रूस–चीन धुरी और अमरीकी खेमे के बीच बढ़ती दुश्मनी के भावी परिणाम
फरवरी के अन्तिम सप्ताह में ‘फॉरेन पॉलिसी जरनल’ ने एक लेख छापा–– “वाशिंगटन मस्ट प्रीपेयर फॉर वार विद बोथ रशिया एण्ड चाइना”। इसके लेखक मैथ्यू क्रोएनिग ‘स्कोक्राफ्ट सेन्टर फॉर स्ट्रेटेजी एण्ड सिक्यूरिटी–अटलांटिक काउंसिल’ के लिए काम करते हैं और अमरीका द्वारा रूस और चीन की घेरेबन्दी की वकालत करते हैं। उनका मानना है कि यूक्रेन में बड़े स्तर पर युद्ध होने की स्थिति में इसकी सीमा से लगे सात नाटो देशों पर खतरा बहुत बढ़ जायेगा तथा रूसी हमले के अगले निशाने–– पोलैण्ड, रोमानिया या तमाम बाल्टिक राष्ट्र होंगे। अमरीकी सेना के पूर्व कमाण्डर फिलिप डेविडसन जो भारत–पाक कमाण्ड से हैं, उनका मानना है कि “चीन अगले 6 वर्षों में ताइवान पर कब्जा कर सकता है–––यदि चीन ताइवान पर नियन्त्रण कायम करने में सफल हो जाता है, तो वह अमरीकी नेतृत्व वाली एशियाई व्यवस्था को खतरा पहुँचाकर उसे कमजोर कर देगा।” इन तथ्यों से लगता है कि अमरीकी रणनीतिकार मानते हैं कि जो महत्त्व रूस के लिए यूक्रेन का है, वही महत्त्व चीन के लिए ताइवान का है और दोनांे ही मामलों में अमरीकी प्रतिष्ठा दाँव पर लगी हुई है।
पिछले तीस सालों के शान्तिपूर्ण नव उदारवादी दौर के बाद तथा कोरोना महामारी का आघात झेल रही दुनिया के सामने अमरीकी खेमे के साथ रूस–चीन धुरी की बढ़ती दुश्मनी एक नया खतरा पैदा कर रही है। तीस साल पहले रूस और चीन इस हालत में नहीं थे कि वे अमरीका को कहीं से भी चुनौती दे सकें। लेकिन आज ऐसा नहीं है। वे हर जगह अमरीकी मंसूबों की राह का रोड़ा बन रहे हैं।
साम्राज्यवादी देशों के बीच गँठजोड़ (कोल्यूजन) और तनाव (कन्टेंशन) के सम्बन्ध हमेशा बने रहते हैं। किसी समय इसमें एक पहलू सतह पर होता है, लेकिन दूसरा पहलू गायब नहीं हो जाता। गँठजोड़ का पहलू तब प्रधान हो जाता है, जब वे मिल–बैठकर शान्तिपूर्ण तरीके से अपने अन्तरविरोध हल कर लेते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उसमें धौंसपट्टी या ताकत का इस्तेमाल नहीं होता। लेनिन ने काउत्स्की के अतिसाम्राज्यवाद के सिद्धान्त का जोरदार खण्डन करते हुए कहा था कि “––– पूँजीवादी व्यवस्था की वास्तविकताओं में “अन्तर–साम्राज्यवादी” या “अति साम्राज्यवादी गँठजोड़–– उनका रूप चाहे कुछ भी हो, चाहे एक साम्राज्यवादी गँठजोड़ के खिलाफ दूसरे साम्राज्यवादी गँठजोड़ के रूप में हो या सभी साम्राज्यवादी ताकतों के आम गँठजोड़ के रूप में–– अनिवार्यत: युद्धों के बीच में “युद्ध–विराम” से ज्यादा कुछ भी नहीं होते। शान्तिपूर्ण गँठजोड़ युद्धों के लिए जमीन तैयार करते हैं और स्वयं भी इन्हीं युद्धों में से उत्पन्न होते हैं, एक–दूसरे पर प्रभाव डालते हैं और विश्व अर्थव्यवस्था तथा विश्व राजनीति के भीतर साम्राज्यवादी बन्धनों तथा सम्बन्धों के उसी एक आधार में से संघर्ष के शान्तिपूर्ण तथा अशान्तिपूर्ण रूपों को बारी–बारी से जन्म देते हैं।”
साम्राज्यवादी देश अपनी सामरिक, आर्थिक, रणनीतिक और वैचारित–सांस्कृतिक ताकत के दम पर ही दूसरे गैर–साम्राज्यवादी और कमजोर देशों को अपने मातहत कर लेते हैं। आर्थिक नव–उपनिवेशवादी दौर में मातहती थोपने के लिए आर्थिक, वैचारिक और सांस्कृतिक तौर–तरीकों पर मुख्य जोर होता है, जबकि सामरिक और राजनीतिक तौर–तरीके गौण बने रहते हैं। आर्थिक रूप से पिछड़े देशों के ऊपर वित्तीय साधनों और उन्नत तकनीकों के जरिये औपनिवेशिक गुलामी की शर्तों को थोपा जाता है, जो इन देशों की जनता के लिए सहज, स्वभाविक और अधिक ग्राह्य होता है। पुराने औपनिवेशिक और नव–औपनिवेशिक देशों ने मुक्ति संघर्षों के जरिये अपनी आजादी हासिल तो कर ली, लेकिन वे उसे बरकरार न रख सके और शीघ्र ही अमरीकी प्रभुत्व वाली नयी आर्थिक गुलामी के चंगुल में फँस गये। यह गुलामी उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण की नीतियों के जरिये पिछड़े देशों पर थोपी गयी और साम्राज्यवादी देशों ने इन देशों में पूँजी निवेश करके तथा उन्नत तकनीकी के जरिये अकूत मुनाफा कमाया। इन देशों को लूटकर कंगाल बना दिया गया। इन देशों के बुर्जुआ वर्ग और उनके शासकों ने इस काम में साम्राज्यवादियों की खुलकर मदद की। इन देशों का आर्थिक विकास बुर्जुआ वर्ग के लिए स्वर्ग के दरवाजे खोल रहा है, जबकि बहुसंख्यक जनता के लिए वह नरक का निर्माण कर रहा है।
ऐसे कमजोर देश जो अमरीकी दादागिरी के आगे नहीं झुके, जैसे–– अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, लीबिया, सोमालिया आदि उन्हें अमरीकी हमले के जरिये बरबाद कर दिया गया या ईरान की तरह आर्थिक प्रतिबन्ध लगाकर बरबाद करने की कोशिश की गयी। इस दौरान, विरोध और असहमतियों के बावजूद, कोई भी साम्राज्यवादी देश अमरीकी दादागिरी को खुली चुनौती देने और पिछड़े देशों को समर्थन देने के लिए आगे न आ सका, हालाँकि अगर कोई साम्राज्यवादी देश ऐसा करता तो मूलत: अपने फायदे के लिए ही करता। न तो किसी की इतनी जुर्रत हुई कि वह अमरीकी शासकों को अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में घसीटकर उनके ऊपर युद्ध अपराध का मुकदमा चला सके। अमरीका से दुश्मनी मोल लेने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ। साम्राज्यवादी देशों के बीच गँठजोड़ (कोल्यूजन) की असलियत यही है।
90 के दशक में अमरीका ने अपनी नयी विश्व व्यवस्था में भूतपूर्व साम्राज्यवादी देशों इटली, फ्रांस, जर्मनी, जापान, ब्रिटेन–––आदि को लूट के बँटवारे में उचित हिस्सा दिया। हालाँकि इनका अमरीका के साथ अन्तरविरोध भी बना रहा, लेकिन किसी में खुलकर विरोध करने की हैसियत नहीं थी। रूस और चीन अमरीकी चैधराहट वाली विश्व व्यवस्था के दो अपवाद साबित हुए। इनकी सबसे खास बात यह है कि दोनों ही देश पहले समाजवादी थे और पुनर्स्थापना के जरिये पूँजीवादी बने हैं। इसके चलते इन देशों की एक अलग राष्ट्रीय संस्कृति बन गयी है, जो पश्चिम की साम्राज्यवादी संस्कृति से टकराती है। इसे सामाजिक अन्धराष्ट्रवादी कहना अधिक उपयुक्त होगा। वर्तमान में पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दर जीवन–यापन करना तथा अपने गौरवशाली समाजवादी अतीत और कभी महाशक्ति होने पर गर्व करना इस संस्कृति के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इस संस्कृति को जरूरत के हिसाब से इन देशों के शासक वर्ग प्रोपागेण्डा के जरिये भुनाते हैं और अपनी सत्ता की वैधता के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं। इसने पश्चिम के साम्राज्यवादी देशों के खिलाफ जनता में एक अन्धराष्ट्रवादी रुझान पैदा किया है। इसलिए अपनी साम्राज्यवादी शक्ति को संजोने के घमण्ड में चूर पुतिन ने जब यूक्रेनी जनता के ऊपर बम बरसाया तो रूस की बहुसंख्यक जनता ने पुतिन को अपना समर्थन दिया। सामाजिक अन्धराष्ट्रवादी संस्कृति की दूसरी विशेषता है–– पश्चिम के नकली बुर्जुआ लोकतंत्र से नफरत। इन देशों का इतिहास साम्राज्यवादी–पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध का रहा है। इसलिए दोनों देशों के शासक वर्ग जब पश्चिम के खिलाफ और खासतौर से अमरीका के खिलाफ अपनी दुश्मनी का इजहार करते है, तो उन्हें अपनी जनता का भरपूर समर्थन मिलता है। ऐसा जन समर्थन अमरीका के खिलाफ शायद ही इंग्लैण्ड, फ्रांस और इटली के शासक वर्ग को मिल पाये क्योंकि इन देशों की जनता खुद को अमरीका से जोड़कर देखती है तथा पश्चिम की साम्राज्यवादी संस्कृति के प्रभाव में है। यही स्थिति पश्चिमी जर्मनी की भी है, हालाँकि पूर्वी जर्मनी की स्थिति इससे भिन्न है। इसके पीछे पूर्वी जर्मनी का समाजवादी अतीत और रूस के साथ उसका बिरादराना रिश्ता रहा है। जर्मनी अपनी विदेश नीति में डाँवाडोल स्थिति प्रदर्शित करता रहा है और ऐसा सम्भव है कि अगर वहाँ कब्जा जमाकर बैठी अमरीकी सेना निकल जाये तो सम्भवत: वह अपनी स्वतंत्र विदेश नीति तय कर सके या रूस–चीन खेमे की ओर झुक जाये।
आज के दौर में किसी भी छोटे से छोटे देश पर कब्जा करके उसे सीधे उपनिवेश बनाये रखना सम्भव नहीं है। अफगानिस्तान और इराक इसके ताजा उदाहरण हैं। इसलिए किसी भी देश को आर्थिक रूप से उपनिवेश बनाने के लिए साम्राज्यवादी देशों के पास बड़ी मात्रा में वित्तीय पूँजी होनी चाहिए और इसके साथ ही उसके पास कम से कम किसी एक–दो क्षेत्रों में तकनीकी महारत भी होनी चाहिए। इसके अलावा उपनिवेश बनाये रखने में सामरिक ताकत का होना भी जरूरी है, हालाँकि वह कभी–कभी ही इस्तेमाल होती है, लेेकिन कई बार निर्णायक भूमिका निभाती है। साम्राज्यवादी देशों द्वारा अपनी नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए अपने देश की जनता का समर्थन भी बेहद जरूरी है यानी जनता को इसके लिए तैयार करना जरूरी होता है। यह लक्ष्य मीडिया के जरिये प्रसारित की जा रही साम्राज्यवादी संस्कृति और विचारधारा से हासिल किया जाता है।
किसी भी साम्राज्यवादी देश के अन्दर खुद को महाशक्ति (सुुपर पावर) बनाने तथा दुनिया की चैधराहट हासिल करने की स्वभाविक इच्छा होती है, जो उस देश के वर्गीय अन्तरविरोधों की पैदाइश होती है, लेकिन उसकी यह स्वभाविक इच्छा कार्यरूप में रूपान्तरित होगी या नहीं, यह उस दौर की राष्ट्रीय–अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों से तय होता है। जैसे–– जी–7 के बाकी किसी भी देश की अकेले दम पर इतनी हैसियत नहीं है कि वह अमरीका को टक्कर देकर दुनिया का चैधरी बन जाये। हालाँकि अमरीका के खिलाफ बाकी 6 देश आपस में मिलकर ऐसा कर पाने की स्थिति में आ सकते हैं। लेकिन ऐसा करते समय उनके बीच के अन्तरविरोध ही इतने तीखे हो जायेंगे कि उनका गठबन्धन टूट जायेगा। इसलिए इन साम्राज्यवादी देशों के पास अमरीकी वर्चस्व को स्वीकार करने के अलावा आज कोई चारा दिखायी नहीं देता। इनसे अलग, अगर रूस–चीन खेमा अमरीका के खिलाफ मजबूत प्रतिद्वन्द्वी बनकर उभरता है तो जी–7 टूट भी सकता है और सम्भावना बन सकती है कि फ्रांस, जर्मनी और इटली में से कुछ देश रूस–चीन खेमे की ओर चले जायें।
अमरीका के खिलाफ रूस–चीन के मजबूत प्रतिद्वन्द्वी बनकर उभरने के महत्त्वपूर्ण कारक हैं–– विशाल भूभाग और प्राकृतिक संसाधनों का विपुल भण्डार, सामाजिक अन्धराष्ट्रवादी संस्कृति, नाभिकीय हथियारों का जखीरा और दूसरे नम्बर की अर्थव्यवस्था। अमरीका के पास दुनिया की जीडीपी का 24 प्रतिशत है, जबकि रूस–चीन के पास सम्मिलित रूप से 19 प्रतिशत है। दुनिया भर के 13,080 नाभिकीय हथियारों में से 6,255 हथियार रूस के पास और 5,550 हथियार अमरीका के पास हैं। चीन, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, पाकिस्तान, भारत, इजराइल और उत्तरी कोरिया के पास क्रमश: 350, 290, 225, 165, 156, 90 और 40 हथियार हैं। इस हिसाब से भी रूस–चीन खेमा अमरीका का प्रतिद्वन्द्वी बनने की स्थिति में है। 90 के दशक से अमरीका की कोशिश रही है कि ये अमरीका की मातहती स्वीकार कर लें और नवउदारवादी विश्व व्यवस्था का अंग बन जायें। चीन घुटने टेक दे, इसके लिए अमरीका कोशिश कर रहा है कि उसके मौजूदा नेतृत्व में फेरबदल कराके रंगीन क्रान्ति के जरिये अमरीकापरस्त नेतृत्व कायम किया जाये, हालाँकि यह काम लगभग असम्भव है। दूसरा, चीनी जनता को उसके समाजवादी अतीत से काटकर और उनके बीच साम्राज्यवादी संस्कृति का प्रसार करके उसे अमरीकापरस्त बनाया जाये। इस मामले में मैथ्यू क्रोएनिग (जिनको लेख की शुरुआत में उद्धृत किया गया है।) मानते हैं कि रूस–चीन की घेरेबन्दी से बढ़िया अमरीका के पास कोई और रणनीति नहीं है। इसलिए पूर्वी यूरोप की ओर से नाटो के जरिये रूस की घेरेबन्दी की जा रही है तो दक्षिण चीन सागर में क्वैड (अमरीका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत) का गठबन्धन बनाकर चीन को घेरने की कोशिश चल रही है।
विश्वस्तरीय ताकत के रूप में चीन के उभार के महत्त्वपूर्ण संकेत हैं–– 2013 में ही पर्चेजिंग पॉवर पैरिटी के रूप में चीन की जीडीपी अमरीका से आगे निकल चुकी है और मार्केट एक्सचेंज के रूप में यह 2028 में अमरीका से आगे निकल जायेगी। अमरीका और चीन एक–दूसरे पर आर्थिक रूप से बहुत अधिक निर्भर हैं। चीन अमरीकी कम्पनियों के लिए सस्ते और कुशल श्रम का भण्डार है तो अमरीका चीन के उपभोक्ता मालों का एक बड़ा बाजार है। इसलिए चीन पर किसी भी तरह का आर्थिक प्रतिबन्ध अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिए घातक होगा, क्योंकि 2008 की विश्वव्यापी मन्दी के बाद से ही अमरीकी अर्थव्यवस्था चिरन्तन संकट की गिरफ्त में है। लेकिन दोनों देशों की परस्पर निर्भरता के बावजूद यह दावा नहीं किया जा सकता कि इन दो देशों के बीच कभी युद्ध नहीं होगा क्योंकि इतिहास दिखाता है कि एक समय के दो दोस्त बाद में दो सबसे कट्टर दुश्मन में बदल जाते हैं। पुरानी सभी औपनिवेशिक व्यवस्थाओं की तरह आर्थिक नव उपनिवेशवादी व्यवस्था के दो चरण होंगे। पहला, शान्तिपूर्ण चरण जो अभी चल रहा है, जिसमें साम्राज्यवादी देशों के बीच संश्रय का रिश्ता प्रधान है। दूसरा, हिंसक चरण जो आने वाला है जिसमें साम्राज्यवादी देशों के बीच के अन्तरविरोध तीखे होकर दुश्मनी में बदल जायेंगे। साम्राज्यवादी खेमे में दरार और उनके बीच पैदा होनेवाले मनमुटाव इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। अमरीकी शासक वर्ग इन सब बातों से वाकिफ है, इसीलिए वह दक्षिण चीन सागर की ओर से चीन की और पूर्वी यूरोप की ओर से रूस की घेरेबन्दी कर रहा है और उनके खिलाफ प्रोपागेण्डा युद्ध चला रहा है।
अमरीका को यह डर सता रहा है कि अगर कहीं रूस अपने छ: हजार नाभिकीय हथियारों के जखीरों में से कुछ की तैनाती यूरोपीय देशों के ऊपर कर देता है, तो इसके दबाव में कुछ यूरोपीय देश रूसी खेमे की ओर झुक सकते हैं। अमरीका चाहता है कि रूस की अर्थव्यवस्था कमजोर बनी रहे, उसकी राजनीतिक स्थिरता खतरे में पड़ जाये, उसकी जनता वैचारिक रूप से विभ्रम की शिकार बन जाये तथा इन सभी का परिणाम यह निकले की रूस दर्जनों भर छोटे–छोटे देशों में टूट जाये और वे अमरीका के सामने समर्पण कर दें। हालाँकि उसकी यह कोशिश 90 के दशक में कामयाब हो गयी थी, जब सोवियत संघ रूस सहित 14 दूसरे छोटे देशों में टूट गया था। उसकी शक्ति कमजोर हो गयी थी और उसमें से कुछ देश नाटो में शामिल हो चुके हैं तथा यूक्रेन अमरीका की ओर झुकता चला गया है। लेकिन पुतिन के नेतृत्व वाले रूस को अब विभाजित करना सम्भव नहीं दिखायी दे रहा है। रूसी जनता के अन्दर राष्ट्रवाद की जो भावना आज दिखायी दे रही है, वह 1812 में रूस पर नेपोलियन के हमले के प्रतिरोध, 1918 में 14 देशों द्वारा सोवियत संघ पर हमले का करारा जवाब और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान फासीवादी हिटलर की सेना के खिलाफ बहादुराना संघर्ष के दौरान विकसित हुई है। इसके लिए उसने अपनों की जान देकर बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। लेकिन रूसी जनता की सकारात्मक देशभक्ति की भावना अब नकारात्मक अन्धराष्ट्रवाद में बदल चुका है और रूसी साम्राज्यवादी शासक वर्ग का एक हथियार बन गया है। हालाँकि इसी के चलते अमरीका द्वारा तमाम तोड़फोड़ की कार्रवाई और आर्थिक प्रतिबन्धों के बावजूद रूस पुतिन के नेतृत्व में मजबूत होता चला गया।
अमरीका द्वारा रूस पर वर्चस्व स्थापित करने की जल्दबाजी ने यूरोप और पूरी दुनिया को युद्ध के दरवाजे पर ला खड़ा किया है। अमरीकी उकसावे पर ही, 2018 में यूक्रेन ने अपने संवैधानिक सुधारों के जरिये नाटो और यूरोपीय संघ की सदस्यता हासिल करना अपना सबसे प्रमुख राष्ट्रीय रणनीति बना दिया। दूसरी ओर अमरीका और पश्चिमी यूरोप की शह पर 2014 में यूक्रेन का नस्लवादी तख्तापलट और रूस से बढ़ती दूरी ने इसे जंग के अखाड़े में तब्दील कर दिया है। इन सब ने रूस की चिन्ता को बेशुमार बढ़ा दिया। अगर यूक्रेन नाटो का सदस्य बन गया होता तो 760 किलोमीटर की लम्बी यूक्रेन–रूस सीमा पर नाटो का वर्चस्व स्थापित हो जाता। इसका साफ मतलब था कि अमरीका के आगे रूस घुटने टेकने के लिए मजबूर हो जाता। इस तरह अमरीका चाहता था कि रूस को झुकाकर उसकी हालत जी–7 के बाकी देशों की तरह कर दी जाये या उसे तोड़कर टुकड़ों में बाँट दिया जाये, लेकिन अमरीका इसमें सफल होता दिखायी नहीं दे रहा है।
अमरीका अपनी विदेश नीति के लिए मुख्य रूप से तीन संस्थाओं पर निर्भर रहता है। ये संस्थाएँ हैं–– काउंसिल ऑन फारेन रिलेशन (सीएफआर), अटलांटिक काउंसिल (एसी) और सेन्टर फॉर न्यू अमरीकन सिक्यूरिटी (सीएनएएस)। विदेश नीति के मामले में ये तीनों महत्त्वपूर्ण अमरीकी थिंक टैंक हैं। ये तीनों ही रूस और चीन के खिलाफ शीत युद्ध वाला नजरिया रखते हैं। सीएफआर का तो यहाँ तक मानना है कि अमरीका और चीन के सम्बन्ध को दोस्ताना के बजाय दुश्मनाना कहना ज्यादा ठीक है। जब अमरीकी वित्तपतियों को अहसास हो गया कि चीन को सोवियत संघ की तरह विखण्डित नहीं किया जा सकता तो उन्होंने 2007 में सीएनएएस संस्था का गठन किया जिसका मुख्य जोर इस रणनीति पर था कि चीन में अमरीकापरस्त नेतृत्व कायम हो, चीन की घेरेबन्दी की जाये या वहाँ रंगीन क्रान्ति को उकसाया जाये। ओबामा कार्यकाल के दौरान इस संस्था ने एशिया–पैसिफिक इलाके के देशों को चीन के खिलाफ खड़ा करने की रणनीति अपनायी। अटलांटिक काउंसिल अमरीका के सामरिक वर्चस्व के लिए काम करती है। इसने ही सबसे पहले बताया था कि रूस यूक्रेन पर हमला कर सकता है। इस संस्था ने अफगानिस्तान युद्ध, उत्तरी अफ्रीकी देशों में जैसमिन क्रान्ति और हांगकांग के आकुपाई सेन्ट्रल आदि आन्दोलनों में अमरीकी हितों को आगे बढ़ाने के लिए बढ़–चढ़कर काम किया। ये तीनों संस्थाएँ सामरिक, राजनीतिक और कूटनीतिक प्रयासों से अमरीकी वर्चस्व स्थापित करने के लिए काम करती हैं।
ट्रम्प प्रशासन में विदेश मंत्री रह चुके माइक पोम्पियो एक कट्टर इसाई और ट्रम्प से भी बड़े नस्लवादी–फासीवादी हैं जो 2024 के चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी की ओर से राष्ट्रपति के उम्मीदवार बन सकते हैं। वे इसी साल मार्च के पहले सप्ताह में ताइवान के दौरे पर गये, जब रूस–यूक्रेन के बीच युद्ध जारी था, वहाँ से उन्होंने ट्वीट किया कि अमरीका को चाहिए कि वह ताइवान को स्वतंत्र और सम्प्रभु देश के रूप में मान्यता दे। इस तरह वे चीन और ताइवान के बीच युद्ध भड़काने में लगे हुए हैं क्योंकि सभी जानते हैं कि चीन इसे कभी पसन्द नहीं करेगा। ऐसा लगता है कि वे अटलांटिक काउंसिल द्वारा प्रस्तावित ‘रूस और चीन को एक साथ पराजित करने’ की रणनीति को ही आगे बढ़ा रहे हैं।
अमरीका ने रूस की सीमा तक नाटो का विस्तार करके रूस को मजबूर कर दिया कि वह या तो अमरीका के नेतृत्व में नाटो के विस्तार को चुपचाप बर्दाश्त करता रहे और अमरीकी वर्चस्व को स्वीकार कर ले, नहीं तो यूक्रेन के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करके अमरीकी हितों को जबरदस्त फायदा पहुँचाये। जाहिर है कि अमरीका जानता था कि रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले के बाद अमरीका के हाथ कारू का खजाना लगना तय है। हमले के बाद ऐसा ही हुआ। अमरीकी सत्ता संरचना की कुुंजी हमेशा तीन तरह के वित्तीय महाप्रभुओं के हाथ में रहती है–– सैन्य–उद्योग क्षेत्र, तेल–गैस–खनन क्षेत्र और बैंकिंग–बीमा–रीयल स्टेट क्षेत्र। अमरीकी चुनाव में चाहे रिपब्लिकन चुनकर आयें या डेमोक्रेट, सत्ता हमेशा इनके पास रहती है। रूस–यूक्रेन युद्ध के बाद इन्होंने जबरदस्त फायदा उठाया है।
सैन्य–उद्योग के मुख्य एकाधिकारी पूँजीवादी घराने हैं ––रेथेन, बोेइंग और लॉकहीड मार्टिन। यूक्रेन पर रूसी हमले के तुरन्त बाद इन कम्पनियों के शेयर में उछाल आ गया, क्योंकि इन कम्पनियों में निवेश करने वालों ने भाँप लिया कि युद्ध के माहौल में हथियारों की बिक्री बढ़ जायेगी। यूक्रेन संकट का नतीजा यह हुआ कि न केवल नाटो, बल्कि अमरीका के दूसरे सहयोगी देशों में हथियारों की माँग बढ़ गयी। जर्मनी ने भी सैन्य खर्च को बढ़ाकर जीडीपी का दो प्रतिशत कर दिया।
दूसरे बड़े पूँजीवादी घराने तेल–गैस–खनन क्षेत्र से जुड़े हैं। इस क्षेत्र से जुड़ी कम्पनियों का मुख्य धन्धा दुनिया भर में कच्चे माल और ऊर्जा के साधनों को ऊँचे दामों पर बेचकर मुनाफा कमाना है। यह लॉबी राजनीति पर इतनी हावी है कि इसने ही मध्य एशिया के तेल क्षेत्रों पर कब्जा जमाने के लिए इराक पर अमरीकी हमले को बढ़ावा दिया था। रूस ने धीरे–धीरे यूरोप के तेल–गैस मार्केट में सेंध लगा दी है। वह यूरोप की ऊर्जा जरूरतों के बड़े हिस्से की आपूर्ति अभी तक करता रहा है, लेकिन यूक्रेन संकट के बाद यूरोप के देशों ने रूस से सम्बन्ध तोड़ लिया, इसलिए अमरीकी कम्पनियों के पास सुनहरा मौका है कि वे महँगे दामों पर यूरोप को तेल बेच सकें। अन्तरराष्ट्रीय बाजार में तेल और गैस के दामों में उछाल आने से भी इन्हीं कम्पनियों का फायदा होता है।
अमरीका इन्हीं कम्पनियों के हित में कई बार जर्मनी पर दबाव डाल चुका है कि वह रूस से तेल और गैस लेना बन्द कर दे। नार्ड–स्ट्रीम पाइपलाइन परियोजना जो रूस से जर्मनी के लिए गैस आपूर्ति के लिए बनायी गयी है और जिसे यूक्रेन संकट के बाद जर्मनी ने एकतरफा बन्द कर दिया है, उसके निर्माण में भी अमरीका बाधा पहुँचा चुका है। जो कम्पनियाँ इस पाइपलाइन को बना रही थीं, अमरीका ने उन पर प्रतिबन्ध लगा दिया, अन्त में रूस ने अकेले इस पाइपलाइन के निर्माण को पूरा किया। इसके बाद अमरीका ने दुष्प्रचार किया कि रूस की ओर से यूरोपीय देशों की सुरक्षा को खतरा है और उसने दबाव डाला कि यूरोपीय देश रूस से गैस खरीदना बन्द कर दें, लेकिन रूस द्वारा भेजी गयी सस्ती गैस का यूरोपीय देशों के पास कोई विकल्प नहीं है।
तीसरे बड़े पूँजीवादी घराने वित्त–बीमा–रीयल स्टेट क्षेत्र से जुड़े हैं। ये मध्ययुगीन सामन्तों की तरह बिना कोई मूल्य जोड़े, अकूत कमायी पर जीने वाली परजीवी जमात है। इनकी बैकिंग और वित्तीय संस्थाएँ न केवल अमरीका बल्कि दुनियाभर में कोने–कोेने में फैली हुई हैं। बहुसंख्यक अमरीकी लोग कर्ज लेकर घर बनवाते हैं और कर्ज लेकर उपभोग करते हैं, जिनसे ब्याज निचोड़कर ये कम्पनियाँ अकूत मुनाफा कमाती हैं। वालस्ट्रीट शेयर मार्केट के जरिये दुनियाभर में धन्धा करने वाली ये कम्पनियाँ पिछड़े देशों पर दबाव बनाकर वहाँ की सार्वजनिक कम्पनियों की निजी हाथों (कम्पनियों) बिक्री कराती हैं ताकि इन निजी कम्पनियों को फण्ड देकर अर्थव्यवस्था को अपने नियन्त्रण में लिया जा सके। सैन्य–उद्योग और तेल–गैस–खनन क्षेत्र के शेयरों की खरीद–बिक्री भी वाल–स्ट्रीट के जरिये होती है, इस तरह बाकी के दोनों क्षेत्रों में तेजी से वित्त–बीमा क्षेत्र का मुनाफा भी बढ़ जाता है। इसलिए अमरीका के वित्तीय पूँजीपति यूक्रेन संकट से पैदा हुए वैश्विक तनाव का जमकर फायदा उठा रहे हैं और वे नहीं चाहेंगे कि यह तनाव किसी भी तरह कम हो। इस तरह मैन्युफैक्चरिंग और कृषि क्षेत्र के बजाय ये तीनों क्षेत्र ही अमरीका की घरेलू और विदेश नीति को तय करने में अग्रणी हैं।
अमरीकी पूँजीपतियों की मुट्ठीभर जमातों ने ही रूस को ठेलकर वहाँ पहुँचा दिया, जहाँ से उसके सामने दो ही विकल्प रह गये थे या तो नाटो के सामने आत्मसमर्पण करे या यूक्रेन पर हमला।
रूस का मंशा है कि यूक्रेन पर हमला करके वह उसकी सैन्य काबिलियत को खत्म करना चाहता है और नव–नाजीवादी सरकार को सत्ता से बेदखल करके रूस के समर्थन वाली सरकार स्थापित करना चाहता है। भविष्य बतायेगा कि वह इसमें कितना कामयाब होगा। दूरगामी तौर पर रूस चाहता है कि नाटो के विघटन के साथ ही यूरोप पर अमरीकी वर्चस्व का अन्त हो जाये। इसके अलावा वह एक ऐसी विश्व व्यवस्था बनाना चाहता है, जिसमें डॉलर का प्रभुत्व खत्म हो, आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक की जगह उसकी बनायी संस्थाएँ लें और न्यूरेमबर्ग कानूनों पर आधरित एक ऐसा अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय स्थापित करे, जिसमें यूक्रेन के नव–नाजीवादियों सहित अमरीका के युद्धोन्मादी अधिकारियों पर युद्ध अपराध का मुकदमा चला सके। कुल मिलाकर चीन के साथ मिलकर अपनी साम्राज्यवादी महात्वाकांक्षाओं को पूरा कर सके और दुनिया की जनता के शोषण से संचित पूँजी में बड़ा हिस्सा हथिया सके। लेकिन यह यहीं तक रुकने वाला नहीं है, बल्कि आने वाले दिनों में दोनों खेमों के बीच टकराव बढ़ने की पूरी सम्भावना है। साम्राज्यवादी शुरू में शीत युद्ध और छद्म युद्ध लड़ेंगे, लेकिन इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनके बीच वास्तविक युद्ध भड़क जाये। आखिर हाथियारों के जखीरे कुछ तो करामात दिखायेंगे। अगर ये दोनों खेमे युद्ध में उलझते हैं तो दुनिया को बहुत बड़ी तबाही का मंजर भी देखने को मिल सकता है। इसके साथ ही साम्राज्यवादी एक–दूसरे से लड़कर खुद को कमजोर कर लेंगे। यह सम्भावना निकट आती जा रही है क्योंकि दोनों खेमों के सम्बन्ध अधिकाधिक दुश्मनाना होते जा रहे हैं।
जैसे–जैसे इन दोनों खेमों के बीच टकराव बढ़ता जायेगा, वैसे–वैसे तीसरी दुनिया के पिछड़े देशों के पास इस या उस खेमे में शामिल होने या अपनी विदेश नीति को स्वायत्त रखने की सम्भावना बढ़ जायेगी। इसी के साथ अमरीका के लिए यह अधिकाधिक मुश्किल होता जायेगा कि वह किसी देश की जन पक्षधर सरकार को अपनी धौंसपट्टी से झुका ले। इसलिए भविष्य में जनता की ताकत के मजबूत होने के पूरे संकेत हैं।
जब साम्राज्यवादी एक–दूसरे से लड़कर कमजोर पड़ जायेंगे तो इससे जनान्दोलन पर सकारात्मक प्रभाव पडे़गा। यह दुनिया की जनता के ऊपर है कि वह इन दोनों युद्धोन्मादी साम्राज्यवादियों को युद्ध करने से कब तक रोके रखती है, लेकिन इतना तय है कि भविष्य उथल–पुथल से भरा होगा जो नयी सम्भावनाओं के द्वार भी खोलेगा और साथ में नयी मुसीबतें भी ले आयेगा। इन सबके बीच इतिहास आगे की ओर बढ़ता रहेगा और साम्राज्यवाद अपने अन्त की ओर।
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