन रस्किन की अन टू दिस लास्ट’(1862), लियो टोल्सटोय की वार एंड पीस’(1869) और ऐसी अनेक अन्य रचनाएँ सम्मिलित हैं जिन्होने मानव सभ्यता के गुण-दोषों का विवेचन कर मनुष्य के और अधिक प्रज्ञावान और विवेकयुक्त होने की अपेक्षा की। एडवर्ड बेलामी ने अपने लुकिंग बैकवर्ड’ (1888) की रचना इस आशावादी सोच और स्वप्न के साथ की थी कि प्रगतिशील, समतावादी और लोकतान्त्रिक दिशा में आगे बढ़ते हुए 21वीं सदी की दहलीज पर खड़े मानव के लिए भूख, असमानता, अपराध कल्पनातीत हो चुके होंगे। परंतु 20वीं सदी के उत्तरार्ध में सभ्यता पूंजीवाद के जिस नए दौर में प्रविष्ट होती दिखी तो उसके साहित्य को भी उसी स्वर में मुखरित होना स्वाभाविक था जिसमें मनुष्य के लिए प्रत्युत्पन्न परिस्थितियों में स्वयं को बहने देने के अलावा कोई मार्ग सुझाना आवश्यक नहीं था।

पहले तो एल्विन टाफलर ने अपनी कृति द फ़्यूचर शॉक’(1970) में इसका संकेत भर दिया था। फिर इस कोटि की रचनाओं में हम फ्रांसिस फुकुयामा की एंड ऑफ हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन’ (1992) और सैमुअल पी॰ हटिंगटन की द क्लैश ऑफ सिविलाइज़ेशन’(1996) को ध्यान में रख सकते हैं जिन्हें पश्चिमी जगत में काफी मान्यता मिली । इसी क्रम में 21वीं सदी के दूसरे दशक में पेंगुइन द्वारा विंटेज बुक के रूप में प्रकाशित और इस काल में ‘बेस्ट-सेलर’ रही येरूशलम (इज़राइल) में इतिहास के प्रोफेसर युवाल नोह हरारे की मानव नस्ल की कहानी की तीन जिल्दें- सैपियन्स, अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ मैनकाइंड ’, ‘होमो डेयस’ तथा 21 लेसन्स फॉर द 21स्ट सेंचुरी’ किसी भी जागरूक व्यक्ति को चौंकाने का काम कर सकती हैं। विशेष रूप से यह मान लेने पर कि विशाल मानवता अब नव-पूंजीवाद और उसके द्वारा प्रेरित रोबोटिक तकनीकि या आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस’ और बायो-टेक के समक्ष घुटने टेक चुकी है और अब उसके लिए उसके सुर में सुर मिलाते हुए अमरत्व प्राप्त कर सकने वाले थोड़े से अति सम्पन्न और साधनयुक्त लोगों के लिए अपनी बलि देते रहने की दिशा में ही आगे बढ़ते जाने के अलावा कुछ भी शेष नहीं रहा है! और उसके लिए किसी आदर्श दिशा में व्यवस्था परिवर्तन और एक सम्यक और समतायुक्त समाज के निर्माण का स्वप्न भी एक भ्रांति ही होगी!

पशु-जगत से पूंजीवाद तक

हरारे ने अपने गंभीर अध्ययवसाय पर आधारित मानव प्रजाति का रोचक इतिहास प्रस्तुत किया है और कई आकर्षक उदघाटन भी किए हैं। उसके अनुसार पशु की अवस्था से आगे बढ़ते हुए अपनी निरंतर बढ़ती जिज्ञासा के साथ परस्पर सम्प्रेषण के व्यवस्थित तरीके प्राप्त कर लेने के फलस्वरूप होमो सैपियन्स ने जीव-जगत की समझ की दिशा में पहली बड़ी क्रांति की। अपने उदर की पूर्ति के लिए वह किसी एक स्थल तक सीमित नहीं रहा और संचरणशील होते हुए पूरी दुनिया में फैल गया। भोजन के स्थायी स्रोतों की लालसा में उसने प्राकृतिक जैविकीय और वानस्पतिक स्थितियों से आगे बढ़कर खेती और खेतिहर बस्तियों के निर्माण द्वारा दूसरी क्रांति की। इसके साथ ही संस्कृति, धर्म और देश की अवधारणाओं ने जन्म लिया जो मानव मस्तिष्क में अनेक तरह के मिथकों या कथाओं के रूप में बने रहते हुए उसे संचालित करने और आक्रामक बनाए रखते हुए साम्राज्य और धर्म के विस्तार का उत्प्रेरक बने। एक तीसरी क्रांति वैज्ञानिक क्रांति के रूप में घटित हुई जब होमो सैपिएन्स ने यह स्वीकारना शुरू किया कि अभी वह भौतिक रहस्यों के बारे में सब कुछ नहीं जान पाए हैं और उन्हे बहुत कुछ जानना और बनाना बाकी है। आधुनिक काल में इसका धरातल उपनिवेशों के निर्माण और साम्राज्यवाद ने ही निर्मित किया जिसके माध्यम से पूंजी के विकास और आवश्यक यंत्रों के निर्माण का एक बड़ा सिलसिला प्रारम्भ हुआ जिसे पूंजीवादी युग के रूप में देखा जाता है।

हरारे की दृष्टि में यह पूंजीवाद और उसके अनुकूल यंत्र-तंत्र ही मानव इतिहास की नियति है जिसका अप्रतिरोधनीय विस्तार अंतत: मानव प्रजाति का ही रूप बदलने की ओर उन्मुख है। एक प्रकार से वर्तमान पूंजीवाद का स्तुतिगान जैसा करते हुए हरारे यह मान कर चलते हैं कि पूंजीवाद ने एक ऐसे विश्व का निर्माण कर दिया है जिसे केवल कोई पूंजीवादी ही संचालित कर सकता है। एक दूसरी तरह से विश्व को व्यवस्थित करने का एकमात्र गंभीर प्रयास साम्यवाद द्वारा ही किया जा सका जो व्यावहारिक रूप से हर एक स्तर पर इतना भयानक साबित हुआ कि अब किसी में भी उसे पचा सक्ने का माद्दा नहीं बचा होगा। हम भले ही पूंजीवाद को पसंद करें या नहीं परंतु हमें इसी में जीने की आदत डालनी होगी। एक अन्य तर्क यह है कि हमें थोड़ा और धैर्य रखना होगा और तब वह पूंजीवादी वादा कि बस हम स्वर्ग के द्वार पर पहुँच चुके हैं, चरितार्थ होगा। अगर हम थोड़ा समय और इंतजार कर सके और हमने इस पूंजीवादी फल को थोड़ा और बड़ा होने दिया तो हर एक को उसका बड़ा टुकड़ा मिलना तय है। फिर भी यह प्रश्न उठाया जाता रहा है कि क्या यह आर्थिक फल अनंत काल तक बड़ा होता रह सकता है! क्योंकि ऐसे प्रत्येक फल को बड़ा होने के लिए कच्चे माल और ऊर्जा की आवश्यकता भी होती है और दुनिया की तबाही के भविष्यवक्ता लगातार यह चेताते रहे हैं कि जल्दी या कुछ देर से एक दिन यह होमो-सैपिएन्स हमारी पृथ्वी पर उपलब्ध समस्त कच्चे माल और ऊर्जा के स्रोतों को समाप्त कर देंगे, तब क्या होगा!

पूंजीवाद और यंत्र-मानव

पूंजीवादी विकास की दिशा के पक्ष में ही हरारे ने इसका भी उत्तर इस रूप में देना चाहा है कि इस सर्वनाश के पहले ही पूंजीवाद से संरक्षित और प्रेरित ‘आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस’ और रोबोटिक तकनीकि और उसके साथ ही आगे बढ़ती जैव-तकनीकि मानव जाति को एक दूसरे धरातल पर खड़ा कर चुकी होगी। जब मनुष्य अपने अमरत्व के स्वप्न को साकार कर रहा होगा, उसकी आवश्यकताएँ बदल चुकी होंगी, यहाँ तक कि उसकी भावनात्मक या संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ भी नियंत्रित हो चुकी होंगी। उसे तब परिवार, समाज, राज्य और धर्म के मिथकों पर निर्भर होने की अनिवार्यता नहीं होगी आदि आदि! उसके लिए जीवन का अर्थ या उद्येश्य ही बदल चुका होगा। वह रासायनिक रूप से परिवर्तित और संचालित न्यूरान के प्रभाव में एक खुशनुमा जीवन जी रहा होगा। निष्कर्षत: कहें तो वह ऐसी विलक्षण शक्तियों से सम्पन्न हो चुका होगा जिसकी कल्पना वह देवताओं में करता आया था और वह खुद देवतुल्य हो चुका होगा। तो अब मनुष्य को व्यक्तिगत स्तर पर क्या करना अपेक्षित है इसके लिए हरारे का सुझाव है कि उसे अपनी मानसिक क्षमताओं को बढ़ाते रहने और अपने को संतुलित रखने के लिए विपस्सना या ऐसी ही कुछ योगिक क्रियाओं का सहारा लेना चाहिए। क्योंकि जो कुछ उसके इर्द-गिर्द घटित हो रहा है वह व्यक्तिगत या किसी सामूहिक स्तर पर भी उसकी पहुँच से बहुत दूर बड़ी पूंजी और व्यवस्थाओं द्वारा सुनियोजित और संगठित है जिस पर उसका कोई बस चलने वाला नहीं है।

पूंजीवादी सभ्यता की विसंगतियाँ और विरोधाभास

जैसा कि स्वाभाविक है हरारे अपने इस विश्लेषण में अनेक पुराने प्रश्नो को अनुत्तरित छोड़ देता है और कुछ नए प्रश्न उठा भी देता है। जब वह कहता है कि इस समस्त विकास क्रम का लाभ निश्चितत: कुछ अति सम्पन्न और साधनयुक्त व्यक्ति या वर्ग ही लेने में सफल होंगे तो क्या इसकी कल्पना की जा सकती है कि वह अपने साधनों और विशिष्ट सामर्थ्य और प्रभुता को इस अत्याधुनिक तकनीकि के लिए गैरजरूरी कौशल और श्रम से युक्त विशाल मानवता के बीच यूंही बांटते चलेंगे या उसके लिए अधिसंख्य लोगों को बिना किसी उपार्जन के अपनी क्षुधापूर्ति करने, अपनी संतानों को गोद में झुलाने और सैर सपाटे का अवकाश प्रदान कर देंगे। अथवा, क्या वह साधनहीन और भुखमरी और बीमारियों से ग्रस्त ऐसी विशाल जनसंख्या को मानवता की महान संवेदना से उत्प्रेरित होकर उनमें कुछ भोजन और दवाइयां वितरित करते होंगे, और वह भी कब तक!

एक अन्य प्रश्न यह है कि पिछले कुछ दशकों से प्रभावी संकट बने हुए भौण्डे राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक और धार्मिक हठवाद और आतंकवाद, जिन्हें हरारे कमजोर पड़ते मिथकों के रूप में देखना चाहता है, बिना किसी परिणति और गंभीर परिणाम के स्वत: ही अपना आग्रह छोड़ देंगे! क्या वर्तमान में उनके उभार के कारणों की यह पड़ताल जरूरी नहीं है कि कहीं इनकी जड़ें इस नए वातावरण में दूसरों द्वारा निगल लिए जाने के भय, भयानक रूप से बढ़ती आर्थिक असमानता एवं हताशा तथा पूंजी एवं प्रभुता की लालसा में तो निहित नहीं हैं जो वर्तमान जगत में खुली छूट पा चुकी है! क्या एक तीसरा और भी महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी नहीं है कि होमो-सैपियन्स के ही मानस तंत्र में उपजित लोकतन्त्र, स्वतन्त्रता और समता के महान मानवीय आदर्शों को, जिन्हें हरारे आधुनिक काल की मानव सभ्यता के नए मिथक के ही रूप में देखता है, क्या उसके आग्रही समर्थक तथा अपने पारंपरिक श्रम और कौशल से वंचित और विस्थापित पूंजीविहीन विशाल जनसंख्या अनायास ही तिलांजलि दे बैठेगी और स्वयं को निएण्डेर्थलों की तरह ही समाप्त होने देगी!

पूंजीवाद की विजय और स्व-विनाश का स्वप्न

जैव-प्रौद्योगिकी की भाषा में इसे चाहे मस्तिष्क और शरीर के न्यूरॉन और जैव-तरंगों की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाए, यह अंतत: होमो-सैपियनों के अपने सम्पूर्ण परिवेश/पर्यावरण के संदर्भ में उनके एकाकी या सामूहिक या सामुदायिक स्तर पर प्रकट होने वाली उनकी भावनात्मक और भौतिक प्रतिक्रियाएं और सामाजिक अभिव्यक्तियां ही रही हैं जिन्होंने मानव-इतिहास की दिशा निर्धारित की है। हम इसे मिथकों, कथाओं और सुविचारित वृत्तान्तों (नैरेटिव) जिस भी रूप में देखना चाहें, यह मानव जाति द्वारा विभिन्न क्षेत्रों और कालों में अनुभूत संवेदनाएं और जागतिक अनुभव ही हैं जिन्हें दार्शनिकों, आध्यात्मिक एवं धार्मिक गुरूओं और सामाजिक नेताओं नें होमो-सैपियनों के दिमाग में उनके बैंड/टोली/समूह, क्लान/कुल/वंश, जनजातीय और फिर संगठित सामाजिक अवस्थाओं में समय-समय पर भिन्न-भिन्न विश्वासों और संबन्धित कर्मकांडों से युक्त धार्मिक प्रणालियों और संस्कृतियों के रूप में प्रतिपादित, प्रचारित और नियोजित/प्रतिरोपित किया है। इसके अनंतर निश्चित ही यह व्यापारिक संपर्क और लेन-देन और उसके साथ ही चलते रहे औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी अभियानों के द्वारा दूसरे समुदायों पर नियंत्रण और व्यापक क्षितिज पर तद्जनित संपर्कों और संघातों का ही परिणाम था जिसने एक ओर जहां नस्लीय, सांप्रदायिक-सामुदायिक और रूढ़िवादी आग्रहों को पैदा किया तो दूसरी ओर मानवीय, उदार, सहिष्णु और धर्म/संस्कृति निरपेक्ष लोकतान्त्रिक सिद्धांतों और दर्शनों की नींव रखी।

दो विश्व-युद्धों के भयानक अनुभवों के साथ प्रकट साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक विस्तार का दौर समाप्त हो गया और 20वीं सदी से ही सह-अस्तित्व और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के स्वप्न ने भी आकार लेना प्रारम्भ किया। कतिपय राष्ट्रीय संदर्भों में प्रकट हुए ‘स्वतन्त्रता, समानता और भातृत्व’ और फिर वैश्विक क्षितिज पर उठे ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ के नारों को उदार लोकतंत्रों और समाजवादी प्रणालियों ने अपने अपने ढंग से चरितार्थ करने के दावे किए। जहां उदार पूंजीवादी लोकतान्त्रिक प्रणालियों ने समानता को नजरंदाज करते हुए स्वतन्त्रता प्रदान करने का दम भरा, वहीं तथाकथित समाजवादी व्यवस्थाओं ने उन्हीं पूंजीवादी यंत्रों के बल पर पुरूषार्थों और वाणी या विचार की स्वतंत्रता की बलि देकर समानता और सर्वहारा के शासन का दावा किया और एक सर्वप्रभुतासंपन्न तानाशाही को अपना लिया। मानवता के महान आदर्शों से पथभ्रष्ट होती इन दक्षिण और वाम दोनों ही प्रणालियों के समक्ष कतिपय उदार समाजवादी लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं ने भी उन्हीं पूंजीवादी साधनों से स्वतन्त्रता और समानता दोनों का समानुपात बनाना चाहा लेकिन जैसा कि होना था वह भी इसमें बुरी तरह असफल सिद्ध हुईं क्योंकि आप एक ही समय में अपने भोजन के निवाले को खाने और बचाने का भी काम नहीं कर सकते और ऐसे में अपने सम्मानजनक पुरूषार्थों और यथोचित आय से वंचित विशाल पराश्रित समूहों को समय-समय पर कुछ छोटी मोटी तात्कालिक सहायता (भीख) पहुँचाते रहने या सहायक राशि (सबसिडी) देते रहने के अलावा और कोई उम्मीद नहीं की जा सकती थी।

अंतत: पूंजीवादी खेमे की विजय के साथ नव-पूंजीवादी और नव-उदारवादी वैश्विक अर्थ-व्यवस्था के गंभीर परिणाम किसी को भी नज़र आ सकते हैं। जिसमें प्रभुता और संपत्तियुक्त लोगों के हित में ही विकसित अविवेकपूर्ण प्रौद्योगिकी तथा तकनीकी व्यवस्थाओं के आरोपण के फलस्वरूप एक ओर संपत्ति का कुछ चुनिन्दा हाथों में अधिकाधिक केन्द्रित होते जाना और दूसरी ओर विशाल मानवता का उसके जीवन यापन के स्रोतों और संसाधनों और रहवासों से विस्थापित और वंचित होते जाना और उनके लिए कोई सम्मानजनक विकल्प उपस्थित न हो पाना किसी से छिपा नहीं है। और अब किसी भी नाम से स्थापित सरकारों के संरक्षण में बाज़ार की नई शक्तियां अपने धुआंधार विज्ञापनों और प्रचार के द्वारा लोगों के दिमाग को ऐसे असंयमित लोभ और इच्छाओं से ग्रस्त/संचालित करने में सफल होती देखी जा सकती हैं जो रोबोटिक बुद्धिचातुर्य (आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस) और जैव-प्रौद्योगिकी के अमर्यादित विकास के द्वारा गिलगामेश के अमरत्व के स्वप्न को पूरा करने और मनुष्य को ऐसा अति-मानव बनाने की कल्पना से युक्त है जो स्वयं होमो-सैपियन प्रजाति के अस्तित्व को ही समाप्त कर देगी। यहाँ यह ध्यान दिलाने की जरूरत नहीं है कि उपभोक्तावाद की यह संस्कृति पहले से ही सम्पूर्ण प्राकृतिक स्रोतों को एक क्षण में भोग लेने में जुटी है जो भयानक पर्यावरणीय संकट का कारण बन चुका है।

पर, विकल्पहीन नहीं है दुनिया

जहाँ 1990 के दशक के प्रारम्भ में फ्रांसिस फुकुयमा ने अपनी एंड ऑफ हिस्ट्री एण्ड द लास्ट मैन’ में इस पूंजीवादी व्यवस्था के प्रभावस्वरूप ‘विचारों के अंत’ और ‘इतिहास के अंत’ जैसी बात कही थी वहीं अब वर्तमान में सम्पदा के अनियंत्रित रूप से बहुत थोड़े से हाथों में केन्द्रित होते जाने और उसके फलस्वरूप असमानता के भयानक स्तर तक अप्रत्याशित विस्तार को देखते हुए हाल में न्यू स्टेट्समैन को दिए गए अपने साक्षात्कार (17 अक्टूबर, 2019) में उसे अपने निष्कर्षों में संशोधन करते हुए यह कहना पड़ा कि, ‘अगर समाजवाद से आप का आशय न्यायसंगत पुनर्वितरण करनेवाली यानी आमदनी और धन की वर्तमान भयंकर असमानता को समाप्त करने वाली व्यवस्था से है तो मैं कहूँगा कि समाजवाद न केवल वापस आ सकता है बल्कि उसे आना ही चाहिए’। हालाँकि, चकाचौंध कर देने वाली आधुनिकतम तकनीकी से लैस इस पूंजीवादी एकाधिपत्य के संकट को हम एक दूसरी तरह से भी देखना चाहेंगे।

इसमें संदेह नहीं किया जा सकता कि प्रौद्योगिकी के अविष्कार का अपना स्वतंत्र क्षेत्र होता है लेकिन यह भी कहा जाता है कि आवश्यकता ही हर एक अविष्कार की जननी होती है। यहाँ क्या हमें इस आत्मविवेचन की आवश्यकता नहीं है कि सम्पूर्ण मानवता के लिए स्वतन्त्रता और समानता का वास्तविक उद्देश्य क्या है! क्या यह मनुष्य मात्र की मानसिक शांति, परस्पर विश्वास और स्वतन्त्र स्थिति, जीवन-यापन के न्यूनतम साधनों की उपलब्धता से इतर कुछ और है, भले ही हम इसे मानव इतिहास की प्रगति की दिशा में एक अन्य मिथक या काल्पनिक कथा के रूप में ही समझना चाहें! कम से कम यह तो तय ही है कि यह सब केवल किसी भी प्रकार के योगासनों या योगिक क्रियाओं तथा पाँच सितारा होटलों के बंद दरवाजों के भीतर व्यावसायिक विशेषज्ञों और प्रभुओं को श्री श्री रविशंकर द्वारा दिये जाने वाले ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ (जीने की कला) जैसे व्याख्यानों से नहीं ही संभव है। क्या यह सब किसी अति-मानव के निर्माण की लिप्सा के परित्याग की भावना से युक्त मानवता या स्पष्टत: कहें तो किसी यथोचित राजनीतिक इच्छाशक्ति द्वारा समर्थित सामाजिक-आर्थिक प्रणाली की स्थापना के बिना संभव होगा! क्या यह सब छोटे और स्थानीय स्तर पर सभी के सरोकारों से जुड़े आवश्यक भौतिक ढांचे के उन्नयन की योजनाओं के निर्माण या उसके अनुमोदन की प्रक्रिया के बिना संभव होगा जो परस्पर सहकार और सहयोग के धरातल पर विकसित और प्रसारित होता हुआ ही क्रमश: अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर विस्तृत होगा! क्या यहाँ हम गांधी को याद नहीं करेंगे जिनका चरखा निर्माण और संतोष का प्रतीक होने के साथ ही स्वतन्त्रता और समानता की दिशा में भी मानवता के विकास का मार्ग था! क्या यहाँ हम ग्रामीण स्तर पर स्थानीय स्वशासन या स्वराज के स्वप्न को व्यवहार में उतारने के बारे में नहीं सोचेंगे जो एक ऊर्ध्वगामी प्रगतिवादी सोच के साथ मानवता को राज्य, राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी जोड़ने का माध्यम बनेगा! क्या हम इसे पहले ही अपने पैरों को गंवा चुके होने के बाद पीछे की ओर चलना कहेंगे! यह तो हमें तय करना ही होगा, होमो-सैपिएन्स को तय करना होगा, कि हम स्वयं अपने पर शासन करने की ओर अभिमुख तकनीकि और उसके जादुई जाल के अविवेकपूर्ण विकास को रोकना चाहेंगे और अपने कदमों को पीछे खींचने और अपने सही पदचिन्हों को फिर से पहचानने का प्रयास अभी करेंगे या फिर कभी नहीं!

[यह अक्सर पूछा जाता रहा है कि क्या कभी सभ्यता को पुराने जमाने की समाज एवं आर्थिकी की आत्मकेंद्रित और आत्मजीवी अवस्था में वापस पहुंचाया जा सकता है! यह प्रश्न सामान्यत: इस भ्रांतिपूर्ण धारणा से जुड़ा होता है कि यह कोई पीछे जाने जैसी बात है। जबकि ऐसा बिलकुल भी नहीं है। यहाँ केवल यह सुझाया जा रहा है कि हमें कुछ ठहरने, अवकाश लेने, पुनरावलोकन करने और मनुष्य की मानसिक और भौतिक आवश्यकताओं के अनुरूप आधुनिक तकनीकी का चयन करते हुए अपनी प्रणालियों को पुनर्संगठित करने की अनिवार्यता है जो बहुसंख्यक समाज की व्यक्तिगत और सामुदायिक अपेक्षाओं के लिए हितकारक हो सके। अनेक चिंतनशील नेताओं और ई॰ एफ॰ शुमाखर (स्माल इज ब्यूटीफूल) जैसे कुछ विद्वानों ने इसके लिए व्यावहारिक और प्रयोगात्मक समाधान प्रस्तुत किए हैं। पीवीसीएचआर/डिगनिटी (डेनिश इंस्टीट्यूट अगेन्स्ट टॉर्चर), वाराणसी चैप्टर द्वारा वर्ष 2015 में प्रकाशित मेरी अपनी पुस्तक ‘लोकतन्त्र, समाजवाद और कल्याणकारी राज्य या स्वराज’ में भी अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भारत के संदर्भ में इसकी व्याख्या की एक झलक पाई जा सकती है। पूर्व में अपनाई गई प्रणालियों की असफलता के नाम पर आप पहले कभी प्रयोग में नहीं लाए जा सके ऐसे किसी विचार को ख़ारिज नहीं कर सकते। यह सवाल केवल इच्छाशक्ति और चुनौती लेने के विचार से ही जुड़ा है। जहां तक यह प्रश्न है कि, ‘इसे करेगा कौन!’, तो इसका सीधा सपाट उत्तर यही होगा कि वर्तमान राजनीति में संलिप्त कोई दल हमें उस रास्ते पर ले जाने वाला नहीं हो सकता। वर्तमान लोकतान्त्रिक प्रणाली में हम कम से कम सत्ता पर काबिज किसी जनविरोधी सरकार को बदलते रहने और सत्ता में आने वाली नई सरकार पर लगातार दबाव बनाते रहने का ही कार्य करते रह सकते हैं। जो भी हो, मानवता हमेशा से विभिन्न संकटों के बीच से रास्ता खोजती आई है और जनता के बीच से ही अपने लिए नए नए नेतृत्व का निर्माण भी करती रही है। यह पहले हुआ है और अनेक नए-पुराने अनुभवों के साथ पुन: होते रहना भी तय है। अन्यथा, चाहे या अनचाहे, हमें विकल्पशून्य होकर स्वनिर्मित प्रलय के लिए तैयार रहना होगा।]

(लोकजीवन डॉट इन से साभार)

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