मार्च 2019, अंक 31 में प्रकाशित

मातीगारी : वह देशभक्त जिसने गोलियाँ झेली हैं।

‘मातीगारी’ उपन्यास न्गुगी वा थ्योंगो द्वारा गिकूयू भाषा में पहली बार 1986 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के चलते केन्या में एक तूफान खड़ा हो गया। इसे पढ़ने के बाद जो सवाल इस उपन्यास का नायक ‘मातीगारी’ दुहराता है, लोगों के जुबान पर वही सवाल घूमने लगे। लोग एक दूसरे से वही सवाल पूछने लगे। इस उपन्यास ने केन्याई समाज में उथल–पुथल मचा दिया। कुछ ही दिनों में हालत यह हो गयी कि उपन्यास का पात्र न होकर ‘मातीगारी’ वास्तविक नेता की तरह प्रसिद्ध हो गया। मातीगारी सरकार की आँखों की किरकिरी बन गया। केन्याई सरकार ने मातीगारी को गिरफ्तार करने का आदेश तक जारी कर डाला। पुलिस ने गिरफ्तारी का वारंट लेकर लोगों से पूछताछ की और मातीगारी को गिरफ्तार करने की पूरी कोशिश की। मातीगारी की असलियत जानने के बाद सरकार और पुलिस की बौखलाहट बढ़ गयी। इसके चलते ‘मातीगारी’ की प्रतियाँ दुकानों और प्रकाशनों से जब्त की गयीं, साथ ही लोगों के घरों पर छापा मारकर भी जब्त कर ली गयीं। केन्याई जनता को जागरुक करने में ‘मातीगारी’ ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी है। किसी उपन्यास की इससे बड़ी उपलब्धि क्या होगी कि राजसत्ता उससे डर कर उसके पात्र को गिरफ्तार करने का आदेश दे दे। यह उपन्यास अफ्रीकी देशों की जनता के मुद्दों को समेटता है, जैसे–– शोषण, उत्पीड़न, उपनिवेशवाद, समाज के रेशे–रेशे का विघटन, नवउपनिवेशवाद और पूँजीवाद।

उपन्यास का नायक मातीगारी मा नजीरूंगी एक देशभक्त है। (जिसका शाब्दिक अर्थ है–– वह देशभक्त जिसने गोलियाँ झेली हों) उपन्यास औपनिवेशिक बर्बर अत्याचारों का कच्चा चिट्ठा है। अफ्रीका ने उपनिवेशवाद के चलते अमानवीय पीड़ा झेली है। इस उपन्यास के द्वारा न्गुगी उपनिवेशवाद की दासता में जकड़े अफ्रीकी समाज को दिखाते हैं। समाज में बच्चों और महिलाओं की स्थिति के साथ न्गुगी यह भी दिखाते हैं कि किस तरह से पुलिस प्रशासन, फौज और व्यवस्था के संचालक (जिनका रंग अब बदल चुका है) येन केन प्रकारेण उपनिवेशवादियों की ही सेवा करते हैं। अपने लोगों के खिलाफ जाकर उपनिवेशवादियों और उनकी सम्पत्ति की ही रक्षा करते हैं। पूरे देश की सम्पत्ति पर उपनिवेशवादियों का कब्जा होता है और किस तरह से देश का निर्माण करने वाली जनता गरीबी और कंगाली में धकेल दी जाती है। 

उपन्यास की शुरुआत में हम पाते हैं कि मातीगारी ने अपनी मातृभूमि को आजाद करने के लिए सेटलर विलियम्स जैसे उपनिवेशवादियों से कई वर्षों तक जंगलों, नदियों के किनारे और पहाड़ों पर एक के बाद एक कई लड़ाइयाँ लड़ी। उसके बाद उसने सेटलर विलियम्स और उसके काले नौकर जॉन बॉय को शिकस्त दी। उसे पता चला कि आजादी मिल चुकी है। यह सोचकर कि अब इन हथियारों की क्या जरूरत है, उसने अपने सारे हथियार एक पेड़ के नीचे गाड़ दिये और शान्ति की पेटी बाँध ली। मातीगारी ने शान्तिपूर्ण तरीके से अन्याय और संघर्षों को खत्म करने की शपथ ली। लेकिन घर जाने से पहले वह अपने लोगों को ढूँढना चाहता था।

मातीगारी ने देखा कि मसलन अब गोरे शासकों की जगह काले शासकों की नियुक्ति के अलावा देश की व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं हुआ हैय हमारे बच्चों और औरतों की स्थिति अब भी खराब है। मातीगारी एक शहर में पहुँचा। उसने देखा कि देशभक्तों के बच्चे कचरे के ढेर से सामान बीन रहे हैं। मातीगारी को बहुत दुख हुआ। उसने सोचा कि देशभक्त जो आजादी के लिए लड़े थे, अपनी धरती, अपने करखानों और अपने घरों के लिए, उनके बच्चों की ऐसी दुर्दशा है, वह काँप गया। उसने अपनी एके–47 निकालने के लिए कमर पर अपना हाथ रखा, पर उसे याद आया कि उसने शान्ति की पेटी बाँध ली है। इसी बीच मातीगारी की मुलाकात गुथेरा से हुई, जो चर्च के उच्च अधिकारी  की बेटी थी। उसने कभी गरीबी नहीं देखी थी। वह ईश्वर में लीन रहने वाली लड़की थी। गुथेरा के पिता देशभक्त थे। पुलिस वालों ने उन पर आतंकवादी होने का आरोप लगाया। जब गुथेरा ने पुलिस से उनकी जान बचाने की प्रार्थना की तो उस पुलिस वाले ने गुथेरा से कहा कि “तुम अपने बाप की जिन्दगी को अपनी टाँगों में लिये बैठी हो”। उसने उस कुँआरी लड़की से व्यभिचार के लिए दबाव बनाया। गुथेरा ने इनकार कर दिया और पिता की मृत्यु के बाद भाई–बहनों की जिम्मेदारी उस पर आ पड़ी। गुथेरा पर कठिनाइयों के पहाड़ टूट पड़े। उसके कपड़े चिथड़े में बदल गये। लोग उसे आतंकवादी की बेटी कहकर उससे दूर होने लगे। घर में खाने के लाले पड़ गये। अन्त में गुथेरा व्यभिचार करने को मजबूर हो गयी। मातीगारी गुथेरा की कहानी सुनकर एक बार फिर सोच में पड़ गया। फिर उसने अपनी एके–47 निकालने के लिए कमर पर अपना हाथ रखा। पर उसे याद आया कि उसने शान्ति की पेटी बाँध ली है। इस तरह अपने उपन्यास में न्गुगी एक नवउपनिवेशवादी देश में बच्चों और औरतों की स्थिति को दर्शाते हैं।

उपन्यास में बच्चों, औरतों, मजदूरों और गुलामों के साथ ही देश की बाकी जनता की मनोस्थिति को दिखाते हुए न्गुगी तीन दौर की स्पष्ट तस्वीर खीचते हैं। पहले में उपनिवेशवादी दौर की मनोस्थिति को दिखाते हैं। न्गुगी के उपन्यास में उपनिवेशवाद का किरदार सेटलर विलियम्ज है। वह गोरा उपनिवेशवादी था। गुलामी के बारे न्गुगी अपने उपन्यास में कहते हैं  कि “इस संसार में गुलामी से बदतर और कुछ नहीं है। गुलामी! आह, गुलामी! दिलो दिमाग को बन्धक बना देने वाली”। दूसरा, जब गुलामों ने औपनिवेशिक शासन के अधीन जीने से इनकार कर दिया। वे हथियार उठाकर उपनिवेशवादियों से लड़े। उन्हें मात दे दिया। देश को तथाकथित रूप से आजादी मिल गयी। अब सत्ता पर अपने ही जैसे काली चमड़ी वाले लोग काबिज हैं। लेकिन न्गुगी बताते हैं कि अगर हम आजाद हैं तो बच्चों, औरतों, मजदूरों और आम लोग आज भी गुलाम की स्थिति में क्यों हैं? हम आज भी उपनिवेशवादी वर्दी में क्यों हैं? हम आज भी उपनिवेशी भाषा में क्यों लिखते–पढ़ते हैं?  ऐसे ढेरों बारीक सवालों के माध्यम से न्गुगी नवउपनिवेशवादी दौर की तस्वीर खींचते हैं। लेखक मातीगारी के माध्यम से पूछते हैं कि अगर हम आजाद हो गये हैं तो अभी भी सारी सम्पत्ति गोरों के पास क्यों है? अभी भी गोरे ही मालिक क्यों हैं? हमारे बच्चे, औरतें और नौजवान अभी भी गुलाम क्यों हैं? हमारी औरतें व्यभिचार करने को मजबूर क्यों हैं? इस तरह न्गुगी बताते हैं कि जनता का शोषण नहीं बदला है, लेकिन शासक का स्वरूप बदल गया है? थोड़ी बहुत सतही तब्दीलियों के अलावा कुछ बदलाव नहीं हुआ। जनता को जगाने के लिए न्गुगी कहते हैं कि “जिस देश के लोग भयभीत होकर रहते हैं, वह देश दु:खों का घर बन जाता है।”

देश की यह स्थिति देखकर मातीगारी परेशान हो गया और सत्य और न्याय की खोज में निकल पड़ा। सत्य और न्याय की खोज में मातीगारी देश के कोने–कोने  में भटका, विभिन्न तबकों से मिला, जैसे–– उसने राजनीतिज्ञों, छात्रों, अध्यापकों और पादरियों से सवाल पूछा––

“मेरा सवाल यह है–– राजगीर घर बनाता है और जो घर को केवल बनते हुए देखता है, अन्त में उसका मालिक बन बैठता है। राजगीर खुले आकाश के नीचे सोता है। उसके सिर पर कोई छत नहीं है। दर्जी कपड़े सिलता है और जिसे सुई में धागा डालना तक नहीं आता, कपड़े पहनता है और दर्जी चिथड़े पहन कर घूमता है। खेत जोतने वाला खेत में फसल उगाता है और वह व्यक्ति जो केवल फसल काटता है जो कभी बोता नहीं, अधिक खाने के कारण जम्हाई लेता है और खेत जोतने वाला खाली पेट होने के कारण जम्हाई नहीं लेता। श्रमजीवी वस्तुओं का उत्पादन करता है, विदेशी और परजीवी उन्हें हड़प लेते हैं और मजदूर खाली हाथ रह जाता है। इस धरती पर सत्य और न्याय कहाँ है?”   

मातीगारी सत्य और न्याय की खोज में पूरे देश में घूमता रहा। कई बार वह निराश हुआ, लेकिन फिर उसने सोचा कि “सत्य का सच्चा साधक कभी आशा नहीं खोता। वास्तविक न्याय का सच्चा साधक कभी नहीं थकता। एक किसान सिर्फ एक फसल की विफलता के कारण बीज बोना बन्द नहीं करता। सफलता एक बार फिर कोशिश करने और प्रयास करने से पैदा होती है। सत्य की तलाश करनी चाहिए।” फिर वह और अधिक इच्छा शक्ति के साथ सत्य और न्याय की खोज में निकल पड़ा। लेकिन उसे सत्य और न्याय कहीं नहीं मिला। वह और भी ज्यादा बेचैन हो गया। अन्त में मातीगारी को यकीन हो गया कि “दुश्मन को सिर्फ हथियारों से पराजित नहीं किया जा सकता, लेकिन केवल शब्दों से भी दुश्मन को हराना कठिन है। पहली बात है–– शब्द सही होने चाहिए और दूसरी बात–– इन शब्दों को हथियार की ताकत से मजबूत किया जाना चाहिए।”  यहाँ न्गुगी बताते हैं कि आजादी के लिए विचारों के साथ–साथ हथियारों से भी लैस होना जरूरी है। उपन्यास के अन्त में मातीगारी ने सत्य और न्याय के लिए, अपने लोगों की आजादी के लिए अपने पीठ पर बँधी शान्ति की पेटी को उतार कर फेंक दिया।

न्गुगी अपने इस उपन्यास के जरिये राजनीतिक, न्यायिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं में हुए औपनिवेशिक बदलावों पर सवाल करते हैं। यहाँ तक कि औपनिवेशिक गुलामी के लक्षणों और उससे पड़ने वाले प्रभावों पर भी सवाल उठाते हैं। मातीगारी उपन्यास एक सवालों की किताब है, जिसमें न्गुगी अपने नायक मातीगारी के जरिये सवाल करते हैं। यह उपन्यास हमें अपने देश के लोगों की मनोस्थिति समझने में भी मदद करता है। किस तरह से औपनिवेशिक शासन खत्म होने के बाद भी उसकी संस्कृति, शिक्षाएँ, मूल्य–मान्यताएँ, गुलामी के विचार समाज में यथावत बने रहते हैं। औपनिवेशिक, नवऔपनिवेशिक विचार दिलो–दिमाग में रच–बस जाता है। हम न चाहते हुए भी सालों तक औपनिवेशिक विचारों से जकड़े रहते हैं। यह उपन्यास औपनिवेशिक और नवऔपनिवेशिक विचारों से लड़ने में हमारी मदद करता है।

पुस्तक  :  मातीगारी

लेखक  :  न्गुगी वा थ्योंगो

अनुवाद :  राकेश वत्स

प्रकाशक :  गार्गी प्रकाशन

                                  1/4649/45बी, गली नं– 4,

                                   न्यू मॉडर्न शाहदरा, दिल्ली––110032

कीमत  :  110 रुपये

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