19 अप्रैल, 2020 (ब्लॉग पोस्ट)

लॉकडाउन, मजदूर वर्ग की बढ़ती मुसीबत और एक नयी दुनिया की सम्भावना

कोरोना संकट पर देश-दुनिया में इतनी ज्यादा उथल-पुथल मची है और रोज दर्जनों ख़बरें आकर हमें चौंका देती हैं कि इस पूरे घटनाक्रम को एक लेख में समेटना लगभग नामुमकिन है। दुनिया के हर देश की अपनी अलग कहानी है। किसी भी इनसान से पूछ लो, उसके पास कोरोना को समझने और समझाने की अपनी न्यारी ही कहानी है। इसलिए हर व्यक्ति से जानकारी लेकर किसी आम राय तक पहुँचना संभव नहीं है। पर जो तथ्य और रिपोर्ट्स सामने आयीं हैं, उनके आधार पर विश्लेषण करके एक आम राय कायम की जा सकती है।

 

कोरोना महामारी ने दुनिया भर की उत्पादन व्यवस्था को लगभग ठप्प कर दिया है। धरती पर सरपट दौड़ने वाली रेलों को जाम कर दिया है। पानी को चीरते हुए समुद्र में घूमने वाले जहाजों को रोक दिया है। आकाश को चूमने वाले हवाई जहाजों को चूहे की तरह अपनी माँद में बैठे रहने को मजबूर कर दिया है। शीशे की बनी गगनचुम्बी इमारतों से कबूतरों की आवाज आने लगी है, जहां न दिन का पता होता था न रात का। अब तीन शिफ्ट में धड़-धड़ चलने वाली मशीनों के चक्के रुक गए हैं। धधकती भट्टियों से उठती आग बुझ गयी है।

 

ऐसी स्थिति में भारत में जारी लॉकडाउन से करोड़ों लोगों के काम छूट चुके हैं। उनके हाथ अचानक खाली हो गए हैं। लॉकडाउन के अगले दिन से ही करीब हफ्ते भर तक शहरों से गाँव की ओर मजदूरों का रेला गुजरता रहा। कई एजेंसियों ने तो दावा किया कि यह इतिहास का सबसे बड़ा पलायन है। दिल्ली से पूर्वी उत्तर प्रदेश, जयपुर और मध्यप्रदेश के लोग पैदल ही अपने घरों को चल पड़े। बॉम्बे से फैजाबाद तक लोग पैदल आए। महाराष्ट्र से गुजरात और राजस्थान के लिए लोग छोटे-छोटे बच्चों को कंधों पर उठाए चले आए। इस पलायन में एक हिस्सा निम्न मध्यम वर्ग का भी था जिसे वेतन काटने की शर्त पर भी दस दिन की छुट्टी नहीं मिलती थी। वह भी इस संकट के समय अपने परिवार के पास आने के लिए पैदल चल पड़ा। पर पलायन में शामिल लोगों का बहुत बड़ा हिस्सा दिहाड़ी मजदूर, पीस रेट पर काम करने वाले, सिक्योरिटी गार्ड, ड्राइवर, सेल्समेन, रिक्शा चलाने वाले और विभिन्न पेशों में लगे अस्थायी मजदूरों का था। अगर लॉकडाउन के साथ ही इन सबके खाने-पीने, किराये और न्यूनतम मजदूरी की गारंटी की गयी होती तो शायद इतने बड़े स्तर पर हुए पलायन को रोका जा सकता था।

 

उनकी ऐसी हालत क्यों हो गयी? कोरोना महामारी और लॉकडाउन के चलते दुनिया भर के बाज़ारों में माल की खपत घट गयी है। विदेशों से आने वाले ऑर्डर रद्द हो गए। खरीदार पुराने खरीदे माल के रुपये भी नहीं दे रहे। इससे निर्यातोन्मुखी फैक्ट्री और संस्थानों की माली हालत गड़बड़ा गयी है। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइज़ेशन ने संभावना जताई है कि कोरोना की वजह से 40 करोड़ नौकरी चली जाएंगी। भारतीय निर्यात संघ के अध्यक्ष ने बताया कि कोरोना के चलते निर्यात क्षेत्र की डेढ़ करोड़ नौकरियों पर खतरा है। आधे से ज्यादा ऑर्डर रद्द हो चुके हैं। परिधान निर्यात संवर्धक परिषद के चेयरमेन के अनुसार चमड़ा, जवाहरात, आभूषण और वस्त्र उद्योग बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। 25-30 लाख नौकरी इस क्षेत्र में चली जाएगी। परिधान के क्षेत्र में 70 फीसदी लघु और मध्यम स्तर के उद्योग हैं। करोड़ों लोग इस क्षेत्र में काम करते हैं। यहाँ तक कि खेती के बाद सबसे ज्यादा लोग इसी क्षेत्र में लगे हुए हैं, जिनमें ज़्यादातर असंगठित क्षेत्र से जुड़े हैं। वे किसी ठेकेदार के नीचे अस्थायी मजदूर हैं या पीस रेट पर अपने घरों से काम करते हैं।

 

इस चौतरफा संकट की मार समाज के अलग-अलग वर्गों पर अलग-अलग तरह से पड़ रही है। इसमें सबसे भयानक स्थिति में है शहरी क्षेत्रों का मजदूर वर्ग। अपनी माली हालत सुधारने के लिए ही उसने गाँव से शहर की ओर रुख किया था। गाँव में तो वह पहले ही भूखों मरने के कगार पर था। आज वह शहर से भूखा और बेरोजगारी से तंग आकर वापस गाँव पहुँच रहा है। जो जेब में थोड़ी बहुत जमा-पूंजी थी वह लॉकडाउन के पहले हफ्ते के राशन में ही खत्म हो गई। अब वह पूरी तरह से सरकारी सहायता पर निर्भर है। पहले वह शहर से कुछ रुपया बचाकर गाँव में अपने परिवार के लिए भेजता था। इन रुपयों से ग्रामीण क्षेत्र की अर्थव्यवस्था के पहिये भी घुमने लगते थे। उनका परिवार गाँव की दुकानों से कपड़े, दवा और साबुन-तेल आदि सामान खरीदकर अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाता था। अब यह चक्र भी टूट रहा है। इससे ग्रामीण इलाके में खाध्य सामिगरी की खपत में और कमी आएगी। पहले से ही यह कमी कुपोषण के स्तर तक पहुँच चुकी है। जैसे 2017-18 में ग्रामीण क्षेत्रों में खाध्य उपभोग 2011-12 के मुक़ाबले दस फीसदी कम हुआ है। इससे ग्रामीण इलाकों में भुखमरी और कुपोषण की दर पिछले दशक में चिंताजनक दर से बढ़ी है। कोरोना से बढ़ी बेरोजगारी इसे अकल्पनीय स्तर तक पहुंचा सकती है। कोरोना और भूख दोनों में होड़ लगी है कि कौन देश की गरीब आबादी को पहले मारे। पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन और मुनाफे का असमान वितरण भूख को जिताने में मदद करेगा। कोरोना संकट ने भुखमरी को बढ़ाने में आग में घी का काम किया है। पटरी से नीचे उतरी हुई अर्थव्यवस्था के सामने बड़े-बड़े गड्डे खोद दिये हैं।

 

दूसरा पीड़ित वर्ग है निम्न मध्यम वर्ग। इसका एक हिस्सा ऑनलाइन काम में लगा हुआ है। बहुत बुरी शर्तों पर वह काम कर रहा है। घर और कार लोन की किस्त, बच्चों की मोटी फीस में तनख्वाह का 90 प्रतिशत खर्च करने वाला यह वर्ग बेहद तनाव में है। दो महीने बिना तनख्वाह के निर्वाह करना इसके बूते के बाहर है। इसलिए 10-12 घंटे ऑफिस का काम घर पर ही ऑनलाइन करने में (इसके लिए आजकल एक नया शब्द चलन में आया है-- वर्क फ्रॉम होम) लगा रहा है। इसकी न कोई ट्रेनिंग दी जाती है और न ही जरूरी उपकरण मिलते हैं. दिन-रात ऑनलाइन रहकर काम करना पड़ता है. व्हाट्सअप, ज़ूम और ज़ीमेल इत्यादि पर बार-बार मैसेज और नोटिफिकेशन नींद हराम कर देते हैं। इन्टरनेट की खराब स्पीड की झुझलाहट भी कम नहीं है. इन सब दिक्कतों और उलझनों के बावजूद कई कंपनी ने लॉकडाउन के दौरान अपने कर्मचारियों की तनख्वाह आधी कर दी है तथा काम पहले से ज्यादा बढ़ा दिया। 

 

निम्न मध्यम वर्ग के ऊपर का हिस्सा जिसके पास बचत का काफी पैसा बैंक में जमा है, वह इन दिनों खूब मस्त है और सरकार के हर कदम का गुणगान गा रहा है. इनके साथ ही सबसे मौज में देश का पूंजीपति वर्ग है। यह लोग अपने नौकरों सहित आइसोलेशन में हैं। श्रम और प्राकृतिक संसाधनों के शोषण से इन्होंने अकूत संपदा इकट्ठी की है। अब ये मजे से अपनी छुट्टी बिता रहे हैं। इनमें से कुछ प्रधानमंत्री द्वारा संचालित पीएम केयर फ़ंड में मदद जमा कर रहे हैं। इसके अपने राजनीतिक फायदे हैं। जिसकी बड़ी कीमत देश को बाद में चुकानी पड़ती है। कभी देश के अमूल्य प्राकृतिक संसाधनों को मिट्टी के मोल बेचकर तो कभी श्रम क़ानूनों को पूंजीपति के हित में बनाकर। पीएम केयर फंड जब से प्रधानमंत्री के द्वारा बनाया गया, तभी से विवादों में है, क्योंकि यह आरटीआई के दायरे में नहीं आता है, जिसके चलते इसमें धांधली को आसानी से छिपाया जा सकता है। पहले से मौजूद प्रधानमंत्री राहतकोष, जो आरटीआई के दायरे में आता है, उसकी जगह पीएम केअर फंड क्यों बनाया गया?

 

कोरोना संकट किस तरह आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के ऊपर कहर बनकर टूटा है। उनके हाथ और जेब दोनों खाली होगए हैं। राज्य और केंद्र सरकार ने उन्हें राहत पहुंचाने के लिए कुछ घोषणाएँ भी की हैं। जिनमें रजिस्टर्ड मजदूरों के खाते में सीधे आर्थिक सहयोग और राशन वितरण शामिल हैं। पर यह घोषणाएँ और सहायता ऊँट के मुँह में जीरा साबित हो रही हैं। कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों के सर्वे के अनुसार हमारे देश में 90 फीसदी मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। असंगठित क्षेत्र मतलब जिन्हें छुट्टी, ईपीएफ, ईएसआईसी और अन्य किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती। यह लोग संविधान के श्रम कानून के तहत नहीं आते। न इनको संविधान के हिसाब से तय न्यूनतम मजदूरी मिलती है न कोई दूसरी सुविधा। कोरोना ने देश की बड़ी आबादी को असहाय बना दिया है। इसने विकास के गुब्बारे में पिन चुभो दी है। हालत इतनी खराब होती जा रही है कि अगर जल्द कुछ न किया गया तो लॉकडाउन के चलते भुखमरी से बड़ी संख्या में लोग मारे जायेंगे. उनकी संख्या  कोरोना में मरने वालों से ज्यादा हो जायेगी. इससे तो विकास की रही-सही हवा भी निकल जाएगी। कोरना महामारी फैलने से पहले व्यवस्था बहुत अच्छी नहीं थी। मेहनतकश वर्ग के लोग अमानवीय शर्तों पर काम कर रहे थे। अब उनसे वह काम भी छीनकर उन्हें भुखमरी की ओर धकेल दिया गया है।

 

आज पूरी मानवजाति के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती बाहें फैलाये खड़ी है। कोरोना महा मारी कब खत्म होगी और कितने लोगों की जिंदगी निगल लेगी? उसके बाद की दुनिया कैसी होगी? क्या आज की तरह ही जन-विरोधी पूंजीवादी व्यवस्था ही कायम रहेगी. जिसमें जहरीली हवा, प्रदूषण से भरे शहर, नदियों सड़ता काला कचरा, हमें विरासत में मिलेगा। जहां एक आदमी दूसरे आदमी का तब तक शोषण करता रहता है, जब तक उसकी जान ही न निकल जाये। जहां एक राष्ट्र अपनी तकनीकी और हथियारों के दम पर दूसरे राष्ट्रों को अपना आर्थिक उपनिवेश बनाता रहेगा। जहां मुट्ठी भर लोगों के हित में पूरे देश के प्राकृतिक संसाधन और मानव श्रम को झोंक दिया जाएगा। जहां जाति-धर्म के दंगे में सड़कें लहू-लुहान रहा करेंगी। जहां छोटे-छोटे बच्चे धधकती भट्टियों के पास काम करते अपने बचपन को गवाँ देंगे। जहां हथियारों की होड़ में इनसान को इलाज की सुविधाओं से वंचित रखा जाएगा और जिनकी कीमत बच्चों के हाथ से किताब और गेंद छीनकर चुकाई जायेगी।

 

या कोरोना महामारी के बाद एक नयी दुनिया का दरवाजा खुलेगा? जिसमें प्रकृति की रक्षा की जायेगी और इनसान की बेहतरी के लिए काम किया जायेगी? लोभ-लालच और स्वार्थपरता को जमीन में दफना दिया जायेग? क्या हम ऐसा समाज बनाने में सफल होंगे, जिसमें कोई हाथ खाली न हो। कोई जेब खाली न हो। दिल इस तरह उदास न हो कि प्यार करना ही भूल जाएँ। जिसमें हर किसी की मुस्कराहट के लिए एक जगह हो। जहां सरकार माँ की तरह हो जो यह चिंता करे कि मेरा कोई नागरिक भूखा न रहे और न ही उदास मन से सोये। ऐसी दुनिया के निर्माण में सबसे पीड़ित-शोषित मजदूर वर्ग की एक बड़ी भूमिका होगी. आज हमें यह सब सिर्फ सपना लगेगा। लेकिन हम सब अगर आज से ही प्रयास करें और मिल-जुलकर संघर्ष करें तो ऐसी दुनिया संभव है।

 

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