फरवरी 2020, अंक 34 में प्रकाशित

देश असमाधेय और ढाँचागत आर्थिक संकट के भँवर में

राजा मिदास ने भगवान से वरदान माँगा कि वह जिस चीज को छू ले, वह सोना बन जाये। उसे वरदान मिला, चारों ओर से सोने की बरसात होने लगी। कुछ दिन बाद मिदास अपने महल में मरा हुआ पाया गया जबकि उसके आस–पास की सभी चीजें सोने की थीं, थाली में सजा खाना भी। यूनान का यह मिथक देश के मौजूदा आर्थिक संकट और सरकार में उसकी भूमिका को बखूबी बयान करता है। पिछले कई सालों से हम सुनते आ रहे हैं कि सरकार विदेशी निवेशकों को भारत में बुलाने के लिए एड़ी–चोटी का जोर लगा रही है। विदेश से पूँजी की बरसात हो रही है। कर–प्रणाली में व्यापक सुधार करके जीएसटी लायी गयी, जिससे हर महीने एक लाख करोड़़ से अधिक की कमाई होने की उम्मीद जतायी गयी और कई महीने रिकॉर्ड जीएसटी संग्रह भी हुआ। देश की बेहतरीन सार्वजनिक कम्पनियों, जमीन और बहुमूल्य आर्थिक संसाधनों को नीलाम करके धन जुटाया गया। फिर भी आर्थिक संकट को रोक पाना सम्भव न हुआ। नतीजा, आज देश की अर्थव्यवस्था मन्दी के भँवर में गोते खा रही है। अर्थ जगत के लिए कुल मिलाकर साल 2020 की शुरुआत निराशाजनक है। 
नये साल की शुरुआत में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने भारत की आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान को घटाककर 4.8 प्रतिशत कर दिया है। पिछले साल अक्टूबर में उसने इसे घटाकर 6.1 प्रतिशत का अनुमान लगाया था। इसे और घटाने के पीछे कारण बताया गया कि स्थानीय माँग में तेजी से कमी हो रही है और गैर–बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र में तनाव बढ़ने की आशंका है। आईएमएफ ने बताया कि “2019 की तीसरी तिमाही में, उभरती हुई बाजार अर्थव्यवस्थाओं (भारत, मैक्सिको और दक्षिण अफ्रीका) में वृद्धि उम्मीद से कम थी, जिसका मुख्य कारण अक्टूबर में घरेलू माँग पर देश–विशेष के झटके थे।” इससे साफ हो जाता है कि इन देशों में जनता की क्रयशक्ति गिरती जा रही है, जिससे घरेलू माँग में भारी कमी आ रही है। अमरीका–चीन के बीच व्यापार युद्ध में नरमी आने के चलते विश्व अर्थव्यवस्था में सुधार आने की उम्मीद जतायी जा रही थी, लेकिन अमरीका–ईरान के बिगड़ते सम्बन्ध के चलते तेल–आपूर्ति में बाधा पड़ सकती है और निवेश में कमी आने की सम्भावना है। इससे विश्व अर्थव्यवस्था को उभरने में मदद नहीं मिलेगी।
26 जनवरी को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी ने कहा कि “देश का बैंकिंग क्षेत्र दबाव का सामना कर रहा है और सरकार की ऐसी हालत नहीं है कि वह प्रोत्साहन पैकेज देकर इसे संकट से बाहर निकाल सके।” उन्होंने बैंकों की स्थिति पर चिन्ता जतायी तथा साथ ही कार और दोपहिया वाहनों की बिक्री में कमी का कारण माँग में कमी होना बताया। इससे अर्थव्यवस्था में लोगों का भरोसा खत्म हो रहा है। इसीलिए वे खर्च करने से कतरा रहे हैं। विदेशी निवेशक भी अर्थव्यवस्था की ऐसी हालत से खुश नहीं हैं। 
आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने सीएनबीसी इण्टरनेशनल को दिये एक इण्टरव्यू में बताया कि “विकास की मौजूदा दर युवा श्रम शक्ति के लिए नौकरियाँ सृजित करने के मामले में पर्याप्त नहीं है–––” सरकार पर आर्थिक सुधारों को और तेजी से लागू करने के लिए दबाव बनाते हुए उन्होंने आगे कहा, “––– और धीमी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए तेज सुधारों की जरूरत है। पिछले 15 वर्षों में समस्या यह है कि सुधार की गति काफी धीमी हो गयी है।” पिछले साल नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार को भी स्वीकार करना पड़ा कि “पिछले 70 सालों में किसी सरकार को ऐसी हालत का सामना नहीं करना पड़ा था, जहाँ पूरी वित्तीय प्रणाली ही खतरे में हो।” लेकिन इससे पहले सरकार अर्थव्यवस्था में ‘ढाँचागत मन्दी’ की बात करने वालों को ‘पेशेवर निराशावादी’ कहकर मजाक उड़ाती थी। आँकड़ों में हेराफेरी करने और झूठ को सच बनाकर परोसने का काम भी किया गया। खुद सरकार के भूतपूर्व आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यन ने बताया कि जिस समय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7.1 प्रतिशत होने की बात की गयी, उस समय वास्तव में वृद्धि दर उससे 2.5 प्रतिशत कम थी। वित्त मंत्री ने राज्यसभा में कहा कि अर्थव्यवस्था में थोड़ी सुस्ती है, लेकिन इसे मन्दी नहीं कहेंगे और न कभी मन्दी होगी। इस पर सदन में काफी हल्ला मचा। विपक्ष ने मन्दी की इस स्थिति को ‘एलार्मिंग सिचुएशन’ बताया। अरविन्द सुब्रमण्यन ने कहा कि देश की अर्थव्यवस्था आईसीयू की तरफ बढ़ रही है।
पिछले साल अगस्त में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताया था कि भारत की अर्थव्यवस्था चक्रीय मन्दी के दौर से गुजर रही है। लेकिन आरबीआई ने ढाँचागत मन्दी होने से इनकार किया। चक्रीय मन्दी से यहाँ मतलब यह है कि किसी भी व्यवसाय में कुछ समयान्तराल पर व्यापार में तेजी और मन्दी का चक्र चलता रहता है, जो व्यापार चक्र का हिस्सा होता है। चक्रीय मन्दी को दूर करने के लिए अन्तरिम वित्तीय और मौद्रिक उपायों, क्रेडिट बाजारों के अस्थायी पुनर्पूंजीकरण और अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए माँग–आधारित नियामक परिवर्तनों की आवश्यकता होती है। जैसे–– आरबीआई समय–समय पर रेपो रेट, सीआरआर आदि नियामकों के जरिये बाजार में मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित करती है। इससे महँगाई, उपभोग और मुद्रा प्रचलन (तरलता) में कमी या वृद्धि होती है और बाजार में सामानों की माँग बढ़ या घट जाती है। लेकिन मौद्रिक उपायों के जरिये मन्दी को एक सीमा तक ही दूर किया जा सकता है। यदि मन्दी ने पूरे ढाँचे को अपनी चपेट में ले लिया है, अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्र या लगभग सभी क्षेत्रों में गिरावट जारी हो और मन्दी लम्बे समय तक खिंच जाये तो वह ढाँचागत संकट बन जाती है और उसका उद्धार मौद्रिक नीतियों के जरिये करना सम्भव नहीं होता। 
मौजूदा आर्थिक संकट कोई चक्रीय संकट नहीं है, बल्कि यह ढाँचागत संकट बन चुका है। लेकिन सरकार के अर्थशास्त्री इसे चक्रीय संकट बताते हैं, जो तथ्यों से मेल नहीं खाता। इसे साबित करने के लिए हमें यह दिखाना होगा कि मौजूदा मन्दी अर्थव्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्रों में फैल चुकी है, इसका समयान्तराल काफी लम्बा है और यह मौद्रिक उपायों से काबू में नहीं आ रही है। आज अर्थव्यवस्था का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है, जो संकट की गिरफ्त में न हो। अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में मन्दी के एक से बढ़कर एक आँकड़ें समाचार पत्र–पत्रिकाओं में रोज ही आ रहे हैं। उनमें से कुछ चुनिन्दा क्षेत्रों के आँकड़ें यहाँ दिये जा रहे हैं। पाठक खुद ही अन्दाजा लगा सकते हैं कि स्थिति कितनी भयावह है––
टेलिकॉम क्षेत्र घाटे में
पिछले वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में भारती एयरटेल, रिलायंस कम्युनिकेशन और वोडाफोन–आईडिया को क्रमश: 23 हजार करोड़़, 30 हजार करोड़़ और 51 हजार करोड़़ रुपये का घाटा हुआ। वित्तमंत्री ने इस घाटे को देखते हुए स्वीकार किया कि वे इससे अवगत हैं। वे नहीं चाहतीं कि कोई कम्पनी बन्द हो। उनका बिजनेस तेजी से फले–फूले। लेकिन लगता है कि वितमंत्री की नेक नीयती टेलिकॉम सेक्टर के लिए किसी काम की नहीं है। इन कम्पनियों के संकट का यहीं अन्त नहीं हुआ। 
पिछले साल अक्टूबर में एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यु (एजीआर) पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था, जिसमें सरकार द्वारा तय की गयी एजीआर की परिभाषा को सही मान लिया गया था, जिसके अनुसार एजीआर किसी भी लाइसेंसधारी की कुल आय है। इसमें गैर–कोर टेलिकॉम से मिलनेवाली आय भी शामिल है। यानी किराया, लाभांश और ब्याज से होनेवाली आय को भी इसमें जोड़़ा दिया गया है। एजीआर पर कोर्ट का फैसला आने के बाद यह तय हो गया कि टेलिकॉम कम्पनियों को सरकारी खजाने में अपने बकाये के 1.47 लाख करोड़़ रुपये जमा करने हैं। यह इन कम्पनियों को लगने वाला एक और झटका है। कोर्ट ने इन कम्पनियों को अपना बकाया जमा करने के लिए 24 जनवरी 2020 तक समय दिया। इसके बाद टेलिकॉम विभाग वसूली के लिए इन कम्पनियों को नोटिस भेजना शुरू कर देगा। वसूली के मामले में इस बार सरकार पूरी तरह मुस्तैद है और कम्पनियों को किसी भी तरह की राहत देने की स्थिति में नहीं है क्योंकि सरकार खुद आर्थिक तंगी का सामना कर रही है।
इस तरह हम देखते हैं कि सरकार और टेलिकॉम कम्पनियाँ आमने–सामने खड़ी हैं। यानी पूँजी का दीर्घकालिक हित, जिसे कोई भी पूँजीवादी सरकार सबसे अच्छे तरीके से साधती है, वह पूँजी के तात्कालिक हित से टकरा रहा है, जिसका प्रतिनिधित्व निजी कम्पनियाँ करती हैं। यह संकट की एक और अभिव्यक्ति है। जब कोई भी व्यवस्था अपनी जड़ों तक संकटग्रस्त होती है, तो उसका एक हिस्सा अपने दूसरे हिस्से के खिलाफ हो जाता है। इस मामले में निजी पूँजी के हित में समर्पित पूँजीवादी सरकार की हालत एक तरफ कुआँ तो दूसरी तरफ खाई जैसी हो गयी है। वह चाहकर भी इन कम्पनियों की देनदारी एक सीमा से आगे जाकर माफ नहीं कर सकती और अगर उसने अपने संकीर्ण वर्गीय सोच के चलते ऐसा किया तो वह अपने ही वर्ग के दूरगामी हित और पूँजीवादी व्यवस्था के रास्ते का रोड़ा बन जायेगी।
टेलिकॉम कम्पनियों के घाटे में यदि उनकी सरकारी देनदारी को जोड़कर देखें, तो स्पष्ट हो जाता है कि ये कम्पनियाँ संकट में बुरी तरह फँस गयी हैं। कोर्ट के फैसले के हिसाब से वोडाफोन–आईडिया को लगभग 45 हजार करोड़़ रुपये और भारतीय एयरटेल को लगभग 35 हजार करोड़़ रुपये चुकाने हैं। इन खबरों के चलते मध्य जनवरी में वोडाफोन के शेयर 40 प्रतिशत तक लुढ़क गये। जिन बैंकों ने इन कम्पनियों को कर्ज दिया है, उनकी चिन्ताएँ बढ़ गयी हैं। उनके आगे भी तबाही का मंजर साफ दिख रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि इस संकट के चलते 5–जी स्पेक्ट्रम को बाजार में उतारने में देरी होगी, इस क्षेत्र से होने वाली सरकारी आय में गिरावट आयेगी और इससे अर्थव्यवस्था की हालत और खराब हो जायेगी।
भवन और वाहन की बिक्री में गिरावट
आरबीआई के भूतपूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा कि अचल सम्पत्ति, निर्माण और बुनियादी ढाँचा उद्योग ‘बेहद परेशानी में’ हैं। यह बात प्राग टाइगर की रिपोर्ट से भी साबित होती है, जिसके अनुसार मौजूदा वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में 9 बड़े शहरों की भवन बिक्री में 30 प्रतिशत की गिरावट आयी है। पिछले साल की तुलना में रिहाइशी सम्पत्ति की कुल बिक्री में 13 प्रतिशत की कमी हुई है। इस तरह हम देखते हैं कि रियल एस्टेट में संकट के चलते लगभग 66 अरब डॉलर की आवासीय परियोजनाएँ दिवालिया होने की हालत में हैं। सितम्बर 2019 तक रियल एस्टेट के कुल 115 दिवालिया मामले दर्ज किये जा चुके हैं। इसमें बड़ी संख्या में कर्ज नहीं लौटाने वाले मामले भी हैं। ये सभी नकदी की कमी से जूझ रहे हैं। बैंक इन्हें और अधिक कर्ज देने से हाथ पीछे खींच रहे हैं क्योंकि बैंको द्वारा पहले दिये गये कर्ज की वसूली नहीं हो पायी है और उनमें से बड़ी संख्या में कर्ज एनपीए की स्थिति में आ गये हैं। इसके चलते बैंकों का दिवाला पिट गया है। 
बीते साल के अन्तिम महीने में ऑटोमोबाइल निर्माता कम्पनियों के संगठन ‘सियाम’ ने वाहनों की बिक्री के आँकड़े जारी किये। इन आँकड़ों के अनुसार दिसम्बर में कुल 14.05 लाख वाहनों की बिक्री हुई जो इसी महीने के पिछले साल की बिक्री से 2.12 लाख वाहन कम है। इसी तरह पिछले साल की तुलना में 2019 में कुल वाहनों की बिक्री में 13.77 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। 
सरकार की कुल आय में गिरावट
2019–20 के वित्तीय वर्ष के लिए सरकार ने कमाई का कुल लक्ष्य 19.6 लाख करोड़़ रुपये रखा है। ऐसा लग रहा है कि सरकार यह लक्ष्य भी हासिल नहीं कर पाएगी। पिछले साल सरकार ने कॉर्पोरेट के टैक्स को 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत कर दिया था, जो वास्तव में तमाम छूट के बाद लगभग 22 प्रतिशत तक आ गया है। इससे हर साल सरकार को लगभग 1.5 लाख करोड़़ रुपये के राजस्व का नुकसान होगा। जीएसटी संग्रह भी धीरे–धीरे गिरता जा रहा है। पिछले साल की आखिरी तिमाही में केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच तनाव बढ़ गया, जिसकी वजह थी, केन्द्र ने राज्यों को जीएसटी का तय हिस्सा समय सीमा के अन्दर नहीं दिया। ये सभी बातें अर्थव्यवस्था की सुस्त रफ्तार को ही दिखाती हैं। आर्थिक विश्लेषक मानते हैं कि “2020 के बजट में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर में सरकार 3.48 लाख करोड़़ रुपये की कमी का सामना कर सकती है।” इसके चलते सरकार वार्षिक बजट में 2.2 लाख करोड़़ रुपये की कटौती कर सकती है।
2019 की तीसरी तिमाही में भारत में बाहरी ऋण बढ़कर 39,72,038 करोड़़ रुपये हो गया, जो उसी साल की दूसरी तिमाही में 39,68,747 करोड़़ रुपये था यानी एक तिमाही में 3,291 करोड़़ रुपये की वृद्धि। पिछले साल सरकारी घाटे को पूरा करने के लिए आरबीआई ने सरकार को कुल 1,76,051 करोड़़ रुपये की राशि उपलब्ध करायी थी, जिसमें वित्त वर्ष 2018–19 की बचत (सरप्लस) का 1,23,414 करोड़़ रुपया भी शामिल है और 52,637 करोड़़ रुपये अतिरिक्त दिया गया था, इसे ही लेकर पक्ष–विपक्ष में बहुत विवाद हुआ था। इसके बावजूद भी सरकार की आर्थिक कठिनाइयाँ कम नहीं हुर्इं। उम्मीद है कि इस साल फिर सरकार आरबीआई से 35.45 हजार करोड़़ रुपये अतिरिक्त धनराशी की माँग करेगी।
विदेशी व्यापार घाटे का सौदा
भारत के लिए विदेशी व्यापार घाटे का सौदा बन गया है। इसे केवल एक उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है। आज भारत और चीन के बीच व्यापार का फायदा सबसे अधिक चीन उठा रहा है। वित्त वर्ष 2019 में इस व्यापार में भारत को कुल 3,776 अरब रुपये का घाटा उठाना पडा। भारत, चीन को 1,211 अरब रुपये का माल बेचता है, जबकि वहाँ से 4,987 अरब रुपये का माल खरीदता है। विदेशी व्यापार पर निगाह रखना इसलिए भी जरूरी है कि जब विदेशी कम्पनियाँ भारत में निवेश करती हैं, तो उनकी उम्मीद रहती है कि वे जो भी मुनाफा कमाएँगी, वह डॉलर में लेकर जायेंगी। इसलिए भारत का विदेशी मुद्रा भण्डार पर्याप्त होना चाहिए। यह लगातार डॉलर की आपूर्ति करता रहे, इसके लिए व्यापार घाटा से बचना अनिवार्य है। इसके लिए उदारीकरण की नीति के तहत भारत को निर्यातोन्मुखी अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन आज हालात उलटे नजर आ रहे हैं। सवाल उठाता है कि भारत के नेता लगातार चीन को अपना दुश्मन बताते रहते हैं, वह डोकलाम में भी भारत को पीछे धकेलता जा रहा है, फिर भारत सरकार चीन से सम्बन्ध तोड़ क्यों नहीं लेती? उसके साथ व्यापार बन्द क्यों नहीं कर देती? अगर सरकार ईरान से अपने आर्थिक सम्बन्ध खत्म कर सकती है, जहाँ सीधे भारत को ही नुकसान है, तो चीन के साथ क्यों नहीं? दरअसल इस समस्या की कुंजी भारत की विश्व व्यवस्था में क्या हैसियत है, उससे तय होता है और भारत के अन्दर किस वर्ग का फायदा चीन से नुकसानदेह आर्थिक व्यापार में है, इससे गुत्थी सुलझ सकती है। जाहिर है कि यह वर्ग जो चीन–भारत व्यापार से फायदा उठा रहा है, वह सरकार के बेहद करीब है, इसीलिए सरकार इस घाटे को बर्दाश्त कर रही है। 
डाँवाँडोल शेयर बाजार 
पिछले साल जब 5 जुलाई को सरकार ने बजट पेश किया, तो शेयर धारकों में खलबली मच गयी। इससे अमीर और खुदरा निवेशकों को लगभग 1.33 लाख करोड़़ रुपये का नुकसान हुआ, जबकि घरेलू संस्थागत निवेशकों को जुलाई महीने में 3.33 लाख करोड़़ रुपये की चपत लगी। इसी दौरान विदेशी निवेशकों की बाजार पूँजी में 3.14 लाख करोड़़ रुपये की कमी आयी। यानी कुल मिलाकर निवेशकों को एक महीने में 15 लाख करोड़़ रुपये की चपत लगी। इस दौरान इण्डियाबुल्स हाउसिंग फाइनेंस के शेयरों में 36 प्रतिशत की कमी आयी। कोल इण्डिया, ओएनजीसी और वेदान्ता के शेयर कीमत 14 से 18 प्रतिशत कम हो गये हैं। टाटा मोटर्स के शेयर 22.67, टाइटन के 19 और टाटा स्टील के 18 प्रतिशत तक गिर गये। ये आँकड़ें दिखाते हैं कि निवेशकों का सरकार में और भारतीय अर्थव्यवस्था में विश्वास तेजी से कम हो रहा है। इसके साथ ही अब शेयर बाजार का गुब्बारा फूलकर इतना बड़ा हो गया है कि सरकार के किसी भी फैसले, देश–विदेश की राजनीतिक उथल–पुथल या मौसम के अचानक बदलाव से यह कभी भी पिचक सकता है। पिछले साल सितम्बर में सऊदी अरब के तेल ठिकानों पर ड्रोन से हमला किया गया, इसके चलते तेल की कीमतों में भारी उछाल आया। इससे बीएसई का सेंसेक्स 642.22 अंक लुढ़क गया। 
अन्य सभी क्षेत्र गिरावट के शिकार 
कोर क्षेत्रों के अलावा रोजमर्रा इस्तेमाल होनेवाली चीजों का उत्पादन करनेवाली एफएमसीजी कम्पनियों का बाजार भी संकट में घिर गया है। जायज सी बात है कि जब लोगों के पास रोजगार नहीं होगा, उनकी क्रयशक्ति कमजोर होगी तो बाजार में उपभोक्ता सामानों की माँग कहाँ रह जायेगी? इसीलिए तेल, साबुन, नमकीन, बिस्किट, साइकिल, कपड़े के बाजार भी सुस्त पड़े हैं। हालत यह हो गयी है कि फैशन डिजाइनिंग के टेलर, जो कपड़ों की नयी–नयी डिजाइनिंग बनाकर उपभोक्ताओं को खूब लुभाते थे और ब्राण्डेड कम्पनियों से भी महँगे दाम पर अपने कपडे़ बेचकर अच्छा–खासा कारोबार कर रहे थे, वे कहते हैं कि थोक भाव के सस्ते–सस्ते रेडीमेड कपड़े बेचकर ही गुजारा करना पड़ रहा है। फैशन डिजाइनिंग से तैयार कपड़ों की अब माँग नहीं रही।
गैर–पेट्रोलियम मालों के आयात और निर्यात में क्रमश: 6 प्रतिशत और एक प्रतिशत की गिरावट हुई है। पूँजीगत माल के उत्पादन की वृद्धि दर में 10 प्रतिशत की गिरावट आयी है। उपभोक्ता माल उत्पादन की वृद्धि दर जो 2017 में पाँच प्रतिशत पर थी, अब एक प्रतिशत पर है। तीसरी तिमाही में कंज्यूमर कॉन्फिडेंस 8 अंक टूटकर 89.4 रह गया। इससे साफ पता चलता है कि अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता का विश्वास टूट चुका है।
आसमान छूती महँगाई
महँगाई ने अपने पुराने सभी रिकॉर्ड तोड़ दिये। सभी को हतप्रभ करते हुए दिसम्बर में प्याज के दाम में 456 प्रतिशत का रिकॉर्ड उछाल आया। खाद्य पदार्थों की महँगाई ने आसमान छू लिया। दिसम्बर महीने में ही खुदरा महँगाई दर पाँच साल के उच्चतम स्तर 7.35 प्रतिशत पर पहुँच गयी। एसबीआई ने अपनी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि खुदरा महँगाई दर इससे भी ऊपर जा सकती है। महँगाई कम करने के सरकार के सारे दावे गलत साबित हो रहे हैं। खुद सरकार ही महँगाई बढ़ाने में पीछे नहीं है। पिछले 6 महीने में सब्सिडी वाले गैस–सिलेण्डर के दाम 62 रुपये यानी 13 प्रतिशत बढ़ा दिये गये।
क्या मौद्रिक नीति में बदलाव से संकट को टाला जा सकता है?
इसका जवाब नहीं में है। भारतीय रिजर्व बैंक मौद्रिक नीति तय करता है। मौद्रिक नीति में कैश रिजर्व रेशियो, रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट को कम या अधिक करके अर्थव्यवस्था में मुद्रा के प्रवाह को बढ़ाया या घटाया जाता है। जैसे–– आज पूरी अर्थव्यवस्था नकदी की कमी से जूझ रही है, लेकिन इसके साथ ही महँगाई अपने चरम पर है। यह स्थिति खतरनाक है क्योंकि अगर आरबीआई बाजार में बड़ी मात्रा में अतिरिक्त नकदी उतारती है तो इससे नकदी की कमी तो कुछ हद तक दूर होगी, लेकिन अधिक नकदी के चलते महँगाई और बढ़ जायेगी, जिससे लोगों की वास्तविक क्रयशक्ति घट जायेगी जो माँग को और कम कर देगी। नतीजा ढाक के तीन पात। यही वजह है कि पिछले साल आरबीआई ने लगातार चार बार रेपो रेट में कमी की, लेकिन उसका सकारात्मक असर बाजार पर नहीं दिखा। दूसरी ओर, भारत दुनिया की 10 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे ऊपर आ गया है। भारत में डूबे हुए कर्ज का अनुपात 9.3 प्रतिशत है, यानी देश में करीब 11.46 लाख करोड़़ रुपये कर्ज में फँसे हुए हैं, जिसकी वसूली लगभग असम्भव है। अधिकांश बैंकों का बैड लोन बढ़कर आत्मघाती हद तक पहुँच गया है। ये डूबते बैंक ब्याज दर कम करने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्हें पता है कि ब्याज दर घटाने से माँग बढ़े या न बढ़े, उनकी रही–सही कमाई जरूर मारी जायेगी। ये सभी बैंक अभी हाँफते हुए साँस ले रहे हैं, जिस दिन ये दिवालिया होंगे, उस दिन अर्थव्यवस्था में आनेवाली सुनामी का अन्दाजा लगाइये, स्थिति भयावह होगी और भारतीय अर्थव्यवस्था का ढाँचा चरमरा जाएगा।
बेरोजगारी का विकराल रूप
सरकार ने करोड़़ों रोजगार पैदा करने का दावा किया था, लेकिन हुआ इसका ठीक उलटा। खुद सरकारी आँकड़ों के अनुसार बेरोजगारी 45 साल के उच्चतम स्तर पर है। सरकार का तरफदार मीडिया ग्रुप भास्कर ने कई क्षेत्रों के विशेषज्ञों, औद्योगिक अधिकारियों और सरकार की रिपोर्ट से नौकरियों की स्थिति के बारे में चैंकाने वाले आँकड़ें जुटाये हैं। उसने बताया कि पिछले पाँच सालों में सिर्फ 7 प्रमुख क्षेत्रों से 3.64 करोड़़ लोगों का रोजगार छिन चुका है। इनमें प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह के रोजगार शामिल हैं। केवल कपड़ा उद्योग के लगभग 3.5 करोड़़ लोग बेरोजगार हुए हैं। आज शिक्षित नौजवान एक छोटी सी नौकरी के लिए जगह–जगह धक्के खा रहे हैं। उनके सामने भविष्य एक अँधेरी गुफा है। देश के शासक उनके अपमान और पीड़ा को कभी समझ नहीं सकते।
ऊपर आँकड़ों की मदद से हमने देखा कि आज भारत की अर्थव्यवस्था का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जो सेहतमन्द हो। अब इस मन्दी को आरबीआई की मौद्रिक नीतियों से काबू में नहीं किया जा सकता। सरकार ने मन्दी से लड़ने के लिए कई कदम उठाये हैं, जैसे–– कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती, आरबीआई से फण्ड लेना, मौद्रिक नीति में बदलाव, जीएसटी के जरिये जनता पर टैक्स बढ़ाना आदि, यानी कुल मिलाकर गरीबों से लूटकर अमीरों में बाँटने का काम किया है। ये सभी काम समाधान के बजाय खुद समस्या बन गये। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस मन्दी का समाधान सरकार के बूते से बाहर हो गया है। लम्बे समय तक पूरी अर्थव्यवस्था को तबाह करनेवाली यह मन्दी चक्रीय नहीं है, बल्कि ढाँचागत मन्दी है, जो असमाधेय हो गयी है। 
मन्दी का असर
मन्दी का असर अलग–अलग वर्गों और तबकों पर उनकी आर्थिक–राजनीतिक हैसियत के हिसाब से पड़ता है। मन्दी आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग पर सबसे घातक असर दिखा रही है। इस देशव्यापी मन्दी ने शिक्षित नौजवानों, गरीब–मध्यम किसानों, घरेलू महिलाओं और मजदूरों की कमर तोड़ दी है। महँगाई से रसोई का सारा बजट बिगड़ गया है और इससे घरेलू महिलाओं का तनाव बढ़ गया है। बेरोजगारी के चलते नौजवानों की आर्थिक–सामाजिक स्थिति गिर चुकी है। निराश होकर हर दो घण्टे में तीन बेरोजगार नौजवान अपनी जिन्दगी खत्म कर रहे हैं। मन्दी के बावजूद पूँजीपतियों का मुनाफा बढ़ता रहे, इसके लिए श्रम कानूनों को तोड़कर मजदूरों के निर्मम शोषण का रास्ता साफ कर दिया गया, जिससे मजदूर वर्ग की जिन्दगी नारकीय बन गयी है। सार्वजनिक कम्पनियों के निजीकरण के जरिये उसमें कार्यरत कर्मचारियों की रोजगार सुरक्षा और वेतन के स्थायित्व को खत्म कर दिया गया है। ऐसे हालात से साफ पता चलता है कि सरकार आर्थिक संकट का सारा बोझ मेहनतकश वर्ग पर डालती जा रही है, यानी मुनाफा निजी और घाटा सामाजिक। इससे मेहनतकश वर्ग की जिन्दगी दिनोंदिन तबाह हो रही है। 
छोटे व्यवसायी और दुकानदारों का संकट तीन गुना बढ़ गया है। पहला, डीकैथलान, प्यूमा, नाइक जैसी विदेशी दैत्याकार कम्पनियाँ खुदरा बाजार पर कब्जा करती जा रही हैं, दूसरा, अमेजन और फ्लिपकार्ट ऑनलाइन व्यापार के जरिये ग्राहकों को खूब लुभा रही हैं, इसके लिए वे अपने ग्राहकों को बम्पर छूट दे रही हैं। इतनी छूट देना छोटे दुकानदारों के बस की बात नहीं है। जायज सी बात है कि हमारे छोटे दुकानदार इतनी बड़ी कम्पनियों से प्रतियोगिता में टिक नहीं सकते। तीसरा, बेरोजगारी से पीड़ित मध्यम वर्गीय घरों के नौजवान अपनी छोटी पूँजी के दम पर नयी दुकानंे खोलकर बैठ जा रहे हैं। इस तरह तिहरी मार से छोटे व्यवसायी और दुकानदारों का रोजी–रोजगार संकट में है। इसके अलावा, जिन 25 लाख लोगों को वाहन डीलरों के पास सीधे रोजगार मिला हुआ है, वाहनों की बिक्री में गिरावट के चलते उनका रोजगार भी संकट में है। 
सरकार ने अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार की आड़ में सामाजिक सुरक्षा का निजीकरण कर दिया है। यानी स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे जन–कल्याण के कामों से हाथ खींचकर इसे निजी पूँजीपतियों के हवाले कर दिया गया है, जिससे पूँजीपतियों को अकूत मुनाफा हो रहा है, लेकिन मन्दी की मार से अब ये भी अछूते नहीं हैं। निजी और सरकारी कर्मचारियों के पेंशन फण्ड को शेयर बाजार से जोड़़कर सरकार ने सेवानिवृत्त लोगों की जिन्दगी को खतरे में डाल दिया है। अब सेवानिवृत्ति के बाद बुढ़ापे में लोग अपनी पेंशन के लिए शेयर बाजार के रहमोकरम पर रहेंगे। 
मेहनतकश वर्ग में आर्थिक संकट को लेकर उहापोह की स्थिति है। एक तरफ, उसकी आर्थिक हैसियत नीचे गिर रही है, उसकी जिन्दगी में उथल–पुथल मची हुई है, तो दूसरी तरफ, अपनी जिन्दगी की इन समस्याओं को वह अपने वर्ग की समस्या के रूप में नहीं देख पा रहा है। सत्ता पोषित दलाल मीडिया उसे व्यवस्था की उज्जवल तस्वीर दिखाने में काफी हद तक सफल हो रहा है। मजदूर वर्ग अपनी खराब हालत से परेशान हो, खुद को दोष देकर या एक–दूसरे से थोड़ी बहुत शिकवा–शिकायत करके चुप बैठ जाता है। उसे इन समस्याओं से पार पाने का कोई तरीका सूझ नहीं रहा है। खराब होती जीवन स्थिति के चलते जनता के एक हिस्से में भयावह निराशा अपना पैर पसारती जा रही है। यह निराशा विनाशकारी है और आत्महत्या जैसे व्यवस्थाजन्य संकटों को बढ़ावा दे रही है। 
जन–सरोकार रखने वाली पत्र–पत्रिकाओं में आर्थिक संकट से जुड़ी जो खबरें आ रही हैं, वे आँखें चुधियाँ देने वाली हैं। रोज–ब–रोज इतनी खबरें आ रही हैं कि पाठक इन खबरों के जंगल में ही खो जाये। उन्हें समझकर सही नतीजे तक पहुँचना जरूरी है। यानी खबरों में छिपे सच को जान लेना बहुत जरूरी है। यह आर्थिक संकट के समाधान की दिशा में पहला कदम है।
हमने देखा कि पूँजीपति के मुनाफे की भूख ही आर्थिक संकट को पैदा करती है, जिसके चलते एक तरफ सम्पत्ति का पहाड़ खड़ा हो जाता है तो दूसरी ओर बहुसंख्य जनता की जिन्दगी में केवल तबाही रह जाती है। जबकि जो पूँजीपति वर्ग आर्थिक संकट को पैदा करता है, सरकार की नजरे–इनायत उसी पर होती है। यानी संकट से बचाव का पैकेज उसी को दिया जाता है। रोजमर्रे की आर्थिक घटनाओं ने साफ कर दिया है कि सरकार आर्थिक संकट को हल नहीं कर सकती और इस संकट के चलते मुनाफे में आयी कमी की भरपाई मेहनतकश वर्ग को अपने खून–पसीने से करनी पड़ रही है। अब उसके बर्दाश्त की सीमा पार हो गयी है। उसे एकजुट होकर अपने ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द करनी होगी और एक ऐसी व्यवस्था के निर्माण में अपना योगदान देना होगा जो मन्दी के संकट से मुक्त हो। संकट का स्वरूप ढाँचागत है, समाधान भी सतही सुधार नहीं बल्कि बुनियादी ढाँचे में बदलाव ही हो सकता है।
 

Leave a Comment

लेखक के अन्य लेख

राजनीतिक अर्थशास्त्र
विचार-विमर्श
अन्तरराष्ट्रीय
समाचार-विचार
पर्यावरण
साहित्य
राजनीति
सामाजिक-सांस्कृतिक