सितम्बर 2020, अंक 36 में प्रकाशित

रूस का बढ़ता वैश्विक प्रभाव और टकराव की नयी सम्भावना

आज रूस एक वैश्विक ताकत है, इस बात से इनकार करना मुश्किल है और इस बात पर भी यकीन नहीं आता कि 1990 के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद वह एक कमजोर देश में तब्दील हो गया था। उस दौर में उसकी अर्थव्यवस्था की हालत डावाँडोल थी। नये शासक वर्ग ने सोवियत दौर के राजनीतिक सिद्धान्त को तिलांजली दे दी थी, जबकि आगे बढ़ने का उसके पास कोई राजनीतिक मॉडल भी नहीं था, और न ही पश्चिमी देशों के लोकतंत्र का उसे कोई अनुभव था। अमरीका और यूरोपीय संघ उसे सन्देह की नजरों से देखते थे कि शायद रूस नवउदारवादी मॉडल को न अपना पाये और अमरीकी वर्चस्व को स्वीकार न करे। नाटो के जरिये अमरीका रूस की घेराबन्दी करने में लगा हुआ था। सोवियत विघटन से बने देशों के साथ रूस अलग–अलग तरह के टकरावों में उलझा हुआ था। दुनिया भर में कोई भी ताकतवर देश न तो उस पर विश्वास करता था और न ही उसके पक्ष में खड़ा होने की जहमत उठाता था। इन सब प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद उसने खुद को सम्हाला और आज वह एक विश्वस्तरीय ताकत बनकर अमरीका को पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया से पीछे धकेलता जा रहा है। इतने बड़े बदलाव को उसने कैसे अंजाम दिया, यही इस लेख का विषय है।

विघटन के बाद लगभग एक दशक तक रूस के राष्ट्रपति रहे बोरिस येल्तसिन, जिन्होंने निजीकरण को आगे बढ़ाया था, देश के अन्दर उनका विरोध जारी था। रूस में सत्ता के लिए संघर्ष और आर्थिक सुधारों की दिशा में बढ़ने के चलते एक राजनीतिक संकट का जन्म हुआ और 1993 की शरद ऋतु में खून खराबा भी हुआ। येल्तसिन तथा संसद आमने–सामने टकराव की मुद्रा में आ गये। 22 सितम्बर को संसद ने येल्तसिन को अपदस्थ करके एलेक्ट्रा रुतस्कॉय को नया राष्ट्रपति नियुक्त करने की घोषणा की। 2–3 अक्टूबर को सड़क पर हुए दंगों के बाद तनाव तेजी से बढ़ गया। 4 अक्टूबर को येल्तसिन ने विशेष बलों और एलीट सेना की टुकड़ियों को संसद भवन जिसे “व्हाइट हाउस” कहा जाता है, पर हमला करने का आदेश दिया। संसदीय समर्थकों ने आत्मसमर्पण कर दिया और उन्हें तुरन्त गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। आधिकारिक गिनती के अनुसार इस टकराव में दोनों ओर से 187 लोग मारे गये थे, 437 घायल हुए थे।

इस प्रकार सोवियत बाद की रूसी राजनीति में संक्रमणकालीन अवधि समाप्त हो गयी। दिसम्बर 1993 में जनमत संग्रह के बाद एक नये संविधान को स्वीकार कर लिया गया। रूस को एक मजबूत राष्ट्रपति प्रणाली दी गयी। निजीकरण को आगे बढ़ाया गया। हालाँकि पुराने संसदीय नेताओं को 26 फरवरी, 1994 को रिहा कर दिया गया, लेकिन वे इसके बाद राजनीति में कोई खुली भूमिका नहीं निभा पाये।

रूस में आर्थिक सुधार, मुट्ठीभर नवधनाढ्य वित्तपतियों का उदय और उनके हाथों में सत्ता का केन्द्रीकरण

दुनिया की सबसे बड़ी राज्य–नियंत्रित अर्थव्यवस्था रूस का बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था का रूपान्तरण असाधारण रूप से कठिन काम था। इस कठिन संक्रमण के लिए उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों को बढ़ावा दिया गया। ये नीतियाँ अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक की नवउदारवादी नीति के अनुकूल तथा वाशिंगटन आम सहमति पर आधारित थीं।

रूस में निजीकरण और पूँजीवादी नीतियों को बढ़ावा देने के चलते संख्या में कम, लेकिन आर्थिक रूप से सम्पन्न वित्तीय कुलीन वर्ग का उदय हुआ। 1980 के दशक के अन्त और 1990 के दशक की शुरुआत में रूसी अर्थव्यवस्था के द्वार विदेशी पूँजी के लिए खोल दिये गये। इसके चलते देशी पूँजीपतियों के लिए भी नये अवसरों की बाढ़ आ गयी। जैसा कि हम जानते हैं कि 20 वीं सदी के उत्तरार्ध में सोवियत व्यवस्था पूँजीवाद विरोधी नहीं रह गयी थी, खुद इस व्यवस्था के अन्दर ही कम्युनिस्ट पार्टी, केजीबी, और कोम्सोमोल (सोवियत यूथ लीग) के नेता, बॉस और टेक्नोक्रेट सोवियत युग की ताकत और विशेषाधिकारों को भुना रहे थे। कइयों ने चुपचाप पार्टी, सरकार और जनता की सम्पत्ति को विदेशी खातों और निवेशों में हस्तान्तरित कर दिया था। दूसरे कुछ लोगों ने गैर–कानूनी बैंक और व्यवसाय को चोरी छिपे चलाना शुरू किया। इन्होंने सरकार में अपने अन्दरूनी सूत्रों का लाभ उठाते हुए सरकारी अनुबन्धों और लाइसेंसों को हासिल करने और उच्च बाजार–मूल्य पर व्यापार करने, राज्य–रियायती कीमतों पर वित्तीय क्रेडिट और आपूर्ति प्राप्त करने के लिए खूब जोड़–तोड़ किया था। उसी समय कुछ ऐसे युवा लोगों ने अमीर बनने के लिए दूसरा रास्ता अपनाया, जिनकी सामाजिक–राजनीतिक पहुँच बहुत अधिक नहीं थी। 1987 और 1992 के बीच, इन अग्रणी उद्यमियों ने प्राकृतिक संसाधनों और विदेशी मुद्राओं का व्यापार करके तथा विदेशी आयात को घरेलू बाजार में ऊँची कीमतों पर बेचकर काफी धन जुटाया। बदले में, नकदी आधारित और अत्यधिक अपारदर्शी बाजारों के ऊभार ने बड़ी संख्या में रैकेट गिरोह को पनपने के लिए माकूल अवसर उपलब्ध कराया।

1990 के दशक के मध्य तक, भूतपूर्व सोवियत नेताओं ने काफी वित्तीय संसाधन जमा किये, जबकि दूसरी ओर, सबसे सफल उद्यमी भी सरकारी अधिकारियों और सार्वजनिक राजनीतिज्ञों से साँठ–गाँठ करने में सफल हुए। राज्य के उद्यमों के निजीकरण ने उनके पास एक अनूठा अवसर उपलब्ध कराया, ताकि वे सार्वजनिक सम्पत्ति को अपने अधीन कर सकें। येल्तसिन सरकार ने बड़े पैमाने पर निजीकरण को जम्प–स्टार्ट देने के लिए मुफ्त वाउचर प्रणाली का उपयोग किया। लेकिन इसने लोगों को नकदी के साथ निजीकृत उद्यमों में स्टॉक के शेयरों को खरीदने की भी अनुमति दी। भले ही शुरू में प्रत्येक नागरिक को समान मूल्य का वाउचर प्राप्त हुआ हो, कुछ महीनों के भीतर अधिकांश वाउचर्स बिचैलियों के हाथों में परिवर्तित होते चले गये। बैंक और वित्तीय संस्थान के जरिये निवेश, विनिवेश तथा शेयरों की सौदेबाजी ने कुछ शक्तिशाली और धनी वित्तीय समूहों को मूल्यवान राजकीय सम्पत्ति हासिल करने में सक्षम बनाया। देश में चल रहे आर्थिक सुधारों की तेज आँधी के चलते एक बहुत बड़े वित्तीय कुलीन वर्ग का जन्म हुआ।

रूस के सबसे शक्तिशाली और प्रमुख वित्तीय कुलीनों ने, जो एकाधिकारी कम्पनियों के मालिक हैं, देश की राजनीति और अर्थव्यवस्था पर अपना दबदबा कायम कर लिया। इसके चलते रूसी जनता दिनोंदिन कंगाली का शिकार होती गयी और उसका जीवन स्तर नीचे गिर गया। हालत यह हो गयी कि रूस में यह वित्तीय कुलीन वर्ग जनता का सबसे अधिक घृणा का पात्र बन गया। दूसरी ओर यूरोप और अमरीका ने “मुक्त–बाजार सुधारों” का रास्ता अपनाने के लिए रूस की तारीफ के पुल बाँध दिये और यह खुश–फहमी पाल चले कि रूस पश्चिमी लोकतांत्रिक चुनावी व्यवस्था को अपना लेगा। लेकिन बाद में इन्होंने रूस की अन्दरूनी राजनीति पर प्रभाव जमाने के लिए भ्रष्टाचार और वित्तीय संकटों की जिम्मेदारी वित्तीय कुलीन वर्ग के कन्धों पर डालने का दिखावा किया। रूस ने जल्द ही अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में अमरीका प्रायोजित पश्चिम के नवउदारवादी मॉडल को अपना लिया, लेकिन वह राजनीतिक प्रणाली के रूप में पश्चिमी लोकतंत्र से उतना ही बेगाना बना रहा।

वित्तीय संकट और राजनीतिक उथल–पुथल

बाजारों में शुरुआती उथल–पुथल और तेजी के बाद, रूस आर्थिक मन्दी में फँस गया। 1998 की वैश्विक मन्दी, जो जुलाई 1997 में एशियाई वित्तीय संकट के साथ शुरू हुई थी, इसने रूस के आर्थिक संकट को बढ़ा दिया। फिर से महँगाई बढ़ने लगी थी। 1990–91 में सोवियत संघ के विघटन के बाद, रूस ने गरीबी और आर्थिक असमानता की दरों में तेज वृद्धि का सामना किया था। बाजार–उन्मुख आर्थिक सुधारों के चलते रूसी आबादी का जीवन स्तर गिर गया था। फलस्वरूप, सुधारों के खिलाफ जनता में विरोध की लहर दौड़ गयी। सुधार विरोधी उम्मीदवारों को वोट देकर जनता ने अपनी नाराजगी जाहिर की। ऐसा करते हुए वह अपने सोवियत कालीन अतीत को अक्सर याद करती रही और वह उस दौर की स्थिरता और व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए तरस गयी। जनता ने सोवियत काल के राज्य–नियंत्रित मजदूरी और कीमतों का लाभ उठाया था और वह 1990 के दशक में आर्थिक सुधारकों और नये नग्न पूँजीवाद के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख रखती थी।

रूसी निर्यात के 80 प्रतिशत से अधिक का हिस्सा तेल, प्राकृतिक गैस, धातु और लकड़ी के निर्यात का है। आर्थिक संकट के चलते इनका निर्यात गिर गया और रूबल का अवमूल्यन हो गया। पश्चिमी लेनदारों की भारी कमी हुई, और रूस के डूबते बैंकिंग क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो गया, क्योंकि कई बैंकों के ऊपर काफी डॉलर उधार थे। विदेशी निवेश देश से बाहर चला गया, और वित्तीय संकट ने रूस से पूँजी का एक अभूतपूर्व बहिर्गमन शुरू किया। इससे सरकारी राजस्व में और कमी आ गयी और जल्द ही केन्द्र सरकार ने बड़े ऋणों की अदायगी में खुद को असमर्थ पाया और अन्तत: वह अपने कर्मचारियों का भुगतान करने में भी असफल हो गयी। सरकार ने कर्मचारियों को मजदूरी, पेंशन और फँड का समय पर भुगतान करना बन्द कर दिया और जब श्रमिकों को भुगतान किया जाता था, तो यह अक्सर रूबल के बजाय माल के साथ होता था। कोयला खनिक विशेष रूप से खराब हालत में थे और गर्मियों में कई हफ्तों तक उन्होंने विरोध के साथ ट्रांस–साइबेरियन रेलमार्ग के खण्डों को अवरुद्ध कर दिया, प्रभावी रूप से देश को दो हिस्सों में काट दिया गया। जैसे–जैसे समय बीता, उन्होंने अपनी आर्थिक माँगों के अलावा येल्तसिन के इस्तीफे की माँग भी की।

रूस आश्चर्यजनक गति के साथ वित्तीय संकट से वापस उबर गया। इसका कारण यह है कि 1999–2000 के दौरान विश्व बाजार में तेल की कीमतों में तेजी से वृद्धि हुई (जिस तरह विश्व बाजार में ऊर्जा की कीमतों में गिरावट ने रूस की वित्तीय परेशानियों को और गहरा कर दिया था, उसी तरह उसकी अर्थव्यवस्था में पेट्रोलियम के मँहगे निर्यात से तेज सुधार भी हुआ।)। खाद्य प्रसंस्करण जैसे घरेलू उद्योगों को मुद्रा अवमूल्यन से लाभ हुआ, जिसके कारण आयातित वस्तुओं की कीमतों में भारी वृद्धि हुई। इसके अलावा, चूँकि रूस की अर्थव्यवस्था विनिमय के अन्य वस्तु और गैर–मौद्रिक साधनों पर इतनी बड़ी मात्रा में काम कर रही थी, वित्तीय पतन का कई उत्पादकों पर प्रभाव कम था।

व्लादिमीर पुतिन तानाशाह या रूसी जन–नायक

पुतिन शासन के शुरुआती दौर में रूस अपनी अन्दरूनी समस्याओं में ही उलझा रहा। आर्थिक मन्दी दूर हो गयी थी लेकिन अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं बन पायी थी और इसके साथ ही वह सामाजिक–राजनीतिक अस्थिरता का शिकार था। अगस्त 2000 में रूसी पनडुब्बी कुर्स्क में एक विस्फोट हुआ, जिससे वह बार्ट्स सागर के उथले क्षेत्र में डूब गयी। 23 अक्टूबर 2002 को चेचन अलगाववादियों ने एक मॉस्को थिएटर पर कब्जा कर लिया। अन्दर 700 से अधिक बन्धकों में 100 से अधिक की हत्या कर दी।

निजीकरण की प्रक्रिया में अवैध तरीके से सार्वजनिक सम्पत्ति का बड़ा हिस्सा हथिया लेने वाले प्रभावशाली वित्तपति व्लादिमीर गुसिंस्की, बोरिस बेरेजोव्स्की और मिखाइल खोदोरकोवस्की के खिलाफ पुतिन प्रशासन ने कड़ी कार्रवाई की। गुसिंस्की और बेरेजोव्स्की को रूस छोड़ना पड़ा और खोदोरकोवस्की को जेल भेज दिया गया, उसकी यूयूकेओएस कम्पनी रूस की सबसे बड़ी तेल उत्पादक कम्पनी थी। धोखाधड़ी और कर चोरी के लिए रूस के तत्कालीन सबसे धनी व्यक्ति, युकोस ऑयल एण्ड गैस कम्पनी के अध्यक्ष मिखाइल खोदोरकोव्स्की के खिलाफ पुतिन के अभियान का महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि वह पुतिन विरोधी उदारवादी और कम्युनिस्ट नेताओं की आर्थिक मदद कर रहा था। पुतिन ने निजीकरण और पूँजीवाद से परेशान रूसी जनता के सामने इन कदमों को वित्तपतियों के खिलाफ बड़े अभियान के रूप में पेश किया, जिससे उसकी लोकप्रियता में वृद्धि हुई। इसके साथ ही पुतिन सरकार ने देश की मीडिया पर नकेल कस दिया। उन्हें पुतिन विरोधी खबरें दिखाने की इजाजत नहीं दी गयी। उनके पहले शासन काल में वास्तविक जीडीपी प्रति वर्ष औसतन 6.7 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ी, देश की औसत आय में सालाना 11 प्रतिशत की वृद्धि हुई और संघीय बजट के लगातार सकारात्मक सन्तुलन ने सरकार को 70 प्रतिशत बाहरी ऋण में कटौती करने में सक्षम बनाया। 2004 में पुतिन ने रूसी राष्ट्रपति का चुनाव फिर से जीत लिया।

निजीकरण की मार झेल रही रूसी जनता ने सोवियत संघ के विघटन को कभी दिल से स्वीकार नहीं किया और वह हमेशा पछताती रही। जनता की इस भावना को भी पुतिन ने भुना लिया। फरवरी 2004 में पुतिन ने सोवियत संघ के विघटन को “एक बड़े स्तर की राष्ट्रीय त्रासदी” कहा, जिससे “केवल गणराज्य के उच्च वर्ग और राष्ट्रवादी लोगों ने लाभ उठाया।” उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि सोवियत संघ के विघटन से देश के आम नागरिकों को कुछ नहीं मिला। इसके विपरीत बड़ी संख्या में लोगों को समस्याओं का सामना करना पड़ा है।

पुतिन का दूसरा कार्यकाल भी समस्याओं से घिरा रहा। सितम्बर 2004 में बेसलान स्कूल बन्धक संकट हुआ, जिसमें सैकड़ों रूसी मारे गये। 2005 में, रूसी सरकार ने सोवियत–युग के व्यापक लाभों, जैसे–– नि:शुल्क परिवहन और कई क्षेत्रों में सब्सिडी को नकद भुगतान द्वारा हटा दिया, जिससे मेहनतकश वर्ग के हितों को बहुत नुकसान पहुँचा। पुतिन का यह कदम बहुत अलोकप्रिय हुआ और विभिन्न रूसी शहरों में विरोध प्रदर्शन की लहर दौड़ गयी। पुतिन प्रशासन के दौरान इस तरह का व्यापक विरोध प्रदर्शन पहली बार हुआ था। इस दौर में भी मीडिया पर अपनी पकड़ के चलते पुतिन अपनी छवि बेहतरीन बनाये रखने में कामयाब रहे। इसके साथ ही रूसी राजनीति में भ्रष्टाचार बढ़ रहा था, जिसे उजागर करने के चलते पत्रकार अन्ना पोलितकोवस्काया को पुतिन के जन्मदिन पर ही उनके अपार्टमेण्ट की इमारत की लॉबी में गोली मार दी गयी थी। राजनीतिक गलियारे में साफ दिख रहा था कि पुतिन अपने विरोधियों का बड़ी निर्ममता से दमन कर रहे थे।

2007 में, विपक्षी समूह ‘द अदर रशिया’ ने “डिसेण्टर्स मार्च” का आयोजन किया था, इसका नेतृत्त्व पूर्व शतरंज चैंपियन गैरी कास्परोव और राष्ट्रीय–बोल्शेविक नेता एडुआर्ड लिमोनोव ने किया था। कई रूसी शहरों में विरोध प्रदर्शन फैल गया, इसमें 150 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया था। विरोध प्रदर्शन की सफलता के पीछे पुतिन की जनविरोधी नीतियों से नाराज जनता के गुस्से का बड़ा हाथ था। पुतिन की लोकप्रियता गिर रही थी और रूस एक बार फिर राजनीतिक संकट के मँुहाने पर खड़ा था। 12 सितम्बर 2007 को, प्रधानमंत्री मिखाइल फ्राडकोव के अनुरोध पर पुतिन ने सरकार को भंग कर दिया। इसके बाद संविधान द्वारा पुतिन को तीसरे राष्ट्रपति कार्यकाल से रोक दिया गया था। पहले उप प्रधानमंत्री दिमित्री मेदवेदेव को उनका उत्तराधिकारी चुना गया था। 8 मई 2008 को, मेदवेदेव को राष्ट्रपति पद सौंपने के एक दिन बाद पुतिन के राजनीतिक प्रभुत्व को बनाए रखते हुए, रूस का प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था। यह सब कवायद पुतिन को सत्ता में रखते हुए जनता को गुमराह करने के लिए की गयी थी।

24 सितम्बर 2011 को मास्को में संयुक्त रूस कांग्रेस में मेदवेदेव ने आधिकारिक रूप से प्रस्तावित किया कि पुतिन 2012 में राष्ट्रपति पद के लिए खड़े होंगे। लेकिन 4 दिसम्बर 2011 को संसदीय चुनावों के बाद, दसियों हजार रूसियों ने चुनाव में धोखाधड़ी के विरोध में बहुत बड़ा विरोध प्रदर्शन किया। वोटिंग में धाँधली के व्यापक आरोपों के बावजूद पुतिन ने 63–6 प्रतिशत वोट के साथ चुनाव जीत लिया। देश में पुतिन विरोधी कई प्रदर्शन हुए।

2012 और 2013 में, पुतिन और यूनाइटेड रशिया पार्टी ने एलजीबीटी समुदाय के खिलाफ सेण्ट पीटर्सबर्ग, आर्कान्जेस्क और नोवोसिबिर्स्क में कड़े कानून का समर्थन किया। इसके बाद पुतिन ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। राजनीति के कुशल खिलाड़ी पुतिन ने अपने विरोधियों को रास्ते से हटाने का हुनर सीख लिया। अपने शासन के दौरान किसी भी विरोध और जन–आन्दोलन को उभरने नहीं दिया। देश के वित्तपत्तियों के एक मान्य नेता बने रहे। देश की अन्दरूनी मीडिया को साधे रखा और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अमरीकी मीडिया के समानान्तर एक रूसी मीडिया खड़ी करने में सफल रहे। उन्होंने अमरीका की खुफिया एजेंसी सीआईए के स्तर का रूसी खुफियातंत्र विकसित किया। अपने अधीन देशों से निचोड़े गये मुनाफे से रूस की प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि की।

दूसरे देशों में हस्तक्षेप और रूस के साम्राज्यवादी मंसूबे

सोवियत संघ के विघटन के बाद, पहले दशक में रूस अपनी अन्दरूनी समस्याओं से ग्रस्त था। उससे अलग हुए तीन बाल्टिक देश एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया यूरोपीय संघ और नाटो सदस्यता हासिल करने की ओर आगे बढे़। बाकी के 12 देशों ने शुरु में अपना अलग ‘द कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिपेण्डेण्ट स्टेट्स’ (सीआईएस) का गठन किया और उसके बाद वे ‘द कलेक्टिव सेक्योरिटी ट्रीटी आर्गेनाईजेशन’ (सीएसटीओ) में शामिल हो गये। इस संगठन में रूस भी शामिल हो गया। सोवियत संघ के विघटन के आघात से कुछ सम्हलने के बाद रूस की दबी हुई साम्राज्यवादी आकांक्षाएँ उभरकर सामने आने लगी। इसके चलते रूस का यूक्रेन, चेचन्या, जोर्जिया, माल्डोवा, काकेशिया स्थिति जिहादी संगठन जो सीरिया में भी सक्रिय था और सीरिया के विद्रोहियों के खिलाफ टकराव बढ़ गया। उसे ताजिकिस्तानी गृह युद्ध में भी उलझना पड़ा। चेचन्या को छोड़कर बाकी सभी लड़ाइयों में रूस ने जीत हासिल की और उसका मनोबल बढ़ता चला गया। इसका नतीजा यह हुआ कि सोवियत संघ से अलग हुए अधिकांश देशों ने उसके वर्चस्व को स्वीकार कर लिया और उसकी सरपरस्ती में रहने का फैसला किया। लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ, बल्कि तीन दशकों की लम्बी तैयारी और युद्धों के बाद ही हो पाया। विघटन के बाद पहले दशक में उसके लिए अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं को पंख लगाना आसान नहीं था। चेचन्या के खिलाफ उसे मुँह की खानी पड़ी थी, जिसके बाद वह सम्हलकर आगे बढ़ा।

1990 के दशक में नवोदित रूसी गणतंत्र ने चेचन्या पर हमला कर दिया था, जो उसके साम्राज्यवादी मंसूबे का प्रमाण है। रूसी गणतंत्र के नेतत्व ने न केवल नग्न पूँजीवाद और निजीकरण को बढ़ावा दिया बल्कि अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को हिँसक हमले की दिशा में मोड़ दिया था। उसने अपने आस–पास की राष्ट्रीयताओं पर शिकंजा कस दिया। इसी कड़ी में 1994 में येल्तसिन ने मॉस्को के दक्षिण में 1,600 किमी की दूरी पर स्थित चेचन्या के बारे में काफी खतरनाक फैसला किया। उसने रूस से अलगाव को रोकने के लिए 40,000 सैनिकों को मुस्लिम बाहुल आबादी वाले चेचन्या के दक्षिणी क्षेत्र में भेज दिया। 1991 में चेचन्या के राष्ट्रपति धजोखर दुदायेव ने चेचन्या की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। रूस जल्दी ही वियतनाम–अमरीका युद्ध जैसे दलदल में फँस गया। जनवरी 1995 के पहले हफ्तों के दौरान जब रूस ने चेचन्या की राजधानी ग्रोजनी पर हमला किया था, तब चारो ओर से घिरे शहर में सप्ताह भर तक चले हवाई हमलों और तोपखाने की आग के कारण लगभग 25,000 नागरिकों की मौत हो गयी थी। फिर चेचेन बलों ने हजारों रूसियों को बन्धक बना लिया और बीमार रूसी सैनिकों को प्रताड़ित किया। फरवरी 1995 में भारी लड़ाई के बाद रूसियों ने ग्रोजनी पर नियंत्रण पाने में कामयाबी हासिल की। अगस्त 1996 में, येल्तसिन चेचन नेताओं के साथ युद्ध विराम के लिए सहमत हुए और मई 1997 में शान्ति संधि पर औपचारिक रूप से हस्ताक्षर किये गये। हालाँकि, 1999 में संघर्ष फिर से शुरू हो गया, इस तरह 1997 का शान्ति समझौता बेकार हो गया।

चेचन्या विद्रोह को दबाने में रूस की सारी प्रतिष्ठा दाँव पर लगी हुई थी। व्लादिमीर पुतिन ने विद्रोह को कुचलने की हर सम्भव कोशिश की, लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो सके। मई 2004 में, चेचन अलगाववादियों ने रूस समर्थक चेचन्या के राष्ट्रपति अकमद कादिरोव की हत्या कर दी। इसके बाद दो रूसी विमानों पर बमबारी की गयी। हार का सामना करते हुए सामयिक तौर पर धीरे–धीरे रूस चेचन्या से पीछे हट गया। इसके बाद 2007 में पूर्व राष्ट्रपति अहमद कादिरोव के बेटे रमजान कादिरोव ने चेचन्या की गद्दी सम्हाल ली और वह पुतिन की कठपुतली की तरह काम करने लगा।

यूक्रेन भी रूस के लिए टेढ़ी खीर बनता जा रहा था। 2004 के यूक्रेनी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान पुतिन की अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को बहुत बड़ा झटका लगा। पश्चिम समर्थक विपक्षी नेता विक्टर युश्चेन्को के खिलाफ रूसी समर्थक विक्टर यानुकोविच चुनाव मैदान में थे। चुनाव में धाँधली के आरोप–प्रत्यारोप के बीच रूस विरोधी विक्टर युश्चेन्को चुनाव जीत गये। इससे यूक्रेन में रूस के प्रभाव का लगभग अन्त हो गया और इसके बाद यूक्रेन ने नाटो की सदस्यता के लिए भी खुलकर अपने इरादों का इजहार किया। जनता नाटो के समर्थन में नहीं थी। लेकिन रूस ने जब 2014 में यूक्रेन पर हमला करके उसके एक इलाके क्रीमिया पर कब्जा कर लिया तो यूक्रेन में रूस विरोधी भावना भडक गयी और जनता ने नाटो के पक्ष में अपना समर्थन जाहिर किया।

सोवियत संघ से अलग होने के बाद यूक्रेन में कई राजनीतिक उथल–पुथल हुए। 22 फरवरी 2014 को, यूक्रेन की रूस समर्थित यानुकोविच सरकार जन–आन्दोलन के दबाव में गिर गयी, रूसी सरकार ने इसका आरोप पश्चिमी देशों पर मढ़ दिया। पुतिन ने अपने सैन्य नेताओं की बैठक में आदेश दिया कि रूसी आबादी बहुल क्षेत्र “क्रीमिया को रूस की ओर वापस लाने के लिए काम शुरू करें।” इसके बाद रूसी सैनिकों ने एक दिन के भीतर क्रीमिया प्रायद्वीप पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया। जनमत संग्रह में क्रीमिया और सेवस्तोपोल ने औपचारिक रूप से क्रीमिया गणराज्य के स्वतंत्रता की घोषणा की और अनुरोध किया कि उन्हें रूसी संघ के घटक का दर्जा दिया जाये।

2008 में, कोसोवो ने सर्बिया देश से खुद को अलग कर लिया, इसे भी रूसी हस्तक्षेप के रूप में देखा गया और इसने पश्चिम देशों के साथ रूस के सम्बन्धों को और खराब कर दिया। रूसी सैनिकों ने दक्षिण ओसेशिया में जाकर जॉर्जियाई सैनिकों को खदेड़ दिया, जिससे इस क्षेत्र पर भी उसका नियंत्रण स्थापित हो गया। 2008 में रूस ने एकतरफा दक्षिण ओसेशिया और अबकाजिया की स्वतंत्रता को मान्यता दे दी।

अमरीका और यूरोप के साथ रूस के सम्बन्ध

सोवियत संघ के विघटन के बाद अमरीका और यूरोप (पश्चिमी देशों) के साथ रूस का सम्बन्ध कई उतार–चढ़ावों से गुजर चुका है। विघटन से पहले विश्व व्यवस्था में दो ध्रुव थे–– सोवियत रूस और अमरीका। दुनिया पर वर्चस्व कायम करने के लिए इन दोनों साम्राज्यवादी देशों के बीच कई दशकों तक शीत युद्ध चला था, लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद शीत युद्ध का अन्त हो गया और इसी के साथ रूसी साम्राज्यवाद भी विघटित हो गया। लेकिन कहावत है रस्सी जल जाती है, लेकिन उसका ऐंठन नहीं जाता। दुनिया पर अमरीकी वर्चस्व के बीच रूसी साम्राज्यवाद राख के नीचे पड़ी आग की तरह सुलग रहा था। यही वजह है कि रूस कभी पूरी तरह पश्चिम के साथ खड़ा नहीं हो पाया।

शुरू में रूस खुद को आर्थिक और राजनीतिक रूप से खड़ा करने के लिए कठिन संघर्ष कर रहा था। वह अपने लिए नये राजनीतिक मॉडल की तलाश कर रहा था, जिसे उस देश की जनता भी स्वीकार करे। रूस ने मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में मार्क्सवाद–लेनिनवाद से पीछा छुडाने की कोशिश की। यह वहाँ के उभरते हुए वित्तपतियों की इच्छा के अनुरूप था। लेकिन जनता सोवियत युग की उपलब्धियों को भूलने के लिए तैयार नहीं थी। उस दौर में रूस ने घरेलू और वैश्विक समस्याओं को हल करने के लिए न केवल पश्चिम के साथ सहयोग पर जोर दिया, बल्कि उसने राजनीतिक तौर पर पश्चिम के लोकतांत्रिक मॉडल की नकल करने की कोशिश भी की। लेकिन रूस की जनता ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया क्योंकि पश्चिम को खुश करने के लिए वह कभी भी अपने सोवियत अतीत को गाली नहीं दे सकती थी और उसने नग्न–निजी लूटेरे पूँजीवाद को स्वीकार नहीं किया।

हालाँकि, रूसी नेताओं ने पश्चिमी देशों को अपना स्वाभाविक सहयोगी बताया, लेकिन साथ ही वे सोवियत विघटन के बाद बने पूर्वी यूरोपीय देशों में अमरीका और नाटो के बढ़ते प्रभाव से चिंतित थे। 1997 में रूस ने चेक गणराज्य, पोलैण्ड और हंगरी के पूर्व सोवियत ब्लॉक के राष्ट्रों में नाटो के विस्तार का विरोध किया। 1999 में रूस ने यूगोस्लाविया के ऊपर नाटो बमबारी का विरोध किया। लेकिन जून 1999 में वह बाल्कन में नाटो शान्ति–रक्षा बलों में शामिल भी हो गया। जाहिर सी बात है कि शुरू में आन्तरिक रूप से लड़खडाता हुआ रूस पश्चिमी देशों के साथ कोई दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहता था। इसके चलते शुरू के दो दशकों में विदेश नीति के मामले में वह पश्चिम का पिछलग्गू ही बना रहा और उसके सामने कोई चुनौती बनकर उभर नहीं पाया। इसके बावजूद अपनी अन्दरूनी नीतियों में वह पूरी तरह स्वतंत्र था और पश्चिम के किसी भी दबाव के आगे झुकने के लिए तैयार नहीं था।

अमरीका के लिए रूस एक ऐसी गाँठ बन गया, जो उसके पक्ष में कभी खुल नहीं पाया। यानी पश्चिम के देशों ने अपनी ओर से भरसक कोशिश की कि रूस अमरीका के नवउदारवादी मॉडल को अपना ले और विश्व बैंक, आईएमएफ और विश्व व्यापार संगठन के सामने समर्पण कर दे, लेकिन थोड़े समय को छोड़ दें, तो यह हो नहीं पाया। पश्चिमी देशों के लिए रूस को एक पल के लिए अनदेखा कर पाना सम्भव नहीं है क्योंकि वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थावी सदस्य है, जिसके पास वीटो पॉवर भी है।

सोवियत संघ के विघटन के बाद जब अमरीका एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था का चैधरी बना, तो उसके लिए सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह थी कि भविष्य में कोई ऐसा साम्राज्यवादी देश या खेमा उसकी प्रतिद्वन्द्विता में न उतर जाये। इसलिए अपने सम्भावित प्रतिद्वंद्वी को साधना उसके लिए बहुत जरूरी था। 6 पुराने साम्राज्यवादी देश कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान और यूनाइटेड किंगडम आगे चलकर उसके लिए खतरा न बने, इसलिए इन्हें एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था में उचित स्थान देना जरूरी था, जिससे इनके हितों को नुकसान भी न हो। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए अमरीका के नेतृत्त्व में एक अन्तरराष्ट्रीय अन्तर सरकारी आर्थिक संगठन जी–सात का गठन किया गया। आज भी जी–सात में शामिल देश दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थायें हैं और दुनिया भर के साम्राज्यवादी लूट का बहुत बड़ा अधिशेष निचोड़ती हैं। 2018 में इनकी कुल सम्पत्ति 3,17,000 अरब डॉलर थी, जो दुनिया की सम्पत्ति का 58 प्रतिशत है, जबकि इन देशों में दुनिया की मात्र 10 प्रतिशत आबादी रहती है। नवउदारवादी मॉडल में रूस को शामिल करने के लिए 1997 में उसे जी–सात के राजनीतिक मंच से जोड़ दिया गया, जिसे अगले वर्ष जी–आठ के रूप में जाना गया। लेकिन जैसे ही रूस की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाएँ पंख लगाकर उड़ने लगीं और उसका पश्चिम के देशों से टकराव बढ़ता गया, जी–आठ में उसके लिए रह पाना मुश्किल होता चला गया। मार्च 2014 में यूक्रेन–क्रीमिया संकट के बाद अनिश्चित काल के लिए रूस को जी–आठ से निलंबित कर दिया गया। 2017 में रूस ने जी–आठ से स्थायी रूप से निकलने की घोषणा कर दी। इसके बाद रूस को जी–बीस में अन्य विकासशील देशों के साथ रखकर चलाये रखने की कोशिश की गयी। लेकिन जी–बीस में रहकर भी रूस अपने प्रभाव क्षेत्र का लगातार विस्तार करता गया।

यूरोपीय संघ और रूस का सम्बन्ध कई उतार–चढ़ावों का गवाह रहा है। 2003 में इराक पर अमरीकी आक्रमण का रूस ने कड़ा विरोध किया था, जबकि पोलैण्ड और ब्रिटेन सहित यूरोपीय संघ के कुछ सदस्य राज्यों ने अमरीका का समर्थन किया था। रूस, फ्रांस और जर्मनी के विदेश मंत्रियों ने संयुक्त घोषणा की कि वे इराक के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को पारित करने की “अनुमति नहीं देंगे”। 2009 के रूस–यूक्रेन गैस विवाद ने गैस आपूर्तिकर्ता के रूप में यूरोपीय संघ के सामने रूस की छवि को नुकसान पहुँचाया। 23 मार्च 2009 को यूक्रेन की गैस पाइपलाइनों को अपग्रेड करने के लिए यूक्रेन और यूरोपीय संघ के बीच एक सौदा हुआ था, इससे रूस के आर्थिक हितों को नुकसान पहुँचा, जिसके जवाब में रूसी प्रधानमंत्री व्लादिमीर पुतिन ने यूरोपीय संघ के साथ रूस के सम्बन्धों की समीक्षा करने की धमकी भी दे डाली। सितम्बर 2012 में, यूरोपीय आयोग ने मध्य और पूर्वी यूरोप में रूसी तेल कम्पनी गाजप्रोम के अनुबन्धों में धाँधली से सम्बंधित एक जाँच शुरू की। रूस ने प्रतिक्रिया देते हुए विदेशी जाँच में बाधा डालने वाला कानून ही बना डाला। रूस पर आरोप लगाया गया कि गाजप्रोम कम्पनी ने यूरोपीय संघ के सबसे गरीब देशों से गैस की ऊँची कीमत वसूल की थी। 2014 में क्रीमिया और दोनबास पर रूसी सैन्य हस्तक्षेप की घोषणा के बाद अमरीका और यूरोपीय संघ ने रूस पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिया था, शुरु में 170 व्यक्तियों और 44 संस्थाओं पर वीजा प्रतिबन्ध लगाया गया और इसे सन 2020 तक बढ़ा दिया गया।

रूस यूरोपीय संघ के देशों विपक्षी पार्टियों, आन्दोलनों और वित्तपतियों को मदद उपलब्ध करवाता रहा है। लेबर पार्टी के पूर्व नेता जेरेमी कॉर्बिन पर रूस समर्थक होने का आरोप भी लगा था। इसके साथ ही रूस यूरोप के देशों में अपनी खुफिया और साइबर गतिविधियाँ भी चलाता है। यूरोप के कई देश की सरकारें रूस से सहानुभूति रखती हैं। आर्थिक मन्दी, अन्दरूनी कलह और हितों के टकराव तथा रूसी प्रभाव के चलते यूरोपीय संघ अन्दर से काफी कमजोर हो गया है और कई टुकड़ों में टूट भी सकता है। स्पष्ट है कि पूरा यूरोपीय संघ रूस के साथ कभी खड़ा नहीं होगा, इसलिए रूस चाहेगा कि यूरोपीय संघ में दरार पड़ जाये और उसका एक बड़ा हिस्सा रूस के साथ खड़ा हो जाये। हवा भी इसी दिशा की ओर अपना रुख बदल रही है।

तुर्की का अमरीकी खेमे से रूस की ओर जाना

तुर्की अमरीका समर्थित नार्थ अतलान्तिक ट्रीटी आर्गेनाईजेशन (नाटो) का सदस्य देश है। लेकिन 2015–16 में घटी उथल–पुथल भरी घटनाओं के बाद तुर्की धीरे–धीरे अमरीका से दूर होता चला गया। रूस ने इसका फायदा उठाते हुए उसे अपनी ओर खींच लिया। दरअसल सीरिया का युद्ध अमरीका के लिए गले की हड्डी बन गया था। सीरिया की बसर–अल असद की सरकार को रूस का समर्थन प्राप्त था और रूस मध्य–एशिया में अपने विश्वसनीय मित्र को खोना नहीं चाहता था। दूसरी ओर अमरीका असद सरकार के खिलाफ लड़ रहे विद्रोहियों और कुर्द लड़ाकों की मदद कर रहा था, जो तुर्की को रास नहीं आ रहा था क्योंकि तुर्की के बड़े भूभाग पर कुर्द आबादी निवास करती है, जो सीरिया से सटा हुआ है। कुर्द विद्रोही आगे चलकर तुर्की की एकता के लिए खतरा बन सकते थे, इसलिए तुर्की की एर्दाेगन सरकार नहीं चाहती थी कि अमरीका कुर्द लड़ाकों की मदद करे। लेकिन उसके साझीदार अमरीका ने उसकी इच्छा को ठुकराते हुए कुर्द लड़ाकों की मदद की। इस तरह सीरियाई युद्ध में तुर्की स्वभाविक रूप से असद सरकार और रूस के सहयोगी के तौर पर सामने आया। इससे अमरीका बहुत खफा हुआ। इसके बाद अमरीका ने अपनी खुफिया एजेंसी सीआईए और तुर्की के विपक्षी नेता फेथुल्लाह गुलेन की मदद से अर्दाेगन को सत्ता से उखाड़ फेंकने का अमरीका षड्यंत्र रचा, जो असफल हो गया और जिसका खुलासा होने पर तुर्की अमरीकी खेमे से दूर होता चला गया।

24 नवम्बर 2015 को सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल–असद के समर्थन में रूसी सैन्य हस्तक्षेप की शुरुआत हुई थी क्योंकि सीरिया में सरकार की हार के बाद मध्य पूर्व से यूरोप तक रूसी हाइड्रोकार्बन पाइपलाइन परियोजना खटाई में पड़ जाती, जो रूसी तेल कम्पनी गजप्रोम के लिए विनाशकारी होती। लेकिन तुर्की ने “सम्भवत: गलती से” तुर्की–सीरिया सीमा के करीब रूसी एसयू–24 विमान को मार गिराया। एर्दाेगन ने पुतिन से इसके लिए खेद व्यक्त भी किया था। लेकिन इसका अधिक फायदा तुर्की को नहीं मिला। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने इस घटना को “आतंकवादियों के सहयोगियों द्वारा पीठ में छुरा घोंपने” के रूप में जिक्र किया। रूस ने तुर्की पर कई आर्थिक प्रतिबन्ध लगाए। इनमें तुर्की के नागरिकों के लिए रूस से वीजा–मुक्त यात्रा को निलंबित करना, तुर्की के निवासियों और रूस में व्यापार करने वाली कम्पनियों और तुर्की के उत्पादों के आयात पर प्रतिबन्ध शामिल हैं। विमान गिराए जाने के एक दिन बाद, रूसी कानून निर्माता सर्गेई मिरोनोव ने रूसी संसद में एक विधेयक पेश किया, जो अर्मेनियाई नरसंहार को स्वीकार न करने के लिए तुर्की को जिम्मेदार ठहराता था। तुर्की ने फ्रांस और यूनान द्वारा ऐसे ही कदमों को उठाने का कड़ा विरोध किया।

जून 2016 के बाद तुर्की और रूस के रिश्ते सामान्य होने लगे थे। 29 जून को पुतिन और एर्दाेगन ने टेलीफोन पर लम्बी बातचीत की, जिसे रूसी और तुर्की सरकार के अधिकारियों ने बहुत सफल बताया था। रूसी सरकार ने बाद में तुर्की जाने वाले रूसी नागरिकों के ऊपर से यात्रा प्रतिबन्ध हटा दिया और व्यापार सम्बन्धों को सामान्य बनाने का आदेश दिया। इससे दोनों देशों के बीच सम्बन्ध सुधरने शुरू हो गये। रूस के युद्धक विमान घटना और तुर्की में एर्दाेगन के असफल तख्तापलट की कोशिश के बाद पहली बार 9 अगस्त 2016 को दोनों देशों के नेताओं ने सेण्ट पीटर्सबर्ग में एक बैठक की।

19 दिसम्बर 2016 को तुर्की में रूसी राजदूत आन्द्रेई कार्लाेव की हत्या के बाद दोनों देशों के सम्बन्धों को किसी भी सम्भावित नुकसान से बचाने की कोशिश की गयी। उसी समय दोनों देशों ने ईरान के साथ मिलकर सीरियाई मसले पर शान्ति समझौते के लिए ‘अस्ताना शान्ति वार्ता’ शुरू की। 31 मई 2017 को रूस ने तुर्की पर लगाए गये अधिकांश प्रतिबन्धों को हटा दिया, जिसमें रूस में चल रही तुर्की कम्पनियों पर प्रतिबन्ध और तुर्की श्रमिकों को रोजगार देने पर प्रतिबन्ध भी समाप्त हो गया। रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने दोनों देशों के बीच वीजा–मुक्त आवागमन के द्विपक्षीय समझौते को बहाल कर दिया।

जून 2018 में तुर्की के अनुरोध पर रूसी सरकार द्वारा नियंत्रित समाचार एजेंसी स्पुतनिक की कुर्द भाषा में वेबसाइट को बन्द कर दिया गया। अगस्त 2018 के मध्य में, रूस और तुर्की ने अमरीका के साथ चल रहे विवादों में एक दूसरे का समर्थन किया। तुर्की ने क्रीमिया मामले में रूस का समर्थन किया और अमरीकी चुनावों में हस्तक्षेप को लेकर रूस पर अमरीकी प्रतिबन्धों का विरोध किया। जनवरी 2019 में दोनों देशों ने संकट के समय वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलस मादुरो के शासन का समर्थन किया।

तुर्की यूरोप से सटा हुआ एशिया के मुहाने पर खड़ा एक महत्त्वपूर्ण देश है। 8–30 करोड़ की जनसंख्या वाले इस देश की जीडीपी लगभग 800 अरब डॉलर है और इसका मानव विकास सूचकांक काफी ऊँचा है। धरती के भू–रणनीतिक इलाके में तुर्की जैसे सहयोगी देश को पाकर रूस की दबी हुई साम्राज्यवादी महात्वाकांक्षा को जैसे पंख लग गये। रूस ने मध्य–एशिया में अपने वर्चस्व को बढ़ाने के लिए एड़ी–चोटी का जोर लगाना शुरू कर दिया। अमरीका के खिलाफ ईरान और सीरिया की मदद करके रूस ने उसे अपने पक्ष में खड़ा कर लिया। अमरीका द्वारा ईरानी कमाण्डर सुलेमानी और अन्य ईराकी सैन्य अफसरों की हत्या के बाद रूस ने ईराक से भी नजदीकी बढ़ा ली। ईरान और तुर्की के जरिये कतर और यमन के विद्रोहियों की मदद करके इस इलाके में अमरीका समर्थित इजराइल और सऊदी अरब को पीछे धकेल दिया। अफगानिस्तान में छिपे तौर पर तालिबानियों की मदद करके वह अमरीकी सैनिकों को अफगानिस्तान छोड़ने के लिए मजबूर कर रहा है। मौजूदा हालात में रूस की मध्य एशिया पर पकड़ काफी मजबूत बन चुकी है।

चीन के साथ रूस के दोस्ताना रिश्ते

रूस ने चीन के साथ अपने सम्बन्धों को धीरे–धीरे सुधारा। शुरू में विघटित रूस कमजोर था और चीन भी वैश्विक पैमाने पर ऊभर रहा था। चीन ने नवउदारवादी नीतियों का फायदा उठाते हुए खुद को विकास की दौड़ में सबसे आगे रखा। विश्च अर्थव्यवस्था का इंजन कहा जाने वाला चीन भी रूस के लिए एक बड़ा खतरा बन सकता था। दोनों देशों के बीच लम्बी सीमा रेखा है और उनमें सीमा विवाद भी था। दोनों एक दूसरे पर सन्देह भी करते थे। रूस को लगता था कि एशिया में चीन उसका प्रतिद्वन्द्वी हो सकता है या उसकी महत्त्वाकांक्षाओं पर विराम लगा सकता है। इन परिस्थितियों में अमरीकी नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था में दोनों ही बड़ी ताकत बनने का सपना देखते थे, लेकिन दोनों यह भी समझते थे कि एक–दूसरे से टकराकर वे केवल अपनी शक्ति को नष्ट कर देंगे, इसलिए दोनों ने सावधानीपूर्वक एक दूसरे की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। दोनों ने अच्छे–पड़ोसी और मैत्रीपूर्ण सहयोग की संधि पर हस्ताक्षर किया और साथ–साथ ट्रांस–साइबेरियाई तेल पाइपलाइन के निर्माण की ओर कदम बढ़ाया। इस तरह अपने बीच के सीमा विवाद को सुलझा लिया। आज रूस–चीन सीमा पर तनाव का कोई भी लक्षण नहीं है। इसने दोनों देशों को फायदा पहुँचाया।

इसके साथ ही जहाँ एक ओर रूस के पास पेट्रोलियम और कच्चे माल का अकूत भण्डार है तथा उसकी तकनीक और युद्ध सामान बेहद विकसित हैं, लेकिन रूस के पास बड़ा बाजार नहीं है और जनसंख्या सीमित होने के चलते देश के अन्दर भी उपभोक्ताओं की संख्या कम है। दूसरी ओर चीन के पास एक बड़ा घरेलू बाजार है और पिछले दशकों में उसके उपभोक्ता मालों से दुनिया के बाजार पट गये। इस तरह करीब आने वाले दोनों देश व्यापार के मामले में भी एक–दूसरे के पूरक हो गये। चीन अपनी पेट्रोलियम जरूरत के बड़े हिस्से की पूर्ति रूस से आयात करके करता है। इसके साथ ही रूस अपनी उन्नत युद्ध सामग्री भी चीन को उपलब्ध करवाता है।

रूसी वर्चस्व का दुनिया पर पड़ने वाले प्रभाव का आँकलन करने के लिए चीनी ताकत को उसके साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए। दोनों देश लम्बे समय से अलग–अलग मुद्दों पर अमरीका से उलझे हुए हैं। कहावत है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। इस हिसाब से रूस और चीन स्वभाविक रूप से दोस्त हैं। चीन के वन बेल्ट एण्ड वन रोड (ओबोर) परियोजना में रूस बहुत बड़ा सहयोगी है, जो इस सदी की सबसे बड़ी परियोजना है। विशेषज्ञ बताते हैं कि इसकी सफलता के बाद चीन एक बहुत बड़ी वैश्विक शक्ति बनकर उभरेगा। हालाँकि विश्व स्तर की बात करें तो चीन अभी एक क्षेत्रीय ताकत है, लेकिन वह न केवल अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है, बल्कि दुनिया भर के कई देशों के साथ व्यापारिक और रणनीतिक रिश्ते भी बना रहा है। उसने दक्षिणी चीन सागर में अपनी सैन्य कारवाईयों का विस्तार करके इस इलाके पर अपना प्रभुत्व कायम कर लिया है। लातिन अमरीका और अफ्रीका के कई देश उसके प्रभाव में हैं।

निष्कर्ष

आज भी अमरीका दुनिया का सबसे ताकतवर साम्राज्यवादी देश है और दुनिया की जनता का दुश्मन नम्बर एक है, लेकिन उसकी ताकत का पराभव हो रहा है। दूसरी ओर रूस एक वैश्विक ताकत के तौर पर उभर चुका है। अपने वर्चस्व के विस्तार के लिए रूस और चीन दोनों ने कोरोना महामारी का भरपूर इस्तेमाल किया है। इसके चलते अपनी महात्वाकांक्षा को तेजी से पूरा करने का जबरदस्त मौका उन्हें हाथ लगा, जबकि खुद अमरीका कोरोना से बुरी तरह परेशान है। रूस पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया में अमरीका के साथ टकराव की स्थिति में है। मन्दी की मार से त्रस्त अमरीका किसी भी हालत में रूस से सीधे टकराना नहीं चाहता क्योंकि वह जानता है कि ऐसे किसी टकराव का अन्त अमरीकी साम्राज्य के पूर्ण पतन में भी हो सकता है। रूस पर अमरीका और यूरोपीय संघ द्वारा लादा गया प्रतिबन्ध भी रूस के सरपट दौड़ते घोड़े को रोक न सका। ऐसे अनुकूल हालात का फायदा उठाते हुए आत्म–विश्वास से लबरेज रूस अपना विस्तार करता जा रहा है। इसके साथ ही नया–उभरता चीन भी आर्थिक विकास के कुलांचे मार रहा है, जिसके भौगोलिक विस्तार को रोक पाने में अमरीका नाकाम है। ऐसे में दुनिया के दूसरे देश भी अमरीकी वर्चस्व से आजाद होकर अपनी शर्तों पर व्यापार और साझेदारी करना चाहेंगे। यूरोपीय संघ के अन्दर टकराव बढ़ता जा रहा है। हो सकता है कि वह अन्दर से टूट जाये। ऐसी नयी विश्व परिस्थिति में वर्ग शक्ति सन्तुलन जरूर बदलेगा। साम्राज्यवादी एक–दूसरे से टकराकर अपनी ताकत कमजोर कर लेंगे और आने वाला दशक जन–संघर्षों के अधिक अनुकूल होगा।

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