फिराक गोरखपुरी : जिन्दा अल्फाजों का शायर
(28 अगस्त 1896 – 3 मार्च 1982)
फिराक गोरखपुरी जिन्दा अल्फाजों के महान शायर हैं। अल्फाज उन्हें रचते हैं और वह अल्फाजों को गढ़ते हैं। रचने और गढ़ने की अद्भुत जादूगरी ही कविता है। कविता या शायरी बैठे–ठाले का खेल नहीं, न ही जोड़–घटाव, गुणा–भाग का बहीखाता। कविता तो मृत्यु के पंजे से जीवन को खींच लाना है, विष को अमृत में बदलना है।
शिव का विष–पान तो सुना होगा
मैं भी ऐ दोस्त, पी गया आँसू
विषपायी होता है कवि और कविता निरन्तर बहती हुई जीवन की धारा। अविकल जीवन–धारा की केन्द्रीय शक्ति हैं–– अल्फाज और जबान। शब्द और भाषा।
विश्व प्रसिद्ध दागिस्तानी लेखक रसूल हमजातोव ने लिखा है कि, “दुनिया में अगर शब्द न होता, तो वह वैसी न होती, जैसी अब है। भाषा–ज्ञान के बिना कविता रचने का निर्णय करने वाला व्यक्ति उस पागल के समान है, जो तैरना न जानते हुए नदी में कूद पड़ता है।”(1) फिराक गोरखपुरी भी शब्द–साधना से तपी हुई जन–भाषा के बारे में कहते हैं, “मेरे नजदीक कविता वही है, जिसकी शब्दावली कोशों के उन शब्दों से न बनायी जाये जो समाज में प्रचलित नहीं हैं। कविता की भाषा न कोशों में दफ्न रहती है, न दावात की रोशनाई में। करोड़ों की बोलचाल को सुसंगठित करके कविता की भाषा बनती है। यही किया है सूर और तुलसी ने, कबीर और मीरा ने। और यही किया है उर्दू कवियों ने।”(2)
फिराक गोरखपुरी ने भी जीवन भर शब्द–तप किया और अपनी तपस्या के फल को जनता को सांैपते हुए पुरखों के खून से सुर्खरू इल्मो–हुनर को हर हाल में बचाये रखने की दरख्वास्त भी की।
सुकूते शाम मिटाओ बहुत अंधेरा है
सुखन की शम्अ जलाओ बहुत अंधेरा है
चमक उठेंगी सियह–बख्तियाँ जमाने की
नवा–ए–दर्द सुनाओ बहुत अंधेरा है
हर इक चराग से तीरगी नहीं मिटती
चराग–ए–अश्क जलाओ बहुत अंधेरा है
अंधेरा कितना भी घना क्यों न हो, जलता हुआ दीया उसे डराता तो है ही और आँसुओं का दीया तो आत्मा को उजाले और साहस से भर देता है। फिराक साहब ने अपनी जिन्दगी और जमाने के अंधेरे को देखा और झेला था। पलटकर उस पर वार भी किया था। अंधेरा उनके लिए बड़ा मानीखेज है। वह उन्हें दु:ख के गर्त में ढकेलता है, दर्द के पहाड़ पर बैठाता है और यातना की आग में जलाता है। वह जलते हैं, तार–तार होते हैं लेकिन टूटते नहीं हैं। अंधेरा उन्हें भीतर से रौशन कर देता है और दु:ख उन्हें संसार से जोड़ देता है। सीमातीत बना देता है। निजी पीड़ा पराई पीर से जुड़कर जिन्दगी का चमकता हुआ आइना हो जाती है। इस आइने में फिराक जिन्दगी के सौ–सौ अक्स देखते हैं,
सिखा गया है दु:ख मेरा परायी पीर जानना
निगाहे–यार थी यहाँ भी आज मेरी रहनुमा
यही नहीं कि आज मुझको जिन्दगी नयी मिली
हकीकते–हयात मुझ पे सौ तरह से खुल गयी
जिन्दगी की हकीकत का ‘सौ तरह से खुलना’ दरअसल ‘खुल जा सिमसिम’ की तरह एक जादुई सूत्र वाक्य है जो फिराक साहब के काव्य–महल के द्वार खोल देता है। द्वार खुलते ही आपका सामना हीरे, मोती, जवाहिरात, माणिक–मुक्ता के साथ आँसू, आह, कराह और दर्द भरी पुकार से होता है। आप अलादीन की तरह ठगे से रह जाते हैं। दौलत से भर–भर उठते हैं, फिर भी कहीं कुछ खाली सा रह जाता है। जिन्दगी की सौ–सौ सच्चाइयों को फिराक सौ–सौ तरह से बयान करते हैं। उनकी वर्णन करने की अपरम्पार क्षमता, आर–पार देखने की त्रिकालदर्शी दृष्टि और हृदयस्पर्शी भाषा हमारे भीतर जीने की और संघर्ष करने की इच्छा जगा देती है। उनका मनुष्य पर विश्वास हमारे भीतर विश्वास का दीपक जला देता है।
ये रात अंधेरी है मगर
ऐ गमे–फर्दा
सीनों में अभी शम्ए–यकीं
जाग रही है
हमलावर अंधेरे में भी फिराक विश्वास का दिया जलाये रखते हैं। सारी कुरूपता और विकृति की मौजूदगी में सौन्दर्य की चमक को बरकरार रखते हैं। वह नयी दुनिया का सपना देखते हैं। एक ऐसी दुनिया जो प्रेम और ज्ञान से भरी हुई हो। विवेकवान और प्रबुद्ध हो। फिराक कहते भी हैं कि,
तामीर करेंगे नयी दुनिया–नयी दुनिया
कमजोरों में वो जोरे–हुमम बाँट रहा हूँ
हर चीज का चोला ही बदल दूँगा सिरे से
संसार को एक और जनम बाँट रहा हूँ
दुनिया को नये दौर की देता हूँ बशारत
या एक नयी तकदीरे–उमम बाँट रहा हूँ
कल जिनसे बदलने को है तकदीर बशर की
मैं आज वो अफकारे–अहम बाँट रहा हूँ
ऐ अहले अदब आओ ये जागीर सम्भालो
मैं ममलिकते–लौहो–कलम बाँट रहा हूँ
जिस नयी दुनिया की तामीर का तसव्वुर कवि ने किया है, उसे नेस्तनाबूद करने की हरचन्द कोशिश इनसानियत के दुश्मनों द्वारा की जाती रही है। परतंत्र भारत में अंग्रेजों और उनके देशी खैरख्वाहों की चालबाजियाँ और दगाबाजियाँ फिराक गोरखपुरी ने देखी थीं। अंग्रेजी राज में लूटपाट और पाशविकता का नंगा नाच चारों तरफ चल रहा था। न्याय, कानून और मनुष्यता का कोई अता–पता नहीं था। शैतानियत का बोलबाला था। फिराक चाहते तो शैतान के पक्ष में खड़े होकर ऐशो–आराम की जिन्दगी बिता सकते थे। राजसी ठाठ–बाट का मजा ले सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। आईसीएस में चुने जाने के बावजूद उन्होंने 1920 में शानदार सरकारी नौकरी को लात मार दी और स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े। अंग्रेजों की आँख की किरकिरी बने फिराक को बन्दी बना लिया गया। वह डेढ़ साल जेल में रहे। उन्होंने मखमली कालीनों पर चलने की जगह काँटों की राह चुनी। उन्होंने देशवासियों को सचेत किया कि नकली और असली को पहचानो, सच और झूठ में फर्क करना सीखो और दूसरों पर नहीं खुद पर एतबार करना सीखो।
उर्दू के महान शायर अकबर इलाहाबादी को समर्पित उनकी प्रसिद्ध कविता है ‘लिसानुल–अस्र ‘अकबर’ इलाहाबादी’। इस लम्बी कविता में उन्होंने वतनपरस्ती का अर्थ बताया है और जन–विरोधी राजनीति के पाखण्ड और छल–कपट से परदा हटाया है। उन्होंने अकबर इलाहाबादी के बारे में लिखा है कि “वतन–परस्ती उनमें कूट–कूट कर भरी थी। वह रवायती, तहजीबी पंचशील और मुत्तहिदा कौमियत के अलमबरदार थे।”(3) इसी वतनपरस्ती और सामूहिकता की भावना को बचाये रखने और जनता के दुश्मनों से होशियार रहने की जरूरत है। इन पंक्तियों का मुलाहिजा कीजिए और असली दुश्मन को पहचानिए,
हजारों अंजुमन आराइयों की हलचल में
हनोज कानों में गूँजी हुई है तेरी पुकार
कि जलसों और डिपुटेशनों के धोके न खाओ
ये तमतराक है बिदारी–ए–गलत, हुशयार!
वो ऐंड–ऐंड के चलना वो पाँव में जंजीर
निसार कौम के अन्दाजे–खुशखरामी के
मगर ये कहके सरे–राह तूने टोक दिया
न खा फरेब! तरक्कीनुमा गुलामी के
कहा कि लाट के दरबार में मिली कुर्सी
कहा कि दोस्तो इस नक्ली शद्दो–मद से बचो
कहा कि इनकी इआनत से कौम पनपेगी
कहा कि भाइयो अंग्रेज की मदद से बचो
बहुत से खूँटे के बल पर उछलते ये बछड़े
कहे ये कौन मआल इसका नामुरादी है
रहा न तुझसे गया और तू पुकार उठा
जहाँ में राजे–तरक्की खुतएतमादी है!(4)
इस बाकमाल कविता के आइने में आज का प्रतिबिम्ब देखिए और सत्ता के घमण्ड और अहंकार को समझिए। कड़कड़ाती हुई ठण्ड में, शीतलहर के बीच लाखों–लाख किसानों ने दिल्ली की सड़क पर डेरा डाल दिया है। उनकी दो–टूक माँग है कि हाल ही में संसद द्वारा पारित कृषि कानूनों को रद्द किया जाये। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्रीमण्डल ने विपक्षी दलों, किसानों और खेती–किसानी के विशेषज्ञों से बहस–मुबाहिसा बिना आनन–फानन में बिल पास कर दिया। मानो भूत पीछे पड़ गया हो। इस बिल के लागू होने का मतलब है किसानों की हाड़तोड़ मेहनत के फल पर कॉरपोरेट का कब्जा। यानी हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा। मरे किसान और हो मालामाल साहूकार।
फिराक साहब ने तंज कसा है ना कि, ‘खूँटे के बल पर उछलते ये बछड़े’ यानी मोदी जी के मंत्री–सन्तरीनुमा बछड़े किसानों को मूर्ख, देशद्रोही और आतंकी कह रहे हैं। इस भीषण ठण्ड में किसानों पर ठण्डे पानी की बौछार कर रहे हैं। लाठी चार्ज कर रहे हैं। अन्नदाता को लालच देकर फुसला रहे हैं कि फलाँ कर देते हैं, ढिमाका कर देते हैं। लेकिन किसानों ने उनके सोने की थाली और चाँदी के गिलास पर लात मार दी और पालथी मोड़कर जमीन पर आलथी–पालथी बैठ गये और घर का लाया हुआ दाल–भात और तरकारी इत्मीनान से खाया। यहाँ तक कि सरकार बहादुर की चाय भी ठुकरा दी।
इस तरह किसानों ने खुदएतमादी का ऐलान किया, अपनी वतनपरस्ती का इजहार किया। किसानों को मूर्ख समझने वाली मोदी सरकार को अक्लमन्दी का पाठ पढ़ाया। ऐसी व्यूह रचना की कि बड़े–बड़े सूरमाओं के छक्के छूट गये। किसानों ने अद्भुत एकता और भाईचारे की मिसाल पेश की। जात–पात, धर्म, बिरादरी की सारी सीमाओं को उन्होंने ध्वस्त कर दिया। मुझे बचपन में एक कविता सिखाई गयी–– ‘हे किसान, तू बादशाह है।” आज उसी बादशाह को हमारे बड़े वजीर ने रंक बनाने की सारी जुगत कर दी है। अन्नदाता किसानों के साथ सरकार का यह उपेक्षापूर्ण और निर्मम व्यवहार अंग्रेजों के जालिम जमाने की याद दिलाता है। फिराक साहब ने सावधान किया है, ‘कि भाइयो अंग्रेज की मदद से बचो।’ यहाँ तो विदेशी पूँजी के लिए पलक–पाँवड़े बिछाए जा रहे हैं। डॉलर और पॉण्ड की आरती उतारी जा रही है। आत्मनिर्भरता का स्वाँग रचा जा रहा है।
इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहें कि आत्मनिर्भर भारत में किसान आन्दोलन के दौरान पिछले 30 दिनों में 40 किसानों की मौत हो चुकी है। किसानों की हालत और सरकार के रवैये से दुखी होकर बाबा सन्त रामसिंह ने खुद को गोली मार ली। अपने साथियों की मौत से गमगीन किसान मोर्चे पर डटे हुए हैं। फिराक साहब की कालजयी रचना ‘तलाश–हयात’ की पंक्तियाँ याद आ रही हैं,
फूल नहीं तो दागों से दामने–दिल भरे चलो
तारों को छेड़ते बढ़ो खाक भी छानते चलो।
मौत मिले जो राह में मौत को भी लिए चलो
उठ पड़ो आँधियों की तरह सैल–नुमा बढ़े चलो।(5)
मौत से टकराकर ही जिन्दगी को बचाया और खूबसूरत बनाया जा सकता है। सौन्दर्य की साधना ही कविता और जीवन का मूल मंत्र है। ‘हम जिन्दा थे, हम जिन्दा हैं, हम जिन्दा रहेंगे’ का दर्शन ही फिराक गोरखपुरी की शायरी का प्राण–तत्व है। उनकी अमर कविता ‘दास्ताने–आदम’ मानो आज के किसान आन्दोलन की दास्तान ही सुना रही है।
खेती को सँवारा तो सँवरते गये खुद भी
फसलों को उभारा तो उभरते गये खुद भी
फितरत को निखारा तो निखरते गये खुद भी
नित अपने बनाये हुए साँचों में ढलेंेगे,
हम जिन्दा थे, हम जिन्दा हैं, हम जिन्दा रहेंगे।(6)
जिन्दा रहने के लिए भाव के साथ विवेक की भी जरूरत होती है। शरीर में जैसे दिल के साथ दिमाग है, उसी तरह कविता में भाव के साथ विवेक होना चाहिए। रोटी और नमक की तरह। आँख और आँसू की तरह। विवेकहीन भाव उस आँख की तरह है, जो बस बिसुरना जानती है और भावहीन विवेक उस आँसू की तरह है जो रेत हो चुकी है। फिराक गोरखपुरी की शायरी में आँख भी है और आँसू भीय रोटी भी है और नमक भी।
फिराक साहब अपनी काव्य–प्रक्रिया के बारे में लिखते हैं कि, “मुझे उस जमीन को, जिसे उर्दू के बड़े–बड़े कवियों ने अपने कलेजे के खून से सींचकर तैयार किया था, फिर से गोड़ना और जोतना था। अपनी कविता की शैली को मुझे एक सहज सुझाव देना था। उसके साथ–ही–साथ मानवता और दिव्यता प्रदान करनी थी। जिन विषयों को मुझे वाणी देनी थी, वे अनित्य होते हुए अमृतपान कर चुके हैं और अमरत्व पा चुके हैं। दिव्यता, भौतिकता से पृथक् वस्तु नहीं है। यही अनुभव अनेक पहलुओं से व्यक्त करना मेरे लिए कविता का मुख्य लक्ष्य रहा है।”(7)
जैसे किसान अपना खेत गोड़ता है, जोतता है और फसल के लिए तैयार करता है, उसी तरह फिराक गोरखपुरी भी कविता की जमीन तैयार करते हैं। विषय चुनते हैं। भाषा और शैली से उसे सजाते–सँवारते हैं। काट–छाँट करते हैं और कविता की लहलहाती फसल दुनिया की नजर कर देते हैं।
इकरारे–गुनाहे–इश्क1 सुन लो
मुझसे इक बात हो गयी है।
जो चीज भी मुझको हाथ आयी
तेरी सौगात हो गयी है।
(1– प्रेम करने के गुनाह का इकरार )
फिराक गोरखपुरी को पढ़ते–सुनते–गुनते हुए प्रेम के विस्तार और चैतरफा फैलाव का दिव्य अनुभव होता है। यह दिव्यता शरीर के रास्ते ही आत्मा तक पहुँचती है। शारीरिक रति का स्वीकार फिराक की कविता को नया रंग–रूप और तेवर देता है। उनके काव्य–संसार में रति का अर्थ केवल आनन्द और उत्तेजना के लिए काम–क्रीड़ा भर नहीं है बल्कि दैहिक भोग को भौतिक स्तर से उठाकर आध्यात्मिक अनुभव के रचनात्मक उत्कर्ष तक ले जाना है। अपनी रूबाई ‘सुन्दरम्’ में कहते हैं कि,
है रूप में वो खटक वो रस वो झनकार
कलियों के चटखते वक्त जैसे गुलजार1
या नूर की उँगलियों में देवी कोई
जैसे शबे–माह बजाती हो सितार
महताब2 में सुर्ख अनार जैसे छूटे
या कौसे–कुजह3 लचक के जैसे टूटे
वो कद है कि भैरवी सुनाए जब सुब्ह
गुलजारे शफक4 से नर्म कोंपल फूटे
(1– उपवन 2– चाँद 3–इन्द्रधनुष 4– उषा के उपवन)
कुछ शेर भी देखिए,
हिजाब में भी उसे देखना कयामत है
नकाब में भी रुखे–शोला–जन की आँच न पूछ
लपक रहें हैं वो शोले कि होंट जलते हैं
न पूछ मौजे–शराबे–कुहन की आँच न पूछ
फिराक साहब की कविताई के बारे में मुहम्मद हसन अस्करी मार्के की बात कहते हैं, “फिराक के आशिक और माशूक के पास जिस्म तो खैर है ही, दिमाग भी है, जो अत्यन्त व्यस्त भी रहता है और जिसे इश्क के अतिरिक्त दूसरी मशगूलियतें भी निभानी होती हैं। इसलिए इन दोनों के सम्बन्धों में अनेक पेचीदगियाँ भी पैदा हो जाती हैं। वहाँ दो शरीर मात्र ही एक दूसरे का साक्षात्कार नहीं करते, बल्कि दो दिमाग भी गुँथे हुए हैं। इन्हीं दो दिमागों के दाँव–पेंच से ‘फिराक’ के काव्य की रचना–प्रक्रिया रूप धारण करती है।”(8)
फिराक गोरखपुरी अपने युग की विभीषिकाओं को लेकर बराबर सजग और मुखर रहे हैं। उनकी ऐतिहासिक उपलब्धि है कि उन्होंने उर्दू कविता को रागात्मक, बौद्धिक और कलात्मक बनाने के साथ उसे भारतीय साहित्य, कला और दर्शन की बारीकियों से जोड़ा और विश्व कविता के समकक्ष खड़ा किया। उर्दू कविता के फलक को विस्तृत करने में उन्होंने मीर तकी मीर और नजीर अकबराबादी का जनवादी रास्ता अपनाया और कविता को जनता की सम्पत्ति बनाया। उन्होंने हिन्दी, उर्दू, ब्रज भाषा एवं लोक बोलियों की सुनी–अनसुनी ध्वनियों को लेकर अद्भुत सिम्फनी की सर्जना की जो हमारे जेहन को आज भी तरो–ताजा और रौशन करती है। हमें अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाती है और जीवन के अमूल्य मंत्र ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की याद दिलाती है।
फिराक साहब जनता को बड़ा मान देते हैं और जनता की आमफहम जबान को महान कविता और गद्य के लिए अनिवार्य मानते हैं। वह चाहते थे कि ऐसी जबान में लिखा जाये जिसे बच्चा भी समझ ले। सहज, सरल और जनता की जिन्दादिल बोली–बानी के तर्क पर किसी ने उनसे व्यंग्य में कहा कि, “तो क्या तरकारी खरीदने की भाषा लिखें ? फिराक साहब का जवाब था कि, ‘बड़ा साहित्य तरकारी खरीदने की भाषा में ही होता है।”(9)
‘तरकारी खरीदने की भाषा’ यानी मिट्टी, पानी, हवा और आग से बनी हुई भाषा। संघर्ष से तपी और निखरी हुई भाषा। इसी जन–भाषा का इस्तेमाल जनता से जुड़ा हुआ रचनाकार करता है। “साधारण शब्दों के जीवित और दुखती हुई रगों को छू लेने से जो भाषा बनती है, वही कविता की भाषा है।”(10) वह हिन्दी–उर्दू को एक नयी ऊँचाई पर ले जाते हैं। भाषाओं के बीच यह मेल–मिलाप ही भारत की असली पहचान है और इस पहचान को बचाकर ही हम भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को बचा सकते हैं। फिराक साहब ने केवल इश्किया रचना ही नहीं की है, बल्कि देश और दुनिया को बदल देने वाली इन्कलाबी कार्रवाइयाँ भी हैं और जागृति पैदा करने वाली क्रान्तिकारी रचनाएँ भी की हैं। इस सन्दर्भ में उनकी कविताएँ हैं–– ‘धरती की करवट’, ‘मार्क्स और लेनिन की सेवाएँ’, ‘इकाबे–बीन रोटियाँ’, ‘हिण्डोला’, ‘तलाश–हयात’, ‘लिसानुल–अस्र ‘अकबर’ इलाहाबादी’, ‘दास्ताने आदम’, ‘किसानों की पुकार’, ‘शिक्षा में गोलमाल’ आदि।
उन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान हिन्दू–मुस्लिम साम्प्रदायिकता, आर्थिक विषमता, जाति–पाति की दीवार, धर्म और राजनीति के नापाक गठबंधन और पूँजीवादी–साम्राज्यवादी रीति–नीति को भाँप लिया था और अपनी रचनाओं में इनका खुला विरोध किया। दुख की बात है कि आज भी राजनीति फासीवादी के कुचक्र, झूठ और पाखण्ड के चंगुल में फँसी हुई है। किसान और मजदूर आज भी अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं, वैसे ही जैसे कभी उनके पुरखों ने अंगे्रजों के खिलाफ लड़ी थी।
इन पंक्तियों को देखिए तो आज आन्दोलन करनेवाले किसानों का दुख–दर्द समझ में आ जाएगा। अंग्रेजी छल–कपट और क्रूरता का निर्लज्ज आधुनिक भारतीय संस्करण सामने आ जाएगा––
चालाकी में धौंस–धाँस में
दल्लालों की फोड़–फाँस में
फुसलाने में बहलाने में
डराने में धमकाने में
लुट्टस–पिट्टस की हलचल में
धन्ना सेठ के छल, बल, कल में
चतुर किसान नहीं आयेगा
वो अपना हिस्सा अपना हक
लेके रहेगा, लेके रहेगा
जीके रहेगा, मरके रहेगा
लेकिन अब कुछ करके रहेगा
(‘किसानों की पुकार’ कविता की पंक्तियाँ)
फिराक गोरखपुरी को दु:ख ने अपने हाथों से बनाया था। दु:ख की आग ने उन्हें जलाया, तपाया और सोना बनाया था। वह लिखते हैं,
करीब–तर मैं हो चला हूँ दु:ख की कायनात से
मैं अजनबी नहीं रहा हयात से ममात1 से। (1– मृत्यु )
वो दु:ख सहे कि मुझ प खुल गया है दर्दे–कायनात
है अपने आँसुओं से मुझ प आइना गमे हयात।
दु:ख के आईने में उन्होंने संसार के दु:ख को देखा, उसके कारणों को समझा और उसे खत्म कर देने का रास्ता भी ढूँढा। जीवन के संघर्षों और अनुभवों ने उन्हें यही सिखाया था कि शोषण, गैरबराबरी, गुलामी और दु:ख को मिटाने का एक ही रास्ता है, पूँजीवाद को सारे जहाँ से मिटाने का। इन पंक्तियों में वह अपने जीवन का सार रख देते हैं––
अभी तो घन–गरज सुनायी देगी इन्कलाब की
अभी तो गोशबर1 सदा है बज्म आफताब की।
अभी तो पूँजीवाद को जहान से मिटाना है
अभी तो साम्राजों को सजा–ए–मौत पाना है।
अभी तो इश्तिराकियत2 के झण्डे गड़ने वाले हैं
अभी तो जड़ से कुश्तो–खूँ के नज्म उखड़ने वाले हैं।
अभी किसानो–कामगार राज होने वाला है
अभी बहुत जहाँ में कामराज होने वाला है।
(1– उत्सुक 2– समानता)
(‘शामे–अयादत’ कविता की पंक्तियाँ)
फिराक साहब का एक और कमाले जिक्र काम है कि उन्होंने उर्दू भाषा और उसके साहित्यिक इतिहास पर बहुत महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ लिखी है। पुस्तक अठारह अध्याय में विभाजित है। इन अध्यायों से गुजर कर पाठक उर्दू की विशद काव्य और गद्य परम्परा से परिचित होता है। उर्दू के कृति व्यक्तित्वों पर उनका सारगर्भित और वैज्ञानिक तर्कपूर्ण मूल्यांकन हैरान करता है। वर्णन की संक्षिप्तता, विवेचन की बारीकी और ऐतिहासिक प्रमाणिकता पुस्तक को अत्यन्त मूल्यवान बना देती है। विख्यात शायर जोश मलीहाबादी सोलह आने ठीक कहते हैं कि, “अपने फिराक को मैं दशकों से जानता और उनकी रचनात्मकता का लोहा मानता हूँ। वह इल्म और अदब के मसअलों पर जबान खोलते हैं तो लफ्ज और मानी के लाखों मोती रोलते हैं, और इस इफरात से कि सुननेवालों को अपनी कम–इल्मी का एहसास होने लगता है।”(11)
लफ्ज और मानी के लाखों मोती रोलने वाले फिराक गोरखपुरी की रचनाएँ जीवन–सौन्दर्य का आख्यान हैं और उसे बचाये रखने का आह्वान भी हैं। वह विश्व मानवता के पक्षधर और उसके पैरोकार हैं। जब तक संसार में कविता की पुकार और विभिन्न दिशाओं से आती हुई उसकी अनुगूँजें होंगी, तब तक फिराक हमारे रफीके–जिन्दगी रहेंगे।
मेरे अश्आरे–दिलकश को जगह दे अपने पहलू में
कि ये नग्मे तेरे सच्चे रफीके–जिन्दगी होंगे।
सन्दर्भ :
1– मेरा दागिस्तान, रसूल हमजातोव, प्रगति प्रकाशन मास्को, पृष्ठ 66।
2– बज्मे जिन्दगी : रंगे शायरी, फिराक गोरखपुरी, चयन और रूपान्तर–– डॉ– जाफर रजा, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली, चैथा संस्करण 1987, पृष्ठ 14।
3– गुले नगमा, फिराक गोरखपुरी, हिन्दी रूपान्तर–– डॉ– जाफर रजा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2008, पृष्ठ 161।
4– उपर्युक्त, पृष्ठ 162।
5– उपर्युक्त, पृष्ठ 135, 136।
6– उपर्युक्त, पृष्ठ 170, 171, 178।
7– बज्मे जिन्दगी : रंगे शायरी, फिराक गोरखपुरी, चयन और रूपान्तर – डॉ– जाफर रजा, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली, चैथा संस्करण 1987, पृष्ठ 12।
8– गुले नगमा, भूमिका, मुहम्मद हसन अस्करी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2008, पृष्ठ 6।
9– दूरदर्शन में प्रसारित बातचीत। यूट्यूब पर उपलब्ध।
10– बज्मे जिन्दगी : रंगे शायरी, फिराक गोरखपुरी, चयन और रूपान्तर – डॉ– जाफर रजा, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली, चैथा संस्करण 1987, पृष्ठ 14।
11– यादों की बारात, जोश मलीहाबादी, संक्षिप्त संस्करण, राजपाल एण्ड सन्ज, दिल्ली, पृष्ठ 135।
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