साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की नयी गुलामी के खिलाफ संघर्ष के लिए एकजुट हो!
हमारा देश, समाज और मजदूर आंदोलन एक अभूतपूर्व परिस्थिति से गुजर रहा है. वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण जैसे मनमोहक नारों की आड़ में देश की मेहनतकश जनता पर गुलामी का शिकंजा लगातार कसता जा रहा है. हर तरफ अफरा-तफरी और बेचैनी का आलम है. रही-सही श्रम सुरक्षा और वेतन-भत्तों में कटौती, बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और असुरक्षा के कारण देश की बहुसंख्य जनता में असंतोष व्याप्त है. अच्छे दिन के सुनहरे सपने बदहाली के शिकार मेहनतकश जनता को मुंह चिढ़ा रहे हैं.
पिछले दस वर्षो के दौरान मनमोहन सिंह की सरकार ने नवउदारवादी नीतियों को जिस बेरहमी से लागू किया था, उसने एक तरफ जहाँ आम मेहनतकश जनता के जीवन को नरक से भी बदतर हालात में धकेल दिया था वहीं दूसरी ओर उसने भ्रष्टाचार और घोटाले के नये-नये रेकॉर्ड भी कायम किये थे. जनता के मन में कांग्रेस सरकार के प्रति नफरत और गुस्से का लाभ उठा कर, बड़े-बड़े.. आगे पढ़ें
मणिपुर हिंसा : भाजपा की विभाजनकारी नीतियों का दुष्परिणाम
बीते 3 मई को भारत का उत्तरपूर्वी राज्य मणिपुर दंगों से दहक उठा। दो समुदायों के बीच हुए इस दंगे में अभी तक लगभग 90 लोगों की जान जा चुकी है। हजारों घर जलकर खाक हो गये। कितने ही लोगों को अपनी जान बचाकर आसपास के गाँव या दूसरे राज्य में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा है। अपने घर–परिवार से उजड़े लोग भूखे–प्यासे राहत कैम्पों में रहने को मजबूर हैं। हिंसा को काबू में करने के लिए राज्य सरकार ने कितने ही जिलों में कर्फ्यू लगाकर इन्टरनेट सेवा भी बन्द कर दी। लेकिन यह हिंसा पूरे राज्य को अपनी चपेट में लेती चली गयी। इस घटना के एक हफ्ते बाद दुबारा हिंसा की छुटपुट घटनाएँ देखने को मिल रही हैं।
इस हिंसा के पीछे का तात्कालिक कारण हाईकोर्ट का एक आदेश है। दरअसल, मणिपुर हाईकोर्ट ने एक सुनवाई के दौरान राज्य सरकार से कहा था कि वह ‘मैतेई’ समुदाय.. आगे पढ़ें
संघ-भाजपा का फासीवाद और भारतीय लोकतंत्र
संघ और भाजपा का अश्वमेघ का घोड़ा थम नहीं रहा है। संसदीय राजनीतिक विकल्प की दूर-दूर तक कोई संभावना दिखायी नहीं देती क्योंकि न तो विपक्षी पार्टियों के पास करने के लिए कोई अलग कार्यसूची है और न ही संघ-भाजपा से उनके कोई गहन वैचारिक मतभेद हैं। इसलिए जिन राज्यों में उनकी सरकारें हैं, वहाँ भी वे बुनियादी तौर पर कुछ अलग कर दिखाने में असमर्थ हैं।
भारतीय क्रान्तिकारी और प्रगतिशील लोग भी अपने कार्यक्रम को लेकर बेहद दुविधाग्रस्त हैं। संघ और भाजपा के मौजूदा उभार को फासीवाद की आहट के तौर पर देखा जा रहा है। लोकतांत्रिक संस्थाओं के सरकार द्वारा इस्तेमाल, पुलिस-प्रशासन द्वारा संघ-भाजपा के लम्पट तत्वों और गुण्डों को संरक्षण, मीडिया के सरकारी प्रवक्ता बन जाने और न्यायपालिका के भीतर भी संघ-भाजपा के बढ़ते वर्चस्व के चलते बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग इसे लोकतंत्र पर खतरे के तौर पर देख रहा.. आगे पढ़ें
मार्क्स-एंगेल्स के लेखन से जूझने की कोशिशें और नया समय
सभी जानते हैं कि मार्क्स और एंगेल्स के लेखन का संपादन-प्रकाशन भी कम से कम मार्क्सवादियों के लिए व्यावहारिक आंदोलन जैसी ही महत्वपूर्ण चीज रही है। खुद 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र' की एक भूमिका में मार्क्स-एंगेल्स ने इसकी लोकप्रियता में उतार चढ़ाव को संबद्ध देश में मजदूर आंदोलन की हालत का पैमाना कहा था। असल में मार्क्स को जिन भौतिक हालात में काम करना पड़ा वे लिखे-पढ़े को अधिक सहेज कर रखने की अनुमति नहीं देते थे। दूसरे, जिस सामाजिक समुदाय के हित में उन्होंने ताउम्र लिखा वह तत्कालीन समाज में सब कुछ मूल्यवान पैदा करने के बावजूद प्रभुताप्राप्त ताकतों द्वारा समाज की हाशिए की ताकत बना दिया गया था। इसलिए अपने नेता की लिखित-प्रकाशित सामग्री के संरक्षण की कोई व्यवस्था उसके पास नहीं थी। तीसरे मार्क्स ने अपने ऊपर काम बहुत ले लिया था और जिंदगी ने उन्हें वक्त कम दिया। उनकी भाषा जर्मन थी जिसके जानने वाले कम.. आगे पढ़ें
एजाज अहमद से बातचीत : “राजसत्ता पर अन्दर से कब्जा हुआ है”
(दुनिया के जाने-माने विद्वान एजाज़ अहमद का निधन हो गया है। उन्हें विनम्र श्रद्धांजली। पेश हैं दुनिया के बारे में उनके विचार जो कुछ साल पहले देश विदेश के अंक 33 में के एक लेख में छपा था.)
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एजाज अहमद भारतीय मूल के मार्क्सवादी विचारक तथा आधुनिक इतिहास, राजनीति और संस्कृति के अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठाप्राप्त सिद्धान्तकार हैं। वे भारत, कनाडा और अमरीका के अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ा चुके हैं और फिलहाल कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, इर्विन के तुलनात्मक साहित्य विभाग में यशस्वी प्रोफेसर हैं जहाँ वे आलोचनात्मक सिद्धान्त पढ़ाते हैं।
प्रस्तुत साक्षात्कार के एक बड़े भाग का सम्बन्ध हिन्दुत्व की साम्प्रदायिकता, फासीवाद, धर्मनिरपेक्षता और भारतीय सन्दर्भ में वामपंथ के लिए मौजूद सम्भावनाओं से है। दूसरे हिस्सों में वे वैश्वीकरण, वामपंथ के लिए वैश्विक सम्भावनाओं, अन्तोनियो ग्राम्शी के विचारों के उपयोग.. आगे पढ़ें
फासीवाद का काला साया
नागरिक स्वतंत्रताओं पर हमले, सत्ता के घनीभूत केंद्रीकरण के लिए राज्य के पुनर्गठन और भय के सर्वव्यापी प्रसार के मामले में मोदी के शासन के वर्ष इंदिरा गांधी द्वारा लगायी गयी इमरजेंसी के समान ही हैं। लेकिन समानता यहीं खत्म हो जाती है। दरअसल, दोनों में कई तरह की बुनियादी असमानताएं हैं।
पहली, इमरजेंसी के समय लोगों को आतंकित करने और उन्हें ‘‘राष्ट्रवाद’’ का पाठ पढ़ाने के लिए पीट-पीटकर मार डालने वाली हिंसक-उन्मादी भीड़ और गली के गुण्डे नहीं थे। तब राज्य खुद ही लोगों का दमन कर रहा था। लेकिन आज हिन्दुत्व के लफंगे गिरोह भी सरकार के आलोचकों को उनके ‘‘तुच्छ जुर्मों’’ के लिए माफी मांगने के लिए मजबूर कर रहे हैं। इसके अलावा, इन भयाक्रांत आलोचकों के सिर पर गिरफ्तारी की तलवार भी लटकी हुई है। कोई उस बेचैन करने वाले दृश्य को कैसे भूल सकता है जिसमें एक प्रोफेसर को फेसबुक पोस्ट में सरकार की.. आगे पढ़ें
यूपी मॉडल, या कैसे महामारी का सामना न करना पड़े
महामारी के दौरान अपनी जरूरतों के लिए आवाज उठाने वाले नागरिकों को डराने के लिए, उनकी निराशा में डर को भी शामिल कर देने के लिए दुनिया में कहीं भी आतंक विरोधी कानून का इस्तेमाल नहीं किया गया।
कोविड-19 की दूसरी लहर से प्रभावित राज्यों में यूपी ने उस निष्ठुरता और अयोग्यता के मेल की मिसाल पेश की है जो अक्सर किसी संकट से निपटने में भारतीय राज्य की खासियत होती है। ऑक्सीजन नहीं, वेंटिलेटर नहीं, हॉस्पिटल में बेड नहीं, दवाइयों की कमी, शमशान घाट और कब्रिस्तानों में बेतहाशा भीड़ और कालाबाजारी के रूप में उत्तर प्रदेश कुछ बेहद अमानवीय प्रभावों का गवाह बना है। सरकार ने संकट को और बदतर बनाया है जो यह बताने पर जोर देती है कि यहां कोई कमी नहीं है तथा पॉजिटिव मामलों और मौतो की "अधिकारिक" संख्या कम करके दिखाती है। हाल ही के आंकड़े दिखाते हैं कि दो सप्ताह पहले जांच 20.. आगे पढ़ें
फिलिस्तीन में बगावत
(मई 2021 की शुरुआत में इजरायल और फिलीस्तीनी लोगों के बीच संगर्ष फिर भड़क उठा. इजरायल सेना ने अल-अक्सा मस्जिद पर हमला करके नमाज अदा कर रहे फिलीस्तीनी लोगों पर जुल्म ढाया. इस संघर्ष में सैकड़ों लोग घायल हुए. इजरायल और फिलीस्तीन के बीच का संघर्ष दशकों पुराना है, इसकी जड़ें इतिहास में हैं, अक्टूबर 1988 में मंथली रिव्यु में छपा यह लेख आज भी इस संघर्ष की प्रकृति को समझने में हमारी मदद करता है.)
गाजा के वेस्ट बैंक में रह रहे फिलिस्तीनियों के प्रतिरोध ने इजराइली कब्जे के बाद लगभग इक्कीस वर्षों के दौरान अलग–अलग रूप अख्तियार किये हैं। मौजूदा बगावत का पैमाना और चरित्र, जो एकदम जुदा और नया है, जनता के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की छाप लिये हुए है। विद्रोह के आकार और तीव्रता का अनुमान इसके फलस्वरूप होने वाली मौतों से लगाया जा सकता है। विद्रोह के शुरुआती नौ महीनों में ही 221 फिलिस्तीनियों को मौत के घाट उतार दिया.. आगे पढ़ें
पृथ्वी का दुरुपयोग और अगली महामारी
चित्र: प्रीति गुलाटी कॉक्स द्वारा "ह्यूमन मिस्मा": खादी कपड़े पर कढ़ाई और ग्रेफाइट
मानवता के द्वारा पर्यावरणीय सीमाओं के अतिक्रमण ने बहुत ज्यादा नुकसान पहुँचाया है, जिसमें जलवायु संकटकाल, जैव विविधता की विनाशकारी तबाही और दुनियाभर में बड़े पैमाने पर मिट्टी का व्यापक क्षरण शामिल है। कोविड-19 महामारी की वजह भी पृथ्वी का दुरुपयोग ही है और गंभीर संभावना है कि नए रोगजनकों (बीमारी पैदा करनेवाले) का अन्य जानवरों की प्रजातियों से मनुष्यों तक संक्रमण आगे भी जारी रहेगा।
खेती, जंगल की कटाई, खनन, पशु-पालन और अन्य गतिविधियाँ वन्यजीवों के आवास को दूषित और तबाह कर देती हैं, जिससे जानवरों के आगे मनुष्यों के करीब आने के सिवा कोई विकल्प नहीं रह जाता और पूरी सम्भावना होती है कि वे अपने साथ रोगजनकों को भी ले आयें। शहरी इलाके का फैलाव और पर्यटन (विशेष रूप से "इको-पर्यटन") भी मनुष्यों और वन्यजीवों को एक दूसरे के करीब लाते हैं।.. आगे पढ़ें
केवल सरकार विफल नहीं हुई है, हम मानवता के खिलाफ अपराधों के गवाह बन रहे हैं…
संकट पैदा करने वाली यह मशीन, जिसे हम अपनी सरकार कहते हैं, हमें इस तबाही से निकाल पाने के क़ाबिल नहीं है। ख़ाससकर इसलिए कि इस सरकार में एक आदमी अकेले फ़ैसले करता है, जो ख़तरनाक है- और बहुत समझदार नहीं है। स्थितियां बेशक संभलेंगी, लेकिन हम नहीं जानते कि उसे देखने के लिए हममें से कौन बचा रहेगा।
उत्तर प्रदेश में 2017 में सांप्रदायिक रूप से एक बहुत ही बंटे हुए चुनावी अभियान के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब मैदान में उतरे तो हालात की उत्तेजना और बढ़ गई। एक सार्वजनिक मंच से उन्होंने राज्य सरकार- जो एक विपक्षी दल के हाथ में थी- पर आरोप लगाया कि वह श्मशानों की तुलना में कब्रिस्तानों पर अधिक खर्च करके मुसलमानों को खुश कर रही है।
अपने हमेशा के हिकारत भरे अंदाज में, जिसमें हरेक ताना और चुभती हुई बात एक डरावनी गूंज पर खत्म होने से पहले, वाक्य.. आगे पढ़ें
टाइम्स नाउ के अपमानित और मोहभंग कर्मचारियों का खुला खत
सेवा में,
राहुल शिवशंकर, नविका कुमार, पद्मजा जोशी
द्वारा,
टाइम्स नाउ के अपमानित और मोहभंग कर्मचारी
आदरणीय सर / मैडम
हम, टाइम्स नाउ के पूर्व और वर्तमान कर्मचारियों ने कभी नहीं सोचा था कि हम ऐसी स्थिति में खड़े होंगे जहाँ हमें चैनल के सम्पादकों को पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों और मान्यताओं की याद दिलाने के लिए एक खुला पत्र लिखना पड़ेगा। हमारे चारों तरफ जो हो रहा है उसे देख कर हम थक चुके हैं, निराश, परेशान, गुस्सा हैं और हमारा मोहभंग हुआ है। हमने कभी खुद को इतना असहाय महसूस नहीं किया है। बतौर पत्रकार हमें एक बात सिखाई गई थी : हमेशा जनता के पक्ष में खड़ा होना। हमेशा मानवता के पक्ष में रहना। ताकतवर लोगों की उनके किये—धरे के लिए जवाबदेही सामने लाना। लेकिन टाइम्स नाउ इन दिनों "पत्रकारिता" के नाम पर जो कुछ कर रहा है, वह एक ऐसी सरकार का बेशर्मी के साथ प्रचार.. आगे पढ़ें
भारत की महाशक्ति बनने की महत्वकांक्षा को अमरीका क्यों शह देता है?
(7 अप्रैल को अमरीका का युद्धपोत भारत सरकार को बताये बिना (इजाजत लेने की बात ही दूर की है) देश के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) में घुस गया। यह देश की सुरक्षा के लिए भारी चिंता का विषय है। इसके बाद भी देश की मीडिया ने इस खबर को छिपाने की कोशिश की। हालाँकि भारत सरकार ने 9 अप्रैल को अमेरिकी नौसेना को इस मामले में अपनी चिंताओं से अवगत करा दिया था, लेकिन अमरीकी नौसेना ने अपनी इस कार्रवाई को "नेविगेशन ऑपरेशन की स्वतंत्रता" के रूप में जायज ठहराया। भारत-और अमरीका की नौसेना इससे पहले संयुक्त युद्ध अभ्यास करती रही हैं। उसके पीछे अमरीका की एक सोची-समझी रणनीति है, इसीलिए वह भारत की महाशक्ति बनने को शह देता है। लगभग डेढ़ दशक पहले इस मुद्दे पर केन्द्रित देश-विदेश पत्रिका में छपा लेख इस मामले में आज भी प्रासंगिक है। पढ़ें...)
मार्च 2005 में, अमरीकी विदेशमन्त्री कोण्डलीसा राइस ने वाशिंगटन.. आगे पढ़ें
भारत की महाशक्ति बनने की महत्वकांक्षा को अमरीका क्यों शह देता है?
(7 अप्रैल को अमरीका का युद्धपोत भारत सरकार को बताये बिना (इजाजत लेने की बात ही दूर की है) देश के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) में घुस गया। यह देश की सुरक्षा के लिए भारी चिंता का विषय है। इसके बाद भी देश की मीडिया ने इस खबर को छिपाने की कोशसिह की। हालाँकि भारत सरकार ने 9 अप्रैल को अमेरिकी नौसेना को इस मामले में अपनी चिंताओं से अवगत करा दिया था, लेकिन अमरीकी नौसेना ने अपनी इस कार्रवाई को "नेविगेशन ऑपरेशन की स्वतंत्रता" के रूप में जायज ठहराया। भारत-और अमरीका की नौसेना इससे पहले संयुक्त युद्ध अभ्यास करती रही हैं। उसके पीछे अमरीका की एक सोची-समझी रणनीति है, इसीलिए वह भारत की महाशक्ति बनने को शह देता है। लगभग डेढ़ दशक पहले देश-विदेश पत्रिका में छपा लेख इस मामले में आज भी प्रासंगिक है।)
मार्च 2005 में, अमरीकी विदेशमन्त्री कोण्डलीसा राइस ने वाशिंगटन द्वारा ‘‘भारत को वैश्विक शक्ति.. आगे पढ़ें
आंदोलनरत किसान अतीत से सीख रहे हैं और राष्ट्रवाद की सच्ची परिभाषा के साथ इतिहास रच रहे हैं
निम्नलिखित अंश भगत सिंह के "युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र" (द भगत सिंह, पेज 224-245) से लिया गया है, जो दो फरवरी, 1931 को लिखा गया था।
(मूल अंग्रेजी में पढने के लिए क्लिक करें.)
"असली क्रांतिकारी सेनाएँ गाँवों और कारखानों में हैं जो किसान और मजदूर हैं। लेकिन हमारे बुर्जुआ नेता चाहकर भी उनका नेतृत्व करने की हिम्मत नहीं कर सकते। सोता हुआ शेर एक बार अपनी नींद से जाग गया तो बेचैन हो जायेगा फिर हमारे नेताओं का लक्ष्य क्या रहेगा। 1920 में अहमदाबाद के मजदूरों के साथ अपने पहले अनुभव के बाद महात्मा गांधी ने घोषणा की थी कि “हमें मजदूरों के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। फैक्ट्री के सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक उपयोग करना खतरनाक है ”(द टाइम्स, मई 1921)। उसके बाद उन्होंने कभी भी मजदूरों से संपर्क करने की हिम्मत नहीं की। किसानों के मामले में भी ऐसा ही हुआ। 1922 का बारदोली सत्याग्रह.. आगे पढ़ें
नयी आर्थिक नीति और कृषि संकट
(यह लेख इतिहासबोध पत्रिका (1993) से लिया गया है। लेख उस समय लिखा गया था, जब भारत में वैश्वीकरण की नीतियाँ लागू करने की शुरुआत हो गयी थी। विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और अमरीकी साम्राज्यवाद के आगे नतमस्तक हो सरकार देश भर में वैश्वीकरण के फायदों का ढिंढोरा पीट रही थी। आगे चलकर इसका नतीजा यह हुआ कि वैश्वीकरण के पक्ष में जनमत तैयार हो गया, जिसने वैश्वीकरण की नीतियों को लागू करने की सरकार की राह को आसान बना दिया। लेकिन इसके बावजूद वैश्वीकरण की नीतियों का व्यापक स्तर पर विरोध भी होता रहा और विरोध पक्ष ने जनता के सामने इन नीतियों के स्याह पक्ष को रखा। इस लेख में विरोध पक्ष की वही आवाज मुखर हुई है, जिसमें वैज्ञानिक विश्लेषण के जरिये यह दिखाया गया है कि इन नीतियों के लागू होने के बाद पूँजीवादी विकास तीव्र हो जाएगा, जिसके चलते भारत का कृषि क्षेत्र तबाही का.. आगे पढ़ें
उनके प्रभु और स्वामी
(सुप्रीम कोर्ट में किसान आंदोलन की जगह खाली कराने को लेकर याचिका दायर की गयी है, जिसकी सुनवाई करते हुए अदालन ने किसानों का पक्ष सुने जाने से पहले जगह खाली कराने का आदेश देने से इंकार कर दिया। अदालत ने सरकार की तरफ से पेश अटॉर्नी जरनल तुषार मेहता से एक सवाल भी पूछ लिया कि क्या सरकार भरोसा दे सकती है कि जब तक बातचीत चलेगी तब तक कानून लागू नहीं होगा? तुषार मेहता ने कहा कि इस पर सरकार से आदेश लेने पड़ेगे। अदालत में सरकार की किरकिरी हुई। एक बात और सरकार और उसके मंत्री किसान आन्दोलन पर खालिस्तानी, टुकड़े-टुकड़े गैंग, माओवादी, नक्सलवादी आदि आरोप मढ़कर उसे देश विरोधी साबित करने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन उसने इन मुद्दों को सुप्रीम कोर्ट के आगे न रखकर साफ़ कर दिया कि यह सब आरोप फर्जी है और किसान आन्दोलन को बदनाम करने के लिए ही गढ़े.. आगे पढ़ें
नए कृषि कानून : किसान बड़े निगमों के हवाले
21 सितंबर को देश की संसद ने तीन नए कृषि कानूनों पर मुहर लगा दी। ‘‘सबका साथ, सबका विकास’’ के झंडाबरदार मोदी जी ने इसे किसानों के लिए एक ‘‘वाटरशेड मोमेंट’’ (ऐतिहासिक क्षण) बताया और किसानों की मुक्ति की घोषणा की- अब किसान आजाद है, जहां चाहे, जैसे चाहे, जिसको चाहे, अपनी फसल बेच सकता है।
इन कानूनों को पास कराने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का खून बहाया गया- सबसे पहले ‘प्रश्नकाल’ की बलि दी गयी, विचारार्थ सेलेक्ट कमेटी के पास भेजने की मांग ठुकरा दी गयी और मत-विभाजन करवाना जरूरी नहीं समझा गया। इन किसान-विरोधी कानूनों और अगले दिन कुछ श्रमिक-विरोधी कानूनों को असामान्य फुर्ती दिखाते हुए आनन-फानन में पास करवा लेने के बाद, जबकि कई विपक्षी पार्टियों के नेता संसद का बायकाट कर रहे थे और उन्होंने इन महत्वपूर्ण कानूनों को पारित किए जाते वक्त अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए लिखित.. आगे पढ़ें
आर्थिक हत्यारे या इकनोमिक हिटमैन
अमरीकी शासक अपनी साम्राज्यवादी लूट को निर्बाध रूप से जारी रखने के लिए पूरी दुनिया पर अधिकार कर लेना चाहते हैं। इसी मंसूबे को पूरा करने के लिए अमरीका ने कई देशों के खिलाफ युद्ध छेड़ने का जघन्य अपराध किया और लाखों की संख्या में लोगों का कत्लेआम किया। इन खुले कुकृत्यों के अलावा अमरीका ने पर्दे के पीछे भी कूटनीतिक चालों, राजनीतिक षड्यन्त्रों और अन्य कई तरह के घृणित अपराधों को अंजाम दिया जिनके बारे में लोग अभी भी अनजान हैं। ऐसे अपराधों का खुलासा एक भूतपूर्व आर्थिक हत्यारे यइकोनौमिक हिटमैनद्ध जॉन परकिन्स ने अपनी पुस्तक ‘‘एक आर्थिक हत्यारे की स्वीकारोक्ति’’ में किया है। इसे अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा ऐजेन्सी ने 1968 में भर्ती किया था, जब वह स्कूल ऑफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन यबोस्टन विश्वविद्यालयद्ध में अन्तिम वर्ष का छात्र था। तीन साल तक वह दक्षिण अमरीकी शान्ति दल में तैनात रहा। वहाँ से उसे एक अन्तरराष्ट्रीय परामर्शदाता कम्पनी में.. आगे पढ़ें
हमारा जार्ज फ्लायड कहाँ है?
क्या भारत के सार्वजनिक जीवन में भी कोई जार्ज फ्लायड जैसी परिघटना होगी? निश्चय ही, यह महज अन्याय की एक घटना के खिलाफ फूट पड़ने वाले आक्रोश तक की ही बात नहीं है बल्कि एक प्रताड़ना के शिकार व्यक्ति के साथ खुद को खड़ा करने की तात्कालिक आवश्यकता को समझने, हाशिए पर फेंक दिए गए लोगों के खिलाफ व्यवस्थित पूर्वाग्रह का अहसास करने और ‘हमारे’ और ‘उनके’ के बीच की दहलीज को पार करने के बारे में है। सबसे ऊपर यह वक्त नागरिकों की पहलकदमी का वक्त है। लेकिन दूसरी ओर, भारत के हाल के अनुभवों से ऐसा लगता है कि हमने अन्याय को लोकतन्त्र पर हमले से लगातार जोड़ कर समझने का अपना आग्रह खो दिया है।
पिछले 2 महीने से, पूरे मीडिया में प्रवासी मजदूरों के पलायन और उनकी पीड़ा की छवियाँ छाई हुई हैं। उनकी पीड़ा को लेकर दो बातें चौंकाने वाली हैं : इस मानवीय त्रासदी.. आगे पढ़ें
हम खुद एक ऐसे बीमार समाज में रहते हैं, जिसमें भाईचारे और एकजुटता की भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं है
(विश्व प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय ने दलित कैमरा पोर्टल को एक लंबा साक्षात्कार दिया है। इसमें उन्होंने अमेरिका और यूरोप में चल रहे नस्लभेद विरोधी आंदोलन से लेकर भारत में कोरोना की स्थित तक पर अपने विचार जाहिर किए हैं। उनका कहना है कि अमेरिका और यूरोप के मुकाबले भारत में असमानता की जड़ें बेहद गहरी हैं। लेकिन इसके खिलाफ मुकम्मल लड़ाई की अभी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं दिख रही है। इसके साथ ही इस साक्षात्कार में उन्होंने ऑनलाइन शिक्षा और डिजिटल विस्तार से जुड़े सवालों का भी जवाब दिया है। अरुंधति ने मौजूदा निजाम की फासीवादी प्रवृत्तियों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि इसके रहते देश में किसी भी तरह के सकारात्मक बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है। मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित इस साक्षात्कार का हिंदी अनुवाद अनुवादक और सामाजिक कार्यकर्ता कुमार मुकेश ने किया है। पेश है पूरा साक्षात्कार-संपादक)
हम अमरीका में.. आगे पढ़ें
क्या है जो सभी मेहनतकशों में एक समान है?
(25 मई को अमरीका में एक पुलिस अधिकारी ने जार्ज फ्लायड नाम के निर्दोष अश्वेत अमरीकी सख्स की गर्दन दबाकर हत्या कर दी। दम घुटने पर जार्ज फ्लायड ने कहा था कि “आई काण्ट ब्रीद” (मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ)। पुलिस की इस क्रूर कार्रवाई और रंगभेद के खिलाफ “आई काण्ट ब्रीद” और “ब्लैक लाइफ मैटर” नारे के साथ आन्दोलन अमरीका ही नहीं पूरी दुनिया में फैल गया। आन्दोलनकारियों ने न तो कोरोना महामारी की परवाह की और न ही लॉकडाउन की। अमरीका में अश्वेत लोगों के साथ लाखों गोरे नागरिक भी आन्दोलन में शामिल हुए, जिससे घबराकर राष्ट्रपति ट्रम्प ने आन्दोलनकारियों को धमकाने वाले कई बयान दिये। ट्रम्प के नस्लभेदी रवैये और धमकियों ने आग में घी का काम किया और आन्दोलन ने और जोर पकड़ ली। आन्दोलनकारियों ने राष्ट्रपति भवन को घेर लिया। ट्रम्प को भवन के बंकर में छिपकर अपना बचाव करना पड़ा। ऐसा दुनिया.. आगे पढ़ें
सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता सिर्फ बड़ी उम्रवालों के लिए ही नहीं, बच्चों के लिए भी जरूरी है
अगर हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे बड़ा होकर चिन्तनशील और सक्रिय नागरिक बने तो हमें मौजूदा दौर के सामाजिक बदलाव का हिस्सा बनने में उनकी मदद करनी चाहिए।
मैं तेजाबी बारिस (एसिड रेन) के खौफ के बीच बड़ी हुई। यह शब्द अपने आप में ही खौफनाक था और यह मुझे नीन्द से जागते हुए चौंका देता था। क्या यह लोगों के चेहरे को गला देता है? क्या जंगली जानवर इससे बच पायेंगे? मेरे माँ-बाप राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं थे, लेकिन वे अच्छे नागरिक थे जो टीन की पन्नी का दुबारा इस्तेमाल और कँटीले जाल में फँसायी गयी टूना मछली खाने से परहेज करते थे। जब मैंने राष्ट्रपति निक्सन को चिटठी लिखने और अपने सवालों का जवाब माँगने का फैसला किया तो उन्होंने खुशी से ह्वाइट हाउस का पता दे दिया। लेकिन जो चिट्ठी वापस आई उसमें कोई समाधान नहीं था, बल्कि उसमें जागरूक बच्चों की तारीफ में घिसीपिटी बातें थी.. आगे पढ़ें
महामारी ने पूंजीवाद की आत्मघाती प्रवृत्तियों को उजागर कर दिया है
जिप्सन जॉन और जितेश पी.एम. ‘ट्राईकांटिनेंटल इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च’ में फैलों हैं. दोनों ने ‘द वायर’ के लिए नोम चोमस्की का साक्षात्कार लिया। चॉम्स्की भाषाविद् और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, जो नवउदारवाद, साम्राज्यवाद और सैन्य-औद्योगिक-मीडिया समूह की आलोचनाओं के लिए विख्यात हैं।
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जिप्सन और जितेश : विश्व का सबसे धनवान और शक्तिशाली देश अमरीका भी कोरोनावायरस के संक्रमण के प्रसार को रोकने में असफल क्यों रहा? यह असफलता राजनीतिक नेतृत्व की है अथवा व्यवस्थागत? सच तो यह है कि कोविड-19 के संकट के बावजूद भी, मार्च में डोनाल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता में वृद्धि हुई. क्या आपको लगता है कि अमरीका के चुनावों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा?
नोम चोमस्की : इस महामारी की जड़ों को जानने के लिए हमें थोड़ा पीछे लौटना होगा. यह महामारी अप्रत्याशित नहीं है. वर्ष 2003 की सार्स महामारी के पश्चात ही वैज्ञानिकों को अंदेशा हो गया था कि एक और महामारी.. आगे पढ़ें
निगरानी, जासूसी और घुसपैठ : संकटकालीन व्यवस्था के बर्बर दमन का हथकंडा
सरकार पिछले कुछ महीनों से सभी दूरसंचार कम्पनियों से उनके सभी ग्राहकों के कॉल रिकॉर्ड्स (सीडीआर) माँग रही है. सरकार यह काम दूरसंचार विभाग (डीओटी) की स्थानीय इकाइयों के मदद से कर रही है, जिसमें दूरसंचार विभाग के अधिकारी कम्पनियों से डेटा माँगते हैं. जबकि सीडीआर की जानकारी सुप्रीटेंडेंट ऑफ पुलिस (एसपी) या इससे बड़े स्तर के अधिकारी को ही दी जा सकती है और एसपी को इसकी जानकारी हर महीने जिलाधिकारी को देनी पड़ती है. प्रमुख दूरसंचार कम्पनियों का प्रतिनिधित्व करने वाले सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआई) ने बताया कि सीडीआर की जरूरत के कारणों के बारें में दूरसंचार विभाग ने कुछ नहीं लिखा है. जो सुप्रीम कोर्ट के मानदण्डों का सीधा-सीधा उलंघन है. यह निजता के अधिकार (राइट टु प्रिवेसी) का भी हनन करता है, जो प्रत्येक नागरिक का मूलभूत अधिकार है.
सीडीआर की सुविधा के जरिये कॉल करने वाले और कॉल प्राप्त करने वाले व्यक्ति का.. आगे पढ़ें
पूँजीपति मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी भी खत्म कर देना चाहते हैं
आईआईटी दिल्ली के ऐकोनोमिक्स के प्रोफ़ेसर जयन जोस थॉमस का ‘द हिन्दू’ में सम्पादकीय छपा. पढ़ने लायक और जानकारी बढ़ाने वाला. यहां उसके कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा की जा रही है.
थॉमस लिखते हैं, "भारत में मजदूरों की तनख्वाह बढ़ानी चाहिए, इससे उपभोग बढ़ेगा. ज्यादा उत्पादन करने के लिए ज्यादा मजदूरों को काम पर रखना होगा. इससे हर हाथ को काम मिल जाएगा. बेरोजगारी ख़त्म हो जायेगी और आर्थिक वृद्धि भी हासिल होगी." उन्होंने अपनी बात के पक्ष में तर्क देते हुए लिखा कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप ने भी यही मॉडल अपनाया था. युद्ध और मंदी से पीड़ित लोगों को अच्छी तनख्वाहें दी गयीं और एक बार फिर पूंजीवाद का सुनहरा दौर शुरू हो गया.
थॉमस ने भारत के शहरी उपभोक्ता वर्ग की हालत का जिक्र करते हुए लिखा, 64.4 प्रतिशत टिकाऊ सामान का उपभोग सिर्फ 5 फीसदी अमीरों द्वारा किया जाता है. निचली 50 फीसदी.. आगे पढ़ें
कोविड-19 की दवा रेमडीसिविर के लिए सरकार और बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की मिलीभगत
पूरे विश्व मे कोरोना से उपजे आतंक का खात्मा होने जा रहा है। अब मीडिया धीरे धीरे कोरोना के पैनिक मोड को कम करना शुरू कर देगा, क्योकि फिलहाल कोरोना की एक दवाई मिल गयी है, जिसमे अमेरिका को उम्मीद की किरण दिख रही है उस दवा का नाम है-- रेमडीसिविर।
अमेरिकी वैज्ञानिकों ने कहा है कि इबोला के खात्मे के लिए तैयार की गई दवा रेमडीसिविर कोरोना वायरस के मरीजों पर जादुई असर डाल रही है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सलाहकार डॉक्टर एंथनी फाउसी कह रहे हैं, “आंकड़े बताते हैं कि रेमडीसिविर दवा का मरीजों के ठीक होने के समय में बहुत स्पष्ट, प्रभावी और सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।” रेमडीसिविर के बारे में अब अखबार लिख रहे हैं कि 'डॉक्टर फॉउसी के इस ऐलान के बाद पूरी दुनिया में खुशी की लहर फैल गई है।
रेमडीसिविर दवा पर हमारी बहुत पहले से नजरे जमी हुई थी, इसलिए मैंने.. आगे पढ़ें
भारत और कोरोना वायरस
जबकि कोरोना वायरस का प्रभाव यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका पर ज्यादा हुआ है, फिर भी भारत इस बीमारी का सबसे बड़ा शिकार होने का दावा करता है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने संकट का सामना करने के लिए एक शातिर जनसंपर्क अभियान के अलावा बहुत कम काम किया है। वास्तव में दिल्ली द्वारा उठाये गये कई नीतिगत कदमों से इस खतरनाक वायरस के प्रसार की संभावना बढ़ गयी है।
जब मोदी ने 24 मार्च को 21 दिन के राष्ट्रव्यापी बंद की घोषणा की, तो उन्होंने इससे पहले कोई चेतावनी नहीं दी। प्रधानमंत्री के बात खत्म करने से पहले ही घबराये हुए शहरी लोग-- ज्यादातर मध्यम वर्ग के लोग-- भोजन और दवाएं जमा करने के लिए सड़कों पर उतरने को मजबूर कर दिये गये, जिससे लगभग निश्चित रूप से कोविड-19 के प्रसार में तेजी आयी।
लॉकडाउन ने तुरंत करोडों लोगों को बेरोजगार बना दिया, जिसके चलते.. आगे पढ़ें
लॉकडाउन, मजदूर वर्ग की बढ़ती मुसीबत और एक नयी दुनिया की सम्भावना
कोरोना संकट पर देश-दुनिया में इतनी ज्यादा उथल-पुथल मची है और रोज दर्जनों ख़बरें आकर हमें चौंका देती हैं कि इस पूरे घटनाक्रम को एक लेख में समेटना लगभग नामुमकिन है। दुनिया के हर देश की अपनी अलग कहानी है। किसी भी इनसान से पूछ लो, उसके पास कोरोना को समझने और समझाने की अपनी न्यारी ही कहानी है। इसलिए हर व्यक्ति से जानकारी लेकर किसी आम राय तक पहुँचना संभव नहीं है। पर जो तथ्य और रिपोर्ट्स सामने आयीं हैं, उनके आधार पर विश्लेषण करके एक आम राय कायम की जा सकती है।
कोरोना महामारी ने दुनिया भर की उत्पादन व्यवस्था को लगभग ठप्प कर दिया है। धरती पर सरपट दौड़ने वाली रेलों को जाम कर दिया है। पानी को चीरते हुए समुद्र में घूमने वाले जहाजों को रोक दिया है। आकाश को चूमने वाले हवाई जहाजों को चूहे की तरह अपनी माँद में बैठे रहने को मजबूर.. आगे पढ़ें
कोरोना वायरस, सर्विलेंस राज और राष्ट्रवादी अलगाव के ख़तरे
(युवल नूह हरारी हमारे समय के विद्वान-दार्शनिक हैं, दुनिया को आर-पार देखने का हुनर रखते हैं। उन्होंने “फाइनेंसियल टाइम्स” में एक बेहतरीन लेख लिखा है। कोरोना फैलने के कितने दूरगामी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक असर दुनिया भर में हो सकते हैं, इस पर इतना अच्छा कुछ और पढ़ने को नहीं मिला। अनुवाद कर दिया है। थोड़ा लंबा है, लॉकडाउन के चलते जब मैं घर में बैठकर टाइप कर सकता हूँ, तो आप घर बैठे पढ़ क्यों नहीं सकते? – अनुवादक)
दुनिया भर के इंसानों के सामने एक बड़ा संकट है। हमारी पीढ़ी का शायद यह सबसे बड़ा संकट है। आने वाले कुछ दिनों और सप्ताहों में लोग और सरकारें जो फ़ैसले करेंगी, उनके असर से दुनिया का हुलिया आने वाले सालों में बदल जाएगा। ये बदलाव सिर्फ़ स्वास्थ्य सेवा में ही नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था, राजनीति और संस्कृति में भी होंगे। हमें तेज़ी से निर्णायक फ़ैसले करने होंगे। हमें अपने फ़ैसलों.. आगे पढ़ें
कोरोना लॉकडाउन : भूख से लड़ें या कोरोना से
25 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी ने पूरे देश में अचानक लॉकडाउन का एलान कर दिया।
कोरोना वायरस हमारे देश में अपने पैर पसार चुका है। देश का मध्यमवर्ग, पूँजीपति और मैनेजर, शासन-प्रशासन में बैठे तमाम पार्टियों के नेता और नौकरशाह (डीएम, एसपी, जज, तहसीलदार आदि) सब घबराये हुए हैं। बौखलाहट में वे तुगलकी फरमान जारी कर रहे हैं या किंकर्तव्यविमूढ़ बैठे हैं— अपने घरों में सुरक्षित बैठे रामायण-महाभारत का आनन्द ले रहे हैं या नवदुर्गा की आराधना में लीन हैं। दूसरी ओर, देश की मेहनतकश आबादी का बड़ा हिस्सा 21 दिन के इस लॉकडाउन का मुकाबला करने के लिए सड़कों पर आ चुका है। बेरोजगार, बेबस, भूखे और लाचार लोग अपने दुधमुंहे बच्चों, गर्भवती औरतों और बूढ़े बुजुर्गों के साथ सैंकड़ों मील चलकर घर जा रहे हैं— इस उम्मीद में कि शायद वहाँ जाकर वे भूखे नहीं मरेंगे या मरेंगे भी तो एक लावारिस मौत नहीं, अपनों के बीच।
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वायरस पर नियंत्रण के बहाने दुनिया को एबसर्ड थिएटर में बदलती सरकारें
इस प्रहसन का पटाक्षेप कोरोना संकट की समाप्ति के साथ होगा। सरकार को पता है कि उसकी सारी नाकामयाबियों पर कोरोना भारी पड़ जाएगा। बेरोजगारी, महंगाई, जीडीपी में कमी सबका ठीकरा कोरोना के सिर फूटेगा।
लंदन से प्रकाशित दैनिक ‘इंडिपेंडेंट’ ने अपनी एक रिपोर्ट में इस बात पर चिंता जाहिर की है कि कई देशों की सरकारें कोरोना वायरस पर नियंत्रण के बहाने अपने उन कार्यक्रमों को पूरा करने में लग गयी हैं जिन्हें पूरा करने में जन प्रतिरोध या जनमत के दबाव की वजह से वे तमाम तरह की बाधाएं महसूस कर रहीं थीं।
रिपोर्ट के अनुसार 16 मार्च को संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध विशेषज्ञों के एक समूह ने एक बयान जारी कर इन देशों को चेतावनी दी कि ऐसे समय सरकारों को आपातकालीन उपायों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक मकसद की पूर्ति के लिए नहीं करना चाहिए। बयान में कहा गया है- “हम स्वास्थ्य पर आए मौजूदा संकट की.. आगे पढ़ें