हसरत मोहानी : उर्दू अदब का बेमिसाल किरदार
हसरत ‘मोहानी’ उर्दू के मकबूल शायर होने के साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बड़े योद्धा थे। उन्होंने ऐशो–आराम की ज़िन्दगी छोड़ कर क्रान्ति की कठिन और जलती हुई राह चुनी। अपना सब कुछ होम किया और देशवासियों में ज्ञान, प्रेम और स्वाधीनता की जोत जगाई। 1857 की क्रान्ति के बाद वह पहले मुस्लिम राष्ट्रीय नेता थे जिनकी राजनीतिक गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने कठोर कारावास का दण्ड दिया। उन्होंने ही ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’ का नारा बुलन्द किया और जनता–जनार्दन को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध लड़ने को तैयार किया।
वह अंग्रेज सरकार की चाकरी करने को पाप समझते थे। सरकार ने उन्हें कई तरह के लालच दिये। उन्होंने सभी प्रस्तावों को ठुकरा दिया और आजीविका के लिए साहित्य को ही चुना। वह ग़ज़लें लिखते रहे, मुशायरों में पढ़ते रहे और विभिन्न मंचों पर स्वतंत्रता की चेतना जगाते रहे। उन्होंने बहुतेरे काम किये और असफल हुएय लेकिन अपनी ज़िद पर अड़े रहे। उन्होंने ‘स्वदेशी स्टोर’ खोला। वह चल भी निकला लेकिन सरकार ने बन्द करा दिया। उन्होंने छापाखाना खोला, जी–तोड़ मेहनत की। कई पत्र निकाले जिन्हें लोगों ने खूब पसन्द किया। लोग ख़रीदते भी थे। सरकार को हसरत की सारी गतिविधियाँ नागवार गुज़रीं। अख़्ाबारों की सारी प्रतियाँ ज़प्त कर ली गर्इं। उन्हें जला दिया गया। छापाखाने को ग़ैरकानूनी ढंग से बन्द कर दिया गया। जनता के सच्चे हमदर्द शायर और पथप्रदर्शक को बार–बार गिरफ़्तार कर जेल भेजा गया।
असहयोग, सिविल अवज्ञा और स्वदेशी आन्दोलन का विचार हसरत मोहानी ने ही देश के सामने पहली बार रखा। सभी राष्ट्रीय दलों ने हसरत के विचारों को मूर्त रूप दिया और भारत का स्वाधीनता आन्दोलन गांधी जी के आह्वान ‘करो या मरो’ और महान् नाविक विद्रोह से गुज़रता हुआ 15 अगस्त 1947 की अर्धरात्रि तक चला। आधी रात को पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने यूनियन जैक की जगह, तिरंगा फहराया। हसरत का सपना पूरा हुआ। आज़ादी के महानायकों की शहादत और जाने–अनजाने शहीदों के बलिदान को आज भी देश भरे मन से नमन करता है।
हसरत ने हमेशा अपने धर्म–पुरखों को बहुत सम्मान के साथ याद किया है। श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन हुए हैं। उनके कई गीतों में गहरी प्रेमासक्ति और दैहिकता दिखाई पड़ती है। उल्लेखनीय पक्ष यह है कि वह कभी अश्लील नहीं होते। उनके आचरण और व्यवहार की सदाशयता उनकी रचनाओं के साथ उनके आचरण और व्यवहार में भी प्रकट होती है। उन्हें गहरा सदमा तब पहुँचा जब उनकी पत्नी का 8 अप्रैल 1937 को देहान्त हुआ। लखनऊ में ही उनकी पुत्री का भी निधन हुआ। इन दुखों को बरदाश्त करते हुए, 13 मई 1951, रविवार की एक मनहूस दोपहर को लखनऊ में इस अलबेले शायर और देशभक्त ने अपने चाहने वालों को अलविदा कह दिया।
उन्हें कभी भी भुलाया नहीं जा सकेगा। उनकी ग़ज़ल फ़िज़ा में हमेशा गूंजती रहेगी,
चुपके–चुपके रात–दिन आंसू बहाना याद है,
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है।
हसरत मोहानी एक ऐसी किताब हैं जिसका हर पन्ना बेइन्तहा दर्द, ज़ुल्म और यातना की स्याही से लिखा गया है।
उसका हर शब्द अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ते हुए उस जाँबाज़ शायर–सिपाही का अक्स है जो खुद मुसीबतों को न्योता देता है, उनका स्वागत करता है,
तन आसानियाँ उनको मुबारक़,
यहाँ अम्रे–दुश्वार1 की आरज़ू है।
(1–कठिन आदेश)
कठिन आदेश उसी आदमी को दिये जाते हैं, जिससे सरकार डरती है। जिस पर दिन–रात नज़र रखती है। होश तो तब उड़ जाते हैं जब वही आदमी अल्ली ठोंक कर पूछता है कि प्रेम की धारा को रोकेगे या ज्ञान के तेज़ प्रकाश को? मैं तो प्रेम भी हूँ और ज्ञान का आलोक भी। बांग्ला के महाकवि जीवनानन्द दास की इन काव्य पंक्तियों में हसरत मोहानी की पूर्ण छवि दिखाई देती है–– प्रेम पगी और ज्ञान से भरी :
अंधकार में सबसे भला वही ठौर,
जहाँ प्रेम को ज्ञान से मिलता है गम्भीर आलोक।
ब्रिटिश हुकूमत हसरत की प्रेम और ज्ञान की छवि से हमेशा परेशान रही। उसने बेहिसाब जतन किये। छल–कपट का निर्र्लज्ज प्रदर्शन किया लेकिन हसरत को तोड़ नहीं सके। उन पर जुर्माने ठोंके। बरसों–बरस क़ैद में रखा। सताया, बेइज़्ज़त किया लेकिन उन्हें रोक नहीं सके। मुज़फ़्फ़र हनफ़ी ने अपनी किताब ‘हसरत मोहानी’ में लिखा है कि, “मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने सन् 1946 में हसरत की दूसरी गिरफ़्तारी के अवसर पर लिखा था–– ‘अल्लाह ने अपनी मेहरबानी से हसरत को बन्दी–जीवन का पूर्ण अनुकरण करने की सामर्थ्य दी और इस श्रेष्ठता में उनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। हसरत जो कुछ कर रहा है भारत उसको पचास वर्ष बाद समझेगा।’ (कारवाने ख़्याल, अबुल कलाम आज़ाद (बेग़म हसरत मोहानी के नाम पत्र)।(1)
मौलाना को लगा था कि पचास वर्षों में शिक्षा का और समझदारी का स्तर इतना बढ़ जाएगा कि लोग हसरत को समझ और सराह सकेंगे। मोहब्बत और नफ़रत के फ़र्क़ को भाँप कर मोहब्बत के पक्ष में पूरी शिद्दत के साथ लामबन्द हो सकेंगे। पर ऐसा हुआ नहीं। सत्ता पर वर्चस्व बनाये रखने के लिए आज भी साम्प्रदायिक दल धर्म–धर्म और जाति–जाति का खेल खेलता है। वह सोचता कुछ है और कहता कुछ है। हसरत मोहानी कहते हैं,
इधर जुर्मे–मोहब्बत पर वो बर्हम1 होते जाते हैं,
उधर दिल में तमन्नाए शहादत बढ़ती जाती है।
(1– नाराज़)
मोहब्बत जुर्म तब हो जाती है जब वह आपको भयमुक्त और निडर बना देती है। इसी निडरता से सत्ता–पक्ष डरता है और डर क़ायम रखने के लिए तरह–तरह के क़ायदे–कानून बनाता है और उसे मानने को बाध्य करता है। नहीं मानने का हश्र और सबक भूलिए मत और याद कीजिए मीरा बाई, सुकरात, भगतसिंह और अनगिनत क्रान्तिकारियों की अनमोल शहादत।
आज भारत स्वतंत्रता के 77वें बरस में ‘अमृत–काल’ मना रहा है। यह प्रसन्नता और गर्व की बात है। पर हमे अपने महान विचारकों और क्रान्तिकारियों को पल भर के लिए भी नहीं भूलना चाहिए। उनकी शिक्षाओं को बार–बार दोहराना और परिवर्धित करते रहना चाहिए। सच के ऊपर पड़े झूठ के परदे को तार–तार करते रहना चाहिए। ये सारे काम हसरत मोहानी ज़िन्दगी भर करते रहे। उन्होंने बहुत सोच–विचार कर अपनी योजनाओं की सार्वजनिक घोषणा की। उन पर अमल किया। लोगों ने तंज़ किया। सामने और पीठ पीछे उनकी भर्त्सना की। महात्मा गाँधी और जिन्ना ने भी एक समय उनकी इस बात की मुख़ालिफ़त की कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग को ब्रिटिश साम्राज्य का पल्लू छोड़कर पूर्ण स्वराज्य के लिए उठ खड़ा होना चाहिए। अपनों और परायों के घोर विरोध के बावजूद हसरत टूटे नहीं। वह अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन में लगे रहे। अपने अकेले होते चले जाने की तकलीफ़ को व्यंग्यात्मक तरीक़े से वह कुछ इस तरह बयाँ करते हैं,
यह क्या मुंसिफ़ी है कि मेहफ़िल में तेरी,
किसी का भी हो जुर्म, पाएँ सज़ा हम।
सज़ा तो हसरत मोहानी ने खूब भुगती लेकिन किसी से कोई गिला–शिकवा नहीं किया। अपनी बनायी राह पर चलते रहे और आजीवन देश की आज़ादी और खुदमुख़्तारी के लिए लड़ते रहे। वे महान् कवि, लेखक, आलोचक और सजग पत्रकार थे। मुज़फ़्फ़र– हनफ़ी ने लिखा है कि, “वह उर्दू के पहले पत्रकार थे जिन्होंने हर प्रकार की आपदा और भय से विमुख होकर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध तलवार की तरह अपनी लेखनी का इस्तेमाल किया। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् उन्होंने संसद में भले–बुरे की चिन्ता किये बिना हमेशा स्पष्टवादिता से काम लिया। सत्ताधारियों की नाराज़गी मोल ली। किन्तु वही कहा जो उनके दिल में था। डॉ– ज़ाकिर हुसैन का कथन है, ‘नफ़्स (इंद्रियों) की माँग के पीछे लोग क्या नहीं करते? हसरत ने अन्तरात्मा के लिए सबकुछ किया। उम्र भर कष्ट सहे, परन्तु कोई कष्ट उनकी अन्तरात्मा की आवाज़ को दबा न सका। हर कष्ट ने उनकी शान को बढ़ाया।”’(2)
ब्रिटिश हुकूमत ने हसरत को बार–बार जेल भेजा। यातनाएँ दी लेकिन वह पल भर के लिए भी न झुके और न अपने घुटने टेके। अपनी आवाज़ को देशवासियों तक पहँुचाने की हर सम्भव कोशिश करते रहे। उनका एक शे’र देखिए और उनके असाधाराण साहस को सलाम कीजिए,
है मश्क़े–सुखन1 जारी, चक्की की मशक्कत भी,
एक तुरफ़ा2 तमाशा है ‘हसरत’ की तबीयत भी।
(1–काव्य–रचना 2–विलक्षण)
जेल में चक्की पीसना, वह भी भूखे पेट, जानलेवा काम है। कविता की असीम शक्ति ने ही उन्हें बचाये रखा। वह तन–मन को चकनाचूर कर देने वाला अमानवीय श्रम करते रहे और काव्य–रचना कर अंग्रेज़ सरकार को चुनौती देते रहे। अंग्रेज़ों ने अमानवीयता की सारी हदें पार कर दीं। “बन्दी काल में ‘सहरी’ (रोज़ा रखने के लिए पौ फटने से पूर्व का भोजन) और अफ़्तार (सूर्यास्त होने पर रोज़ा खोलना) का प्रबंध न होने के कारण हसरत ने किस प्रकार रोज़े रखे होंगे, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। अपने एक शे’र में वह कहते हैं,
कट गया कै़द में माहे–रमज़ान भी हसरत,
गर्चे सामान था सहरी का, न अफ़्तारी का।
देश और जाति के लिए हसरत ने इन सब कठिनाइयों का सामना साहसपूर्वक किया।”(3)
उनकी विलक्षण तबीयत हमेशा झूठ और पाखण्ड का विरोध करती रही और सच के लिए युद्धरत रही।
सामन्तवादी और साम्राज्यवादी शक्तियों का सामना करने के साथ–साथ हसरत उर्दू और हिन्दी की सेवा करते रहे। प्रोफे़सर सैयद एहतेशाम हुसैन लिखते हैं, “पूर्ण स्वराज्य के उपासक और असाधारण साहस के पुरुष थे। न जाने कितनी बार जेल गये, अधिकांश कविताएँ जेल ही में लिखी हैं। जब कभी बाहर आये, तो साहित्यिक पत्रिकाएँ निकालते और उर्दू कवियों के काव्य–संग्रह प्रकाशित कराते रहे। यह इतना महत्वपूर्ण काम है, जिसको भुलाया नहीं जा सकता। ‘हसरत’ एक अच्छे आलोचक भी थे और उन्होंने काव्य–रचना के गुणों और अवगुणों पर कई पुस्तकें लिखीं। उन्हें आधुनिक युग का सबसे बड़ा ग़ज़ल लिखने वाला माना गया है और इसमें सन्देह नहीं कि मानव प्रकृति का सरल और उसी के साथ हृदयंगम हो जाने वाली संवेदना उनसे अधिक और किसी के यहाँ नहीं मिलेगी। काव्य–शैली की प्राचीन और नवीन धाराएँ उनके यहाँ एक हो जाती हैं।”(4)
समाज और देश की बेहतरी के लिए एक हो चुकी धारा को हसरत बुलन्दी तक ले जाना चाहते हैं। बस एक क़दम बढ़ाने की देर है। मंज़िल को मिलना ही है। वह अपने अनुभव को एक शे’र में दर्ज करते हैं,
पहुँच जाएँगे इन्तहा को भी ‘हसरत’,
जब इस राह की इब्तदा हो गयी है।
जो राह हसरत ने चुनी वह खाई–खन्दकों और दुश्मनों से भरी हुई थी। ज़िन्दगी ने हर क़दम पर उनकी सख़्त परीक्षा ली। जज बनने के आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। अंग्रेज़ सरकार की नौकरी उन्हें करनी ही नहीं थी। आख़्िारकार “साहित्य को ही उन्होंने जीविका का साधन बनाया। किसी तरह एक प्रेस ख़्ारीदा और अपना साहित्यिक मासिक पत्र ‘उर्दू–ए–मुअल्ला’ निकालने लगे। इस काम में उन्हें उनकी धर्मपत्नी से, जो स्वयं भी लेखिका और आलोचिका थीं, बड़ी सहायता मिली। इसी अरसे में उन्होंने चमड़े का भी व्यापार किया किन्तु शीघ्र ही उसे छोड़ दिया। साथ ही उन्होंने ब्रिटिश विरोधी राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया और सबसे पहले जेल जाने वाले राजनीतिज्ञों में ‘हसरत’ का नाम प्रमुख हो गया। सरकार ने जेल में और बाहर भी उन पर बड़ी सख्तियाँ कीं, लेकिन ‘हसरत’ अपनी धुन के पक्के थे।”(5) उन्होंने अपने ऊपर की गयी ज़्यादतियों का मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि,
मिट गयीं आप भी मिटा के मुझे,
सख्तियाँ खुद–ब–खुद ज़माने की।
आधुनिक उर्दू शायरी नयी करवट ले रही थी। वह अपने भीतर ही नहीं, बाहर के बदलाव और संघर्ष को नये नज़रिए से देख रही थी और उन्हे समझने और समझाने का जतन भी कर रही थी। हसरत मोहानी की रचनाएँ हिन्दुस्तानियों पर हो रहे ज़ुल्म, ज़्यादती, शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न दिखाने के साथ उनके पीछे छुपे कारण भी सामने लाती है। यह उनका बहुत बड़ा काम है जिसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। हसरत और उनके समकालीन तरक़्क़ीपसन्द अदीबों ने अंधविश्वास, रूढ़िवाद और ग़ुलाम मानसिकता के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई कभी मन्द नहीं पड़ने दी और विचारों की जोत जलाये रखी। अपने सवालों से ज़ालिम हुकूमत को बेचैन और परेशान रखा,
दिले–मुज़तर1 की सादगी देखो,
फिर उन्हीं से सवाल करता है।
(1–व्याकुल)
सवाल करने की हिम्मत के साथ उनके भीतर मुल्क को आज़ाद कराने का जज़्बा भी था। उन्होंनेे अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया। ग़रीबी मंज़ूर की, असहनीय तकलीफ़ें उठायीं लेकिन अपने स्वाभिमान को बिकने नहीं दिया। यह इतिहास की विडम्बना है कि जो लोग आज़ादी की लड़ाई से मीलों दूर रहे, अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों से दूर रहे वो इन पर तोहमतें लगा रहे हैं और अपने को देशभक्त घोषित कर रहे हैं। सुप्रसिद्ध प्रगतिशील आलोचक जनाब सिब्ते हसन लिखते हैं, “इस युग की सबसे महत्वपूर्ण कृति है मौलाना हाली की ‘मुकद्द्मा–ए–शेर–ओ–शायरी’ (1–1893) हाली के ‘मुकद्द्मे’ को प्रगतिशील उर्दू साहित्य का पहला घोषणापत्र मानना चाहिए। यह अफ़सोस की बात है कि आज़ाद, हाली और उनके सहयोगियों ने हमारे अदब की यथार्थवादी और सुधारवादी प्रवृत्तियों को लोकप्रिय बनाने में जो भूमिका अदा की, उस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। इसके विपरीत, आज के तथाकथित आधुनिकतावादी, जिन्होंने किसी भी शक्ल में स्वाधीनता–संघर्ष में शिरकत नहीं की थी और अब, जबकि अंग्रेज़ नहीं रह गये हैं तो अंग्रेज़–विरोधी होने का दम भरते हैं, ऐसे लोग सर सैयद और हाली को अंग्रेज़ के पिट्ठू कह रहे हैं और उन्होंने उर्दू की जो खिदमत की है उसे कम करके दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।”(6) इक्कीसवीं सदी का भारत भी ऐसे लोगों से जूझ रहा है।
हमें इतिहास की शिक्षाओं को याद रखना चाहिए। पराधीन भारत में हमारे साहित्यकारों ने घोर कष्ट उठाकर जनता को सावधान और शिक्षित करने के लिए पत्र–पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। “मौलाना हसरत मोहानी का ‘उर्दू–ए–मुअल्ला’, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का ‘अल–हिलाल’, मौलाना मुहम्मद अली जौहर का ‘हमदर्द’, और मौलाना ज़फ़र अली ख़्ााँ का ‘ज़मींदार’–– ये सभी पर्चे उर्दू में प्रतिरोध साहित्य के सबसे लोकप्रिय मुखपत्र बन गये।”(7) जन–जागरण ही हसरत का एकमात्र लक्ष्य था। इसमें ताज़िन्दगी वह लगे रहे। अंग्रेज़ी माल के बॉयकॉट, स्वदेशी–आन्दोलन, सिविल नाफरमानी और असहयोग जैसे प्रभावशाली राजनीतिक आन्दोलन का विचार उन्होंने ही पहले–पहल देश के सामने रखा और उसे अमली जामा भी पहनाया।
7 सितम्बर, 1920 को कलकत्ता में मुस्लिम लीग और 9 सितम्बर, 1920 को कलकत्ता में ही कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में हसरत के ‘असहयोग–आन्दोलन’ के प्रस्ताव को मान लिया गया। कुछ शेरों से आप उनकी अनुभूति की तीव्रता और अनुभव से उपजे ज्ञान और स्वाभिमान को महसूस कर सकते हैं,
दिलों को फ़िक्रे–दो आलम से कर दिया आज़ाद
तेरे जुनूं का ख़ुदा सिलसिला दराज़ करे
तेरे करम का सज़ावार तो नहीं ‘हसरत’
अब आगे तेरी ख़ुशी है जो सरफ़राज़1 करे
(1–सम्मानित)
उनके आज़ाद ख़्याल और स्वाभिमान को अंग्रेज़ और उनकी जी–हुज़ूरी में लगे चाटुकार गुस्ताख़ी मानते थे। हसरत भाषा के महत्व को समझते हैं और अपनी भावाभियक्ति को लेकर अत्यन्त सजग रहते हैं। वह एक रूमानी शेर में अपनी प्रिया को प्रेम भरी उलाहना के साथ याद करते हैं,
सुन के आये हैं किसी से मेरे शौक़ का हाल,
पूछते फिरते हैं सब से वो कहाँ है गुस्ताख।
प्रेम वैसे तो दो दिलों के बीच का निजी और अन्तरंग मामला है लेकिन समाज की मौजूदगी भी होती है। उसके अपने कानून हैं, प्रतिबन्ध हैं। प्रेमी चाहें या ना चाहें उन्हें समाज के सिपहसलारों का सामना करना पड़ता है, जो खुद को ख़ुदा और मुंसिफ़ समझते हैं। उपर्युक्त शेर अपने अर्थ–विस्तार में व्यापक समाज से जुड़़ जाता है और ‘गुस्ताख’ शब्द प्रश्नवाची चिन्ह बनकर आक़ाओं के सिर पर नाचने लगता है और उनका जीना हराम कर देता है। ज़ाहिर है कि ऐसे गुस्ताख को कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। सो, उन्हें तंग करने के कई नुस्ख़्ो निकाले गये। लेकिन, सब बेअसर। हसरत ने लिखा कि
और खंजर भी तेज़ हैं, लेकिन,
तेरी तेग़े–रवां1 से क्या निस्बत2।
(1–तेज़ तलवार 2–वास्ता)
होंगे तेरे तलवार तेज़ और धारदार लेकिन मेरा उनसे क्या वास्ता? ऐसी सच्ची वाणी वही बोल सकता है जो सच्चा और स्वाभिमानी हो।
हर अच्छे–बुरे वक़्त में हसरत ने अपने स्वाभिमान की रक्षा की। एक घटना हैरान कर देती है। एक मित्र के घर वह ठहरे। रात को सोते वक़्त मित्र ने भूलवश ओढ़ने के लिए विलायती कम्बल रख दिया। भयानक सर्द रात थी। हसरत रात भर काम्पते रहे लेकिन कम्बल नहीं ओढ़ा। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की अपनी प्रतिज्ञा पर वह अडिग रहे। सुबह कोई शिकायत नहीं, मित्र से विदा ली, शुक्रिया कहा और शान्त मन से चले गये। ऐसे हैं हसरत मोहानी। उनकी ख़ासियत और शख़्िसयत पर प्रोफ़ेसर आले–अहमद–सुरूर लिखते हैं, “हमारे कवियों में हसरत एक महान व्यक्तित्व रखते हैं, वह एक विचित्र स्वभाव के व्यक्ति थे। कुछ विरोधी गुण उनमें अद्भुत रूप से एकत्रित हो गये थे। निर्दोष, सरल स्वभाव, और सन्तोष, उन्माद, प्रभात समीर जैसी कोमलता–पवित्रता और पर्वतीय निर्झरों का–सा तेज–वैभव, हसरत के व्यक्तित्व में इन्द्रधनुषी छटा उत्पन्न कर देते हैं। उस प्रेमी, कवि, सूफ़ी, शोधकर्ता, स्वतंत्रता प्रेमी और साम्यवादी के यहाँ विरोधाभास के बावजूद महानता है, और सरलता के बावजूद सौन्दर्य। हसरत हमारे महान कवियों में है। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल में एक शान्त क्रान्ति उत्पन्न की, और उनका कमाल यह है कि उस क्रान्ति के लिए उपकरण उन्होंने क्लासिकल सम्पदा से लिए।”(8)(हसरत की अज़मत, प्रो– आले–अहमद–सुरूर, उर्दू अदब, हसरत नम्बर, पृष्ठ– 9)।
अपने बारे में हसरत कहते हैं कि मैं इच्छा–वन का एक कण हूँ और मेरा दिल
प्रेम–सागर की एक बूँद,
मैं क्या हूँ एक ज़र्रा–सहरा–ए इश्तियाक़1,
दिल क्या है, एक क़तरा–ए दरिया–ए इश्क़।
(1–इच्छा।)
यह उनका बड़प्पन है कि वह अपने को ‘कण’ और ‘बूँद’ जैसा कहते हैं। ‘कण’, किसी जैविक संरचना का सूक्ष्म अंश जैसे रक्तकण या पदार्थ का सबसे छोटा भाग, जैसे चावल का दानाय वैसे ही ‘बूँद’, तरल पदार्थ का सूक्ष्म अंश होता है, जैसे पानी की एक बूँद। ‘बूँद–बूँद से घड़ा भरता है’, और ‘कण–कण में भगवान’ जैसी लोकोक्तियाँ इनके महत्व को उजागर करती हैं। हसरत मोहानी अपनी रचनाओं में आह्ववान करते हैं कि बिखरे हुए मत रहो बल्कि कण और बूँद की तरह मिलकर अपनी शक्ति और क्षमता को पहचानो और एकजुट होकर स्वतंत्रता के युद्ध में शामिल हो। वह जीवन भर यत्न करते रहे कि हर देश आज़ाद रहे। किसी को भी शारीरिक और मानसिक तौर पर, ग़्ाुलामी न करनी पड़े। पढ़ने–लिखने–बोलने और सोचने–विचारने पर प्रतिबन्ध न होय लेकिन, देश–दुनिया में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहले भी अंकुश था और आज भी है।
हसरत समाजवादी जीवन–मूल्यों के आजीवन पक्षधर रहे। वह किसान–मज़दूर एकता के प्रबल समर्थक रहे। सरमायादारों, साम्राज्यवादियों को मेहनतकश आबादी ही रोक सकती है। मिटा सकती है। वह लिखते हैं,
सरमायादार खौफ़ से लर्ज़ां हैं, क्यों न हों,
मालूम सबको क़ुव्वते–मज़दूर हो चुकी।
यह क़ुव्वत हसरत के भीतर भी थी। उन्होंने सदैव दूसरों के श्रम का सम्मान किया। किसी का वाजिब हक़ मारने को वह गुनाह समझते थे। सन् 1920 ई–, कानपुर में हसरत ने ‘खिलाफत स्वदेशी स्टोर लिमिटेड’ की शुरूआत की। उत्तरप्रदेश में स्वदेशी वस्त्र बेचने की यह सबसे बड़ी संस्था थी। लोगों ने हाथों–हाथ इसे लिया और स्टोर चल निकला। मुज़फ़्फ़र हनफ़ी लिखते हैं, “आरम्भ में स्वदेशी स्टोर सफलता से चला और प्रथम वर्ष उसके भागीदारों में लाभांश भी बांटा गया, किन्तु आगे चलकर हसरत की तीसरी गिरफ़्तारी के कारण कारोबार पर बुरा प्रभाव पड़ा, क्योंकि उसे सम्भालने के लिए बेगम हसरत के सिवा कोई न था।”(9)
बेगम हसरत ने कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन अंग्रेज़ हाकिमों के डर से लोगों ने स्वदेशी स्टोर से मुँह मोड़ लिया। एक शानदार शुरुआत का यह दुखद अन्त था। यदि स्वदेशी की योजना उस वक़्त सफल हो जाती तो अंग्रेजों को ज़बरदस्त आर्थिक चोट पहुँचती। भारतीय धन को इंग्लिशतान भेजने की योजना धरी की धरी रह जाती। बाद में गाँधी जी ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर, स्वदेशी का आह्वान कर हसरत मोहानी के सपने को पूरा किया। वह चाहते थे कि सौन्दर्य (हुस्न) हर हाल में क़ायम रहे और उसके लिए ज़रूरी है कि हर क़िस्म की बदसूरती और शैतानियत को जड़ से उखाड़ फेका जाये। उन्होंने एक शे’र में अर्ज़ किया है,
क्या हुस्नपरस्ती भी कोई ऐब है ‘हसरत’,
होने दो जो अखलाक़1 की तन्क़ीद2 कड़ी है।
(1–चरित्र 2–पैमाना)
अच्छे–बुरे चरित्र को परखने का पैमाना कितना भी सख़्त क्यों न हो सौन्दर्य की पवित्रता को बचाकर ही यह दुनिया रहने लायक बनायी जा सकेगी। हुस्नपरस्ती कोई ऐब नहीं है बल्कि जीवन का आधार है। इस आधार को मज़बूत बनाये रखने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। इस सन्दर्भ में मुझे सईद राही साहब का एक शे’र याद आता है,
मैं तो अख़्लाक़ के हाथों बिका करता हूँ,
और होंगे तेरे बाज़ार में बिकने वाले।
हसरत कभी बिके नहीं। बाज़ार में रहे, अपनी शर्तों पर। जो दिल–दिमाग़ ने कहा वही सुना, वही किया। उन्होंने व्यंग्य–विनोद से लिखा कि,
मैं तो समझा था क़यामत हो गयी,
ख़्ौर फिर साहब सलामत हो गयी।
वह जीवन भर लोगों की सलामती की दुआ करते रहे और एक सच्चे–ईमानदार देशप्रेमी की तरह आज़ादी की लड़ाई में शामिल रहे। इस लड़ाई में उनकी हमसफर निशातुन्निसा, जो खुद बहुत बड़ी लेखिका और उर्दू अदब की गहरी अध्येता थीं, ने हर क़दम पर उनका साथ दिया। मुज़फ़्फ़र हनफ़ी लिखते हैं, “निशातुन्निसा से हसरत का प्रेम जीवन भर रहा, और वह भी हर समय हसरत की मित्र और राज़दां बनी रहीं। उन्होंने सदा राजनीतिक गतिविधियों में, मुसीबतें झेलकर अपने पति का साथ दिया। वह एक शिक्षित और प्रगतिशील विचारांे की महिला थीं। उन्होंने पर्दा त्याग दिया और भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में बराबर शरीक रहीं। हसरत कई बार जेल गये और उनके मुकदमों की पैरवी श्रीमती हसरत ने अकेले ही की। उनके साहस, स्वाभिमान और ग़ैरत की दशा यह थी कि गिरफ़्तारी के दिनों में कठिन से कठिन दशा में भी उन्होने निकटतम सम्बन्धी से भी कभी कोई सहायता नहीं माँगी और पति की हिम्मत बढ़ाने के लिए बराबर उन्हें जेल में पत्र लिखती रहीं।”(10)
वह बहुत साहसी महिला रहीं। उन्होंने हसरत द्वारा स्थापित ‘स्वदेशी स्टोर’ को सम्भाला और बहुत दिनों तक चलाया। महात्मा गाँधी ने भी उनके योगदान की बहुत प्रशंसा की है। “वह अखिल भारतीय कांग्रेस की सदस्या भी रहीं। सचमुच भारत की महिला नेताओं, जैसे –– मुहम्मद अली की माता, सरोजनी नायडू और कमला नेहरू की भाँति उनका स्थान भी अति उच्च है। उनके साहस और वीरता के कायल पंडित नेहरू भी थे। (जवाहर लाल नेहरू, सन्दर्भ : नईमा बेगम ‘हसरत की कहानी–– नईमा की जवानी’, पृष्ठ– 23, 24)। वह नमाज़–रोज़ा की पाबन्द और अच्छी साहित्यिक रुचि रखने वाली थीं। हसरत के काव्य संकलन के प्रकाशन के अतिरिक्त उन्होंने दो यात्रा–वर्णन (‘सफ़रनामा–ए–हज्जाज’ और सफ़रनामा–ए–इराक़) भी लिखे थे।”(11) इतने लम्बे उद्धरण से सुधी पाठकों को अन्दाज़ा हो गया होगा इस अनोखे दम्पत्ति ने स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में स्वर्णिम अध्याय रचा है। त्याग, समर्पण और बलिदान की प्रेरणा देने वाली नज़ीर पेश की है।
मुज़फ़्फ़र हनफ़ी साहब ने इनकी शान में लिखा है कि, “––– वह एक प्रमुख ग़ज़लगो होने के साथ–साथ पत्रकार, आलोचक, वार्ताकार, सम्पादक, पिंगलशास्त्रज्ञ, ग़ालिब विशेषज्ञ, डायरी लेखक, और आत्मकथाकार भी थे। यदि भारत के राजनीतिक इतिहास में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है, तो उर्दू साहित्य के इतिहास में भी उन्हें अमरता प्राप्त है।”(12)
हसरत लिखते हैं कि,
ना तेरे हुस्न की मिसाल मिली,
ना मेरे शौक़ का जवाब मिला।
उर्दू अदब के इस बेमिसाल और अमर किरदार को हमारा सलाम।
सन्दर्भ :
1– हसरत मोहानी, मुज़फ़्फ़र हनफ़ी, अनुवाद : निज़ामुद्दीन, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नयी दिल्ली, पृष्ठ– 3।
2– उपर्युक्त, पृष्ठ–– 2।
3– उपर्युक्त, पृष्ठ–– 25।
4– उर्दू–साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, प्रोफ़ेसर सैयद एहतेशाम हुसैन, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम पेपरबैक संस्करण : 2011, पृष्ठ–– 184।
5– उर्दू भाषा और साहित्य, फ़िराक़ गोरखपुरी, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, चतुर्थ संस्करण : पृष्ठ–– 279।
6– आलेख, ‘आधुनिक उर्दू साहित्य में विचारों की लड़ाई’, सिब्ते हसन, अनुवाद एवं प्रस्तुति : नीलाभ, ‘कथ्य–रूप’ अनुवाद पुस्तिका क्रम 1, इलाहाबाद, उत्तरप्रदेश, पृष्ठ–– 15।
7– उपर्युक्त, पृष्ठ–– 15।
8– हसरत मोहानी, मुज़फ़्फ़र हनफ़ी, अनुवाद : निज़ामुद्दीन, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नयी दिल्ली, पृष्ठ– 68, 69।
9– उपर्युक्त, पृष्ठ– 43।
10– उपर्युक्त, पृष्ठ– 11।
11– उपर्युक्त, पृष्ठ– 12।
12– उपर्युक्त, पृष्ठ– 71।
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