अगस्त 2018, अंक 29 में प्रकाशित

अमरीकी चैधराहट के खिलाफ जी–7 में विक्षोभ

जी–7 देशों का 44वाँ सम्मेलन 8.9 जून 2018 को कनाडा के ला मेलबेई में सम्पन्न हुआ। जी–7 के बाकी देशों के साथ अमरीका के मतभेद इस सम्मेलन में सतह पर आ गये। इतना ही नहीं सम्मेलन में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के गैर–जिम्मेदाराना व्यवहार ने अमरीका के पारम्परिक सहयोगियों से उसकी दूरी को और बढ़ा दिया। इससे ठीक पहले ट्रम्प ने अमरीका के सबसे नजदीकी सहयोगी देशों के स्टील और एल्युमीनियम पर तटकर लगाने का फैसला किया था। जिसको लेकर बैठक में अमरीका और उसके सहयोगी देशों के बीच तनाव बढ़ गया और इसके चलते साम्राज्यवादी खेमें में दरार पड़ती नजर आयी।

जी–7 की बैठक कई मुद्दों को हल करने में असफल रही। पर्यावरण की समस्या, ईरान से सम्बन्ध, इजराइल–फिलिस्तीन टकराव और रूस को फिर से इस समूह का सदस्य बनाये जाने जैसे मसलों पर कोई निर्णय नहीं हो सका। इन मामलों को सुलझाने को लेकर ट्रम्प का रवैया बेहद अप्रत्याशित था, वे एक राष्ट्रपति के बजाय गली के लठैत जैसा व्यवहार करते नजर आये। उन्होंने अपने सहयोगियों को डराया–धमकाया और जी–7 की मीटिंग को बीच में छोड़कर चले गये। आइये इन विवादास्पद मुद्दों की एक–एक कर पड़ताल करते हैं।

हालाँकि 25 जुलाई 2018 को अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प और यूरोपीय संघ के अधिकारियों के बीच एक समझौता हुआ। दोनों पारम्परिक सहयोगियों ने एक–दूसरे के खिलाफ व्यापार युद्ध से कदम पीछे खींच लिया। दोनों ने तटकर, सीमा–बाधा और सब्सिडी को “शून्य” कर देने का समझौता किया। यूरोपीय संघ ने भी सोयाबीन, प्राकृतिक गैस सहित अरबों डॉलर का अमरीकी निर्यात करने की इच्छा जाहिर की और वादा किया कि वह अन्तरराष्ट्रीय व्यापार नियमों में सुधार के लिए काम करेगा। इसे अमरीका और यूरोपीय संघ के रिश्ते में नया अध्याय माना जा रहा है।

ट्रम्प काफी पहले से ही शिकायत करते रहे हैं कि जर्मनी के कार निर्माताओं ने उनका शोषण किया है। इसलिए उन्होंने धमकी भी दी थी कि वे कार के आयात पर तटकर लगायेंगे, ताकि अमरीकी बाजार में जर्मनी के कारों की आवक घटायी जा सके और अमरीका अपना व्यापार घाटा कम कर सके। बदले में यूरोपीय संघ ने अमरीकी मालों पर 20 अरब डॉलर का तटकर लगाना तय किया था। यूरोपीय संघ ने पलटकर जब अमरीकी सामानों पर तटकर लगाया तो अमरीका ने अपने किसानों को 12 अरब डॉलर की सब्सिडी का वादा कर दिया। लेकिन 25 जुलाई के समझौते के बाद यूरोपीय संघ ने अपने कदम पीछे खींच लिये।

यह कहा जा सकता है कि व्यापार युद्ध का तात्कालिक दौर टल गया है। फिर भी दोनों महाशक्तियों के बीच आर्थिक दरार की वजहें खत्म नहीं हुई हैं। सोयाबीन और प्राकृतिक गैस का व्यापार विदेशी सम्बन्धों के मामले में अधिक मायने नहीं रखता है। दोनों आर्थिक ताकतों के बीच 1000 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार होता है। अभी भी पेरिस पर्यावरण समझौते और ईरान के नाभिकीय समझौते पर मतभेद बने हुए हैं। इसके अलावा अमरीका व्यापार युद्ध में चीन से उलझा हुआ है। मैक्सिको के साथ विवाद जारी है। ट्रम्प का व्यवहार भी सन्देह पैदा करता है कि उसकी नीतियों पर जी–7 के बाकी देश विश्वास करें या नहीं।

कुछ दिनों से ट्रम्प के राष्ट्रवादी रुझानों को लेकर बढ़ा–चढ़ाकर बातें कही जा रही हैं। कहा गया कि ट्रम्प नव–उदारवाद के खिलाफ हैं। ऐसा कहने के पीछे एक कारण यह भी है कि वह हमेशा नव–उदारवाद के खिलाफ बातें करते नजर आते हैं। लेकिन क्या नव–उदारवाद से फायदा उठाने वाला अमरीकी सत्ताधारी वर्ग ट्रम्प को मनमानी करने देगा? यह गौर करने वाली बात है कि पिछले 28 सालों से नव–उदारवाद से सबसे ज्यादा फायदा उठा रहा वित्तीय सरमायदार अपने हितों को भुला नहीं सकता।

ट्रम्प का राष्ट्रवाद कहाँ से उपजा है? नव–उदारवाद के चलते जी–7 के देशों के पूँजीपतियों को गरीब देशों में पूँजी निवेश करके अकूत मुनाफा कमाने का मौका मिला। लेकिन इसी के साथ अमरीकी अर्थव्यवस्था का रुझान सट्टेबाजी और कर्जखोरी की ओर बढ़ता चला गया। इससे भी जी–7 के देशों के पूँजीपतियों ने अकूत मुनाफा कमाया। लेकिन मुनाफे का हर डॉलर इन देशों की जनता के भविष्य कोे अंधकार में ले जाने वाला साबित हुआ। धीरे–धीरे जनता बेरोजगारी और कर्ज के जाल में फँसती चली गयी। जनता में इस व्यवस्था को लेकर गुस्सा बढ़ गया। अमरीका के ओकुपाई वाल स्ट्रीट आन्दोलन के देशव्यापी विस्तार ने इस गुस्से को बाहर आने का मौका दिया। दरअसल, ट्रम्प जनता के इसी गुस्से को भुना रहे हैं। वह अमरीकी जनता को गुमराह करते रहे हैं। वह कहते हैं कि जर्मनी, यूरोप, चीन, भारत आदि देश विश्व व्यापार के चलते मलाई खा रहे हैं और हम पीछे रह गयेे हैं।

बढ़ते राष्ट्रवाद का दूसरा कारण यह भी है कि 2008 की अमरीकी मन्दी के बाद से अमरीका के ऊपर कर्ज बढ़ता गया है। इस कर्ज को बढ़ाने में इराक, अफगानिस्तान, लीबिया और सीरिया में हुए युद्ध खर्च का भी बड़ा योगदान है। ऊपरी तौर पर यही लगता है कि ट्रम्प इन सब पर रोक लगाना चाहते हैं। इसके साथ ही अमरीका में पूँजीपतियों का एक ऐसा धड़ा ट्रम्प का समर्थक है जिसका हित नव–उदारवाद के खिलाफ है। जैसे–– पेरिस पर्यावरण सम्मेलन से पीछे हटने का कारण ट्रम्प द्वारा अपने देश के खनिज उत्पादकों के हितों की रक्षा करना है जो खनन के दौरान अंधाधुंध प्रदूषण फैलाते हैं। स्टील और एल्युमिनियम पर तटकर लगाने का फैसला अमरीका के स्टील और एल्युमिनियम उत्पादकों के हितों को ध्यान में रखकर लिया गया। लेकिन ऐसे कदम जहाँ एक ओर नव–उदारवादी विश्व व्यवस्था के खिलाफ लगते हैं, वहीं ये कदम अमरीका के नव–उदारवादी वित्तपतियों के हितों पर सीधा हमला हैं। इसीलिए ऐसे कदमों को कामयाबी कैसे मिल सकती है?

कुछ मामलों में नव–उदारवाद के खिलाफ जाने से अमरीका के वित्तपति ट्रम्प से खासे नाराज हो गये। नव–उदारवाद के साथ खड़े अमरीकी मीडिया ने ट्रम्प की छवि एक गैर–जिम्मेदार नेता के रूप में प्रसारित की। अमरीका का सैन्य धड़ा, जो हथियारों के व्यापार और कमजोर देशों में युद्ध भड़काकर मुनाफा कमाता है, उसने नाना प्रकार से ट्रम्प के ऊपर ऐसा दबाव बनाया, जिससे ट्रम्प विदेशी सम्बन्धों के मामले में निर्णायक रूप से हथियारों पर ही भरोसा करें। इस तरह ठोंक–पीटकर ट्रम्प को रास्ते पर लाने का काम चल रहा है।

1990 में रूस टूटकर कमजोर देश बन गया था जिसका फायदा उठाकर अमरीका ने दुनिया की एक छत्र चैधराहट हासिल कर ली थी और दुनिया पर अन्यायपूर्ण नव–उदारवादी मॉडल थोप दिया था जो वैश्वीकरण के लुभावने नारे के पीछे लूट पर आधारित नग्न–निर्मम साम्राज्यवाद ही था। लेकिन कुछ साल बाद रूस फिर से उठ खड़ा हुआ। नतीजतन, 1997 में रूस को साम्राज्यवादी समूह के जी–7 देशों में शामिल करके जी–8 बना दिया गया। पुतिन के नेतृत्व में रूस और अधिक मजबूत देश बनकर उभरा। जैसे–जैसे रूस की अर्थव्यवस्था पटरी पर आती गयी और उसका नाटो देशों के साथ टकराव बढ़ता गया, जी–8 में रूस का रह पाना अधिकाधिक मुश्किल होता गया। अन्त में क्रीमिया और यूक्रेन मामले में रूस की भूमिका के मद्देनजर उसे मार्च 2014 में जी–8 से निकाल दिया गया। इसके बाद 2017 में रूस ने स्थायी तौर पर खुद को जी–8 से अलग कर लिया।

ट्रम्प ने रूस को जी–7 में फिर से शामिल करने का मुद्दा उठाकर मेलबेई के सम्मेलन में कलह को बढ़ावा दिया। आजकल रूस के साथ अमरीका सहित पश्चिम के बाकी साम्राज्यवादी देशों का सम्बन्ध निचले स्तर पर है। यूक्रेन पर हमले के चलते साम्राज्यवादियों के बीच रूस की छवि बहुत खराब हो गयी है। पुतिन के नेतृत्व में रूस ने हमेशा नाटो और अमरीका को परेशान किया है। मौजूदा परिस्थितियों में रूस पश्चिम के साम्राज्यवादी चैखटे में फिट नहीं बैठता। अमरीकी चुनाव में ट्रम्प के ऊपर यह आरोप लगा था कि रूस ने गलत तरीके से चुनाव जीतने में ट्रम्प की मदद की थी। हालाँकि ऐसी धारणा विवादों से परे नहीं है। फिर भी ट्रम्प सन्देह और आरोप–प्रत्यारोप के इस माहौल में रूस को जी–7 में शामिल करने की वकालत करते हैं। ऐसे में ट्रम्प की विश्वसनीयता पर सवाल उठने लाजमी हैं।

जी–7 में विवाद का विषय यह भी था कि ट्रम्प ने अमरीका के सहयोगी जापान और दक्षिण कोरिया की सहमति के बिना उत्तरी कोरिया के साथ ऐसे समझौते किये जो इन दोनों देशों के हितों को प्रभावित करने वाले थेे। जैसे ट्रम्प ने अमरीका और दक्षिण कोरिया के संयुक्त सैन्य अभ्यास के अन्त की घोषणा कर दी जिसने उत्तरी कोरिया को कूटनीतिक बढ़त दिला दी और जिसका फायदा उठाकर उत्तरी कोरिया ने दुनिया भर में अपने पक्ष में प्रचार किया। अमरीका जैसे बड़े साम्राज्यवादी देश के राष्ट्रपति के तौर पर यह ट्रम्प की अदूरदर्शिता ही थी, जिसने छोटे और प्रतिबन्धों से घिरे उत्तरी कोरिया के राष्ट्रपति किम के आगे ट्रम्प को बौना साबित कर दिया। कूटनीति के मामले में किम ने बाजी मार ली। इससे साम्राज्यवादियों के सरगना के तौर पर अमरीका की छवि थोड़ी धूमिल हो गयी है। खबरे यह भी आ रही हैं कि उत्तरी कोरिया नाभिकीय हथियार के खात्में के अपने वादे से पीछे हट रहा है। यह भी ट्रम्प के लिए घातक साबित हो रहा है क्योंकि सिंगापुर में किम से मुलाकात के बाद ट्रम्प ने किम की तारीफ की थी और उन्हें पूरी उम्मीद थी कि उत्तरी कोरिया अपने नाभिकीय हथियारों को खत्म कर देगा। इसी के दम पर ट्रम्प ने वादा किया था कि अमरीका उस इलाके से अपने सभी सैनिक अड्डे हटा लेगा।

ट्रम्प ट्रांसएटलांटिक गठबन्धन को मजबूत बनाने के मामले में बहुत गम्भीर नहीं हैं। यह गठबन्धन एटलांटिक महासागर के दोनों ओर के देशों को आपस में जोड़ता है। शुरू में यह ट्रांसएटलांटिक चार्टर के रूप में सामने आया था। इसे दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बनाया गया था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ एक बड़ी ताकत के रूप में विश्व पटल पर उभरकर आया। वह अमरीकी वर्चस्व के लिए सीधी चुनौती था। ट्रांसएटलांटिक गठबन्धन को अंजाम देकर अमरीकी खेमे ने खुद को मजबूत बना लिया। फिर भी अमरीका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध का खतरा कभी टला नहीं। 1990 में सोवियत संघ के बिखरने के बाद एक ध्रुवीय विश्व में इस गठबन्धन के बने रहने का औचित्य खत्म हो गया। लेकिन छोटे देशों पर युद्ध थोपने का मामला हो या विश्व पर अमरीकी वर्चस्व को लादने का, यह गठबन्धन अमरीकी साम्राज्यवाद के लिए काफी फायदेमन्द रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प जिस नयी विश्व व्यवस्था के पैरोकार हैं, उन्हें लगता है कि यह गठबन्धन उसमें बाधक है। ईरान के साथ नाभिकीय समझौते से पीछे हटने में ट्रम्प को इस गठबन्धन के चलते कठिनाई हुई। लिहाजा वे इसे खत्म कर देना चाहते हैं। आज इस गठबन्धन में अमरीका, कनाडा और यूरोप के देश शामिल हैं। इस गठबन्धन का एक पहलू सैन्य संगठन नाटो भी है, जिसके अनुसार अगर इसमें शामिल किसी भी देश पर हमला किया जाता है तो उसे इसमें शामिल सभी देशों पर हमला माना जायेगा और इस हमले से निपटने में इसके सभी सदस्य देश उठ खड़े होंगे।

अमरीका और यूरोपीय संघ के बीच पैदा हुए विवाद को और गहराई से समझने के लिए उनके इतिहास पर नजर डालनी होगी। कभी दोनों आर्थिक शक्तियाँ उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी थीं। हालाँकि अमरीका नव–उपनिवेश का पैरोकार था, जिसने कठपुतली सरकारों की स्थापना के जरिये देशों को गुलाम बनाया था, जबकि यूरोप के उपनिवेशवादियों ने अपनी सैन्य ताकत और कूटनीति के बल पर भारत जैसे देशों को गुलाम बनाया था। एक अन्तर और भी है, जहाँ एक ओर अमरीका एक देश है और एक ही शासन–संविधान से संचालित होता है, वहीं यूरोपीय संघ कई देशों का समूह है। इसमें शामिल देशों के आपसी हित टकराते भी हैं। हालाँकि एक मामले को लेकर इन देशों में एकता भी है, वह है मध्यपूर्व एशिया को लेकर इनकी रणनीति। यूरोप एशिया के मध्यपूर्वी देशों के बिल्कुल नजदीक है। अमरीका ने दूर से ही ईरान, इराक, सीरिया, अफगानिस्तान आदि मध्यपूर्व के देशों पर हमले किये हैं। इस इलाके में कोई भी उथल–पुथल सीधे यूरोप को प्रभावित करती है। जैसे, सीरियाई युद्ध में पैदा हुए शरणार्थी संकट ने यूरोप के देशों को चिन्ता में डाल दिया था। भारी संख्या में सीरिया की जनता अपनी जमीन से उजड़कर स्पेन, फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैण्ड आदि देशों में विस्थापित हुई, जिससे इन देशों में सामाजिक–राजनीतिक संकट पैदा हो गया। इसी के चलते कुछ हद तक यूरोप इस इलाके के विवाद का शान्तिपूर्ण समाधान चाहता है। 9/11 के हमले के बाद अमरीका ने मध्यपूर्व एशिया को सैन्य हस्तक्षेप से तबाह कर दिया। अमरीका ने अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया आदि देशों में पहले आतंकवाद को और फिर सैनिक हस्तक्षेप को बढ़ावा दिया। फिर भी अमरीका इस इलाके में पूरी तरह अपना वर्चस्व कायम करने में नाकाम रहा। इन देशों की जनता ने खून बहाकर अपनी आजादी की हिफाजत की है। अमरीका लज्जित और पराजित हुआ है।

इन्हीं परिस्थितियों में ओबामा प्रशासन ने यूरोपीय संघ के दबाव में ईरान से नाभिकीय समझौता किया था। ज्वाइंट काम्प्रेहैंसिव प्लान ऑफ एक्शन के नाम से हुए समझौते में जहाँ एक ओर ईरान को बातचीत की मेज पर लाया गया और ईरान के नाभिकीय कार्यक्रम को रोकने के लिए दबाव बनाया गया, वहीं दूसरी ओर अमरीका और यूरोपीय संघ की कम्पनियों को ईरान में व्यापार जमाने का मौका मिला। मन्दी से पीड़ित यूरोप के लिए यह किसी संजीवनी से कम नहीं था। इस समझौते का सबसे अधिक फायदा यूरोप की कम्पनियों ने ही उठाया। इसलिए जब ट्रम्प ने इस समझौते को रद्द करने की पेशकश की तो उसका यूरोपीय संघ से विवाद तीखा हो उठा।

इजराइल और फिलिस्तीन का मामला भी जी–7 में विवाद का एक विषय था। पिछले कुछ सालों से इजराइल–फिलिस्तीन संघर्ष दुनिया की नजरों में है। अमरीका की शह पर इजराइल ने लगातार फिलिस्तीनी जनता के ऊपर तोप के गोले बरसाये हैं। सैंकड़ों निर्दोष बूढ़ों, बच्चों, महिलाओं का कत्ल किया है। दुनिया की अमनपसन्द जनता फिलिस्तीन के साथ खड़ी है। जनता के दबाव में अमरीका ने दोनों देशों के बीच चल रहे संघर्ष को रोकने के लिए “शताब्दी का समझौता” का वादा किया था। लेकिन अमरीका इस मामले में कितना संजीदा है, इसका पता इसी बात से लग गया, जब ट्रम्प  ने अमरीकी दूतावास को येरूसलेम में स्थानान्तरित करने का फैसला किया। फिलिस्तीन की सरकार ने अमरीका के इस कदम की कठोर निन्दा की और कहा कि अमरीका समझौते के मामले में ईमानदार नहीं है। फिलीस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने अमरीका के इस कदम को “शताब्दी का थप्पड़” करार दिया। 2017 के दिसम्बर में जब ट्रम्प ने येरूसलेम को इजराइल की राजधानी बनाने का फरमान सुनाया, तब फिलिस्तीन की सरकार ने शान्ति समझौते की बातचीत में भाग लेने से इनकार कर दिया। इजराइल और फिलीस्तीन के बीच संघर्ष में येरूसलेम भी एक बड़ा मुद्दा है। दोनों देश इस इलाके पर अपना दावा ठोंकते रहे हैं। इसलिए ट्रम्प का फैसला शान्तिपूर्ण बातचीत में बाधक बन गया। इस मामले को लेकर भी यूरोपीय संघ ट्रम्प से खफा है क्योंकि संघ इस समस्या का भी शान्तिपूर्ण समाधान चाहता है।

26 जुलाई 2018 को येरूसलेम पोस्ट की खबर के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद ने इजराइल के एक प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और इस इलाके में लड़ाई के लिए हमास को “दोषी नहीं” ठहराया गया। इजराइल ने संयुक्त राष्ट्र में एक लाइन का प्रस्ताव पास करवाने की कोशिश की, जिसमें माँग की गयी थी कि “हमास द्वारा गाजा में पकड़े गये इजराइल के नागरिकों और सैनिकों को तुरन्त रिहा कर दिया जाये।” प्रस्ताव के पक्ष में अमरीका, कनाडा, कोलम्बिया, मैक्सिको और उरूग्वे ने वोट दिया। जबकि इसके विरोध में 18 देशों ने वोट दिया। यूरोपीय संघ के देशों सहित 23 देशों ने वोट नहीं दिया। यह यूरोपीय संघ के ढीले–ढाले रवैये की ओर इशारा करता है। इस मुद्दे पर इजराइल की जबरदस्त हार ने यह साबित कर दिया कि आज भी अधिकांश देश फिलिस्तीनी जनता के साथ खड़े हैं।

द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले, जिस तरह इंग्लैण्ड, फ्रांस, स्पेन आदि देश अपनी सैन्य ताकत के दम पर गरीब देशों को लूटते थे। अब यही काम अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी समूह के देश पूँजी के बल पर करते हैं। विश्व व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे जी–7 के साम्राज्यवादी देश आपसी सहमति से दुनिया की जनता को लूटते हैं। लेकिन अब उनकी सहमति में दरार नजर आने लगी है। उनके बीच अन्तरविरोध, स्वार्थों का टकराव और मनमुटाव शुरू हो गया है। इसकी जड़ में वह चिरस्थायी वैश्विक मन्दी है जो 2008 में चरम पर पहुँच गयी। वैश्विक मन्दी ने दुनिया भर के बाजारों को नुकसान पहुँचाया है। शेयर बाजार की सट्टेबाजी को झटका दिया है। मन्दी पूर्व सट्टा बाजार की तुलना में आज सेंसेक्स की उछाल बहुत कम रह गयी है। बारी–बारी से दुनिया के सभी देशों में मन्दी ने कहर ढाया है। अर्थव्यवस्थाओं को तबाह किया है और घरेलू राजनीतिक समीकरणों में भारी फेरबदल किया है। यहाँ तक कि संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था के अन्तिम उद्धार के रूप में कई देशों में फासीवादियों को सत्ता की कुर्सी तक पहुँचाया है। इसने दो दशक से जारी नव–उदारवादी मॉडल पर कई बड़े सवाल खड़े किये हैं।

दरअसल नव–उदारवादी मॉडल की यह अन्तर्निहित खामी है कि वह बहुत बड़ी आबादी को अपने विकास के मॉडल से बाहर रखता है। साम्राज्यवादी पूँजीपतियों ने अपने देश की जनता का भरपूर शोषण किया है। इसके साथ–साथ उन्होंने गरीब और विकासशील देशों के शासकों और पूँजीपतियों के साथ साँठ–गाँठ करके वहाँ की जनता का भी शोषण किया है। इस लूटपाट और शोषण ने जनता की क्रयशक्ति में कमी करके बाजार को काफी सिकोड़ दिया है। नतीजा यह हुआ कि अब फिर से बाजार की मारा–मारी शुरू हो गयी है। तात्कालिक तौर पर जी–7 के देशों ने आपसी मतभेद के कुछ मुद्दों पर एक सहमति तो बना ली है लेकिन कई बड़े मुद्दों पर उनके बीच टकराव जारी है। अगर दुनिया की शोषित–पीड़ित जनता साम्राज्यवादियों के खिलाफ उठकर खड़ी हो जाये, तो इनकी लूट अधिक दिन तक कायम नहीं रह पायेगी। लूट पर टिकी उनकी अर्थव्यवस्था की चूलेेंं हिल जायेंगी और उनके बीच कलह–विग्रह इतना बढ़ जायेगा कि उनकी एकता टूट जायेगी। दुनिया एक नये युग के मुहाने पर खड़ी है। दुनिया की संघर्षशील जनता ही तय करेगी कि धरती का भविष्य कैसा होगा?        

 
 

 

 

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