जून 2021, अंक 38 में प्रकाशित

खेती–किसानी पर साम्राज्यवादी वर्चस्व

खेती के आधुनिकीकरण करने के नाम पर फार्म मशीनीकरण, उर्वरकों–कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग, सिंचाई तकनीकों में सुधार, जेनेटिक मोडीफाइड बीज, गरीब और मध्यम किसानों की तबाही और ऋण की आसान उपलब्धता जैसी चीजें साम्राज्यवादी ढंग की खेती की शुरुआत की महज भूमिका भर हैं। साम्राज्यवादी पूँजी के आने पर गाँवों–शहरों में वर्ग सम्बन्धों में नये सिरे से बदलाव हो रहे हैं। हर शहर में बीज, खाद, ट्रैक्टर ट्रॉली आदि की दुकानें खुल रही हैं। कॉन्ट्रैक्ट व्यवस्था में जमीन देनेवाले और लेनेवाले दोनों पैदा हो रहे हैं। नये उत्पादन सम्बन्ध बन रहे हैं। इन सभी आवश्यक शर्तों के साथ ही साम्राज्यवादी ढंग की खेती के लिए कानूनी प्रावधान भी जरूरी है, जिससे इसके रास्ते में आनेवाले अवरोधों को प्रभावी तरीके से हटाया जा सके और नयी कृषि प्रणाली में शासन–प्रशासन के सहयोग में कोई कमी–कोताही न हो। इसी का नतीजा है–– मौजूदा तीनों कृषि कानून।

भारत में ऑटोमैटिक रूट से कृषि के विभिन्न क्षेत्रों जैसे–– बीज उत्पादन, फूलों की खेती, बागबानी, मधुमक्खी पालन, पशुपालन, मत्स्यपालन, एक्वाकल्चर (जलीय कृषि) सब्जी और मशरूम की खेती तथा कृषि और उससे जुड़ेे क्षेत्रों की सेवाओं में सौ प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दे दी गयी है। ऐसा करके वित्तीय पूँजी के अधीन ठेका खेती के लिए रास्ता साफ कर दिया गया है। कम्पनियाँ अपने मुताबिक मूलभूत ढाँचे का विकास भी कर रही हैं। भारत सरकार ने भी उनके अनुरूप सड़क, रेलवे और जल परिवहन का विकास शुरू कर दिया है। भण्डारण के लिए विशालकाय गोदाम बनाये जा रहे हैं। देशी पूँजी इन सभी कामों में साम्राज्यवादियों की संश्रयकारी है।

पिछड़े देशों में पर्यावरण बेहद प्रदूषित हो गया है। पानी, हवा और मिट्टी के जरिये जहरीले प्रदूषण से फसलें जहरीली हो रही हैं, जिससे यहाँ पैदा हुई फसलों की माँग विकसित देशों में बहुत कम है। इस समस्या को सुलझाने के लिए पानी और मिट्टी का उपचार करना होगा। जाहिर है कि मौजूदा परिस्थिति में इस उपचार को साम्राज्यवादी पूँजी ही अंजाम देगी।

साम्राज्यवादी पूँजी के लिए भारत एक बड़ा आकर्षक बाजार है और यह खेती से पैदा होने वाले कच्चे माल का स्रोत भी है। 2020 में भारतीय कृषि बाजार 20,33,600 करोड़ रुपये के मूल्य पर पहुँच गया। विश्व बाजार में भारत कई ताजे फल और सब्जियों, प्रमुख मसालों, जूट जैसे चुनिन्दा रेशेदार फसलों, बाजरा और अरण्डी के बीज आदि का प्रतिनिधित्व करता है। भारत गेहूँ और चावल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, जो दुनिया की प्रमुख खाद्य फसल है। 80 प्रतिशत से अधिक कृषि वस्तुओं के उत्पादन में दुनिया भर में भारत पाँचवें स्थान पर है। भारत में जैव–विविधता का भण्डार है। यह सब साम्राज्यवादियों को लुभाने के लिए काफी है।

चौथी पीढ़ी की औद्योगिक क्रान्ति

मिशेल पिम्बर्ट और कॉलिन एण्डरसन ने द कनवरजेशन डॉट कॉम पर एक लेख ‘द बैटल फॉर फ्यूचर ऑफ फार्मिंग : व्हाट यू नीड टू नो’ लिखा। (मिशेल पिम्बर्ट : प्रोफेसर और निदेशक, सेण्टर फॉर एग्रोइकोलॉजी, वाटर एण्ड रेसिलिएंस, कोवेंट्री विश्वविद्यालय। कॉलिन एण्डरसन : सीनियर रिसर्च फेलो, कोवेंट्री विश्वविद्यालय) इसमें वे चैथी पीढ़ी की औद्योगिक क्रान्ति की बात करते हैं, जिसे आगे बढ़ाने के लिए साम्राज्यवादी देश जी–जान से शोध करवा रहे हैं। विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) ने जनवरी 2018 की अपनी रिपोर्ट ‘इनोवेशन विद पर्पज : द रोल ऑफ टेक्नालजी इनोवेशन इन असेलरेटिंग फूड सिस्टम ट्रांसफोरमेशन’ में चैथी पीढ़ी की औद्योगिक क्रान्ति के बारे में सविस्तार बताया है और उसके महत्त्व पर भी प्रकाश डाला है।

इन दस्तावेजों से पता चलता है कि पिछली हरित क्रान्ति की तरह ही इस बार भी कृषि में मौजूदा तकनीकी उन्नति को शक्तिशाली कृषि दिग्गज कम्पनियाँ बढ़ावा दे रही हैं। जो भी तकनीकी नवाचार किया जा रहा है, वह मुट्ठीभर निगमों के हाथों में केन्द्रित है और उनकी राजनीतिक और आर्थिक शक्ति को और अधिक मजबूत करनेवाला है। ये मुट्ठीभर निगम पेटेंट कानून के जरिये सबसे उन्नत “12 ट्रांसफॉर्मिंग टेक्नोलॉजीज” पर अपना एकाधिकार रखते हैं। इन तकनीकों के जरिये खेती के जैव–संसार को ‘तकनीकी उपकरणों’ से प्रतिस्थापित कर दिया जायेगा। जैसे–– जीवित मधुमक्खियों के बजाय नन्हें–नन्हें फ्लाइंग रोबोट फसलों के परागण प्रक्रिया में भाग लेंगे। किसानों की भुजाओं की जगह स्वचालित मशीनें मिट्टी की तैयारी, बीज बोने, निराई करने, उर्वरक डालने, कीट नियंत्रण और फसलों की कटाई का काम करेंगी। इससे किसानों की इतने विशाल स्तर पर तबाही होगी, जिसे पहले न तो कभी देखा गया और न कभी सुना गया।

स्पष्ट बात है कि ये उन्नत तकनीक (हाई–टेक इनोवेशन्स) मौलिक रूप से पुरानी पूँजीवादी कृषि तकनीकों से भिन्न हैं और उसका उन्नत रूप हैं। आज ये नयी तकनीक दुनिया भर की खेती में तेजी से पैर पसारती जा रही है, जो ऐसी कृषि प्रणाली को जन्म देनेवाली है जिसमें श्रम की कम से कम जरूरत पड़े, यानी भारी संख्या में इनसान कृषि उत्पादन से बाहर फेंक दिये जायें। इस नयी कृषि प्रणाली में भी पूँजीवादी शोषण और संचय का तर्क काम करता है, लेकिन यह साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था को अत्यधिक अस्थिर करनेवाला साबित होगा और उसे अन्त की ओर ले जायेगा। इतने बड़े जोखिम के बावजूद इसे आगे बढ़ाया जा रहा है, जो इसकी मरणासन्न स्थिति की ओर ही इशारा करता है।

जहाँ एक ओर इस नयी वैश्विक कृषि प्रणाली केे बारे में दावा किया जा रहा है कि यह स्वचालित, गैर–स्थानीयकृत और डिजिटल तकनीकों के संयोजन से पैदा होने वाली अब तक की सबसे उन्नत कृषि प्रणाली है, वहीं दूसरी ओर उत्पादन के नियन्त्रण और खाद्य पदार्थों के व्यावसायीकरण पर ध्यान दें तो यह प्रणाली जिन मुट्ठीभर निगमों के हाथों में केन्द्रित होंगी, वे और कोई नहीं ‘वित्तीय’ पूँजी के दम पर अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण करनेवाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हैं। यही वे कम्पनियाँ हैं जो कृषि व्यवसाय के बड़े हिस्से पर अपना दबदबा कायम रखती हैं। दुनिया की शीर्षस्थ दस कम्पनियों में चार अमरीकी कम्पनियाँ हैं, 2018 में जिनकी कुल आय 303.41 अरब डॉलर यानी दस कम्पनियों की कुल आय का 70.13 प्रतिशत थी। यह बात स्पष्ट है कि कृषि व्यवसाय के मामले में भी अमरीका के निगम ही अग्रणी हैं।

साम्राज्यवादी ढंग की खेती

साम्राज्यवाद ने अपने मातृ देश में अकेले और पिछड़े देश में वहाँ के पूँजीवाद के साथ मिलकर कृषि की एक–फसली संस्कृति को बढ़ावा दिया, इससे जहाँ एक ओर ऊँचा मुनाफा पैदा हुआ, वहीं दूसरी ओर, खास तौर से पिछड़े देशों में पर्यावरण संकट भी बढ़ता गया और खेतिहर समुदाय की बड़ी आबादी को बाजार के हवाले करके भूखा मरने के लिए छोड़ दिया गया। पिछड़े देश में साम्राज्यवादी पूँजी ने न केवल विपणन और प्रोसेसिंग के तौर–तरीकों में बदलाव ला दिया है, बल्कि उसने उत्पादन के पैटर्न सहित उसकी प्रणाली को भी बदल दिया है। उसने पिछड़े उद्योग की तरह ही पिछड़ी सामन्ती खेती को भी अपने नियन्त्रण में लेकर निचोड़ने में कभी कोई कोताही नहीं बरती और उसके पूँजीवादी विकास को बाधित किया। लेकिन अगर पिछड़े देश की खेती पूँजीवाद के अधीन आ गयी है, तो उसका भी फायदा उठाने से वह नहीं चूका। आज वह पिछड़े देशों की पूँजीवादी कृषि पर अपना वर्चस्व कायम करता जा रहा है।

इस हिसाब से देखें तो नवउदारवादी नीतियाँ लागू होने के बाद भारत की कृषि के पैटर्न में भी बदलाव आने शुरू हो गये। भारत में धनी किसानों नेे मशीनीकृत खेती शुरू कर दी। ग्रीन हाउस खेती, हाइड्रोपोनिक्स, फूलों की खेती, सफेद मूसली, रबर, जैट्रोपा की खेती और वृक्षारोपण इसके कुछ उदाहरण हैं। कृषि व्यवस्था को अमरीका और यूरोपीय जरूरतों के हिसाब से ढाला गया। लेकिन इसके बावजूद भारतीय कृषि का एक बड़ा हिस्सा साम्राज्यवादी पूँजी के दबाव से मुक्त रहा, जबकि विश्व व्यापार संगठन (ड्ब्ल्यूटीओ) के माध्यम से लगातार साम्राज्यवादी पूँजी के हित में इस क्षेत्र को खोलने के लिए दबाव डाला जाता रहा। जून 2020 में भारतीय संसद द्वारा पारित तीनों कृषि कानून ड्ब्ल्यूटीओ के उसी दबाव के नतीजे हैं और ये भारतीय कृषि को पूरी तरह साम्राज्यवादी पूँजी के अधीन कर देनेवाले हैं।

खेती की विविधता, जटिलता और इलाकाई विशेषता तथा असमान विकास के चलते इसके बारे में किसी आम नतीजे तक पहुँचना बहुत कठिन होता है। उन सामान्य नियमों को खोज निकालना, प्रभावी प्रवृत्तियों को चिन्हित करना और कृषि के बारे में पूँजीवादी सरकारों की नीतियों का विश्लेषण करना अपने आप में जटिलता लिये हुए होता है। हर पहलू से फसल उत्पादन की अपनी विशेषता होती है, जिसे कई मानदण्ड संचालित करते हैं। उदाहरण के लिए दलहन फसलों को ही ले लें। सभी दलहन फसलों की तरह चने के लिए भी नाइट्रोजन उर्वरक की जरूरत नहीं पड़ती और कम उपजाऊ भूमि में भी उसकी अच्छी फसल होती है, लेकिन एक ओर जहाँ अरहर को लगातार पानी की जरूरत होती है, हालाँकि उसकी जड़ों में पानी रुकना नहीं चाहिए, वहीं दूसरी ओर चने की फसल में कम पानी की आवश्यकता होती है, जबकि मटर को लगातार सिंचाई चाहिए। उड़द की फली जब पक रही हो, तो बिलकुल बारिश नहीं होनी चाहिए, नहीं तो फली के सड़ने का खतरा होता है। बारिश होने पर किसान उड़द की फली तोड़कर घर में सुखा लेते हैं, जो एक श्रमसाध्य काम है। पूँजी ने जिस कुशतला से उद्योग को संगठित कर लिया, खेती की इन्हीं विशिष्टताओं के चलते उसे संगठित करने में सफल नहीं हो पायी। लेकिन 21 वीं सदी में साम्राज्यवादी देशों की कृषि तकनीकोंे के विकास के बाद स्थिति पलट गयी है। वह अब विशिष्टता के बावजूद कृषि को संगठित करने में पहले से अधिक सक्षम है।

धनी किसान पहले से ही यहाँ कॉफी, चाय, गन्ना, आदि नकदी फसलें उगा रहे हैं। गन्ने की खेती के लिए बेतहासा भूजल का दोहन होता रहा है, इसके चलते गन्ना उत्पादन का पूरा इलाका बंजर होने के करीब पहुँच चुका है। कृषि के इस मॉडल को बदलना जरूरी है, लेकिन साम्राज्यवादी लुटेरे पर्यावरण और जनता की जरूरतों के हिसाब से बदलाव नहीं करते। वे अतिशय पूँजी संचय के संकट का सामना कर रहे हैं। पिछड़े देशों में पूँजी निवेश के जरिये वे अपने निवेश के संकट को हल करना चाहते हैं। इसके लिए ही वे काम कर रहे हैं। इसलिए आज पिछड़े देशों की कृषि में जो परिवर्तन हो रहा है, वह साम्राज्यवादी पूँजी के दबाव में और उन्हीं स्वार्थों के चलते हो रहा है और संकट को यह और ज्यादा बढ़ानेवाला है।

2016 में मारियानो तुरजी की एक पुस्तक आयी थी जिसका शीर्षक है ‘द पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ एग्रीकल्चरल बूम्स : मैनेजिंग सोयाबीन प्रोडक्शन इन अर्जेंटीना, ब्राजील और पैराग्वे’। इस पुस्तक में खेती से जुड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनी कारगिल के कारोबार के बारे में जानकारी दी गयी है। यह पुस्तक ब्राजील, अर्जेंटीना और पराग्वे में सोयाबीन उत्पादन की राजनीतिक अर्थव्यवस्था का एक गहन विश्लेषण करती है। इन इलाकों के कृषि उत्पादन पर दैत्याकार कॉर्पाेरेट कम्पनियों का नियन्त्रण है। कॉर्पाेरेट ने सोयाबीन उत्पादन की पैदावार में जबरदस्त उछाल के लिए जैव प्रौद्योगिकी और नयी कृषि–तकनीकों का आक्रामक इस्तेमाल किया। इससे कृषि क्षेत्र में शासक वर्ग के विभिन्न धड़ों के साथ कॉर्पाेरेट की ताकत में बड़ी वृद्धि हुई। आज लातिन अमरीका के ये देश अपनी जनता की जरूरतों से संचालित नहीं हैं, बल्कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। इस पुस्तक में कृषि उत्पादन के नये ‘साम्राज्यवादी मॉडल’ की विवेचना की गयी है जो पिछड़े देशों की सरकारों पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का वर्र्चस्व कायम करता है।

लातिन अमरीका में बहुराष्ट्रीय बीजारोपण कम्पनियों का जनता के साथ खुला टकराव हुआ। पैराग्वे की संस्थाओं की खराब हालत और सरकारों की अकर्मण्यता ने उसे कॉर्पाेरेट पर निर्भर बना दिया। संस्थागत रूप से कमजोर पैराग्वे अपना स्वदेशी बीज भी विकसित नहीं कर सका और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का आर्थिक उपनिवेश बन गया।

कृषि के अन्दरूनी खतरों और बाजार मूल्य अस्थिरता से बचने के लिए, क्रेता और विक्रेता को सिक्योरिटीज, कमोडिटीज और फ्यूचर्स एक्सचेंज जैैसे वित्तीय उपकरणों के जाल में उलझाया गया। इन उपकरणों के जरिये मौखिक और लिखित करार के तहत लेन–देन की कीमतों को तय किया जाता है, माल आपूर्ति के समय और शर्तों को निर्धारित करके क्रेता और विक्रेता के सम्बन्ध की कानूनी गारन्टी भी दी जाती है। यह सब वित्तीय और सट्टेबाजी से जुड़ी कम्पनियाँ करती हैं। लेकिन वे उन्हीं व्यवसायों में हाथ डालती हैं, जिनमें मुनाफे की गारन्टी हो। जब किसानों के उत्पाद की गारन्टी के लिए सरकारें आगे नहीं आतीं, तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ मनमाने तरीके से दाम उठा–गिराकर किसानों को लूटती हैं।

प्रोफेसर नरसिंह दयाल अपनी पुस्तक ‘जीन टेक्नोलॉजी और हमारी खेती’ में लिखते हैं, “बायोटेक खेती मौजूदा समय की नवीनतम कृषि प्रणाली है। जीन टेक्नोलॉजी के द्वारा किसी भी जीन को किसी भी अन्य जीव के जीनोम में डालकर उसका मनचाहा अनुवांशिक रूपान्तर किया जा सकता है। इसमें लैंगिक प्रजनन विधि की जरूरत नहीं पड़ती। उदाहरण के लिए आर्कटिक मछली के शीतप्रतिरोधी जीन को टमाटर या स्ट्राबेरी में शीत प्रतिरोधिता के लिए और मिट्टी में पाये जानेवाले जीवाणु, बैसिलस थुरीजिएँसिस के बीटी जीन को कीट प्रतिरोधिता के लिए किसी भी पौध प्रजाति के जीनोम में स्थानान्तरित किया जा सकता है। ऐसा करने से पराया जीन भी मेजबान पौधे में विशिष्ट प्रोटीन बनाने में सक्षम हो जाता है। विकसित देशों की दैत्याकार कृषि बायोटेक कम्पनियों के जीनियागरों ने जीन इंजीनियरी द्वारा सैकड़ों फसलों की जीएम किस्में बना डाली हैंं।–––”

जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने “बायोटेक क्रान्ति” सम्पन्न कर ली तो उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि वे दुनिया की खेती पर अपना नियन्त्रण कायम कर सकती हैं। इसके लिए उन्होंने कृषि उत्पादन का एक नया मॉडल विकसित किया जो पूँजी और तकनीक केन्द्रित है, श्रम केन्द्रित नहीं। इसका अर्थ है कि वे मजदूरों की छँटनी करके उनकी जगह मशीनों से उत्पादन कराती हैं। बौद्धिक सम्पदा अधिकार के तहत वेे अपने बायोटेक से जुड़े शोध से पैदा ज्ञान का संरक्षण करती हैं। बायोटेक क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने तकनीकी हस्तान्तरण को नियंत्रित कर रखा है और अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए सरकारों के साथ लॉबिंग करती हैं। इससे आगे बढ़ते हुए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने पिछड़े देशों के कृषि प्रौद्योगिकी के सार्वजनिक शोध संस्थानों को अपने नियन्त्रण में लेकर आनुवंशिक बीजों के विकास में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।

निरबंसी बीजों के विकास से पहले कई ऐसे कानून बनाने पड़ते थे, जिससे किसान कम्पनियों के बीजों का एक बार ही इस्तेमाल कर सकंे। लेकिन बायो टेक्नोलॉजी आने पर अब कानून की जरूरत नहीं रह गयी। इसके लिए निरबंसी बीज ही काफी हैं। जीन टेक्नोलॉजी के चलते बीजों पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का नियंत्रण हो चुका है। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि साम्राज्यवाद के लिए केवल बीज पर एकाधिकार का सवाल ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, जिसे उसने अपने पेटेंट कानून और जैव–प्रौद्योगिकी के जरिये काफी हद तक हल कर लिया है। उसके लिए तीसरी दुनिया की खेती को अपने अधीन कैसे किया जाये, यह सवाल वहाँ की जनता से टकराये बिना हल होने वाला नहीं है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ चाहती हैं कि न केवल (1) खेती की लागत के कारोबार और (2 ) प्रसंस्करण तथा वितरण कारोबार पर बल्कि (3) सम्पूर्ण खेती–किसानी पर ही उनका एकाधिकार हो।

एक सामान्य अध्ययन के अनुसार खेती के अधिशेष में से लगभग 10 प्रतिशत हिस्सा ही किसानों को मिलता है। बड़ा हिस्सा लागत कम्पनियाँ और प्रसंस्करण कम्पनियाँ डकार ले जाती हैं। किसानों की जमीन पर कब्जा किये बिना ही वे ऐसा कर पा रही हैं, लेकिन आगे सम्भव है कि वे किसानों से जमीन हथियाकर या उसे ठेके पर लेकर खुद खेती करवायें। छोटे और मध्यम किसानों की स्थिति क्या होगी ? छोटे आकार की खेती बड़ी मशीनों के लिए बाधा है। इसलिए सम्भव है कि भविष्य में छोटे और मध्यम किसानों को उजाड़कर बड़ी कम्पनियाँ विशाल स्तर के फॉर्म बनायें। वैसे भी छोटी पूँजी और बड़ी पूँजी में अन्तरविरोध होता ही है और राज्य का संरक्षण न मिले तो छोटी पूँजी का डूबना तय होता है।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अधीन साम्राज्यवादी ढंग की खेती मूलत: वित्तीय पूँजी से संचालित किसान मालिकाने वाली खेती से भिन्न होगी, हालाँकि दूसरे मामले में मालिकाना भी गरीब और मध्यम किसानों के लिए एक भ्रम जैसा ही होता है और असली फायदा कम्पनियाँ ही उठाती हैं। साम्राज्यवादी खेती न केवल तकनीकी दृष्टि से श्रेष्ठ होगी, बल्कि इस खेती में किसान को वित्तीय पूँजी का कारिन्दा बना दिया जायेगा। अलग–अलग आर्थिक हैसियत वाले किसान इसमें अलग–अलग भूमिका निभायेंगे। मध्यम और गरीब किसान उजड़कर तबाह होंगे। उजड़े हुए किसानों में से बहुत थोड़े लोग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मजदूर बन जायेंगे। इन परिवारों के शिक्षित नौजवान कम्पनी के छोटे–मोटे एजेन्ट का काम करेंगे। धनी किसान और सूदखोर गाँव में साम्राज्यवाद के सामाजिक आधार होंगे। उनके घरों के शिक्षित नौजवान कम्पनी में मैनेजर, डीलर और बड़े एजेन्ट की भूमिका निभायेंगे।

ठेका खेती साम्राज्यवादी ढंग की खेती का शुरुआती चरण है, आगे चलकर कम्पनियाँ उद्योग की तर्ज पर खेती का संचालन करेंगी, संयुक्त राज्य अमरीका की खेती इसका एक नमूना है। 1870 में अमरीका की कुल आबादी का 50 प्रतिशत हिस्सा कृषि पर निर्भर था, लेकिन आज यह 2 प्रतिशत से भी कम हो गया है। 2017 के बाद संस्थागत निवेशकों ने बड़ी मात्रा में खेती के लिए जमीनों की खरीद की है और अब सम्पत्ति के छोटे मालिकों के हाथों से जमीन निकलकर इनके हाथों में केन्द्रित होती जा रही है। अमरीका के पूँजीवादी फॉर्मर लोन फराहम जब अपने खेतों के निरीक्षण के लिए निकलते हैं तो उन्हें कम से कम 50 किलोमीटर क्षेत्र में फैले अपने खेत के ऊपर हेलीकॉप्टर से उड़ान भरनी पड़ती है। 1980 से जारी भयावह कृषि मन्दी के बावजूद लोन फराहम का कृषि व्यवसाय लगातार विकास के कीर्तिमान स्थापित करता चला गया, जबकि इसी दौरान छोटे किसान तबाह होते गये। आज अमरीका के कृषि की हालत यह है कि मात्र 4 प्रतिशत खेत, जिनमें से हर खेत साढ़े सात करोड़ रुपये से अधिक की सालाना बिक्री करते हैं, वे अमरीका के कुल कृषि के दो–तिहाई हिस्से का उत्पादन करते हैं।

संयुक्त राज्य अमरीका और लातिन अमरीका की साम्राज्यवादी खेती को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि आने वाले समय में भारत में कृषि उत्पादन की प्राथमिकताएँ भी बदल जायेंगी। खाद्य प्रसंस्करण कम्पनियों के लिए कच्चे माल का उत्पादन खेती की पहली प्राथमिकता होगी। ये कम्पनियाँ बाकी उद्योग से इस मामले में भिन्न होती हैं कि इनमें इस्तेमाल होनेवाला कच्चा माल प्रकृति से सीधे प्राप्त नहीं होता, जिसका भण्डार सीमित है। खेती से पैदा होने के चलते इसका स्रोत लगभग असीमित है। हाइडोपोनिक, एक्वाकल्चर, वर्टिकल फॉर्मिंग आदि खेती की उन्नत तकनीकों से सीमित भूमि की समस्या को भी हल करने की कोशिश चल रही है और इसमें सफलता मिलती दीख रही है।

खेती के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ऐसे इलाकों की तलाश होती है, जो खेती के लिए उत्पादक जमीन के साथ ही साल भर अच्छा मौसम उपलब्ध कराये यानी भरपूर बारिश, फसलों के लिए अनुकूल धूप, नमीं और ताप की उपलब्धता साल भर बनी रहे। उस इलाके में साफ जल से सिंचाई की सुविधा हो और विशाल समतल मैदान हो, जिस पर बड़े कृषि यन्त्रों से आधुनिक खेती की जा सके। गंगा–यमुना का दोआबा ऐसा ही एक बेहतरीन इलाका है, जिस पर साम्राज्यवादियों की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है। जमीन की ऊँची कीमत भी उन्हें जमीन हथियाने से नहीं रोक पायेगी। किसानों के कर्ज न लौटा पाने की स्थिति में और सरकारों से मिलीभगत करके ये किसानों से जमीन छीन लेंगी।

इन तमाम तथ्यों से यह साफ जाहिर है कि तीन कृषि कानून बनाकर सरकार ने देश के किसानों को दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे असहाय छोड़ देने की पूर्वपीठिका तैयार कर दी है। इन कम्पनियों के पास बेहद उन्नत तकनीकी साधन हैं, जिससे वे साम्राज्यवादी ढंग की खेती करवायेंगी, जो अब तक की पूँजीवादी खेती के मॉडल से भिन्न है। उनका न केवल कृषि उत्पादन पर कब्जा होगा, बल्कि वे लागत, वितरण और प्रोसेसिंग पर भी अपना एकाधिकार कायम कर लेंगी। खेती का यह मॉडल न केवल गाँव के कमजोर वर्गों को तबाह कर देगा, बल्कि शहर के गरीब उपभोक्ता भी बरबाद हो जायेंगे। इसके साथ ही यह पर्यावरण को और गहरे संकट की ओर धकेल देगा। इन ताकतवर कम्पनियों से किसान अलग–अलग नहीं निपट सकते। इसलिए किसानों को इनसे अपनी एकजुट ताकत के साथ टकराना पड़ेगा और इस रास्ते में आनेवाली सभी बाधाओं को दूर करना होगा।

अकेले–अकेले अपने साधनों से खेती करना आज सम्भव नहीं। इसका एक रास्ता सरकारी, सामुदायिक या सामूहिक खेती है, जिसे समाजवादी देशों में अपनाया जाता है जिसके केन्द्र में मनुष्य और मानव श्रम होता है। दूसरा रास्ता साम्राज्यवादी पूँजी के मातहत किया जा रहा यह बदलाव है जो पूँजी और मुनाफे की नृशंस लूट पर आधारित है। पहला रास्ता न्याय, समता और बहुजन हिताय का रास्ता है। यह दीर्घकालिक संघर्ष और आमूल परिवर्तन की माँग करता है। मानवता इसी रास्ते पर चलकर सुखी, सुन्दर और शोषण मुक्त होगी।

Leave a Comment

लेखक के अन्य लेख

राजनीतिक अर्थशास्त्र
विचार-विमर्श
अन्तरराष्ट्रीय
समाचार-विचार
पर्यावरण
साहित्य
राजनीति
सामाजिक-सांस्कृतिक