सितम्बर 2020, अंक 36 में प्रकाशित

मीर तकी मीर : ‘पर मुझे गुफ्तगू आवाम से है’

(फरवरी 1723 – सितम्बर 1810)

–– विजय गुप्त

मीर की उस्तादी के बारे कोई लिखे भी तो कैसे लिखे? वहाँ तो जिन्दगी के कई रंग हैं। रंगों की कई छायाएँ हैं। युग का गर्दो–गुबार है, बवण्डर है। प्रकाश है, अन्धकार है। एक रंग पकड़ो तो दूसरा छूट जाता है। एक छाया के पीछे भागो तो दूसरी छाया गायब। प्रकाश का चकमक देखो तो परदे के पीछे से निकल कर अँधेरा डस लेता है। सहज, सरल और सीधा रास्ता अचानक बहुत जटिल मोड़ों और घुमावों से भर जाता है। मीर लिखते भी हैं कि आदमी का इनसान बनना बेहद गैरमामूली और विकट तपस्या और साधना का काम है। वैसे ही अल्फाजों का मानीखेज होना जी और जान को आग में जलाने जैसा है। इनसान बनना और शायर बनना जरा भी आसान काम नहीं हैंै।

मत सहल हमें जानो, फिरता है, फलक बरसों

तब खाक के परदे से, इनसान निकलते हैं

मीर उर्दू शायरी के अनोखे कीमियागर हैं। वह धूल से भरे शब्दों को छूकर उनमें सोने की चमक भर देते हैं। मीर की कविताई ‘मीडास टच’ का जादू है। राजा मीडास जिस चीज को छूता है, वह सोना हो जाती है। लेकिन छूने छूने में अन्तर है। मीडास के छूने में लक्ष्मीपति बनने और सर्वाधिकार रखने की स्वार्थ भरी क्रूर लालसा है जबकि मीर के छूने में कोमलता, प्रेम, पीड़ा और करुणा का पवित्र भाव सर्वोपरि है। 

शायद अब टुकड़ों ने दिल के, कस्द1 आँखों का किया

कुछ सबब तो है, जो आँसू आते आते थम गये (1– इरादा)

उर्दू के अजीम शायर फिराक गोरखपुरी साहब ने सुमत प्रकाश शौक से कविता और व्यक्तित्व पर जरूरी और ऐतिहासिक बातचीत की है।(1) उन्होंने काव्य संसार के जादुई आकर्षण और रहस्य को उजागर किया है। कला की सुन्दरता और उसके आध्यात्मिक–नैतिक असर की तार्किक, मार्मिक और वैज्ञानिक व्याख्या की है। शब्द, अर्थ और लय की शक्ति और गति को उन्होंने सृष्टि और सृजन का आधार माना है। सृजन यानी हुस्न, इश्क और नूर की अटूट धारा। यह त्रिधारा नहीं तो जीवन नहीं, रचना नहीं।

उसके फरोग–ए–हुस्न1 से, झमके है सब में नूर

शम्–ए–हरम2 हो या कि दीया सोमनात का

(1– सौन्दर्य का प्रकाश  2– काबे का चिराग)

हुस्न हो अथवा दीया हो, ये तब ही प्रकाशित होंगे जब सघन प्रेमानुभूति होगी। सघन प्रेमानुभूति ही तो रचना हैय और रचना है तो प्रेम, करुणा, दु:ख और आँसू से धुला हुआ उदात्त जीवन है।

मीर तकी मीर की कविता संसार को लिखा गया अमर प्रेम पत्र है। इस प्रेम पत्र में अगन है, तपन है। सुख है, दु:ख है और सृजन का पूरा ब्रह्माण्ड है। प्रेम है, तब ही सृजन हैय और प्रेम भी कैसा? कबीर के ढाई आखर जैसा। धरती और गगन की तरह विस्तृत और फैला हुआ। मीर लिखते भी हैं कि––

दिल की तह की कही नहीं जाती, नाजुक है असरार बहुत

अछर हैं तो इश्क के दो ही, लेकिन है विस्तार बहुत

इश्क के इस विस्तार में मिलन है, बिछोह है, वेदना है, तिरस्कार है। हृदय को चीरते हुए अपमान के खंजर हैं तो हँसती हुई छलछल आँखें भी हैं। मीर कलियों और फूलों के शैदाई हैं तो विपत्तियों और दुर्भाग्य के मारे हुए भी हैं। वह ध्वंस पर नयी इमारत के कारीगर हैं। वह प्रकृति की तरह ही साहित्य में निरन्तर बदलते मूल्यों और शाहकारों के रचयिता हैं और परिवर्तन के सक्रिय पक्षधर हैं। वह फूल, आग और राख के महाकवि हैं। ध्वंस और निर्माण उनकी रगों में रक्त और आँसू की तरह बहते हैं।

कोई शोला है कि शरारा है, कि हवा है यह कि सितारा है

यही दिल जो लेके गड़ेंगे हम, तो लगेगी आग मजार में

और यह भी कि––

शायद कि कल्ब–ए–यार1 भी टुक इस तरफ फिरे

मैं मुन्तजिर जमाने से हूँ, इन्किलाब2 का

(1– प्रेमिका का दिल  2– परिवर्तन)

मीर ने अपनी जिन्दगी और शायरी में इन्कलाब को साकार किया। भीषण जीवन संघर्ष और प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच उन्होंने परिवर्तन के ख्वाब देखे और ख्वाबों की ताबीर की। परिवर्तन की चिंगारियाँ उनके काव्य संसार को बहुत दिलकश, अपारम्परिक और तीर की तरह नुकीला बनाती हैं। उन्होंने भाषा के बन्धन को तोड़ दिया और उसे वेगवान झरने में बदल दिया। “सीधी–सादी बोल–चाल की भाषा में इतना रस और इतनी मिठास, इतना विष, और इतना कड़वापन, हार्दिक भावनाओं का इतना कोमल चित्रण और भावनाओं का इतना तूफानी जोश काव्य रचना का एक चमत्कार जान पड़ता है।”(2)

‘मीर’ के दीनो मजहब को क्या पूछते हो तुम, उनने तो

कशका1 खैंचा, दैर2, में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया

(1– तिलक लगाया  2– मन्दिर)

मीर के जीवन और काव्य की प्रेरणा का आधार प्रेम और इनसानियत है। स्वयं से प्रेम। संसार से पे्रम। भीतर से बाहर की ओर बहना, संसार को अपनी आत्मा में समेटना और लीक से हटकर सृजन करना उनका सहज स्वभाव है। उनकी गजलों में उनका भीषण दु:ख देखा जा सकता है, उनके असह्य दर्द को महसूस कर के उनके युग के दर्द और यातना को समझा जा सकता है। मीर का काव्य इनसानियत और अपने युग का आइना है।

मिस्रा कोई कोई कभी, मौजूँ करूँ हूँ मैं

किस खुश सलीकीगी से जिगर खूँ करूँ हूँ मैं

शेर लिखना आसान काम नहीं है। यह जिगर को चाक कर खून से तर–ब–तर कर देने जैसा है, और वह भी, बाशऊर, बाकायदा, खुशदिली और हुनरमन्दी के साथ। मीर तकी मीर ने शायरी की जबान को जन–मन से जोड़ा। अपने सुख को सुगन्ध की तरह फिजा में बिखेरा और दु:ख को आँसुओं की धार देकर सबका बना दिया। उन्होंने जनता की बोली–बानी को एकदम नया रंग–रूप, विस्तार और आकार दिया और वली दकनी की लोक परम्परा को सार्थक और बहुरंगी मोड़ दिया।

मेरे मालिक ने, मिरे हक में, यह एहसान किया

खाक–ए–नाचीज था मैं, सो मुझे इनसान किया

मुझको शाइर न कहो मीर, कि साहब मैंने

दर्द–ओ–गम कितने किये जमा, तो दीवान किया

उर्दू के पहले युग प्रवर्तक कवि वली दकनी को बहुत प्यार और सम्मान से बाबा–ए–रेख्ता भी कहा जाता है। उन्होंने अपनी गजलों में जन–भाषा का जैसा अभिनव प्रयोग और मनमोहक सम्मिश्रण किया था उसे मीर ने उत्कर्ष तक पहुँचा दिया। अठारहवीं शताब्दी के शुरुआती दौर में फारसी और संस्कृत दरबार और उच्चवर्ग की भाषा थी। आम जन जिस जबान का इस्तेमाल करता था उसे हिन्दी, रेख्ता, खड़ी बोली या जबान–ए–देहलवी कहा जाता था। “मुगल काल और उससे पूर्व के जमाने में उच्च वर्ग साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए संस्कृत और फारसी का उपयोग करते थे। हालाँकि मुगल हरम में पंजाबी और ब्रजभाषा बोली जाती थी लेकिन दरबार में फारसी का चलन था। इसके विपरीत हिन्दी के सन्त कवियों और उर्दू के सूफी शाइरों ने जनता की बोलियों को अपनाया और कबीर, मीरा, मलिक मुहम्मद जायसी, सूरदास, तुलसीदास, वली दकनी, सौदा और मीर ने उच्च श्रेणी के शाहकार पेश किये जो दुनिया की दूसरी भाषाओं की उच्च श्रेणी की शाइरी से आँखें मिला सकते हैं। वली दकनी के यहाँ पहली बार खड़ी बोली निखरने लगती है, लेकिन मराठी और तेलगू के दक्षिणी शब्दों के सम्मिश्रण के साथ। सौदा और मीर ने उसकी सफाई और सजावट करके उसे वर्तमान काल की प्रमाणित भाषा बना दिया।”(3) इन उस्ताद कवियों की लोकलुभावन भाषा की बानगी और ताजगी देखिए––

बेवफाई न कर खुदा सूँ डर

जग हँसाई न कर खुदा सूँ डर–– वली दकनी

                                ’ ’ ’

सावन के बादलों की तरह से भरे हुए

यह वह नयन हैं जिनसे कि जंगल हरे हुए– सौदा

वह सूरतें इलाही किस देस बस्तियाँ हैं

अब जिनके देखने को आँखें तरसतियाँ हैं–– सौदा

                                ’ ’ ’

यार अजब तरह निगह कर गया

देखना वह, दिल में जगह कर गया–– मीर

मीर तकी मीर की अद्भुत मेधा और प्रतिभा का इस्तकबाल करते हुए मिर्जा गालिब ने लिखा था कि––

रेख्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो गालिब

कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था

मीर की उस्तादी यहाँ देखते बनती है। ‘आँसू आते–आते थम गये, यानी दु:ख आँखों के रास्ते बहा नहीं। आँसू बहते तो चैन मिलता। देह का तनाव मुक्त होता। रक्त का दबाव सामान्य होता। लेकिन यहाँ तो बेहद असामान्य रक्तचाप है। फिर चैन कहाँ? आँसू देह के ताप और तनाव में घनीभूत हो गये हैं। परिणाम, असहनीय दबाव और दिल के टुकडे़! ‘टुकड़े’ शब्द भी यहाँ दो अर्थ देता है। एक, कवि का टूटा हुआ दिल और दूसरा, उजाड़ और बरबाद नगरी में रहने वालों के टुकड़े–टुकड़े दिल। दिल्ली मीर के समय उजड़ चुकी थी। लुटी हुई दिल्ली की किस्मत पर रंज करते और सहारे की तलाश में आवारा भटकते मीर की इन पंक्तियों में की–वर्ड ‘सबब’ है। किन कारणों से दिल्ली लुटी और तबाह हुई? कैसे मीर का दिल टूटा? कुछ तो सबब होगा?

दिल की वीरानी का क्या मज्कूर1 है

यह नगर सौ मरतबा लूटा गया      (1– चर्चा, जिक्र)

दिल्ली जैसे हँसते–दमकते नगर के लोग कैसे दाने–दाने को मोहताज और भिखारी हो गये?

दिल्ली में आज भीख भी मिलती नहीं उन्हें

था कल तलक दिमाग जिन्हें, ताज–ओ–तख्त का

दिल, दिल्ली और ताज–ओ–तख्त उजड़ गये। क्यों? मीर तो बस संकेत देते हैं। उन संकेतों को समझने का काम, उन्हें राजनीतिक, सामाजिक, आार्थिक जटिलताओं में खोलने और अर्थ देने का काम मीर को सुनने और पढ़ने वालों का है। प्रेम और इनसानियत का पाठ यदि आपने नहीं पढ़ा और सीखा है तो मीर का काव्य आपके किसी काम का नहीं है। अमीर खुसरो ने सिखाया है कि––

खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार।

जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।।

मीर भी लिखते हैं कि––

वस्ल–ओ–हिज्राँ, यह जो दो मंजिल हैं राह–ए–इश्क की

दिल गरीब इनमें खुदा जाने कहाँ मारा गया

और यह भी फरमाते हैं कि––

दूर बैठा, गुबार–ए–मीर, उससे

इश्क बिन, यह अदब आता नहीं

दिल्ली उजड़ कर बर्बाद हो चुकी थी और मीर का दिल भी टूटकर शिकस्ता रंग हो चुका था।

दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके

पछताओगे, सुनो हो! ये बस्ती उजाड़ के

                                ’ ’ ’

कामत1 खमीदा2, रंग शिकस्ता3 बदन4 नजार5

तेरा तो ‘मीर’ गम में अजब हाल हो गया

( 1– कद  2– झुका हुआ  3– उड़ा हुआ  4– शरीर  5– जर्जर)

मीर टूटे हुए दिल और उजड़ी हुई दिल्ली के जलते हुए प्रतीक हैं। जब–जब इस दुनिया में मुल्क और इनसान उजड़ेंगे, घर–बार और रोजगार छोड़ कर सरे राह होंगे, तब–तब मीर याद आएँगे। हिन्दुस्तान ने कई बार यह दिल दहला देने वाला मंजर देखा है। नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली के जमाने में खून और लाशों से भरी दिल्ली की सड़कों पर बदहवास चलते हुए भूखे–प्यासे और मरते हुए इनसानों के जत्थे, 1947 के रक्तरंजित विभाजन की हौलनाक तस्वीरें इतिहास के पन्नों में भयानक काली रात के रूप में दर्ज हैं। और आज, इक्कीसवीं सदी में, हम अपने ही देश के रास्तों पर उजाड़ दिये गये, रोजगार से बाहर फेंक दिये गये, निर्ममता से ठुकराये गये भूखे–प्यासे गरीब, लाचार और हताश लाखों लोगों को घरों की ओर पैदल जाता देख रहे हैं। धूल भरी तपती–जलती राहों पर बच्चों को जनमते और तड़पते देख रहे हैं। भूख, प्यास, थकान से बिलखते और मरते हुए स्त्री–पुरुषों और मासूम बच्चों को देख रहे हैं। सर पर, काँधों पर और हाथों में गिनती के गृहस्थी के सामानों को जैसे–जैसे लादे–फाँदे, बेबस और सुध–बुध खोये हुए मेहनतकशों की हजारों–हजार कतारों को जिन्दा लाशों की तरह देख रहे हैं। 21 वीं सदी के डिजीटल इण्डिया, स्टार्ट अप इण्डिया, नमो इण्डिया, मोदी इण्डिया के ये दिल पथरा देने वाले दृश्य अठारहवीं, उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के हत्यारे दृश्यों की याद दिलाते हैं। मानो हम इतिहास के पाताललोक में चले गये हों और एक विशाल सिनेमा स्क्रीन पर प्रेतों का नग्न नर्तन और क्रन्दन देख रहे हैं। नादिरशाह, अब्दाली, और डायर का अट्टहास सुन रहे हैं। सुदूर अतीत की भुतहा और डरावनी फिल्मों के फ्लैशबैक देख रहे हैं। अदालतें हतप्रभ हैंय देश की संसद साजिशन मौन है और झूठों की आरती उतारी जा रही है। एक वीरान चुप्पी छाई हुई है लेकिन चुप और अन्धेरे की दीवार को तोड़ती हुई मीर की आवाज हम तक पहुँच रही है कि––

सुना है हाल, तिरे कुश्तगाँ1 बेचारों का

हुआ न गोर गढ़ा2, उन सितम के मारों का

हजार रंग खिले गुल चमन के, हैं शाहिद3

कि रोजगार4 के सर, खून है हजारों का

(1– कत्ल किये हुए, बाधित  2– अंतिम संस्कार  3– गवाह  4– संसार, समय)

कत्ल कर दिये गये बेगुनाह और सितम के मारों को इज्जत की मौत भी नसीब नहीं हुई। उन बेचारों को न कब्र मिली और न ही उनका अन्तिम संस्कार किया गया। चमन के हजारों फूल गवाह हैं कि बेहिसाब कत्ल का सेहरा तुम्हारे सिर ही बँधा है। तुम सरापा खून से तर–ब–तर और कातिल हो। अठारहवीं सदी की रात को बीसवीं सदी की रात में तब्दील होता देखकर शायर नासिर काजमी ठीक कहते हैं कि, हमारे दौर की रात मीर के दौर की रात से मिलती है।

मीर फारसी आत्मचरित ‘जिक्रे मीर’ में लहू से नहाई हुई रातों एवं जुल्म और कत्ल–ए–आम से भरे दिनों का दिल दहला देने वाला विवरण देते हैं।

“हजारों खानाखराब इस हंगामे से निकलकर निराश होकर वतन त्याग गये। मगर रास्ते में ही मर गये––—एक आलम उनके अत्याचार से मर गया मगर किसी को भी दम मारने की मजाल न थी। पुराने शहर का इलाका जिसे जहान–ए–ताजा’ कहते थे, किसी गिरी हुई रत्नजटित दीवार–जैसा था। जहाँ तक नजर जाती थी मकतूलों के सर, हाथ, पाँव और सीने ही नजर आते थे, जहाँ तक आँख देखती थी खाक–ए–सियाह के सिवा कुछ दिखाई न देता था। मैं कि फकीर था अब और ज्यादा दरिद्र हो गया, सड़क के किनारे जो मकान रखता था वह भी ढहकर बराबर हो गया।”(4) मीर ने अपना असहनीय दु:ख कुछ इस तरह से व्यक्त किया है––

क्या करूँ शर्ह,1 खस्त:जानी की

मैंने मर–मर के जिन्दगानी की    (1– टीका, वर्णन)

दिल्ली का दु:ख और मीर का दु:ख एक दूसरे से मिलकर शायरी ही नहीं इतिहास भी रचते हैं। इतिहास जिन इलाकों में एक नजर डाल कर निकल जाता है, वहीं शायरी कहीं गहरे डूबकर सच को सतह पर ले आती है। शायरी दिल की लगी के साथ–साथ देश–जहान का तब्सिरा भी हैै। सच की जाँच–पड़ताल भी है। प्रोफेसर एहतेशाम हुसैन ने मार्के की बात लिखी है कि, “जैसी दु:ख–भरी हालत दिल्ली की थी, वैसा ही जीवन ‘मीर’ का था। अगर कोई उस पतनशील समाज का काव्यात्मक रूप उसकी सारी शोकपूर्ण गहराइयों के साथ देखना चाहे, तो वह उसे उस समय के इतिहास में न पायेगा बल्कि ‘मीर’ की कविताओं में उसे स्पष्ट रूप से दीख पड़ेगा।”(5)

मीर इश्किया शायरी के सिरमौर हैं। वह दिल की बस्ती को तमाम तरह के पूजाघरों से ऊपर रखते हैं। सत्ता के टुकड़खोरों और धर्म के व्यापारियों पर यानी नौकरशाहों और पण्डित, मुल्ले–मौलवियों पर तंज करते हैं। उन पर हँसते हैं और आम जनता के हाल–अहवाल पर दिल से लिखते हैं।

शेर मेरे हैं सब ख्वास पसन्द

पर मुझे गुफ्तगू अवाम से है

अवाम से मीर की गुफ्तगू बड़े काम की है। इस गुफ्तगू और दोतरफा आवाजाही में वह स्वयं सचेत होते हैं और जनता को सावधान भी करते हैं––

हम न कहते थे, कि मत दैर–ओ–हरम की राह चल

अब यह दावा, हश्र तक शेख–ओ–बिरह्मन में रहा

‘शेख–ओ–बिरह्मन’ के पाखण्ड और झगड़े में रोटी तो पण्डित और मौलवी की ही पकती है लेकिन चूल्हा अवाम का बुझता है। मीर असलियत बयान करते हैं कि––

शेख जो है मस्जिद में, नंगा रात को था मैखाने में

जुब्बा,1 खिर्का,2 कुर्ता, टोपी मस्ती में इनआम किया

(1– लम्बा अंगरखा  2– ऋषि या फकीर की उतरी हुई पोशाक)

इनका एक रूप और देखिए––

शैखजी आओ, मुसल्ला1 गिरव–ए–जाम2 करो

जिन्स–ए–तकवा3 के तर्इं, सर्फ–ए–मै–ए–खाम4 करो

(1– जानमाज, वह कपड़ा जिसे बिछाकर नमाज पढ़ते हैं  2– जाम प्राप्त करने के लिए गिरवी रखना 3– संयम की वस्तु 4– कच्ची शराब प्राप्त करने के लिए खर्च करो)

अल्लाह और भगवान को करीब से जानने का दावा और दम्भ करने वालों की यह हकीकत भी देखिए कि––

काबे सौ बार वह गया, तो क्या

जिसने याँ एक दिल में राह न की

दिल से दिल की राह होती है और इसी मुकद्द्स राह पर चलते हुए भक्ति के फूल खिलते हैं। भक्त कवियों ने दिल को ही ईश्वर का घर माना है। ईश्वर ‘दैर–ओ–हरम’ में नहीं, दिल में बसते हैं।

दैर–ओ–हरम से गुजरे, अब दिल है घर हमारा

है खत्म इस आब्ले1 पर, सैर–ओ–सफर हमारा   (1– छाला)

मीर अपने अल्लाह को अवाम में ढूँढते हैं। जनता की आवाज में ही जनार्दन की आवाज सुनाई देती है। मीर अवाम की आवाज को, उसके ख्वाब को और दिल को शिद्दत से समझते हैं। वह जानते हैं कि र्इंट, पत्थर से बनी इमारतें बार–बार बन सकती हैं, मन्दिर–मस्जिद और तरह–तरह के पूजा घर फिर से खड़े किये जा सकते हैं लेकिन दिल की बस्ती उजड़ी तो फिर नहीं बसायी जा सकेगी––

शहर–ए–दिल आह अजब जाय1 थी, पर उसके गये

ऐसा उजड़ा कि किसी तरह बसाया न गया  (1– जगह)

उनका इश्क पागलपन की हद तक माशूक से है लेकिन उनका वही माशूक उन्हें दीन–दुनिया से भी वाबस्ता रखता है, चाक–चैबन्द रखता है। वह प्रेम में डूबे हुए हैं लेकिन दुनिया से गाफिल नहीं हैं। वह प्रेम में चोट खाते हैं, धोखा पाते हैं, टूटते हैं, अपमानित होते हैं।

अय दोस्त, कोई मुझ–सा, रुस्वा न हुआ होगा

दुश्मन के भी दुश्मन पर, ऐसा न हुआ होगा

रुसवाई जो जमाने ने उन्हें दी है, मीर उसे अपनी ताकत में बदल देते हैं। वह लोक में प्रचलित प्रेम के प्रतीक मजनूँ को भी नहीं बख्शते। इस तंजिया शेर में उनकी गर्वोक्ति देखते बनती है––

दिल तड़पे है, जान खपे है, हाल जिगर का क्या होगा

मजनूँ मजनूँ लोग कहे हैं, मजनूँ क्या हम सा होगा

मीर आशिक हैं लेकिन मजनूँ नहीं हैं। वह होशमन्द हैं। मजनूँ की तरह नकारा नहीं हैं। वह निठल्ले कामयोगी नहीं हैं, बल्कि दुरन्देश कर्मयोगी हैं। मीर की बानगी तो देखिए––

हाथ रखे हाथ पर, बैठे हो क्या बेखबर

चलने को है कारवाँ, कुछ तो किया चाहिए

क्या करूँ, दिल खूँ करूँ, शेर ही मौजूँ करूँ

चलती है जब तक जबाँ, कुछ तो किया चाहिए

यह ‘कुछ तो किया चाहिए’ बड़ा मानीखेज है। मीर की जिन्दगी, शायरी और उनके युग को समझने की कुंजी है। कुछ न कुछ करने का जज्बा ही मीर को मुसलसल बेचैन रखता है। यह बेचैनी और रचने की ललक ही उन्हें शायरी और साधारण जनता के बाह्य और आन्तरिक जीवन से जोड़ती है। यह जुड़ाव उन्हें सामाजिक ही नहीं राजनीतिक भी बनाता है। वह सामन्ती मूल्यों के पतन के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारणों को समझने की दिशा में आगे बढ़ते हैं। वह जीवन के सच के साथ इतिहास के यथार्थ को भी अपनी कविता में बाँध लेते हैं। जीवन और इतिहास उनकी काव्यात्मक अनुभूतियों में घुलमिलकर एक हो गये हैं। मीर की शायरी उनकी आपबीती के साथ उनके युग का इतिहास भी है।

दिल्ली में आज भीख भी मिलती नहीं उन्हें

था कल तलक दिमाग, जिन्हें ताज–ओ–तख्त का

                                ’ ’ ’

अय हुब्बे–ए–जाह1 वालो, जो आज ताजवर है

कल उसका देखियो तुम, ने ताज है न सर है

(1– धन और प्रतिष्ठा का लोभ)

                                ’ ’ ’

शाम से, कुछ बुझा सा रहता है

दिल हुआ है, चराग मुफ्लिस का

                                ’ ’ ’

आह–ए–सहर1 ने, सोजिश–ए–दिल2 को मिटा दिया

इस बाद3 ने हमें तो दिया–सा बुझा दिया

(1– प्रात:काल का आर्तनाद  2– दिल की जलन  3– हवा)

मीर का युग मुगल संस्कृति के पराभव का युग है। इस काल में मुगलों की केन्द्रीय सत्ता तेजी से टूटकर बिखर रही थी। भारतीय सामन्तवाद मरणासन्न था। उसकी चमक–दमक और ताकत खोने लगी थी। भारतीय सामन्तवाद की मुख्य धुरी जमींदार, राजा और नवाब थे जो पूँजी और मण्डी की ताकत के सामने लाचार और बर्बाद होने लगे थे। समाज और रियाया से उनकी पकड़ छूटती जा रही थी। बावजूद सारी प्रतिकूलताओं के जमींदारों, राजाओं और नवाबों ने साहित्य, कला और संस्कृति को बचाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। मीर ने पतनशील संस्कृति और जीवन का जैसा विशद और विश्वसनीय चित्रण किया है वह हिन्दुस्तानी साहित्य की अनमोल थाती है। उन्होंने एक मिटते हुए संसार और संस्कृति को जिस दु:ख, करुणा और कलात्मकता के साथ अपनी रचनाओं में पुनर्जीवित किया है वह ऐतिहासिक महत्त्व का है। अठारहवी शताब्दी का हिन्दुस्तान नैराश्य से भरा हुआ है। उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती है। चारों ओर लूट–पाट, अफरा–तफरी और खून–खराबे का माहौल है।

खून कम कर अब, कि कुश्तों1 के तो पुश्ते2 लग गये

कत्ल करते करते तेरे तई3 जुनूँ4 हो जायेगा

(1– कत्ल किये हुए 2– ढेर  3– तुझे  4– पागलपन)

दिल और दिल्ली दोनों बेहाल हैं। आम आदमी परेशान और फटेहाल है जबकि देश और प्रदेश की बागडोर कमीने और जाहिलों के हाथों में है। मीर आम आदमी की नुमाइन्दगी करते हुए लिखते हैं कि––

रहते हैं दाग अक्सर, नान–ओ–नमक की खातिर

जीने का इस समय में, अब क्या मजा रहा है

जिन कमीने और नालायक सत्ताधारियों के कारण जनता बदहाल और दाने–दाने को मोहताज हुई है उन पर मीर का यह शेर आँखें खोल देने वाला है––

रही न पुख्तगी1 आलम2 में, दौर–ए–खामी3 है

हजार हैफ4 कमीनों का चर्ख5 हामी6 है

(1– पक्कापन, स्थायित्व  2– संसार  3– बुराई का जमाना  4– अफसोन  5– जमाना  6– समर्थक)

मीर की रचनाओं का एक बड़ा हिस्सा नैराश्य, दु:ख और भयानक पीड़ा से भरा हुआ है। उनकी गजलें आँसू और खून से भरी हुई हैं, लेकिन उनकी उम्मीद का एक दिया बराबर जलाये रखते हैं। निराशा और आशा का ऐसा अद्भुत और चमत्कारिक संयोजन उनको खुदा–ए–सुखन बनाता है।

शायरी के खुदा मीर के कुछ बयानों को सुनिये और गुजरे हुए एक युग को साकार होता देखिए––

आलम सियाह खान:1 है किसका, कि रोज–ओ–शब2

यह शोर है, कि देती नहीं कुछ सुनाई बात

(1– कालाघर  2– दिन–रात)

                                ’ ’ ’

अय बू–ए–गुल1, समझ के महकियो पवन के बीच

जख्मी पड़े हैं मुर्ग2 हजारों, चमन के बीच

(1– फूल की सुगन्ध  2– पक्षी)

                                ’ ’ ’

मौसम आया तो नख्ल–ए–दार1 में मीर

सर–ए–मंसूर2 ही का बार3 आया

(1– फाँसी का वश्क्ष  2– मंसूर, एक शहीद  3– फल)

                                ’ ’ ’

आहों के शोले जिस जा, उठते थे मीर शब को

वाँ जाके सुब्ह देखा, मुश्त–ए–गुबार1 पाया

(1– मुट्ठी भर धूल)

                                ’ ’ ’

खूब रू1 अब नहीं हैं गन्दुम गूँ2

मीर हिन्दोस्ताँ में काल पड़ा 

(1– खूबसूरत व्यक्ति 2– गेहुँआ रंग)

                                ’ ’ ’

फितने फसाद1 उठेंगे, घर घर में खून होंगे

गर शहर में खिरामाँ2, वह खान: जंग3 आया

(1– उपद्रव  2– चलता हुआ  3– गृहयुद्ध करने वाला)

खान: जंग तो आया और सब कुछ तबाह कर गया। मीर तकी मीर ने जंग की बर्बादियों और खून खराबे को अपनी आँखों से देखा था। जिन्दगी और मुल्क को आग में जलते और धुआँ–धुआँ होते देखा था। यह वे ही लिख सकते थे कि––

देख तो, दिल कि जाँ से उठता है

ये धुआँ–सा कहाँ से उठता है

गोर किस दिल जले की है, यह फलक

शोल: इक सुब्ह याँ से उठता है

जलते–धुआँते इतिहास और मरते और खाक होते इनसानों का यह बिम्ब तो देखिए, रोंगटे खड़े हो जाएँगे––

तेरी गली से सदा अय कुशिन्द:–ए–आलम1

हजारों आती हुई चारपाइयाँ देखीं

(1– दुनिया का कातिल)

सियासतदानों और सरमायादारों का चरित्र सदियों बाद भी नहीं बदला है। 21वीं सदी में भी हम राजनीतिज्ञों और पूँजीपतियों के नापाक गठजोड़ को देख रहे हैं। उनके कपड़े ही नहीं, हाथ भी खून से रंगे हुए हैं। “शेक्सपियर के प्रसिद्ध ड्रामे ‘मेकबैथ’ में जब अपने अपराधी अन्त:करण की सताई हुई लेडी मेकबैथ ख्वाब में चलती है तो वह अपने हाथों को इस ढंग से मलती रहती है, जैसे उन्हें धोने की कोशिश कर रही हो, लेकिन बेगुनाह के खून के धब्बे किसी प्रकार नहीं छूटते––

किया है खूँ मिरा पामाल, यह सुर्खी न छूटेगी

अगर कातिल तू अपने हाथ सौ पानी से धोवेगा”(6)

आज भी कातिल अपने हाथों को मल रहा है और खून के धब्बों और बू को मिटाने की कोशिश कर रहा है लेकिन संसार के सारे इत्र और पानी भी जैसे कम पड़ गये हैं। मीर की विशेषता है कि उन्होंने अपने दु:ख को संसार के दु:ख से जोड़ दिया है। यह समन्वित दु:ख उन्हें निर्भीक और शक्तिशाली बना देता है। वह बादशाहों के फूहड़ जलसों और प्रदर्शनों के मुकाबले हजारों–हजार सताये हुए गरीबों की फौज खड़ी कर देते हैं। इस फौज के हथियार तो देखिए, आह, दाह, दर्द, आँसू और आर्तनाद। इन हथियारों के साथ उतरी फौज को भला आज तक कौन हरा सका है? मृत्यु तो इनके लिए विराम है, ये थकेंगे, रुकेंगे और दम लेकर आगे की ओर बढ़ेंगे, विजय के आखिरी पड़ाव तक।

हम भी फिरते हैं, यक हशम1 लेकर

दस्त:–ए–दाग2–ओ–फौज–ए–गम3 लेकर

दस्तकश4 नाल:5, पेशरौ6 गिरिय:7

आह चलती है याँ, अलम8 लेकर

मर्ग9, इक मान्दगी10 का वक्फ:11 है

यानी आगे चलेंगे, दम लेकर

(1– सिपाही और प्यादे  2– दागों की टुकड़ी  3– दुखों की सेना  4– हाथ खींचनेवाला  5– आर्तनाद 6– आगे–आगे चलनेवाला  7– आँसू, रोना  8– झण्डा  9– मृत्यु  10– थकन  11– विराम)

मीर मृत्युंजय कवि हैं। उनकी कविता काल के कागज पर लिखी गई अमर इबारत है। संगीत, सम्मोहन और आशुकथन उनकी कविता को अप्रतिम ऊँचाइयों तक ले जाते हैं। उनके शेर मंत्रेच्चार की तरह सम्मोहित कर लेते हैं। संगीत तो जैसे इन मंत्रों को नयी अर्थ दीप्ति से भर देता है। मेंहदी हसन साहब जब मीर की गजल–– “देख तो दिल कि जाँ से उठता है/ये धुआँ–सा कहाँ से उठता है” गाते हैं तो अल्फाजों के कई मायने खुलने लगते हैं। ‘धुआँ’ सिर्फ दिल और जाँ से ही नहीं वरन् देश–जहान से भी उठता हुआ दिखाई देता है। मीर आशुकथन के भी बड़े कवि हैं। लखनऊ की एक महफिल में उन्हें हँसी का पात्र बनाते हुए जब उनका परिचय पूछा गया तो उनका जवाब था कि––

क्या बूद–ओ–बाश1 पूछो हो पूरब के साकिनो2

हमको गरीब जान के हँसहँस पुकार के

दिल्ली जो एक शहर था आलम3 में इन्तिखाब4

रहते थे मुन्तखब5 ही जहाँ रोजगार6 के

उसको फलक7 ने लूट के वीरान कर दिया

हम रहनेवाले हैं उसी उजड़े दयार8 के

(1– रहन–सहन  2– रहनेवालांे  3– संसार  4– चुना हुआ  5– चुने हुए लोग 6– समय, संसार 7– आकाश, भाग्य  8– नगर)

मीर का यह अद्भुत आत्म परिचय, उनके युग का भी परिचय है। उनकी शायरी अपने समय और समाज का सबसे अनमोल दस्तावेज है। बस दूर तक देखने और समझने वाली सजग आँखें चाहिए। उनका हुनर और कमाल इस शेर में देखिए, वह आँखें खोलने को कहते हैं, मूँदने को नहीं। वह सक्रियता चाहते हैं, निष्क्रियता नहीं।

चश्म–ए–तमाशा1 वा होवे, तो देखा भाली गनीमत2 है

मत मूँदे आँखों को गाफिल3, देर तलक फिर सोवेगा

(1– दुनिया का तमाशा देखने वाली आँख  2– सन्तोष की बात  3– मूर्ख, असावधान)

मीर का हँसना, रोना, आहें भरना, फरियाद करना, इज्जत और हक के लिए आवाज उठाना केवल अपने लिए नहीं है बल्कि पूरे मानव समाज के लिए है। फिराक गोरखपुरी साहब ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि, “मीर के उत्तम शेर जादू का असर रखते हैं। ऐसी रचनाओं में उनका स्वर जीवन का स्वर बन जाता है। इन रचनाओं में जैसी घुलावट है, जैसी चुमकार है, जो मानवता है, जो विनम्रता है, जो स्वाभाविकता और जो हृदय विदीर्ण करने वाली मृदुलता और तीव्रता का संगम है उसका उदाहरण कहीं और नहीं मिलता। ‘मीर’ की रचनाएँ ‘सूर’ और ‘रसखान’ की याद दिलाती हैं। हम भारतीय संस्कृति का विश्वविद्यालय ‘मीर’ की इन रचनाओं को कह सकते हैं। ऐसी रचनाओं का हर शेर उर्दू शायरी की निधि का बहुमूल्य रत्न है।”(7)

उर्दू शायरी को बहुमूल्य रत्नों से मालमाल कर सन् 1810 ईस्वी में मीर ने दुनिया को अलविदा कह दिया।

मरते हैं हम तो, आदम–ए–खाकी1 की शान पर

अल्लाह रे दिमाग, कि है आसमान पर

(1– मिट्टी का पुतला, इनसान)

टिप्पणी

1– गुफ्तगू, फिराक गोरखपुरी से बातचीत, वर्ताकार : सुमत प्रकाश ‘शौक’, अनुवादक : डॉ– परमानन्द पाँचाल, प्रथम संस्करण, 1996, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ 36।

2– उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, प्रोफेसर सैयद एहतेशाम हुसैन, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम पेपरबैक संस्करण 2011, पृष्ठ 58।

3– दीवान–ए–मीर, अली सरदार जाफरी, सस्करण 2009, राजकमल पेपरबैक्स, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, भूमिका, पृष्ठ 12, 13।

4– उपर्युक्त, पृष्ठ 412, 413।

5– उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, प्रोफेसर सैयद एहतेशाम हुसैन, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम पेपरबैक संस्करण 2011, पृष्ठ 57।

6– दीवान–ए–मीर, अली सरदार जाफरी, सस्करण 2009, राजकमल पेपरबैक्स, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, शायरी, पृष्ठ 430, 431।

7– उर्दू भाषा और साहित्य, रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, चतुर्थ संस्करण 2008, पृष्ठ 29, 30।

 
 

 

 

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