6 दिसंबर, 2020 (ब्लॉग पोस्ट)

जैव साम्राज्यवाद

(पंजाब से निकला हुआ किसान आन्दोलन तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है, यह आन्दोलन देश भर में अपने समर्थक और विरोधी को भी बाँटता जा रहा है, लेकिन इस दौरान दोनों पक्षों ने खेती पर पड़ने वाले साम्राज्यवादी प्रभाव को लगभग भुला दिया है, जिसे लेखक प्रोफेसर नरसिंह दयाल ने अपनी पुस्तक ‘जीन टेक्नोलॉजी और हमारी खेती’ में “जैव साम्राज्यवाद” नाम दिया है। पेश है इस विषय पर उसी किताब का पाँचवाँ अध्याय, जो इसके विविध पहलुओं को सविस्तार हमारे सामने रखता है।)

अध्याय 5 : दूसरी हरित क्रान्ति

1980 के आते–आते भारत सहित दक्षिण–पूर्व एशिया के देशों में पहली हरित क्रान्ति की चमक फीकी पड़ने लगी थी और इसका चमकीला हरा रंग पीला हो गया था। हमारी सरकारों और कृषि विज्ञानियों ने इसके दुष्परिणामों को समझना शुरू कर दिया था। किसान तो इसे भुगत ही रहे थे। चावल और गेहूँ की खेती तबाह हो गयी थी। कृषि में लागत कई गुणा बढ़ गयी थी और लाभ घट गया था। वे असहाय और लाचार थे। उनके अपने परम्परागत बीज भी अब उनके पास नहीं बचे थे। हरित क्रान्ति ने उन्हें बुरी तरह छला था। यह आम जनता के खिलाफ किया गया एक गम्भीर अपराध था।

1960 के दशक में प्रथम हरित क्रान्ति के सम्बन्ध में भारत के प्रखर कृषि वैज्ञानिक डॉ आर एच रिछारिया की चेतावनी और सुझावों को सरकार ने नजर–अन्दाज ही नहीं किया था, बल्कि केन्द्रीय चावल अनुसंधान संस्थान, कटक के निदेशक पद से हटाकर उन्हें अपमानित और प्रताड़ित भी किया था। सरकार ने बड़े उत्साह से हरित क्रान्ति नामधारी रासायनिक कृषि प्रणाली का स्वागत किया था। जब चावल के सन्दर्भ में बहुप्रचारित इस नयी कृषि प्रणाली की चमक फीकी पड़ने लगी तो 1983 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में भारत सरकार ने चावल उत्पादन में वृद्धि के लिए उनसे एक कार्य योजना बनाने का आग्रह किया। डॉ रिछारिया ने एक कार्य योजना तैयार भी की लेकिन 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसमे उन्होंने उन कारणों की पहचान की थी जिनकी वजह से पिछले 20 वर्षों में उर्वरकों, कीटनाशकों, सिंचाई, अनुसंधान, प्रसार आदि पर बहुत खर्च करने के बावजूद चावल के उत्पादन में वांछित वृद्धि नहीं हो सकी थी। लेकिन हमने हरित क्रान्ति की विफलताओं के कारणों को समझने की जरूरत ही नहीं समझी। इसके स्थान पर हमारे शोध संस्थानों, विश्वविद्यालयों और अकादमिक हलकों में एक नये विज्ञान और टेक्नोलॉजी की बातें होने लगी। कृषि अनुसंधान में ‘खेतों से प्रयोगशालाओं की ओर’ ( फ्रोम लैंड टु लैब) की जगह प्रयोगशालाओं से खेतों की ओर (फ्रोम लैंड टु लैब) की चर्चा की जाने लगी। इसी दौरान वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण जैसे शब्द देश की राजनीति में गूँजने लगे थे।

वैश्वीकरण की भनभनाहट के साथ–साथ बायो़टेक्नोलॉजी और जीन इंजीनियरी की खुसफुसाहट भी शुरू हो गयी थी। विश्व का परिदृश्य बदल रहा था। सोवियत संघ की अगुवाई वाला समाजवादी खेमा और खुद सोवियत संघ दरकने लगा था। यह मात्र संयोग नहीं था। पहली हरित क्रान्ति के स्वागत में हमारे अंग्रेजीदां और पश्चिमी सोचवाले कृषि विज्ञानियों और नीति–निर्माताओं पर विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष तथा फोर्ड और रॉकफेलर जैसे प्रतिष्ठानों के प्रभावों का बड़ा हाथ था। स्पष्ट था कि वैश्वीकरण की आहट से पहले ही साम्राज्यवाद ने अपनी कार्यप्रणाली में बदलाव लाना शुरू कर दिया था।

1990 के दशक में जब हमारे शासकों ने वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण विनियंत्रण और मुक्त बाजार की आत्मघाती नीतियों को अपनाया था तो उसके समर्थन में अर्थशास्त्रियों, प्रशासनिक अधिकारियों, कृषि विज्ञानियों और राजनेताओं की एक फौज को तैयार किया गया था। विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष और दानदाता संस्थाओं ने हमारे अनेक कृषि विज्ञानियों, प्रशासनिक अधिकारियों और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों को लगातार अपने यहाँ ऊँचे वेतनमान पर नौकरी और रिसर्च प्रोजेक्ट देकर तथा गोष्ठियों और सम्मेलनों में बुलाकर इस वर्ग के दिलो–दिमाग को अपने वश में कर लिया था। यहाँ यह भी बताते चलें कि विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन अमरीका, यूरोप और जापान के साम्राज्यवादी मंसूबे पूरा करने के लिए बनाये गये थे। जिन विज्ञानियों और प्रोफेसरों ने अपना समय लार्ष और प्युपा की अवस्था, शैवालों, कवकों, और पौधों की संरचना के अध्ययन में गुजारा था, वे अचानक टिशूकल्चरिस्ट, जीन इंजीनियर और बायोटेक्नोलॉजी में रूपान्तरित हो गये। फिर अपने सम्पर्क, सामर्थ्य और पहुँच के बल पर उन्हांेने वृहत शोध अनुदान प्राप्त कर अपने लिए तीन, चार या पाँच सितारा प्रयोगशालाओं का निर्माण कर लिया।

हमारे ज्यादातर कृषि वैज्ञानिक हमेशा पश्चिमी विज्ञान की नकल करते आये हैं। अपनी शोध परियोजनाओं में उन्होंने देशज ज्ञान और तकनीक की उपेक्षा की है और देश की मिट्टी से कटे रहे हैं। हमारे शोध की दिशा भी पश्चिम की वैज्ञानिक प्रगति द्वारा निर्देशित होती रही है। 1960–70 के दौरान जब वहाँ उत्परिवर्तन द्वारा पौध सुधार का प्रचलन था, तो हमने यहाँ भी वही करना शुरू दिया। प्रमुख शोध संस्थानों में लाभदायक उत्परिवर्तन की प्राप्ति के लिए ‘गामा गार्डेन’ का निर्माण किया गया और विभिन्न उत्परिवर्तनकारी रासायनिक  द्रव्यों का भी प्रयोग किया जाने लगा। फिर बाद मेें हम उनके टिशू कल्चर की नकल करने लगे और लैब टु लैंड की चर्चा होने लगी। 1985 के बाद पश्चिमी देशों में जब जीन इंजीनियरी और बायोटेक्नोलॉजी ने एक उद्योग का रूप ले लिया था, तब हम इस नयी तकनीक में भारतीय कृषि का भविष्य देखने लगे। यह दुखद है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 64 वर्षों के बाद भी भारत में कोई मौलिक और उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं हुई है।

पिछले 10–15 वर्षों से पूरी दुनिया में, विशेषकर भारत जैसे विकासशील देशों में, दूसरी हरित क्रान्ति का गुणगाान किया जा रहा है। इसे 21वीं सदी की नवीनतम कृषि प्रणाली कहा जा रहा है। इसके तहत जीन संशोधित, जीनान्तरित या जीएम फसलों की खेती की जाती है। इस प्रकार की खेती को अनुवांशिक खेती, जैवखेती, बायोटेक खेती आदि कई नामों से जाना जाता है। जीएम बीजों को पश्चिमी देशों की बहुराष्ट्रीय कृषि व्यापार कम्पनियों के जीन इंजीनियरों ने तैयार किया है। इन बीजों पर मालिक कम्पनी, को ‘ट्रिप्स’ के प्रावधानों के तहत पेटेन्ट प्राप्त है। ये इन कम्पनियों की बौद्धिक सम्पदा है, प्रकृति के उपहार नहीं क्योंकि इन बीजों में उनके जीनियागरों ने एक कृत्रिम जीन डाल दिया है। बौद्विक सम्पदा कानून के जरिये ही बीज कम्पनियों ने नये शोधों पर अपना वर्चस्व कायम कर रखा है, अभी तक जीनियागरों ने फसलों में दो जीन डालने में सफलता प्राप्त की है। इनमें से एक है, कीटनाशक ‘बीटी’ जीन और दूसरा है, खरपतवार नाशक ‘राउन्डअप रेडी’ जीन। दावा किया गया था कि बायोटेक खेती को अपनाने से कृषि उत्पादन में ऐसी क्रान्ति आयेगी कि विकासशील और गरीब देशों में भूख और कुपोषण का हमेशा के लिए सफाया हो जायेगा। कृषि विज्ञानियों के एक समूह ने भारतीय कृषि में दूसरी हरित क्रान्ति के स्वागत के लिए पलक–पावडे़ बिछा दिये थे। चारों ओर इसका शोर भी खूब मचाया गया। यह एक विचित्र संयोग है कि इस शोर के बीच ‘हरित आखेट’ ( ग्रीन हंट) जैसे शब्द भी सुनने को मिल रहे थे।

बायोटेक खेती मौजूदा समय की नवीनतम कृषि प्रणाली है। जीन टेक्नोलॉजी के द्वारा किसी भी जीन को किसी भी अन्य जीव के जीनोम में डालकर उसका मनचाहा अनुवांशिक रूपान्तर किया जा सकता है। इसमें लैंगिक प्रजनन विधि की जरूरत नहीं पड़ती। उदाहरण के लिए आर्कटिक मछली के शीतप्रतिरोधी जीन को टमाटर या स्ट्राबेरी में शीत प्रतिरोधिता के लिए और मिट्टी में पाये जानेवाले जीवाणु, बैसिलस थुरीजिएँसिस के बीटी जीन को कीट प्रतिरोधिता के लिए किसी भी पौध प्रजाति के जीनोम में स्थानान्तरित किया जा सकता है। ऐसा करने से पराया जीन भी मेजबान पौधे में विशिष्ट प्रोटीन बनाने में सक्षम हो जाता है। विकसित देशों की दैत्याकार कृषि बायोटेक कम्पनियों के जीनियागरों ने जीन इंजीनियरी द्वारा सैकड़ों फसलों की जीएम किस्में बना डाली हैं। इन कम्पनियों द्वारा बढ़–चढ़कर दावा किया जा रहा है कि इन जीएम किस्मों के बीज भारत के किसानों के लिए बहुत लाभदायक होंगे क्योंकि इनकी खेती में रासायनिक कीटनाशकों के नगण्य प्रयोग के कारण लागत बहुत कम और उत्पादन बहुत अधिक होगा। जीएम खाद्य को स्वास्थ्यकर और पर्यावरण हितैषी भी बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इसके अतिरिक्त कोई  दूसरा विकल्प है ही नहीं। खेती से जुड़ी कम्पनियाँ अरबों डॉलर खर्च कर बड़े तामझाम से यह प्रेरित, प्रचारित और प्रोत्साहित कर रही हैं कि बायोटेक कृषि पूरी दुनिया के लिए खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और आशा की एकमात्र किरण है। साथ ही वे विकासशील देशों की सरकारों पर विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों की आड़ में इसके लिए दबाव भी डाल रही हैं।

आज हम पहली हरित क्रान्ति का दुष्परिणाम बुरी तरह भुगत रहे हैं। इसने हमारी खाद्य निर्भरता को बहुत हानि पहुँचायी और हमारी कृषि प्रणाली का औपनिवेश कर उसे विदेशी रसायन और बीज कम्पनियों के हवाले कर दिया। लेकिन इससे सबक न लेकर हम वही भूल दोबारा दूसरी हरित क्रान्ति को अपनाने में करने जा रहे हैं। इतने महत्त्वपूर्ण विषय पर न तो कोई राष्ट्रीय बहस आयोजित की गयी, न ही कोई राष्ट्रीय कृषि नीति है और न ही कृषि बायोटेक्नोलॉजी के लिए कोई स्पष्ट दिशा–निर्देश। किसानों से पूछना तो दूर की बात है। इस तकनीक को अपनाने वाले अन्य देशों की तरह यहाँ किसान संगठनों, उपभोक्ताओं, बुद्धिजीवियों और विशेषज्ञों से सूचनाओं का आदान–प्रदान नहीं किया जाता। किसानों और उपभोक्ताओं की मूल आवश्यकताओं को समझे बिना हमारी सरकार बहुराष्ट्रीय कृषि बायोटेक कम्पनियों का ही साथ दे रही हैं। वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग और अन्य निकाय विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों मे उद्देश्यहीन शोध परियोजनाओं को प्रोत्साहित कर रही है। हमारे अधिकांश विज्ञानियों ने भी जीएम टेक्नोलॉजी के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक सन्दर्भ से अनभिज्ञ होने और विज्ञान बोध के अभाव के कारण चुप्पी साध ली है। मीडिया और राजनेता इस टेक्नोलॉजी से बिल्कुल अनजान हैं। लोकहित में राष्ट्रीय सहमति और नीति के अभाव में कार्यक्रम का कार्यान्वयन बहुत ही दुखद और चिन्ताजनक है। जीएम बीजों के संचालन, नियमन और प्रबन्धन के लिए कोई सक्षम और स्वतंत्र निकाय का गठन सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद अभी अधर में लटका हुआ है। राज्यों में स्थिति तो और भी भयावह है।

दूसरी हरित क्रान्ति के सन्दर्भ में बहुराष्ट्रीय कृषि बायोटेक कम्पनियों की भूमिका पर विचार करना आवश्यक है। हम जानते हैं कि इनका अतीत बहुत ही घिनौना रहा है। पहले ये विश्वयुद्धों के दौरान युद्ध में प्रयोग होनेवाले घातक रसायनों का उत्पादन करती थीं। लेकिन युद्ध की समाप्ति के बाद अपनी अकूत घनराशि से वे स्वयं को कृषि और बीज कम्पनियों में रूपान्तरित करने लगी हैं और स्वयं को ‘जीवन विज्ञान कम्पनी’ की संज्ञा से विभूषित कर रही हैं। अमरीकी बायोटेक कम्पनी मोंसांटो ने भारत में अपनी उपस्थिति 1970 के दशक में ही दर्ज करा ली थी। इसने अपनी शुरुआत ‘मैकिट’ और ‘राउन्डअप’ जैसे खर–पतवार नाशक रसायनों के उत्पादन से की थी। बाद में जीन इंजीनियरी के उद्भव और बीज उत्पादन में विशाल छलांग के बाद मोंसांटो भारतीय कृषि में सर्वाधिक सशक्त भूमिका निभानेवाली खिलाड़ी बन बैठी। ‘खाद्य, स्वास्थ्य और आशा ‘जैसी स्वप्नदर्शी घोषणाओं के साथ यह बीजों के साथ–साथ कृषि रसायनों का भी उत्पादन करती है। यह जीएम कपास, गेहूँ, मक्का, सोया, सूर्यमुखी और धान तथा कुछ फलों और सब्जियों के बीजों के साथ भारत सहित विश्व के कई देशों में कार्यरत है। विशाल आबादी वाला भारतीय उप महाद्वीप इसके लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग स्थल है। इसने इस क्षेत्र में अपने जीएम बीजों के प्रचार–प्रसार और अनुसंधान के लिए अपनी तिजोरियाँ खोल दी हैं। इसने यहाँ की कई बीज कम्पनियों को या तो खरीद लिया है या सहयोगी बना लिया है।

1998 में मोंसांटो ने भारतीय बीज कम्पनी महिको (महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड कम्पनी) के साथ एक भारी धनराशि देकर समझौता किया। महिको की गणना भारत की बड़ी कृषि बीज कम्पनियों में की जाती है। इस समझौते के फलस्वरूप महिको कम्पनी भारतीय उपमहाद्वीप के बीज बाजार में मोंसांटों का एक मजबूत आधार स्तम्भ बन गयी है। मोंसांटों का उद्देश्य महिको के माध्यम से अपने जीएम बीजों और फसलों को इस महाद्वीप की कृषि में उतारना है। इसमें वह हमारी कमजोरियों के कारण काफी हद तक सफल होती दिखायी दे रही है। वह बीटी कपास के मामले में सफल हो चुकी है और कई बीटी फसलों का हमारे देश के विभिन्न हिस्सों में सीमित क्षेत्र परीक्षण (फिल्ड़ ट्रायल) करा रही है। भारत में मोंसांटो, मोंसांटो–महिको बायोटेक और महिको समेत करीब 25 कम्पनियाँ जीएम बीजों और उसकी खेती करवाने की दिशा में कार्यरत है। मोंसांटो बंगलुरू में करोड़ों डॉलर की लागत से अनुसंधान और विकास केन्द्र भी स्थापित कर चुकी है। यह केन्द्र पूरे एशिया में कृषि बायोटेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अनुसंधान की सारी गतिविधियों को संचालित करेगा। भारत सरकार ने भी बंगलुरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएस–सी) की एक महत्त्वपूर्ण प्रयोगशाला को मोंसांटो–माहिको के सुपुर्द कर दिया है। उन्हांेने सरकार से जर्मप्लाज्म और प्रयोगशाला की सुविधाओं के लिए अनुमति भी प्राप्त कर ली है और उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक अनुसंधान कराने का अधिकार दे दिया गया है। यह आश्चर्यजनक है क्योेंकि अतीत में भी विदेशी कृषि कम्पनियों और अनुसंधानों ने हमारी समृद्धि अनुवांशिक सम्पदा को खुलकर चुराया, लूटा और उस पर पेटेंट पाया है।

मोंसांटो कम्पनी महिको के जरिये मुख्य फसलों की जीएम किस्मों का व्यापार तो करना ही चाहती है, आईआईएससी के माध्यम से वह हमारे अन्य शोध संस्थानों, अनुवांशिक संसाधनों, जीन बैंकों, कृषि सम्बन्धी परम्परागत ज्ञान आदि के बारे में सूचनाएँ भी इकट्ठा करना चाहती है। भारतीय कृषि में इसके प्रवेश का उद्देश्य यहाँ की समृद्ध कृषि जैव विविधता और इससे जुडे़ परम्परागत ज्ञान पर ‘ट्रिप्स’ के तहत कब्जा करना है। यह सरासर अनुवांशिक औपनिवेशीकरण है। इसकी योजना इसने 1995 में ही बना ली थी। तब इसने बड़े गर्व के साथ घोषणा की थी–– यह भारतीय कृषि के प्रति हमारी प्रतिबद्धता का आरम्भ है। वस्तुत: यह भारतीय कृषि पर उसका अप्रत्यक्ष और अदृश्य हमला था। यह हमारी कृषि प्रणाली को पूरी तरह पाश्चात्य औद्योगिक कृषि प्रणाली में परिवर्तित करने की दूरगामी और सोची समझी रणनीति थी ताकि हम हमेशा के लिए उनके द्वारा सृजित जीएम बीजों पर आश्रित हो जायें और हमारी बीज सम्प्रभुता समाप्त हो जाये। इसलिए नया नारा दिया जा रहा है ‘हरित क्रान्ति से सदाबहार क्रान्ति की ओर’ ( फ्रोम ग्रीन रिवोल्युसन टु एवरग्रीन रिवोल्युसन)।

कृषि बायोटेक निगमों (दैत्याकार कम्पनियों) की भारत सहित तीसरी दुनिया की समृद्धि अनुवांशिक सम्पदा पर बुरी नजर है। वे जीनियागरी का जुआ खेल रहे हैं और नयी टेक्नोलॉजी के बहाने अपने पुराने घातक रसायनों के व्यापार को भी कायम रखना चाहते हैं। उनकी नीयत पूरी दुनिया की खाद्य श्रृंखला को नियंत्रित करने की है चाहे इसकी कीमत पर्यावरण, मानव स्वास्थ्य और इस धरती पर जीवन के अस्तित्व पर कुठाराघात ही क्यों न हो। दूसरी हरित क्रान्ति वस्तुत: जैव या जीन साम्राज्यवाद है, नवसाम्राज्यवाद के अनेक रूपों में से सर्वाधिक भयानक रूप जो तीसरी दुनिया की जीन सम्पदा और कृषि प्रणाली को निगमीकृत कर रहा है। जीन इंजीनियरी, बायोटेक्नोलॉजी और इंफॉर्मेसन टेक्नोलॉजी के आकर्षक घोड़ों पर सवार और एक परोपकारी शुभचिन्तक का मुखौटा ओढ़े यह इस सदी का नवीनतम, अतिसूक्ष्म, कुटिल, क्रूर, घिनौना और हिंसक साम्राज्यवाद है। इस बार इसके हाथों में आण्विक अस्त्रों–शस्त्रों के साथ–साथ जीएम बीजों का ब्रह्मास्त्र भी है जो पूरी पृथ्वी को बंजर बना देगा, पर्यावरण और जैव विविधता का विनाश कर देगा और जीवन का अस्तित्व मिटा देगा।

भारत में बायोटेक्नोलॉजी और जैवखेती को एक महामारी की तरह फैलाया जा रहा है। किसानों, उपभोक्ताओं और आम नागरिकों को घातक जीएम टेक्नोलॉजी के बारे में कुछ बताये बिना कई जीएम खाद्यान्न फसलों और सब्जियों का सीमित क्षेत्र परीक्षण देश के विभिन्न राज्यों में गैरकानूनी ढंग से मोंसांटो–महिको और अन्य कम्पनियों द्वारा किया जा रहा है। इन कम्पनियों ने जैवखेती के प्रचार–प्रसार की व्यापक मुहिम चला रखी है और इस पर करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हैं। हमारा सरकारी अमला और कृषि विज्ञानियों का समूह भी भूख उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा के नाम पर इनका साथ दे रहा है। आज भारत में खुले आसमान के नीचे लाखों टन अनाज की बोरियाँ सड़ा दी जाती हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद अतिरिक्त अनाज की बर्बादी और कुप्रबन्धन तथा जैव विविधता आधारित टिकाऊ खेती पर इनका ध्यान बिल्कुल नहीं जाता। याद रहे कि भूख और कुपोषण केवल उत्पादन की समस्या नहीं है। यह एक बहुत जटिल समस्या है। इसके कई कारक हैंय जैसे–– संसाधनों तक जरूरतमन्दों की सीमित पहुँच,—कृषिभूमि पर बड़ी आबादी का हक न होना, खाद्य वितरण प्रणाली की खामियाँ, सामाजिक गैरबराबरी और कमजोर तबकों की शक्तिहीनता तथा विश्व व्यापार संगठन के नेतृत्व में संचालित वैश्वीकरण, उदारीकरण और मुक्त बाजार नीतियाँ। लेकिन इसके लिए विकास का शगूफा छोड़ा जा रहा है। प्रश्न है किसका विकास, कैसा विकास और किस कीमत पर विकास? अब तक के अनुभव बताते हैं कि एक ओर जहाँ विकास के कार्यों में राजनेताओं, इंजीनियरों और ठेकेदारों की मिलीभगत रहती है वहीं दूसरी ओर बायोटेक्नोलॉजी के विकास के लिए राजनेताओं, बायोटेक कम्पनियों, प्रशासनिक अधिकारियों और कृषि विज्ञानियों का एक गिरोह काम कर रहा है। सभी मिलकर गरीबी और भूख को भुनाने में व्यस्त हैं और हमारी खेती को दैत्याकार कम्पनियों का चारागाह बना देने पर तुले हैं।

बायोटेक कम्पनियों द्वारा अनुवांशिक खेती की प्रशंसा में कसीदे काढे़ जा रहे हैं। इसके सच को छिपाया जा रहा है और भोले–भाले किसानों को ठगा जा रहा है। विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष की सलाह पर हमारी सरकार विकास, औद्योगीकरण, कृषि विविधिकरण और नयी हरित क्रान्ति के नाम पर दिवालियापन से भरपूर योजनाएँ बना रही है। अधिक आमदनी के लिए नगदी फसलों और जैवर्इंधन के लिए रतनजोत (जैट्रोफा) की खेती पर जोर दिया जा रहा है। विदेशी कम्पनियों को कृषि आधारित उद्योगों में पूँजी निवेश के लिए न्योता दिया जा रहा है। इसके लिए कानूनों में बदलाव और करों में भारी छूट दी जा रही है।—कृषि क्षेत्र के विकास के लिए सरकारी अनुदान का बड़ा हिस्सा कम्पनियों के लिए होता है, न कि किसानो के लिए। कृषि विकास में पूँजी निवेश सरकार का कोई नया शगूफा नहीं है। इसकी शुरुआत बहुत पहले ही कर दी गयी थी। अब इसके आडे़ आनेवाली कानूनी अड़चनों को धीरे–धीरे दूर किया जा रहा है। उद्देश्य स्पष्ट है––—कृषि में निजी पूँजी का निवेश, कृषि का निगमीकरण और नव औपनिवेशीकरण।

भारत में जैवखेती के लिए कई नयी पहल किये जा रही हैं। अमरीका और भारत के बीच कृषि क्षेत्र साँठ–गाँठ को बढ़ावा दिया जा रहा है। जुलाई 2007 में ‘कृषि ज्ञान पहल’ या केआईए (इनिरिएटिव इन एग्रीकल्चर नॉलेज) नामक एक साझा अनुसंधान योजना पर समझौता हुआ। इसके तहत भारत में सूखे की स्थिति से निपटने के लिए अमरीकी बायोटेक कम्पनियाँ भारत में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के साथ मिलकर चावल की शुष्क प्रतिरोधी किस्मों के विकास के लिए शोध करेंगी। वे भारतीय कृषि विज्ञानियों को बायोटेक्नोलॉजी सिखाएँगी। इसके अलावा लैंडग्रांट विश्वविद्यालय और हमारे कृषि विश्वविद्यालयों के बीच एक नयी उच्च शिक्षा साझेदारी विकसित की जायेगी। एक रिपोर्ट के अनुसार, मोंसांटो, आर्चर मिड्लैंड़ और वालमार्ट इस योजना में बोर्ड के सदस्य रहेंगे। भारत की ओर से इसमें भारतीय कृषि अनुसंंधान परिषद् (आईसीएआर) के महानिदेशक और कृषि मंत्रालय के नौकरशाह ही सदस्य होंगे। भारतीय वैज्ञानिक संस्थानों और राज्य सरकारों को इससे बाहर रखा गया है। केआईए के जरिये अमरीका हमारे जीन बैंकों तक बेरोकटोक पहुँच बनाने की फिराक में है। कृषि संरक्षण अधिकार अधिनियम हमारा एक विशिष्ट बौद्धिक सम्पदा अधिकार अधिनियम है। यह ‘ट्रिप्स’ की शर्तों को पूरा करने के साथ–साथ किसानों को भी अधिकार देता है। मोंसांटो और अमरीका इस अधिनियम में बदलाव चाहते हैं क्योंकि यह अधिनियम उनके मंसूबे की राह में एक बाधा है।

केआईए के द्वारा अमरीका भारतीय कृषि पर यह दबाव डाल रहा है कि कृषि सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण नियामक तंत्र को बदल दिया जाये ताकि भारतीय कायदे–कानून अमरीकी हितों के हिसाब से मोड़ दिये जायें। इसके लिए एक नया शब्द गढ़ा गया है– कानूनों में अनुरूपता। जोर–जबर्दस्ती और राजनीतिक दबाव के सहारे अनुरूपता लाने की इस नीति का विस्तार कानून और अन्य कई क्षेत्रों में भी किया जा रहा है, जैसे जैव विविधता अधिनियम, वनस्पति प्रजाति और—कृषक अधिकार अधिनियम, भारतीय कृषि पेटेंट प्रावधान, बीज नियम, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग आदि। हमारी समृद्ध अनुवांशिक सम्पदा पर कब्जा इन सभी का उद्देश्य है भविष्य में यह हमारी खाद्य सुरक्षा और जैवसम्प्रभुता पर करारी चोट करेगा। इससे हमारा देश उनकी जीएम फसलों और उत्पादों का कूड़ादान बन जायेगा। इस सन्दर्भ में एम एस स्वामीनाथन टास्क फोर्स की अनुशंसा ध्यान देने योग्य है। इसमें कहा गया है कि पारजीनी (ट्रांसजेनिक) यानी जीएम फसलों पर भारत की नीति जैव विविधता संरक्षण और जैव विविधता आधारित मिश्रित कृषि प्रणाली के सामाजिक और आर्थिक सन्दर्भों के प्रति भारत सरकार को संवेदनशील होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, किसानों के अधिकार और उनकी आजीविका बायोटेक्नोलॉजी द्वारा संकटग्रस्त नहीं होनी चाहिए। खरपतवार प्रतिरोधी जीएम किस्मों को उगाने की अनुमति किसी भी स्थिति में नहीं देनी चाहिए। खर–पतवार हमारी कृषि व्यवस्था के अनिवार्य अंग हैं। वे उपयोगी और अतिरिक्त आय के स्रोत हैं। वे गरीबों को रोजगार के अवसर प्रदान करते हैं। भारत–अमरीका कृषि समझौते के माध्यम से अमरीकी बायोटेक कम्पनियाँ हमारी कृषि व्यवस्था को नियंत्रित करना चाहती हैं ताकि अमरीकी शैली में वे अपने जीएम उत्पादों का बेरोक–टोक व्यापार कर मुनाफा कमा सकें।

लेकिन हमारी सरकार पर बायोटेक्नोलॉजी का भूत सवार है। जीएम फसलों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से भारत सरकार का एक राष्ट्रीय जैव–प्रौद्योगिकी नियंत्रक प्राधिकार विधेयक (एनबीआरएआयी)–– 2009 संसद में विचारधीन है। अभी तक गुप्त रखा जा रहा यह विधेयक पूरी तरह अलोकतांत्रिक और मनमाने प्रावधानों वाला है। यह जीएम फसलों को अनुमति प्रदान करने या न करने का अधिकार पर्यावरण मंत्रालय की समिति से छीनकर विज्ञान मंत्रालय की तीन सदस्यों वाली अनुमोदन समिति के अधीन करना चाहता है। इससे उनकी अनुमति की प्रक्रिया आसान हो जायेगी क्योंकि नैतिक, पर्यावरण, आर्थिक और स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों को नितान्त तकनीकी मुद्दा बना दिया जायेगा। 2010 में बीटी बैंगन की व्यावसायिक खेती की अनुमति दी जानेवाली ही थी कि पूरे देश में बवाल मच गया और भारी राष्ट्रीय विरोध के कारण इसे स्थगित करना पड़ा। किसानों और उपभोक्ताओं से ज्यादा बायोटेक कम्पनियों की सुरक्षा के लिए चिन्तित यह विधेयक उन्हें अपनी व्यावसायिक और वैज्ञानिक सूचनाएँ गुप्त रखने के लिए कानूनी संरक्षण देना चाहता है और राज्य सरकारों से कृषि तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी अधिकार छीनकर एनबीआरएआइ को देना चाहता है। इसके अतिरिक्त यह जीएम फसलों पर सवाल उठाने वालों के लिए सजा और जुर्माने की सिफारिश करता है। इसकी अनुमोदन समिति में किसानों और उपभोक्ताओं का कोई प्रतिनिधि नहीं होगा। यदि यह विधेयक अपने मौजूदा स्वरूप में संसद से पारित हो जाता है तो हमारा अपने भोजन पर कोई नियंत्रण नहीं रह जायेगा। यह भारतीय कृषि के लिए खतरे की घंटी है।

2015 में दुनिया के सिर्फ 14 देशों के किसान 1790 लाख हेक्टेयर भूमि पर मुख्यत: सोयाबीन, मक्का, कपास, कैनोला की जीएम किस्मों की खेती कर रहे थे। इसमें 90 प्रतिशत कृषि भूमि केवल पाँच देशों–– अमरीका, ब्राजील, अर्जेटीना, भारत, कनाडा तक सीमित है। इसके अतिरिक्त छोटे पैमाने पर चीन, पैरागुए, पाकिस्तान समेत कुछ अन्य देशों में भी जैवखेती की जा रही है। भारत में एकमात्र जीएम फसल बीटी कपास की खेती 116 लाख हेक्टेयर में की जा रही है। लेकिन करीब 60 फसलों, जिनमें प्रमुख हैं, चावल, गेहूँ, मक्का, गोभी, टमाटर, बैंगन, मूंगफली का सीमित क्षेत्र परीक्षण कई राज्यों में बहुत ही आक्रामक ढंग से किया जा रहा है। क्षेत्र परीक्षण के दौरान कई नीचतापूर्ण हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। किसानांे को सच्चाई न बताकर केवल अधिक उत्पादन और लाभ का सजीला ख्वाब दिखाया जा रहा है।

यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि एक ओर जहाँ अमरीका और इसकी बायोटेक कम्पनियाँ भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों में जीएम खेती और खाद्यों की वकालत कर रही हैं और इसे अपनाने को बाध्य कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर अमरीकी व्हाइट हाउस में जैविक सब्जियाँ उगाई जाती हैं। मोंसांटो भी अपने कार्यालयों की कैंटीनों में जीएम खाद्यों का इस्तेमाल नहीं करता। एक बात और अमरीका में खेती पर इन कम्पनियों का राज चलता है, वहाँ अब एक नयी शब्दावली ‘जीन पुलिस’ सुनने को मिल रही है। इसका मतलब है कि बायोटेक कम्पनियों द्वारा तैनात किये गये वे लोग जिनका काम यह देखना है कि कोई किसान बिना खरीदे उनका बीज इस्तेमाल नहीं कर पाये। इतना ही नहीं, अगर कम्पनियों के अभियांत्रित जीन, जैसे बीटी जीन द्वारा किसी किसान की गैरबीटी किस्म परागित हो गयी तो इसे चोरी माना जायेगा जिसके लिए उस किसान को जुर्माना भरना होगा, कनाडा के एक किसान पर्सी शाइमर का बहुचर्चित मामला इसका एक रोचक उदाहरण है।

वैश्वीकरण के इस दौर में जीएम फसलों के सच को छुपाया जा रहा है तथा झूठ, छल और पाखंड का सहारा लिया जा रहा है। जीएम बीजों का प्रचार–प्रसार बडे़ तामझाम के साथ स्थानीय देवी–देवताओं के नाम पर किया जा रहा है और लोगों की धार्मिक भावनाओं को भुनाया जा रहा है। इसमंे गैरसरकारी संगठन (एनजीओ) और विज्ञापन एजेंसियाँ भी उनकी मदद कर रही हैं। आज से 50–60 वर्ष पहले भी दुनिया में भूख और गरीबी उन्मूलन के लिए पहली हरित क्रान्ति के बारे में भी बड़ी लुभावनी बातें कही जा रही थीं। अब ऐसी ही बातें दूसरी हरित क्रान्ति के बारे में कही जा रही हैं और रासायनिक कीटनाशकों को घातक बताया जा रहा है। रासायनिक खेती तभी तक अच्छी थी जब तक उद्योग का भला होता रहा। अब रसायन उद्योग का मुखौटा जीन उद्योग ने ओढ़ लिया है। विकासशील देशों में दूसरी हरित क्रान्ति लाने की उनमें बड़ी बेचैनी और बेताबी है। इसलिए वे परम्परागत खेती और वैज्ञानिक पौध सुधार तकनीक को बेकार बताने लगी हैं। भविष्य में कृषि विज्ञान के क्षितिज पर जब नैनोटेक्नोलॉजी का उदय होगा, तब इन्हीं के वंशज बायोटेक्नोलॉजी और जीन इंजीनियरी को वाहियात और बेकार बताकर अपना पल्ला झाड़ने में नहीं हिचकेंगे। जीन इंजीनियरी के बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान की टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है– “95 प्रतिशत नया विज्ञान उन देशों में सृजित किया गया है जहाँ दुनिया की मात्र 20 प्रतिशत आबादी बसती है। इस विज्ञान का अधिकांश भाग दुनिया की अधिकांश आबादी की परवाह नहीं करता। यह विज्ञान उनके लिए बना ही नहीं है।” लेकिन आज दुनिया की बहुसंख्यक आबादी को इसी विज्ञान को अपनाने के लिए बाध्य किया जा रहा है। जीएम फसलों और खाद्यों का सच क्या है? क्या वास्तव में ये स्वास्थ्यकर और सुरक्षित हैं? इन्हें विकसित करने में लागत और लाभ का अनुपात क्या है? क्या जीएम तकनीक हमारे किसानों और उपभोक्ताओं के लिए प्रासंगिक है? हमारी वर्तमान कृषि व्यवस्था और छोटे किसानों के हितों को देखते हुए क्या जीएम खेती का सफल और व्यावहारिक कार्यान्वयन सम्भव है? जीएम टेक्नालॉजी पर हमारी राष्ट्रीय नीति क्या है? क्या इसके नियंत्रण के लिए हमारे पास समुचित नियामक निकाय और अधिनियम हैं? हमारी समृद्ध कृषि जैव विविधता, परितंत्र और पर्यावरण पर इसका कितना और कैसा प्रभाव पडे़गा? और सबसे अहम सवाल, क्या हमारे किसानों ने जीएम बीज की माँग की है? फिर क्या गारंटी है कि जीएम फसलें भविष्य में मानवता के लिए अभिशाप सिद्ध नहीं होगीं? इन प्रश्नों के उत्तर हमें इस नयी टेक्नोलॉजी को अपनाने से पहले ढूढने ही होंगे क्योंकि ये हमारी खाद्य सुरक्षा, जैव सुरक्षा और जैव सम्प्रभुता से जुड़े बडे़ ही संगीन प्रश्न हैं।

दुनिया की कई सरकारों ने या तो जीएम खाद्य पर रोक लगा दी है या फिर अपने नागरिकों के लिए पर्याप्त विकल्प मुहैया कराया है। यूरोपीय संघ, चीन, ब्राजील, जापान, आस्ट्रेलिया और रूस की सरकारें जीएम खाद्यों के अनिवार्य लेबेलिंग के पक्ष में है। यूरोपीय संघ के 20 देश, एशिया के श्रीलंका, थाइलैंड और जापान और अफ्रीका के अल्जीरिया ने गैर–चिन्हित जीएम खाद्यों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया है। भारत की स्थिति स्पष्ट नहीं है।

(साभार : जीन टेक्नोलॉजी और हमारी खेती --नरसिंह दयाल)

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