जून 2023, अंक 43 में प्रकाशित

यूक्रेन में अमरीका और नाटो का हर दाँव असफल

इस साल जून महीने की शुरुआत में यूक्रेन ने रूस पर पलटवार किया। इस जवाबी हमले में रूस की अपेक्षा यूक्रेन को कहीं ज्यादा नुकसान हुआ और रूस ने भारी संख्या में यूक्रेनी सेना को दिये गये नाटो के घातक हथियारों को नष्ट कर दिया।

रूस–यूक्रेन युद्ध को शुरू हुए पन्द्रह महीने से अधिक समय हो गया है। यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से यूरेशिया की जमीन का सबसे बड़ा युद्ध बन गया है। हम सभी जानते हैं कि इस युद्ध में परदे के पीछे से अमरीका और नाटो छद्म युद्ध लड़ रहे हैं और उनका उद्देश्य है कि रूस की सैनिक ताकत को कमजोर करके उसे एक शक्तिहीन देश में बदल दें जिससे भविष्य में वह उनके खिलाफ खड़ा न हो सके। इसके साथ ही रूस–चीन सहित उन देशों को सबक सिखाया जाये जो बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की वकालत करके दुनिया पर अमरीकी वर्चस्व को कमजोर करना चाहते हैं। लेकिन तमाम छल–छद्म और जोर आजमाइश के बावजूद अमरीका और उसके नाटो सहयोगियों को अपनी हार नजर आने लगी है। दुनिया भर में यह चर्चा जोरों पर है कि यूक्रेन में अमरीका के दाँव–पेच असफल होते जा रहे हैं।

अमरीका ने बहुत पहले से ही रूस–यूक्रेन युद्ध की पटकथा लिखनी शुरू कर दी थी। उसने 2014 के बाद से ही यूक्रेन की सरकार और उसके प्रशासन को उकसावा देकर दोनबास और लोहान्स्क इलाके में रूसी समुदाय पर कहर बरपा करवाया जिससे रूस यूक्रेन के खिलाफ कदम उठाने के लिए मजबूर हो जाये। इसके साथ ही यूक्रेन को नाटो की तरफ लुभाने की गन्दी चाल चली गयी। यह भी रूस को भड़काने वाला कदम था क्योंकि रूस किसी भी कीमत पर यह मंजूर करने के लिए तैयार नहीं था कि उसका पड़ोसी देश यूक्रेन नाटो में शामिल हो। जब रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया तो अमरीका ने एक शैतानी रणनीति अपनायी। उसने तय किया कि वह रूस के खिलाफ यूक्रेनी लोगों की जान का इस्तेमाल करेगा और नाटो से मिलकर रूस के खिलाफ हथियारों का जखीरा यूक्रेन को भेजेगा। यानी इस युद्ध में खून बहेगा यूक्रेन का और हथियार इस्तेमाल हांेगे नाटो के। इस तरह अमरीका ने छद्म युद्ध लड़ने की रणनीति अपनायी। अमरीका और नाटो के नीति निर्माताओं को विश्वास था कि वे इस रणनीति के जरिये रूस को कई वर्षों तक ‘अफगानिस्तान’ जैसे एक और दीर्घकालीन युद्ध में फँसा देंगे। अमरीकी युद्धोन्मादी रणनीतिकारों ने यहाँ तक दावा किया कि रूस के लिए यूक्रेन नया ‘वियतनाम’ साबित होगा। इस तरह अमरीकी साम्राज्यवादियों ने सपना देखा कि दुनिया पर उनका वर्चस्व आगे भी जारी रहेगा।

लेकिन हालत यह है कि अमरीका को हर मोर्चे पर मुँह की खानी पड़ रही है। रूसी सेना ने वायु रक्षा, इलेक्ट्रॉनिक युद्ध, तोपखाने, काउण्टर आर्टिलरी और हाइपरसोनिक मिसाइलों के इस्तेमाल से बाजी मार ली है। रूस ने अमरीका और नाटो द्वारा भेजे गये हथियारों के जखीरे के बड़े हिस्से को अपनी मिसाइलों से नष्ट कर दिया। यूक्रेन की सेना उसका इस्तेमाल भी न कर पायी। शुरू से ही इस युद्ध में अमरीका और नाटो की कमजोरियाँ उजागर हो गयी थीं। रूस को विश्व समुदाय से अलग–थलग करने के उनके तमाम प्रयास विफल रहे। इस दौरान यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाएँ आर्थिक मन्दी से जर्जर होती गयीं और युद्ध ने तो जैसे उनकी कमर ही तोड़ दी क्योंकि रूस पर प्रतिबन्ध खुद इन यूरोपीय देशों के लिए घातक साबित हुआ जबकि रूस ने रियायती दर पर अपना कच्चा तेल बेचकर अपनी आर्थिक समस्या को सुलझा लिया।

अमरीका ने रूस को बदनाम करने और उस पर नियंत्रण रखने की जो योजना बनायी थी, उसे केवल जी–7 देशों और कुछ दूसरे पिछलग्गू देशों का सहयोग ही मिला जबकि कई देशों ने तो प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से उसकी इस योजना को खारिज कर दिया। दक्षिणी गोलार्द्ध के ज्यादातर विकासशील पूँजीवादी देशों ने अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए इस युद्ध से फायदा उठाया। इन देशों के पूँजीपतियों ने देखा कि इस टकराव के दौरान अमरीका या रूस के साथ बेहतर सौदेबाजी की जा सकती है। जैसे भारत ने अमरीकी दबाव के बावजूद रूस से कच्चा तेल खरीदा। इसी तरह की प्रवृत्तियाँ दक्षिण अमरीका, अफ्रीका, मध्य पूर्व और पूर्वी एशियाई देशों के पूँजीपतियों में भी देखने को मिली। इसने अमरीकी हितों को काफी नुकसान पहुँचाया।

अमरीका ने यूक्रेन युद्ध के जरिये रूस और चीन के बीच दरार डालने का भरपूर प्रयास किया, लेकिन उसका यह कदम खामख्याली बनकर रह गया। इस दौरान चीन पूरी तरह रूस के साथ न केवल खड़ा रहा, बल्कि दोनों के बीच आर्थिक और सैनिक साझेदारी भी हुई। दोनों ही इस साझेदारी को खतरे में डालने के लिए शायद ही तैयार हों। अमरीकी और यूरोपीय नीति निर्माताओं ने चीन और रूस के बीच फूट डालने के लिए शी जिनपिंग शासन को कठघरे में खड़ा किया। उसे बदनाम करने की बहुत कोशिश की। चीन के खिलाफ ताइवान को भड़काया गया, लेकिन इस मामले में भी अमरीका सफल होता नहीं दिख रहा है।

पिछले तीन दशकों से अमरीकी साम्राज्यवाद का दुनिया की अर्थव्यवस्था पर बेलगाम दबदबा रहा है। अमरीका डॉलर पर अपने वर्चस्व, अन्तरराष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखला पर नियंत्रण और मनमाने ढंग से देशों पर प्रतिबंध लगाकर अपनी ताकत का खुला इजहार करता रहा है। इन तीनों हथकण्डों पर केवल अमरीका का इजारा है जो उसे अन्य सभी साम्राज्यवादियों का सरगना बनाता है। इन्हीं हथकण्डों से वह किसी भी देश की घेरेबन्दी करके उसे विश्व समुदाय से अलग करने और उससे अपनी शर्ते मनवाने में सफल होता रहा है। पिछले तीन दशकों से उसने एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था का जमकर फायदा निचोड़ा है। ये हथकण्डे वास्तव में रूस–चीन की अपेक्षा अमरीका को बड़ी मजबूत स्थिति में ला देते हैं।

इन तीन दशकों में नवउदारवादी व्यवस्था का सबसे अधिक फायदा उठानेवाला अमरीका ही है, जो खुद को दुनिया का सरगना मानता है। उसने दक्षिणी गोलार्द्ध के कमजोर देशों पर न केवल आर्थिक, बल्कि राजनीतिक वर्चस्व भी कायम रखा। लेकिन दुनिया हमेशा कुछ मुट्ठीभर साधन–सम्पन्न लोगों की मर्जी से नहीं चलती। इसी दौरान चीन ने भी नवउदारवादी व्यवस्था का फायदा उठाकर पूँजीवादी विकास के नये–नये कीर्तिमान गढ़ लिये। चीन ने विकास की कई मंजिलों को पार करके इतनी ताकत हासिल कर ली है कि वह अमरीका के लिए लगातार सिरदर्द बनता जा रहा है। रूस भी पिछले तीन दशकों में नयी ताकत ग्रहण करके अपने पैरों पर खड़ा हो चुका है। उसने अब अमरीका के किसी दबाव के आगे न झुकने की ठान ली है। इन सबके बावजूद आज भी अमरीका का पलड़ा भारी है। उसके पास इतनी ताकत है कि वह रूस को अस्थिर करने और उसे झुकाने का दमखम रखता है।

फिर भी यूक्रेन–रूस युद्ध में रूस को झुकाने की अमरीकी रणनीति कामयाब होती नजर नहीं आ रही है। चैंकाने वाली बात यह है कि रूस लगातार अपनी स्थिति को मजबूत करता जा रहा है। पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के लिए फ्रांस, जर्मनी सहित कई यूरोपीय देश रूस पर इतने निर्भर हैं कि जब अमरीका और नाटो देशों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाया तो उसका नुकसान रूस को कम हुआ, बल्कि इससे इन यूरोपीय देशों की हालत ज्यादा खराब होती चली गयी। आज हालत यह है कि अब तक विकास के कुलांचे भरने वाला जर्मनी जैसा औद्योगिक देश मन्दी की चपेट में आ गया है। हम जानते हैं कि यूरोपीय देश समृद्धि और औद्योगिक विकास के लिए रूस की सस्ती ऊर्जा पर कितने निर्भर हैं।

रूस के आर्थिक संकट से बचे रहने का यही कारण भी है। जब यूरोपीय देश ने रूस से आर्थिक सम्बन्ध कमजोर करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली, तब इसका सबसे अधिक फायदा चीन और भारत सहित कई विकासशील पूँजीवादी देशों ने उठाया। खुद भारत ने रूस से तेल का आयात बहुत बढ़ा दिया। इससे अमरीकी हितों को दोहरा नुकसान हुआ–– पहला, कई देशों ने अमरीका से दूर हटते हुए रूस से व्यापारिक सम्बन्ध बनाया जो अमरीकी रणनीति की कमजोरी की ओर इशारा करता है। दूसरा, अमरीका के सहयोगी यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाएँ सस्ते रूसी ऊर्जा के अभाव में संकटग्रस्त होती चली गयीं। इन सब ने रूसी हितों को दोहरा लाभ भी पहुँचाया। रूस ने ऊर्जा निर्यात से प्राप्त आय का इस्तेमाल औद्योगिक सामान, मशीनरी और उपभोक्ता माल को खरीदने में किया। चीन भी मजबूती से रूस के साथ खड़ा रहा। इसी का नतीजा है कि रूस–चीन व्यापार अभूतपूर्व ऊँचाई पर पहुँच गया। आईएमएफ के अनुसार, 2023–2024 में रूस की जीडीपी में वृद्धि के जबरदस्त आसार हैं।

आर्थिक रूप से मजबूती ने रूस को युद्ध के मोर्चे पर काफी मदद पहुँचायी, लेकिन वास्तव में युद्ध के सम्बन्ध में यह रूस की रणनीति का कमाल था कि अमरीका और नाटो को मुँह की खानी पड़ रही है। युद्ध की शुरुआत में रूस ने यूक्रेन की राजधानी कीव की घेरेबन्दी कर ली थी, इससे यूक्रेन का सारा ध्यान राजधानी को बचाने में लग गया, जिसका फायदा उठाते हुए रूस ने दूसरी तरफ से जोरदार हमला बोल दिया। रूस ने यूक्रेन के दोनेतस्क, लुहानस्क, खेरसॉन और जैपोरेजिया राज्यों को अपने में मिला लिया। इन राज्यों का सम्मिलित क्षेत्रफल 90 हजार वर्ग किलोमीटर है। यह यूक्रेन के लिए बहुत बड़ा झटका था क्योंकि इससे न केवल उसका बहुत बड़ा औद्योगिक इलाका हाथ से निकल गया, बल्कि वह काफी बड़े समुद्री इलाके से भी कट गया।

युद्ध शुरू होने के कुछ महीनों बाद जब रूस को नाटो द्वारा प्रशिक्षित यूक्रेनी सशस्त्र बलों की स्थिति का सही पता चला, तो रूस ने लड़ाई का तौर–तरीका बदल दिया। उसने कब्जा किये गये यूक्रेनी क्षेत्रों से आगे बढ़ना बन्द कर दिया। यूक्रेनी हथियार डिपों, खुले में तैनात यूक्रेनी सैनिकों और रणनीतिक महत्व के अन्य बिन्दुओं को अपने हमले का निशाना बनाया। इसके लिए यूक्रेनी सेना और उसके सहयोगी नाटो तैयार नहीं थे। इसलिए उन्हें बहुत ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा। रूस ने शहरों में चल रही लड़ाइयों को जीत लिया है जिससे उसके पूर्वी यूक्रेन के इलाके सुरक्षित हो गये हैं। उसने बड़ी चालाकी से कम नुकसान उठाते हुए, नाटो की चालों को लगभग नाकामयाब कर दिया है।

पिछले 15 महीनों में, रूस ने यूक्रेनी सैन्य बल का बड़ा हिस्सा नष्ट कर दिया है। यूरोप में नाटो प्रशिक्षण शिविर में तैयार यूक्रेनी सेना की नयी इकाइयाँ इन बड़े नुकसानों का स्थान नहीं ले सकती हैं। यूक्रेन और नाटो देशों की औद्योगिक क्षमता को गम्भीर नुकसान पहुँचा है। इससे नाटो देशों की लड़ाकू क्षमता में कमी आयी है।

यह देखना अभी बाकी है कि अमरीका और नाटो इस नुकसान से कैसे उबरते हैं और यह पूरा घटनाक्रम अन्तरराष्ट्रीय समीकरण को किस तरह प्रभावित करेगा?

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