मार्च 2019, अंक 31 में प्रकाशित

कोप–24 में जलवायु समस्या पर समझौतावादी रवैया

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन कांफ्रेन्स का 24वाँ (कोप–24) सम्मेलन पर्यावरण संकट का हल निकाल पाने में सफल न हो सका। यह सम्मेलन 2 से 15 दिसम्बर 2018 को पोलैण्ड के केटोवाइस शहर में आयोजित किया गया था। दुनियाभर में पर्यावरण के मुद्दे पर चल रहे छोटे–बड़े हजारों आन्दोलनोंं का दबाव ही था जिसके चलते इस सम्मेलन में इस समस्या पर विचार–विमर्श किया गया कि 2015 के उस विवाद को कैसे निबटाया जाये जो पेरिस जलवायु समझौते में गरीब और अमीर देशों के बीच कार्बन उत्सर्जन की सीमा तय करने को लेकर पैदा हो गया था। हम जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन पर अन्तरराष्ट्रीय पैनल (आईपीसीसी) की उस रिपार्ट को सऊदी अरब, अमरीका, कुवैत और रूस खारिज कर चुके हैं जिस रिपोर्ट में कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार ठहराये गये देशों में इनका भी नाम था। कोप–24 में बीच–बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की गयी। सम्मेलन में यह बात भी खुलकर सामने आ गयी कि दुनियाभर की शासन–सत्ता में अंधराष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी उभार होने के चलते जलवायु परिवर्तन पर होने वाली अन्तरराष्ट्रीय वार्ताओं और समझौतों में बाधा पड़ रही है। इसे लेकर कोप–24 में चिन्ता भी व्यक्त की गयी।

इस सम्मेलन में दुनियाभर से 23,000 प्रतिनिधि शामिल हुए। प्रतिनिधियों ने इस बात पर सहमति जाहिर की कि एक नयी अन्तरराष्ट्रीय जलवायु पद्धति बनायी जाये जिसके तहत यह अनिवार्य किया जाये कि सभी देश कार्बन उत्सर्जन और उसमें कटौती से सम्बन्धित अपनी रिपोर्ट हर दो साल में पेश करें। यह व्यवस्था 2024 से लागू होगी। लेकिन देशों के ऊपर एक बार फिर कटौती से सम्बन्धित कोई बाध्यकारी नियम और उपाय लागू नहीं किया गया। इसके चलते दुनियाभर के उन पर्यावरणवादियों को बहुत निराशा हुई जो कोप–24 से बहुत अधिक उम्मीद पाले बैठे थे। इसी सम्मेलन में उत्सर्जन से सम्बन्धित जो रिपार्ट पेश की गयी, उससे साफ पता चलता है कि कार्बन के वैश्विक उत्सर्जन में कमी नहीं हो रही है बल्कि इसमें बेतहासा वृद्धि हो रही है।

आश्चर्य की बात यह है कि जिस शहर केटोवाइस में कोप–24 की कांफ्रेन्स आयोजित की गयी थी, वह सिलेसिया का कोयला बाहुल्य क्षेत्र है। इस बात ने कांफ्रेन्स के माहौल को दूषित कर दिया कि कोयला क्षेत्र की कई दिग्गज कम्पनियों को बातचीत के लिए कोप–24 में आमन्त्रित किया गया था। कांफ्रेन्स से कुछ दिन पहले ही पोलैण्ड ने अपने यहाँ एक नये कोयला खदान को खोलने का फैसला किया था। यह बात गौर करने वाली है कि पोलैण्ड की लगभग 80 प्रतिशत बिजली कोयले से बनायी जाती है, जो प्रदूषण का भयानक स्रोत है। केटोवाइस शहर की हवा में कोयले के इतने बारिक कण और जहरीला धुआँ भरा हुआ था कि प्रतिनिधियों को भी खुली हवा में साँस लेने में दिक्कत हुई। आम शहरवासियों की बात ही क्या? कोढ़ में खाज यह कि जिस जगह कांफ्रेन्स चल रही थी, उसे कोयले के विविध उत्पादों से सजाया गया था, मानो यह जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन न हो, बल्कि कोयले के उत्पादों का कोई व्यापार मेला हो। ये सभी घटनाएँ दिखाती हैं कि दुनियाभर की सरकारें जलवायु परिवर्तन के विविध सम्मेलनों में महज औपचारिकता के लिए शामिल होती हैं, जलवायु संकट के समाधान के लिए नहीं। इनसे कोई हल निकलेगा, यह सोचना बेमानी है।

लेकिन सम्मेलन चाहे विफल हो जायें, जलवायु संकट की रफ्तार बढ़ाती ही जा रही है। यूनिवसिर्टी ऑफ ईस्ट एंजलिया और ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट ने अपने शोध में पाया कि दुनियाभर में कुल कार्बन का उत्सर्जन 2018 में यह 3710 करोड़ टन के रिकार्ड ऊँचे स्तर तक पहुँच गया। भारत दुनिया में उत्सर्जन के मामले में तीसरे स्थान पर है। इस रिपोर्ट में 2017 के भारत के उत्सर्जन में 6.3 प्रतितशत की वृद्धि दर्शायी गयी है। 2017 में विश्व के कुल उर्त्सजन में 1.6 प्रतिशत और 2018 में 2.7 प्रतिशत की वृद्धि दर्शायी गयी। कार्बन उत्सर्जन में यह वृद्धि कोयला, गैस और तेल के बढ़ते इस्तेमाल के चलते हुई है। 2018 में दुनिया के 10 बड़े उत्सर्जक हैं–– चीन, अमरीका, भारत, रूस, जापान, जर्मनी, ईरान, सऊदी अरब, साउथ कोरिया और कनाडा। अगर यूरोपीय संघ को क्षेत्र विशेष की तरह माने तो वह तीसरे स्थान पर आयेगा। आज दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन में चीन की हिस्सेदारी 27 प्रतिशत है। 2018 में उसके उत्सर्जन में 4.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई। अमरीका जो पेरिस समझौते से भाग खड़ा हुआ था, 2018 के वैश्विक उत्सर्जन में उसकी हिस्सेदारी 15 प्रतिशत थी, जिसमें कई सालों तक कमी के बाद पिछले साल 2.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह एक बेहद चिन्ताजनक बात है।

कार्बन उत्सर्जन की बढ़ती मात्रा ने पर्यावरण के बड़े संकटों को जन्म दिया। आज से कुछ साल पहले पर्यावरण वैज्ञानिक जिन विभीषिकाओं की सम्भावना जताया करते थे, वह अब कोई दूर की बात नहीं रह गयी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने एक अध्ययन में पाया कि वायु प्रदूषण के चलते हर साल दुनियाभर में 70 लाख लोगों की मौत हो जाती है और इस समस्या से जुड़ी कल्याणकारी योजनाओं में लगभग 35,768 अरब रुपये हर साल खर्च करने पड़ते हैं। इसके बावजूद लोगों को अच्छे स्वास्थ्य की सुविधा उपलब्ध नहीं करायी जा सकी है। इस अध्ययन में यह भी पता चला कि जलवायु परिवर्तन प्रकृति में इनसानी दखलंदाजी बढ़ने के चलते हो रहा है जो बीमारियों का कारण बन रहा है।

ऑक्सफोर्ड जलवायु परिवर्तन संस्थान के शोधकर्ताओं का मानना है कि औद्योगीकरण के पहले दुनिया का तापमान अपवाद स्वरूप ही बढ़ता था। वह भी हजार सालों में एक बार। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि आज के जलवायु परिवर्तन का सीधा सम्बन्ध मानव निर्मित पर्यावरण प्रदूषण से है। यह बात उन्होंने उस समय कही, जब अमरीका दुनियाभर में यह प्रचारित कर रहा है कि जलवायु परिवर्तन एक स्वभाविक प्रक्रिया है। इसका औद्योगीकरण और मानवीय क्रियाकलाप से कोई सम्बन्ध नहीं है।

भारत और अमरीका समेत दुनिया के कई अन्य देशों में दक्षिणपंथी सरकारों ने सत्ता की कुर्सी पर काबिज हुई हैं। जैसा कि सभी जानते हैं, 2008 के बाद आयी वैश्विक आर्थिक मन्दी का समाधान न तो किसी देश की सरकार और न ही पूँजीपति वर्ग कर सका। यह मन्दी व्यवस्था का चिरन्तन संकट बन गयी है। अपनी पूँजी को संकट से उबारने के लिए दुनियाभर के पूँजीपतियों ने ऐसी दक्षिणपंथी सरकारों को अपना समर्थन देना शुरू किया है जो उनके मुनाफे की हवस पूरी करने के आगे न तो अपने देश की जनता के हितों की परवाह करती हैं और न ही पर्यावरण की। भारत में भाजपा सरकार ने उन परियोजनाओं को एकतरफा मंजूरी दे दी जो पर्यावरण के लिहाज से बेहद खतरनाक हैं। यही हाल अमरीका, ब्राजील आदि देशों का भी है। सवाल यह है कि क्या ऐसी सरकारें जो अपने देशों के पर्यावरण को प्रदूषित करने में कॉपोरेट घरानों की मदद कर रही हैं, वे इस समस्या के समाधान के लिए गम्भीरता से कदम आगे बढ़ायेंगी। क्योटो सम्मेलन से लेकर कोप–24 तक के सम्मेलन इसका उत्तर ‘न’ में देते हैं। जाहिर सी बात है कि दुनिया में पर्यावरण संकट तेजी से बढ़ता जा रहा है लेकिन दुनियाभर की सरकारें इसे लेकर गम्भीर नहीं हैं।

जिस तेज रफ्तार से जलवायु परिवर्तन से होने वाली तबाही की गिरफ्त में दुनिया फँसती जा रही है और इसके दुष्परिणाम दुनियाभर की जनता को झेलने पड़ रहे हैं, वह एक गम्भीर चिन्ता की बात है। लेकिन यह भी सच है कि पर्यावरण सम्मेलनों की असफलता ने निराशा को बढ़ाया ही है। दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश अपने राष्ट्रीय हितों, यानी वहाँ के पूँजीपतियों के संकीर्ण वर्गीय हितों से समझौता करने को तैयार नहीं हैं। इसी के चलते 2015 के पेरिस समझौते से निकले समाधान को इन देशों ने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। इस समझौते में यह तय किया गया था कि इस शताब्दी के अन्त तक दुनिया के तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री से नीचे रखा जायेगा। अब से अगर सभी देश यह लक्ष्य मान लें तो उन्हें सामूहिक रूप से 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 50 प्रतिशत की कटौती करनी होगी और 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को शून्य करना होगा।

 
 

 

 

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