मिर्ज़ा ग़ालिब : फिर मुझे दीद–ए–तर याद आया
मिर्ज़ा ग़ालिब का ख़्ायाल आते ही हाथ सलाम के लिए उठता है और सिर अदब से झुक जाता है। उन्हें पढ़ते और गुनते हुए हर्फ़ की रौशनी से दिल–दिमाग़ रौशन हो उठता है। शब्द–लोक का जादू धीरे–धीरे खुलता जाता है और हम जादुई असर में बंधे हुए शब्दों का मोल और महत्व समझ पाते हैं। लोक प्रचलित है कि शब्द महिमामयी होते हैं। वो आपको बना सकते हैं और मिटा भी सकते हैं। शब्द–महिमा कबीर भी गाते हैं––
साधो शब्द साधना कीजै
जो ही शब्दते प्रगट भये सब सोई शब्द गहि लीजै
शब्द गुरु शब्द सुन सिख भये शब्द सो बिरला बूझै
शब्द–साधना कोई बच्चों का खेल नहीं है। उन्हें मानीख़्ोज़ बनाने के लिए, अपने अनुभवों से मालामाल करने के लिए आँसू और रक्त की समिधा चढ़ानी पड़ती है। देह को गलाना पड़ता है और आत्मा को जलाना पड़ता है। मिर्ज़ा ग़ालिब एक–एक हर्फ़ के लिए अपने को ज़िन्दगी की दहकती हुई भट्ठी से गुज़ारते हैं, तब कहीं जाकर उनके अशआरों में हर्फ़ नगीनों की तरह चमकते हैं। क्या मज़ाल कोई उनके इन्तख़ाब पर सवाल उठा सके, कोई उन पर उँगली रख सके। मिर्ज़ा को अपने हर्फ़ पर गुमान है। वह लिखते भी हैं कि––
लिखता हूँ ‘असद’ सोज़िशे दिल से सुख़्ाने गर्म
ता रख न सके कोई मेरे हर्फ़ पर अंगुश्त।
असहनीय दर्द, यातना, अपमान और घोर आर्थिक विपत्तियों के बीच भी शब्द और कविता के प्रति उनका लगाव और समर्पण कभी कम नहीं हुआ। बाहर वह ज़िन्दगी की मुश्किलों से जूझते रहे और भीतर ख़्ाुद से लड़ते, लहूलुहान होते हुए हर्फ़ और अदब को अतल गहराई और अनछुई ऊँचाई देते रहे। दिन–ब–दिन अदब से यह लगाव बढ़ता चला गया और उन्माद की सारी हदें पार कर गया। हद से पार होना ही शिखर छूना है और नि:सन्देह मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू अदब और विश्व साहित्य के शिखर व्यक्तित्व हैं। उर्दू साहित्य के मर्मज्ञ अयोध्या प्रसाद गोयलीय बिल्कुल ठीक फरमाते हैं कि–– “महाभारत और रामायण पढ़े बग़ैर जैसे हिन्दू धर्म पर कुछ नहीं बोला जा सकता, वैसे ही ग़ालिब का अध्ययन किये बिना, बज़्मे–अदब में मुँह नहीं खोला जा सकता।” उर्दू–फ़ारसी अदब की अन्तरआत्मा में उतरने के लिए ग़ालिब के जीवन, आत्मसंघर्ष और सर्जनात्मकता का अध्ययन–मनन ज़रूरी है।
मिर्ज़ा अपना सुख–दु:ख, राग–रंग, हँसी–आँसू, योग–वियोग, जीवन–मृत्यु और विकट आत्मसंघर्ष की बातें किसी से कहते नहीं हैं, चुपचाप अपनी रचनाओं में, ख़तो–कितावत में दर्ज करते चलते हैं। बहार और ख़्िाजाँ के जितने रंग उनके शेरों में बिखरे हुए हैं, शायद उतने रंग किसी चित्रकार के पास भी नहीं हैं। अली सरदार जाफ़री लिखते हैं कि–– “ग़ालिब ने एक फ़ारसी शेर में कहा है कि ख़्िाजाँ और बहार की इससे ज़्यादा कोई हक़ीक़त नहीं है कि एक पैमान–ए–रंग मुसलसल गर्दिश कर रहा है, उसका एक रंग बहार है, और दूसरा ख़्िाजाँ।”(1) वसन्त और पतझड़ कुदरत के ही दो रंग–रूप हैं। सृष्टि इन्हीं दो रंगों की मुसलसल आवाजाही और कार्रवाई है। इनका कोई आरंभ और अन्त नहीं है। कुदरत की ही मानिन्द ज़िन्दगी भी इन्हीं दो रंगों के साये में रसलीन और ग़मगीन होती है। कुछ शेर मुलाहिज़ा कीजिए,
मत पूछ, कि क्या हाल है मेरा, तिरे पीछे
तू देख, कि क्या रंग है तेरा, मिरे आगे
’ ’ ’
फिर देखिए, अन्दाज़–ए–गुल अफ़शानि–ए–गुफ़्तार1
रख दे कोई पैमाना:–ए–सहबा2 मेरे आगे
(1– फूल बरसाने वाली बातें 2– मदिरापात्र)
मिर्ज़ा की ज़िन्दगी में फूल तो कम बरसे हैं, अलबत्ता रेत की आँधियाँ चली हैं और काँटे इए कदर चुभे हैं कि आत्मा तक छलनी हो चुकी है। वह अपनी तबाहहाली पर लिखते हैं कि रक्त के समन्दर में दर्द की लहरें उठ रही हैं, उठने दो, क्या–क्या अभी आगे होगा, देखने दो––
है मौजज़न1 इक क़ुल्ज़ुमे ख़्ाूँ2 काश यही हो
आता है अभी देखिए क्या–क्या मेरे आगे
(1– लहरें मारता हुआ 2– रक्त का समन्दर)
देखने की बात यह भी है कि आत्मपीड़ा की अभिव्यक्ति ग़ालिब इतनी संजीदगी, ईमानदारी, सच्चाई और गहराई केे साथ करते हैं कि वह युग की पीड़ा हो जाती है। सीमित से असीमित हो जाती है। ग़रीबी, मोहताज़ी, बेइज़्ज़ती और परनिर्भरता के बावजूद ग़ालिब अपनी पीड़ा को सामाजिक पीड़ा से जोड़ कर उसे नयी काव्यात्मक ऊँचाई और अद्भुत अर्थ–सौन्दर्य देते हैं। पीड़ा से वह बेचैन और बहुत व्यथित होते हैं, टूटते भी हैं। अपने पर तंज़ करते हुए ज़माने को आईना भी दिखाते हैं––
हुआ है शह1 का मुसाहिब2 फिरे है इतराता
वगरन: शह्र में ग़ालिब की आबरू क्या है
(1– शाह, बादशाह 2– सभासद)
और यह भी कि––
काबे किस मुँह से जाओगे ग़ालिब
शर्म तुमको मगर नहीं आती
शर्म उन्हें आनी चाहिए जो फ़क़त सौदागर हैं। जो सिर्फ़ बेचना और ख़रीदना जानते हैं। दिल, ज़मीन, कुदरत, कला, साहित्य और इनसान भी उनके लिए सोना उगलने वाली मशीन और ऐशो–आराम का साधन भर हैं। दोस्ती, दया, करुणा, नैतिकता और प्रेम का कोई मोल नहीं। मोल है तो सत्ता, दौलत, ताक़त और एकतरफ़ा अधिकार का। मिर्ज़ा ग़ालिब दुनिया के दस्तूर को, धन–सम्पदा की शक्ति को, सत्ता की बर्बरता को, नकली–असली तमाशे को ख़्ाूब समझते हैं और अपनी दर्द भरी अनुभूति इस शेर में बयाँ करते हैं कि––
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ग़ालिब
तमाशा–ए–अहले–करम1 देखते हैं
(1– दुनिया का तमाशा)
तमाशाई दुनिया में दोस्ती का दंभ और दिखावा करने वाले दोस्तों के बारे में ग़ालिब लिखते हैं कि––
ये कहाँ की दोस्ती है बने हैं दोस्त नासेह1
कोई चारासाज़2 होता कोई ग़मगुसार3 होता
(1– उपदेशक 2– चिकित्सक 3– दु:ख का साथी)
सुख–दु:ख के सच्चे और समझदार साथी के लिए वह हमेशा तरसते रहे। काव्य मर्मज्ञ और रसिक आलोचक का इन्तज़ार उन्हें हमेशा रहा। अली सरदार जाफ़री लिखते हंै कि–– “––– मीर ने ग़ालिब की प्रारंभिक शायरी देख कर कहा था कि कोई योग्य उस्ताद मिल गया तो अच्छा शायर बन जाएगा नहीं तो निरर्थक बकने लगेगा।”(2) मीर की भविष्यवाणी सच हुई। ग़ालिब अच्छे ही नहीं, बल्कि उर्दू–फ़ारसी के सर्वोत्तम युगप्रवर्तक शायर बने। लेकिन निरर्थक बकने वालों ने उन्हें हमेशा अपमानित किया। उन्हें क़र्ज़ देने वालों ने बेहद परेशान किया। अली सरदार जाफ़री ने उन मुश्किल दिनों के बारे में लिखा है कि–– ग़ालिब को, “ऋणदाताओं की नालिश और डिग्रियों के डर से घर में छिप कर बैठना पड़ा और किसी शत्रु के षड्यंत्र से जुए, (शतरंज और चैसर) की लत में कै़दख़ाने का अपमान सहन करना पड़ा। मुग़ल दरबार में, जिसकी बहार लुट चुकी थी, वह आदर–पद भी न मिला जो निम्नतर कोटि के कवियों को प्राप्त हो रहा था और आयु के अन्तिम चरण में एक बौद्धिक वाद–विवाद के अपराध में बरसों माँ–बहन की गालियाँ खानी पड़ीं।”(3) अपनी बेकली और वेदना को ग़ालिब एक क़ता में व्यक्त करते हैं––
अय नवासाज़–ए–तमाशा1, सर ब कफ2़ जलता हूँ मैं
इक तरफ़ जलता है दिल, और इक तरफ़ जलता हूँ मैं
है तमाशा गाह–ए–सोज़–ए–ताज:3, हर यक अज़्व–ए–तन4
ज्यों चराग़ान–ए–दिवाली5 सफ़ ब सफ़6 जलता हूँ
(1– तमाशे को सजानेवाला 2– सर हथेली पर लिए हुए 3– नयी तपन का क्रीड़ास्थल 4– शरीर का हर अंग 5– दिवाली के दीप 6– पंक्ति के बाद पंक्ति)
अय तमाशा सजानेवाले, सर हथेली पर लिए हुए, जलता हूँ मैं, दिल भी जलता है, मैं भी जलता हूँ। मेरा वजूद जलन और तपन का केन्द्र बन चुका है। जैसे दीवाली का दीप पंक्ति दर पंक्ति जलता है, वैसे ही मेरा अंग–अंग जलता है। जलते हुए अस्तित्व का ऐसा हृदयग्राही और अद्भुत चित्रण पढ़ने–सुनने वाले को दाह और ताप की घनी अनुभूतियों से भर देता है, और वे आग के दरिया में डूबने–उतराने लगते हैं। रचयिता और भोक्ता के बीच का अन्तर मिट जाता है। दोनों एकमेक हो जाते हैं। एक ही भावतरंग में दोनों संचरित होने लगते हैं। इसे ही गुणीजन साधारणीकरण कहते हैं।
साधारणीकरण की प्रक्रिया को ग़ालिब ने अपनी जटिलता के बावजूद उर्दू साहित्य में सम्भव किया और उसे कलात्मक रंग और तेवर दिया। अपनी कल्पना, दार्शनिकता, और प्रयोगों की नवीनता से उन्हांेने उर्दू साहित्य को समृद्ध किया और उसे शिखर तक पहुँचाया। कल्पना और यथार्थ के वह बेजोड़ कवि हैं। प्रोफ़ेसर सैयद एहतेशाम हुसैन बज़ा फ़रमाते हैं कि–– “केवल कल्पनाओं से हटकर वे जीवन की उन समस्याओं की ओर आए, जिनका उन्हें वास्तविक अनुभव था। बहुत थोड़े समय में उनकी काव्य–रचना में दक्षता पैदा हो गयी। उनकी उपमाएँ और उत्प्रेक्षाएँ नयी होती थीं, उनकी कल्पना शक्ति इतनी प्रबल थी कि वो बेजोड़ वस्तुओं और अनमिल विषयों में भी समानता और सम्बन्ध ढूँढ लेते थे। जितना समय बीतता गया, उतना ही ग़ालिब के काव्य में दार्शनिक गहराई और कलात्मक सुन्दरता बढ़ती गयी।”(4)
कला की गहराई और सुन्दरता अपनी क़ीमत वसूल करती है। वह उस गुप्त धन की तरह है, जो बहुत मशक्कत और जानमारी के बाद ही मिलती है। ग़ालिब को भी यह धन पारा–पारा हो कर ही मिला था। और दु:ख भी कैसा? यह महाकवि के शब्दों में ही सुनिए, “पाँच बरस का था तो अब्बा गुज़र गये और जब नौ बरस का हुआ तो चाचा भी नहीं रहे। उनकी जागीर के बदले, मेरे और मेरे क़रीबी रिश्तेदारों के लिए, नवाब अहमद बख़्श ख़्ााँ के साथ दस हज़ार रुपये सालाना जागीर की व्यवस्था हुई लेकिन वह नहीं मिली। सिर्फ़ तीन हज़ार रुपये सालाना, जिसमें से मेरा निजी हिस्सा सिर्फ़ साढ़े सात सौ रुपये वार्षिक, मिला। मैंने अंग्रेज़ी सरकार से इस ग़बन के बारे में अरज़ी लगाई। रेज़ीडेण्ट बहादुर बरख़्ाास्त हो गये और सेक्रेटरी गवर्नमेण्ट हलाक़। दिल्ली के बादशाह ने पचास रुपये माहवार का वज़ीफ़ बाँधा, मगर उसके उत्तराधिकारी इस फ़ैसले के दो बरस बाद गुज़र गये। बादशाह वाजिद अली शाह ने पाँच सौ रुपया साल तय किया था मगर वे भी दो ही साल में मर गये, यानी मेरे नसीब में यही सब बँधा है।”(5)
साधारण दिल–जिगर का आदमी तो दु:ख के हल्के झटके से झटक जाता है, और दु:ख के झंझावातों मेंे तो आपा ही खो बैठता है। लेकिन ग़ालिब ने दु:ख के तमाम प्रहारों और अपमान के आघातों को झेला। तार–तार हुए लेकिन आपा नहीं खोया। वह डटे रहे और अन्याय और अपमान को उन्होंने शब्द–शक्ति, काव्य–कौशल और अद्वितीय सौन्दर्य में रूपान्तरित कर दिया। दु:ख से आँखें चार करने वाला शायर ही लिख सकता है कि––
रात दिन गर्दिश1 में हैं सात आसमाँ
हो रहेगा कुछ न कुछ, घबराएँ क्या (1– घूमना, चक्कर)
दु:ख बराबर हमलावर रहा लेकिन उन्होंने उसकी नुमाइश कभी नहीं की। सहानुभूति पाने के लिए जो दु:ख का प्रदर्शन करते हैं, उनका हाल तो वह अपने से भी बुरा पाते हैं। एक शेर में ग़ालिब कहते हैं कि–– अपनी बरबादी पर दाद पाने की तमन्ना रखने वाले तो मुझसे भी ज़्यादा अत्याचार की तलवार से घायल हैं।
हुई जिनसे तवक़्क़ो1 ख़्ास्तगी2 की दाद3 पाने की
वो हमसे ज़ियादा ख़्ास्ता–ए–तेग़े4 सितम निकले
(1– आशा 2– बिखराव 3– प्रशंसा 4– अत्याचार की तलवार से घायल)
दु:ख की चोट और उसके जानलेवा असर को वह इतने प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करते हैं कि वह ‘तीरे नीमकश’ की तरह जिगर में धँसा रह जाता है, और दर्द की लहरें वजूद को तहस–नहस करती रहती हैं। उनका अन्दाज़–ए–बयाँ देखिए––
दिल नहीं, तुझको दिखाता वर्ना दाग़ों की बहार
इस चरांगाँ1 का करूँ क्या, कारफ़र्मा2 जल गया
(1– रौशनी 2– प्रबन्धक)
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ब–नीम ग़म्ज़ा1 अदा कर हके़ वदीअते नाज़2
नियामे पर्दा–ए–ज़ख़्मे जिगर3 से ख़्ांजर खेंच
(1– आँखों का आधा संकेत 2– गर्व में लीन 3– कवच में छुपी कटार की भाँति दिल का घाव)
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हुआ जब ग़म से यों बेहिस1, तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से, तो ज़ानू2 पर धरा होता
(1– सुन्न 2– घुटना)
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इब्न–ए–मरियम1 हुआ करे कोई
मेरे दु:ख की दवा करे कोई (1– मरियम का बेटा ईसा)
महाकवि के दु:खों की दवा नहीं हो सकी। चारागर बेअसर रहे। बीमारी और परवशता अपना निर्मम खेल खेलती रही। मुंशी हरगोपाल ‘तफ़्ता’ को उन्होंने पत्र लिखा, “मुझको देखो, न आज़ाद हूँ, न मुक़य्यद, न रंजूर हँू, न तन्दुरुस्त, न ख़्ाुश हूँ न नाख़्ाुश, न मुर्दा हूँ न ज़िन्दा। जिए जाता हूँ, बातें किए जाता हूँ, रोटी रोज़ खाता हूँ, शराब गाह–ब–गाह पिए जाता हूँ। जब मौत आएगी मर भी रहँूगा। न शुक्र है, न शिकायत, जो तक़रीर है बस बीते–हिकायत है।”(6)
नवाब अलाउद्दीन ख़्ााँ को लिखे ख़्ात में अपना दु:ख बयाँ करते हैं कि–– “मियाँ! बड़ी मुसीबत में हूँ। महलसरा की दीवारें गिर गयीं, पाखाना ढह गया, छतें टपक रही हैं। तुम्हारी फूफी कहती है, हाय ! दबी हाय ! मरी। दीवान ख़्ााने का हाल महलसरा से बदतर है। मैं मरने से नहीं डरता, लेकिन फ़ुकदाने–राहत से घबरा गया हूँ। अब्र दो घण्टे बरसे तो छत चार घण्टे बरसती है।”(7)
अपने कठोर जीवन अनुभवों से ग़ालिब समझ चुके थे कि दर्द को दर्द ही काटता है और उसका हद से गुज़र जाना ही दवा हो जाना है। हद से बेहद होना ही जीवन–रहस्य और काव्य–सत्य को पाना है। भौतिक के साथ आध्यात्मिक अनुभूति को वह बहुत दिलकश और आध्यात्मिक ढंग से कहते हैं––
इशरत–ए–क़तरा1 है दरिया में फ़ना2 हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
(1– बूँद का ऐश्वर्य 2– विलीन)
दरिया में विलीन हो जाना बूँद का महत्व और ऐश्वर्य है जबकि दर्द का चरम तक पहुँचना ही दवा है। व्यक्ति समाज की इकाई है और आनन्द का प्रस्थान बिन्दु दर्द है। ग़ालिब अपने एक और शेर में कहते हैं कि––
रंज से ख़्ाूगर1 हुआ इनसाँ तो मिट जाता है रंज
मुशकिलें इतनी पड़ीं मुझ पर कि आसाँ हो गयीं (1– अभ्यस्त)
ग़ालिब के काव्य और जीवन में हम विविध रंग देखते हैं। इन रंगों को खुलासा करते हुए सैयद एहतेशाम हुसैन मार्के की बात लिखते हैं कि–– “इसमें सन्देह नहीं कि वे सर से पाँव तक सामन्तवादी सभ्यता के रंग मेंे डूबे हुए थे और उसकी अच्छाइयाँ और बुराइयाँ सब उनमें भी मौजूद थीं, लेकिन उनकी आँखें तो खुली हुई थीं और निरीक्षण शक्ति से काम लेकर वे जीवन से ऐसी सच्चाइयाँ ढूँढ निकालते थे, जो दूसरों को नहीं दीख पड़ती थीं। बदलती हुई दुनिया को देखकर उन्हें यह विश्वास हो गया था कि यह समय बदल जाएगा, परन्तु इतिहास का कोई दार्शनिक दृष्टिकोण न होने के कारण वे भविष्य निर्माण के बारे में वे कुछ नहीं बता सकते थे। वे स्वयं उस पतनशील सभ्यता के एक प्रतीक थे और अत्यन्त सुन्दरता रखने के बावजूद निराशा और भय की एक हल्की–सी घटा उनकी कविताओं पर छाई हुई थी। उनकी रचनाओं में नैराश्य की भावना कम नहीं है, परन्तु वे इस बात का प्रचार करते थे कि जीवन से उसका सारा रस निचोड़ लेना चाहिए।”(8)
मिर्ज़ा आजीवन कोशिश करते रहे कि जीवन की सरसता बनी रहे। अमीरी का ठाट–बाट और राग–रंग चलता रहे, लेकिन आर्थिक कठिनाइयाँ और तत्कालीन सामाजिक–राजनीतिक परिस्थितियाँ उन्हें भीतर ही भीतर तोड़ती रहींय पस्त करती रहीं। वह शिकवों से भरे रहे पर जीवन–रस की लालसा बनी रही।
पुर1 हूँ मैं शिकवे से यूँ, राग से जैसे बाजा
इक ज़रा छेड़िए, फिर देखिए, क्या होता है (1– भरा हुआ)
होना क्या था, भला चाहा था, पर बुरा हुआय
ख़्ाूब था, पहले से होते जो हम अपने बदख़्वाह1
कि भला चाहते हैं और बुरा होता है (1– बुरा चाहने वाला)
उनकी जागीरें छीन ली गयीं। पेंशन के लिए सरकारी महकमों की ख़्ााक छानते रहे। इधर से उधर भटकते रहे, अर्जियाँ लिखते रहे। अपमानित और उत्पीड़ित होते रहे। सबसे दुखदायी बात यह थी कि उन्हें विवश होकर अमीरों और अंग्रेज़ हुक्मरानो की झूठी तारीफ़ें करनी पड़ीं। क़सीदे लिखने पड़े। अपनी इस लाचारी पर ग़ालिब लिखते हैं कि––
कोई उम्मीद बर1 नहीं आती (1– पूर्ण)
कोई सूरत नज़र नहीं आती
आगे आती थी हाले दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
ग़ालिब की यह निराशा उनके युग की भी निराशा है। मुग़ल काल का रौशन चिराग़ बुझने के क़रीब था और अंगे्रज़ी साम्राज्य के ज़ुल्म बढ़ते और असहनीय होते जा रहे थे। 1857 के विद्रोह से मिर्ज़ा ग़ालिब भी अछूते नहीं रहे। बहादुर शाह ज़फ़र के बेटों का क़़त्ल कर दिया गया और उन्हंे क़ैद कर रंगून भेज दिया गया, और वहीं, असहनीय दर्द और तिरस्कार ने उनकी जान ले ली। ग़ालिब को भी उनका काव्य गुरु होने का ख़्ाामियाज़ा भुगतना पड़ा। अंग्रेज़ सरकार उन्हें भी विद्रोही और बाग़ी मानने लगी। जबकि दूर–दूर तक ऐसा कोई मामला नहीं था। राजनीति से मिर्ज़ा का वास्ता कभी नहीं रहा। बस वह सन्देह का शिकार हुए। उनकी पेंशन बन्द कर दी गयी। मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। अली सरदार ज़ाफ़री ने मिर्ज़ा की मनोदशा का मर्मस्पर्शी काव्यात्मक विवरण देते हुए लिखा है कि–– “––– दिल्ली आँखों के सामने उजड़ी, बन्धु–बाँधव आँखों के सामने क़त्ल हुए, समकालीन कवि और विद्वान फ़ांसियों पर चढ़ा दिए गये और काले पानी भेज दिए गये और ग़ालिब के लिए ‘मातम–ए–यक–शहर–ए–आरज़ू’ (कामना नगरी का शोक) के अतिरिक्त कुछ बाक़ी नहीं रह गया। इन हालात में वह यही कहने को विवश था –
न गुल–ए–नग़्म:1 हूँ न पर्द:–ए–साज़
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़़(9) (1– फूलों की सरसराहट)
ग़ालिब शिकस्ता ज़िन्दगी की आवाज़ सुनते रहे और उसकी गूँज से अपने गद्य और पद्य में अमर संगीत रचते रहे। यह संगीत रहती दुनिया तक क़ायम रहेगा और चित्रकारों, मूर्तिकारों, संगीतकारों, गायकों, वादकों, पाठकों, लेखकों, आलोचकों और श्रोताओं को अपनी ओर खींचता रहेगा। इस रचाव–बनाव में उन्हें कोई बन्धन स्वीकार नहीं था। उन्होंने धार्मिक और सामाजिक पाबंदियों को कभी स्वीकार नहीं किया।(9)
उन्होंने न नमाज पढ़ी, न रोज़े रखे। न कोई दिखावा किया, न धार्मिक कर्मकाण्ड किया। वह स्वतंत्र और उन्नत चेतना के रचनाकार थे। जो कुछ भी किया, खुलकर किया। शराब पीते रहे, लेकिन संयम नहीं खोया। हर धर्म के माननेवालों से बराबरी का व्यवहार किया। दोस्ती की। किसी से कोई दुश्मनी नहीं की। धर्म और भाषा कभी उनके आड़े नहीं आई। अंग्रेज़ तक उनके दोस्त रहे। एक शेर में मिर्ज़ा का स्वभाव प्रकट होता है––
आज़ाद रौ हूँ और मेरा मसलक है सुलहे–कुल
हरगिज़ कभी किसी से अदावत नहीं मुझे
फ़िराक़ साहब ग़ालिब के स्वभाव के बारे में लिखते हैं कि–– “इसमें दो बातें उल्लेखनीय हैं – उनका ‘आज़ाद रौ’ यानी स्वाधीन प्रकृति का होना और दूसरा कभी किसी से संघर्ष में न आना। ––– इस स्वतंत्र प्रवृत्ति के साथ ही वे विद्रोही भावना से भी दूर थे। ––– उनके हृदय में शिया–सुन्नी, हिन्दू–मुसलमान किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था, ––– राजनीति में भी उन्हें किसी से विरोध न था। वे बहादुरशाह जफ़र और वाजिद अली शाह के साथ ही अंग्रेज़ हाकिमों की प्रशंसा में भी क़सीदे कहते थे और अपने इस कृतित्व को उन्होंने कभी छुपाया नहीं। उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में कभी क़दम ही नहीं बढाया। उनका मानसिक संसार सबसे अलग था, जहाँ किसी प्रकार के सामाजिक सिद्धान्त लागू नहीं किये जा सकते।”(10)
इसमें दो राय नहीं है कि उनमें व्यक्तिवाद बहुत प्रबल था। प्रखर व्यक्तिवाद ने ही उन्हें अहंकारी और स्वाभिमानी बनाया था। उन्हें अपने उच्चवंशीय राजकुल पर बहुत अभिमान रहा। वह ईरानी सलजूक़ी राजवंश से सम्बन्ध रखते थे। ईरानी संस्कार और फ़ारसी ज़बान के प्रति वह आजीवन समर्पित रहे। सलजूक़ियों के पतन के बाद उनके पितामह को समरकन्द छोड़ना पड़ा। शाह आलम के हिन्दुस्तान में उन्हें आसरा तो मिला पर उचित सम्मान नहीं मिला। पितामह ने बहुत संघर्ष किया। शाह आलम के पतन के बाद दिल्ली उजड़ने लगी। सामन्तों की जागीरें छीन ली गयीं। ग़ालिब के पिता अब्दुल्ला बेग ने लखनऊ में नवाब आसिफ़़ुद्दौला के दरबार में क़िस्मत आज़माई। हैदराबाद में निज़ाम अली के दरबारी हुए। हैदराबाद छूटा तो आगरा लौटे और अलवर में राजा बख़्तावर सिंह की नौकरी बजाई और एक युद्ध में मारे गये।
मिर्ज़ा की माता उमराव बेगम भी उच्च वंशीय थीं। राजसी वैभव और ठाठ–बाट के प्रति ग़ालिब का मोह स्वाभाविक था, और यह मोह कभी कम नहीं हुआ। मजबूरियों और विपत्तियों ने उनसे वह सब कुछ छीन लिया जो उन्हें बहुत प्रिय था। पिता के मरने के बाद उनका लालन–पालन चाचा नसिरुल्ला बेग की देख–रेख में हुआ। नसिरुल्ला बेग की मौत के बाद अग्रेज़ सरकार ने उनकी जागीरें और सम्पत्तियाँ जप्त कर लीं। बदले में कुछ पेंशन निर्धारित की, जो बाद में बन्द कर दिया गया। उसके बाद अर्ज़ियों और भागदौड़ में मिर्ज़ा का जीवन कठिन से कठिनतर होता चला गया। विपरीत परिस्थितियों में भी ग़ालिब काव्य–साधना करते रहे। उनकी कृतियों ने फ़ारसी और उर्दू साहित्य को नयी चमक और असर से भर दिया। अभिव्यक्ति का अछूता अन्दाज़ और कथ्य और शिल्प की मनमोहक कारीगरी ने ग़ालिब को शायर–ए–आज़म बना दिया। फ़िराक़ साहब ने लिखा है कि “उर्दू के काव्य–गगन में लाखों सितारे चमक रहे हैं, लेकिन इनमें से सबकी नहीं तो अक्सर की रौशनी को मन्द कर देनेवाला चाँद सिर्फ़ एक है और वह है ‘गा़लिब”’।(11)
कविताओं के साथ उनकी चिटिठ्याँ और गद्य रचनाएँ भी साहित्य के इतिहास में बहुत ऊँचा स्थान रखती हैं। उन्हें दबीर–उल–मुल्क और नज़्म–उद–दौला के ख़्िाताब से नवाज़ा गया। वह शाही इतिहासविद भी थे। उन्होंने मुग़ल वंश के इतिहास का एक भाग फ़ारसी में ‘मेहरे–नीमरोज़’ के नाम से लिखा। मुश्किलों ने इतिहास का दूसरा भाग लिखने का मौक़ा ही नहीं दिया। आर्थिक मोर्चे पर वह मात खाते रहे। जुए की लत और शराबनोशी ने उन्हें कर्ज़ के जाल में बुरी तरह फँसा दिया। कर्ज़ देने वालों ने उन पर नालिश कर दी और उन्हें अदालत में पेश होना पड़ा। यह तो उनकी विनोदप्रियता और हाज़िरजवाबी का चमत्कार है जो उन्हें लड़ने का हौसला देती रही है। फ़िराक़ साहब ने अपनी किताब में यह क़िस्सा बयान किया है, “एक बार मिर्ज़ा पर बहुत क़र्ज़ हो गया। महाजनों ने नालिश कर दी तो अदालत में शेर पढ़ा––
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन
मुफ़्ती सद्रुद्दीन की अदालत थी। सुनकर हँस पड़े और महाजनों को अपने पास से रुपया दे दिया।”(12)
अपने ऊपर हँसने का माद्दा, घोर उपेक्षा और निन्दा के बीच शान्त रहने की अदा मिर्ज़ा की सदाशयता, साहस और विलक्षणता का ही प्रमाण हैं। यह ग़ालिब ही कह सकते हैं कि––
न सताइश1 की तमन्ना न सिले2 की परवा
न सही गर मेरे अशआर में मानी न सही
(1– प्रशंसा 2– प्रतिफल)
’ ’ ’
कुछ तो पढ़िए, कि लोग कहते हैं
आज ‘ग़ालिब’ ग़ज़लसरा1 न हुआ (1– ग़ज़ल पढ़ने वाला)
ग़ालिब का व्यक्तित्व इतना विशाल है कि उसमें तुच्छ छींटाकशी और ओछी बातों के लिए कोई जगह नहीं बचती। उनका बड़प्पन है कि वह अपने को बुरा कहने वालों का भी बुरा नहीं चाहते। चुप रहते हैं और अपने में मगन रहते हैं। यगाना चंगेजी़ ने तो उनका मज़ाक उड़ाते हुए लिखा कि––
तोता भी हाफ़िज़े कलाम–ए–ग़ालिब
शाबाश अरे वाह रे जंगली बुद्धू
क़ुरआन या वेद में क्या रक्खा है
ग़ालिब का दीवान पढ़े जा मिट्ठू
मिर्ज़ा ईर्ष्या, द्वेष और अपमान का विष पी जाते हैं और इतना ही कहते हैं कि––
ग़ालिब बुरा न मान, जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
अच्छे और बुरे की लड़ाई आदिकाल से चली आ रही है। इतिहास साक्षी है कि देर–सबेर अच्छा ही जीतता है, और जनता उसे ही सिर–माथे पर बिठाती हैय और यह भी कि–– अच्छा यदि बुरा हो गया तो उसे धूल में भी मिला देती है। मिर्ज़ा को जनता ने अपने हृदय और कण्ठ में बसा लिया। आज भी सामान्य जन उनकी पंक्तियों को गाहे–बगाहे मुहावरे की तरह इस्तेमाल करता है। मसलन, ‘ये न थी हमारी क़िस्मत’, ‘कोई सूरत नज़र नहीं आती’, ‘आख़िर इस दर्द की दवा क्या है’, ‘शर्म तुमको मगर नहीं आती’, आदि। प्रगतिशील लेखक–अनुवादक शकील सिद्दीक़ी उनकी लोकप्रियता और व्यापकता पर लिखते हैं कि–– “––– ग़ालिब की लोकख़्याति का सच है कि जितनी बहसें उन्हें लेकर हुर्इं और जितनी व्याख्याएँ उनकी शायरी की लिखी गयीं, दूसरों की नहीं हो पायीं। विराट हिन्दी क्षेत्र में तथा बांग्ला देश, पाकिस्तान सहित उर्दू की समूची अन्तर्राष्ट्रीय दुनिया में जितनी खपत ग़ालिब के दीवान की है, किसी दूसरी काव्य–पुस्तक की नहीं। दूसरी भाषाओं में रूपान्तरण की उन जैसी व्यापकता भी कम ही कवियों के हिस्से में आयी।”(13)
मिर्ज़ा ख्याति और बदनामी के बीच नया रास्ता ढूँढते रहे। उनकी ज़िन्दगी वर्तमान और अतीत के बीच की जबर्दस्त रस्साकशी रही है। अतीत उन्हें अपनी ओर खींचता है और वर्तमान अपनी ओर। वह वैभवशाली अतीत की वापसी चाहते हैं, लेकिन वर्तमान की चुनौतियों और सम्भावनाओं को नकारते नहीं हैं। उन्होंने सर सैयद अहमद को प्रेरित किया था कि वह साइंस और तालीम पर ध्यान दें। मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा से जोड़ें और उन्हें धार्मिक जकड़बन्दी से बाहर निकालें। अकबर के आइन (का़नून) की जगह, ब्रिटिश आइन की व्याख्या करें, लोगों को समझाएँ। सर सैयद अहमद ने उनकी मूल्यवान सलाह मानी और 1857 की पहली जंगे–आज़ादी की तबाही के बाद आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी काम किया।
1857 के गदर में ग़ालिब ने भाग नहीं लिया था, लेकिन उसके भयानक परिणामों को देखा और भुगता था। अंग्रेज़ों ने भयंकर तबाही मचाई थी। लूटपाट और क़त्ले आम किया था। वह निरपराध इनसानों और देश की बरबादी से बहुत व्यथित थे। उनके पत्रों से, ग़ज़लों से पता चलता है कि अपने दु:ख के साथ, वह देश के दु:ख में भी शामिल थे। गदर के बाद मुसलमानों को सन्देह से देखा जाने लगा था। उन्हें नाहक परेशान और दण्डित किया जा रहा था। पूछ–ताछ और छान–बीन के सिलसिले में मिर्ज़ा को भी तलब किया गया। उन्हें घूरते हुए अधिकारी ने पूछा कि–– ‘मुसलमान हो?’ मिर्ज़ा ने जवाब दिया, ‘आधा’। हकबकाये अधिकारी ने पूछा, ‘क्या मतलब’? मिर्ज़ा बोले, ‘शराब पीता हूँ, सुअर नहीं खाता!’। हँसते हुए अधिकारी ने उन्हेें जाने दिया।
मिर्ज़ा के जवाब से स्पष्ट है कि वह धार्मिक पाखण्ड और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी हैं। शराब पीने की स्वीकारोक्ति से साफ़ है कि निजी मामले में किसी का भी दखल उन्हें बर्दाश्त नहीं है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अनावश्यक रोक–टोक, चाहे धार्मिक हो या राजनीतिक, उन्हें पसन्द नहीं। वह अपने अहं को छुपाते नहीं हैं, अपनी विशेषताओं का खुलकर प्रदर्शन करते हैं और अपनी कमियों पर भी परदा नहीं डालते हैं। वह ऐसा जीवन चाहते हैं जो हवा की तरह मुक्त हो, जल की तरह प्रवाहमान हो, प्रार्थना की तरह पवित्र और सुगन्ध की तरह धर्मनिरपेक्ष हो। वह किसी से बैर नहीं रखते। न किसी के समर्थन में हैं, न ही किसी के विरुद्ध। उनके दोस्तों में मुख़्तलिफ़ धर्मों के लोग हैं। धर्म जो इनसानियत की पैरवी करे, वह उसके गुण गाते हैं। ‘बनारस’ भी उनके लिए ‘काबा’ का दर्जा रखता है। बनारस पर मुग्ध होकर उन्होंने ‘चिराग़–ए–दैर’ (मन्दिर का दिया) नाम से एक फ़ारसी मसनवी लिखी, जिसमें वह कहते हैं कि–– “बनारस शंख बजाने वालों का आराधना–गृह है। इसे हिन्दुस्तान का ‘काबा’ ही समझिए। ख़्ाुदा बनारस को बुरी नज़र से बचाए, यह उल्लास का भरपूर स्वर्ग है।”(14)
अफ़सोस! ग़ालिब की यह दुआ कुबूल नहीं हुई। ‘उल्लास का स्वर्ग’ मलिन होता रहा। ग़ैरों और अपनों के हाथों लुटता रहा। बुरी नज़र का शिकार होता रहा। लेकिन उसकी प्राचीनता और दिव्यता बनी रही।
ग़ालिब जिसे ‘काबा’ मानते थे, उसे भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘क्वेटा’ बनाने में लगे हुए हैं। हाल ही में ‘काशी विश्वनाथ कोरीडोर’ का भव्य उद्घाटन हुआ। इस कोरीडोर ने बनारस की पुरानी, तंग, मगर जीवन से भरी गलियों को निगल लिया। छोटी–मोटी दुकानों की महक और चहक की जगह कंकरीट के आभिजात्य सनसनाहट ने ले लिया। प्रधानमंत्री की चाहत है कि अब वहाँ जो भी बने वह ‘फाइव स्टार’ हैसियत का ही बने। अब यह जगह स्प्रिचुअल कम, कमर्शियल ज़्यादा हो गयी है। ग़ालिब का एक शेर याद आता है,
लोगों को है ख़्ाुरशीदे जहांताब1 का धोखा
हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग़े निहाँ2 और
(1– सूर्य–किरण 2– छुपा हुआ)
बनारस ग़ालिब को इतना प्रिय था कि एक ख़्ात में उन्होंने मित्र को लिखा कि यदि जवानी में बनारस आया होता तो यहीं का हो जाता। पेंशन के सिलसिले में लगातार हुई यात्राओं में मिर्ज़ा नए अनुभवों से समृद्ध हुए। सन 1826 में वह कलकत्ता पहुँचे थे। वहाँ उन्होंने नयी और पुरानी सभ्यता के बीच के संघर्ष को देखा और समझा था। पूँजीवादी सभ्यता और औद्योगिक क्रान्ति ने प्राचीन उत्पादन सम्बन्धों को तहस–नहस कर दिया था। मशीनों, कल–कारख़्ाानों और पूँजीवादी उत्पादन पद्धति ने भारत के किसानों और कुटीर उद्योगों को गहरा धक्का पहुँचाया था। किसान अपनी ज़मीनें खोते चले गये और कारीगर बेरोज़गार और बदहाल होते चले गये। विश्व बाज़ार में हिन्दुस्तान उत्पादन, बाज़ार और वितरण के शीर्ष पर हुआ करता था। अब वह कहीं नहीं था। भारत अब कच्चे माल की विशाल मँडी में तब्दील हो चुका था, जिस पर पूरी दुनिया आँखें गड़ाये बैठी थी। अंग्रेज़ों की अन्तहीन लूट और अमानवीय शोषण ने भारतीयों को भौतिक और आत्मिक रूप से पस्त हिम्मत और निष्क्रिय कर दिया था। इन्हीं परिस्थितियों में भारतीय साहित्यकारों, कलाकारों, दार्शनिकों, चिन्तकों और विद्रोहियों ने नवजागरण का शंखनाद किया, जिसकी परिणति थी, 1857 का पहला जन–संग्राम।
1857 के जन–संग्राम में मिर्ज़ा ग़ालिब सम्मिलित नहीं थे, लेकिन उसके पीड़ादायी अनुभवों को अन्तरतम से महसूस किया था। उन्हें सिलसिलेवार डायरी में लिखा था। फ़ारसी में लिखी यह छोटी–सी डायरी ‘दस्तम्बु’ नाम से प्रकाशित हुई और विद्वत जगत में पर्याप्त चर्चित और सम्मानित हुई। ‘दस्तम्बु’ यानी पुष्प–गुच्छ। इस किताब में ग़ालिब ने 11 मई 1857 से लेकर 31 जुलाई 1857 तक की घटनाओं का काव्यात्मक और हृदयस्पर्शी चित्रण किया है। ‘दस्तम्बु’ मूल्यवान साहित्यिक दस्तावेज़ होने के साथ ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी है। ‘दस्तम्बु’ में युग की वेदना के और ग़ालिब की व्यक्तिगत पीड़ा के दहकते और पुकारते हुए फूल हैं। मिर्ज़ा का एकाकी स्वर, दीगर स्वरों को अपने में मिलाकर, उसे अपने में ढालकर दर्द और चेतना की आधुनिक ‘सिम्फ़नी’ रचता है। यह ‘सिम्फ़नी’ आज भी गूँज रही है और आने वाली पीढ़ी के अदीबों और फ़नकारों को विभोर कर रही है, आगे का रास्ता दिखा रही है।
सन्दर्भ :–
1– लखनऊ की पाँच रातें, अली सरदार जाफ़री, पेपरबैक्स चैथा संस्करण, 2017, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली, पृष्ठ 108।
2– दीवान–ए–ग़ालिब, अली सरदार जाफ़री, भूमिका, संस्करण, 1996, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ 2।
3– उपर्युक्त, पृष्ठ 11।
4– उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, प्रोफ़ेसर सैयद एहतेशाम हुसैन, पेपरबैक संस्करण 2016, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ 112।
5– ग़ालिब की शायरी, प्रस्तुति : साजन पेशावरी, संस्करण, 1999, मनोज पब्लिकेशन्स, दिल्ली, पृष्ठ 4,5।
6– उर्दू भाषा और साहित्य, फ़िराक़ गोरखपुरी, चतुर्थ संस्करण, 2008, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, पृष्ठ 112, 113।
7– उपर्युक्त, पृष्ठ 113।
8– उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, प्रोफ़ेसर सैयद एहतेशाम हुसैन, पेपरबैक संस्करण 2016, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ 112।
9– दीवान–ए–ग़ालिब, अली सरदार जाफ़री, भूमिका, संस्करण, 1996, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ 11।
10– उर्दू भाषा और साहित्य, फ़िराक़ गोरखपुरी, चतुर्थ संस्करण, 2008, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, पृष्ठ 104, 105।
11– उपर्युक्त, पृष्ठ 100।
12– उपर्युक्त, पृष्ठ 106।
13– पूछते हैं वो कि गा़लिब कौन है?, शकील सिद्दीक़ी, साम्य अंक 25, दिसम्बर 1999, सम्पादक : विजय गुप्त, प्रगतिशील लेखक संघ, अम्बिकापुर, पृष्ठ 120।
14– उर्दू के प्रगतिशील शायर और उनकी शायरी, प्रो– वशिष्ट अनूप, प्रथम संस्करण, 2013, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृष्ठ 59।
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