इण्टरनेट सेवाएँ बन्द करना कितना लोकतांत्रिक है
4 अगस्त 2019 से कश्मीर में धारा 370 के खात्मे के बाद इण्टरनेट सेवाएँ 174 दिनों तक बन्द कर दी गयीं। इतने लम्बे समय तक इण्टरनेट बन्द रहने की यह पहली और एकमात्र घटना है। सीएए के प्रदर्शन के बाद भी कई राज्यों में इण्टरनेट सेवाओं को बन्द किया गया। इस तरह भारत दुनिया भर में इण्टरनेट को बन्द करने के मामले में पहले स्थान पर पहुँच गया है। देश में सरकार विरोधी किसी भी आन्दोलन में इण्टरनेट बन्द कर दिया जाना सरकार के लिए एक जरूरी कदम जैसा हो गया है। यह सरकार की धूमिल होती छवि को भी दिखाता है। टॉप–टेन–वीपीएन वेबसाइट के अनुसार भारत में इण्टरनेट बन्द करने के लिए 100 से ज्यादा लिखित आदेश जारी किये गये। इससे लगभग 9,100 करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान हुआ। दूरसंचार कम्पनियों के शीर्ष संगठन सीओएआई (सेलुलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इण्डिया) के अनुसार एक घण्टा इण्टरनेट बन्द होने से दूरसंचार कम्पनियों को कुल 2.45 करोड़ रुपये का घाटा होता है। इसने सरकार को चेताया भी कि इस प्रकार के मामले में सबसे पहले इण्टरनेट को बन्द करना सही कार्रवाई नहीं है।
सरकार द्वारा इण्टरनेट सेवाओं को आन्दोलन के दौरान बन्द करने का असली मकसद होता है–– जनता के बीच सूचना और संचार का माध्यम खत्म कर दिया जाये, जिससे उनके बीच एकजुटता न बन पाये। हम जानते है कि पिछले दस वर्षों से देश में फेसबुक, व्हाट्सएप और ट्वीटर जैसे सोशल मीडिया एप पर लोगों की सक्रियता बहुत तेजी से बढ़ी है। इन सभी की अपनी नियम और शर्तें होती हैं। ये जब चाहे तब किसी भी सदस्य पर प्रतिबन्ध लगा सकती हैं या उन्हें अपनी वेबसाइट से बाहर निकाल सकती हैं। जैसे–– फेसबुक पर कई बार सरकार विरोधी पोस्ट लिखने पर व्यक्ति को ब्लॉक कर दिया जाता है, अगर कुछ लोग उसकी शिकायत फेसबुक एडमिन से कर दें। इसी ढाँचे में हम अपनी बात कहने को मजबूर हैं। मुनाफे पर आधारित निजी कम्पनियाँ इन वेबसाइटों को चलाती हैं, जिनकी आर्थिक हैसियत कई देशों से भी बड़ी है। फेसबुक दुनिया की दस बड़ी कम्पनियों में से एक है। अपने निजी हितों को पूरा करना इनकी प्राथमिकता होती है तथा सरकार के साथ हर मामले में खड़ी होती हैं। ये अपने मुनाफे के लिए घोर से घोर जनविरोधी नियमों और शर्तों को लागू करने को तैयार रहती हैं। ये अपने उपभोक्ताओं के गोपनीय और व्यक्तिगत डेटा को बेचती हैं और उसकी निगरानी करती हैं। इसे लेकर इनके ऊपर विभिन्न न्यायालयों में केस दर्ज हैं और मुकदमे भी चल रहे हैं। इसलिए इन्हें लोकतंत्र का प्रहरी समझना एक भूल होगी।
इण्टरनेट का चरित्र विरोधाभाषी है, जिसे समझना आवश्यक है। यह लोगों को जोड़ता भी है और अगर सावधानी से इसका इस्तेमाल न किया जाये तो यह उनके बीच दरार भी पैदा करता है। इसलिए यह संचार और सूचना का सशक्त माध्यम है। इण्टरनेट के जरिये सूचनाओं को कम समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों तक आसानी से पहुँचाया जा सकता है। इसलिए आन्दोलन के दौरान लोग एक–दूसरे से फोटो, लेख और वीडियो साझा करते हैं, जिससे लोगों तक सही सूचना तेजी से पहुँच जाती है। ऐसे समय इसका महत्त्व और बढ़ जाता है, जब मुख्य धारा की पूरी मीडिया पर सरकार का वर्चस्व है और वे सभी सरकार के सुर में सुर मिलाकर गाते हैं। उदाहरण के लिए जामिया विश्वविद्यालय के मामले में जब पुलिस ने छात्रों पर बर्बरता से हमला किया, उनके हॉस्टल और लाइब्रेरी में घुसकर उन्हें पीटा गया और तोड़–फोड़ की गयी, तब सोशल वेबसाइट के माध्यम से लोगों को इस सच्चाई का पता चला। जब प्रशासन की शह पर नकाबपोशों ने जेएनयू के छात्रों पर हमला किया, तो वेबसाइट के माध्यम से उपलब्ध तस्वीरों से सही स्थिति सामने आ पायी। कई बार सरकार के खिलाफ सोशल मीडिया पर लिखने के चलते राजद्रोह का मुकदमा भी दर्ज किया गया।
ध्यान देने वाली बात यह है कि सोशल मीडिया के जरिये प्रधानमंत्री भी अपने विचारों तथा कामों का प्रचार करते हैं और लगभग सभी पार्टियों के नेता इस प्लेटफार्म पर सक्रिय हैं। लेकिन जब जनता इनका इस्तेमाल अपने विरोध प्रदर्शन के लिए करती है तो सरकार उसे बन्द कर देती है। क्या सरकार का यह भेदभावपूर्ण व्यवहार लोकतांत्रिक है?
व्यवस्था द्वारा नियंत्रित और संचालित इण्टरनेट लोगों को एक सीमित दायरे में बात कहने की आजादी देता है। लेकिन यह सीमित साधन भी बन्द कर दिया जायेगा, तो लोग अपनी बात कहाँ रखेंगे? इसलिए धरातल पर व्यक्ति–व्यक्ति के बीच जीवन्त सम्पर्क का स्थान सोशल मीडिया और इण्टरनेट नहीं ले सकते। ऐसे में सरकार विरोधी ताकतों को जनता से जीवन्त सम्पर्क बनाना ही होगा। उनके सुख–दुख में शामिल होना होगा। जनता के बीच सच्चे लोकतंत्र के लिए संघर्ष करना होगा। तभी जाकर लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित समाज का निर्माण होगा।
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