जून 2020, अंक 35 में प्रकाशित

निगरानी, जासूसी और घुसपैठ : संकटकालीन व्यवस्था के बर्बर दमन का हथकंडा

सरकार पिछले कुछ महीनों से सभी दूरसंचार कम्पनियों से उनके सभी ग्राहकों के कॉल रिकॉर्ड्स (सीडीआर) माँग रही है। सरकार यह काम दूरसंचार विभाग (डीओटी) की स्थानीय इकाइयों की मदद से कर रही है, जिसमें दूरसंचार विभाग के अधिकारी कम्पनियों से डेटा माँगते हैं। जबकि सीडीआर की जानकारी सुप्रीटेंडेंट ऑफ पुलिस (एसपी) या इससे बड़े स्तर के अधिकारी को ही दी जा सकती है और एसपी को इसकी जानकारी हर महीने जिलाधिकारी को देनी पड़ती है। प्रमुख दूरसंचार कम्पनियों का प्रतिनिधित्व करने वाले सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआई) ने बताया कि सीडीआर की जरूरत के कारणों के बारे में दूरसंचार विभाग ने कुछ नहीं लिखा है। जो सुप्रीम कोर्ट के मानदण्डों का सीधा–सीधा उल्लंघन है। यह निजता के अधिकार (राइट टू प्राइवेसी) का भी हनन करता है, जो प्रत्येक नागरिक का मूलभूत अधिकार है।

सीडीआर की सुविधा के जरिये कॉल करने वाले और कॉल प्राप्त करने वाले व्यक्ति का मोबाइल नम्बर, उनकी भौगोलिक स्थिति, समय, तारीख, उपकरण की पहचान संख्या के साथ–साथ बातचीत की समयावधि और डेटा की कुल मात्रा जैसी अनेक जानकारियाँ सुरक्षित की जाती हैं। इन जानकारियों के आधार पर उससे जुड़े व्यक्तियों के बारे में बहुत आसानी से काफी–कुछ पता लगाया जा सकता है।

इन्टरनेट के व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए ज्यादातर लोग आजकल मोबाइल के सेल्युलर डेटा का इस्तेमाल करते हैं। वह कम्पनी अपने मूल्यवान उपभोक्ता के द्वारा इन्टरनेट पर की गयी हर गतिविधि पर नजर रखती है। ऐसा उसी सेल्युलर कम्पनी द्वारा दिये गये यूनीक नम्बर या आईपी एड्रेस की मदद से किया जाता है जो इन्टरनेट पर आपके सिस्टम (मोबाइल या लैपटॉप) का पहचान क्रमाँक होता है। फोन कॉल और आईपी एड्रेस पर हुई गतिविधि को जोड़ कर देखें तो उस उपभोक्ता का पूरा विवरण निकल आता है। उदाहरण के लिए अगर आप अपने दोस्त से कोई किताब खरीदने की बात व्हाट्सएप पर करते हंै तो यह जानकारी फेसबुक कम्पनी अपने सर्वर पर सुरक्षित रख लेती है, जिसका इस्तेमाल आगे चलकर वह आपको विज्ञापन दिखाने में करती है। यानी आपको उत्पादों, आपके आस–पास के दुकानदारों, दुकानों या कम्पनियों का विज्ञापन आपके मर्जी के बिना दिखाया जाता है। अगर आपने अपना मोबाइल नम्बर फेसबुक से जोड़ रखा है तो आपको किताब विक्रेता के यहाँ से कॉल भी आ सकती है। ठीक इसी तरह, ये मोबाइल और एप्प कम्पनियाँ अपने उपभोक्ताओं की हर गतिविधि की जानकारी रखती हैं। सरकार इन्हीं जानकारियों को हासिल करके अपने विरोधियों की गतिविधि पर नजर रखने की योजना बना रही है, ताकि पूरी राजनीति और देश की सत्ता को अपनी मुट्ठी में रखा जा सके। अगर सरकार या कोई राजनीतिक पार्टी अपनी इस मंशा में पूरी तरह सफल हो जाये, तो ऐसा हो सकता है कि चुनाव प्रणाली महज एक दिखावा रह जाये और लोकतंत्र के बाहरी आवरण के अन्दर तानाशाही कायम हो जाये।

हम सभी जानते हैं कि संचार तकनीकी और कम्प्यूटर के विकास के साथ–साथ सूचना (तथ्य और आँकड़े) को सुरक्षित करना, एक–दूसरे के साथ साझा करना और उन पर गणितीय क्रिया करना आसान हो गया है। इसके विकास के शुरुआती दौर में कुछ जानकारियों को रखना तकनीकी जरूरत थी, जो तकनीकी के विकास के साथ–साथ धीरे–धीरे कम होती चली गयी। मौजूदा समय में संचार स्थापित करने के लिए गैर–पहचान वाले डेटा के न्यूनतम इस्तेमाल से सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है। तकनीकी के स्तर पर डेटा को सुरक्षित करना अब जरूरी नहीं रह गया है।

नब्बे के दशक में कम्पनियाँ अपने उपभोक्ताओं को बेहतर सुविधाएँ देने के लिए ग्राहकों की व्यवहारिक विश्लेषण (बिहेविअरल एनालिसिस) करती थीं और उसके अनुसार अपनी सेवाओं और उत्पादों में जरूरी बदलाव करती थीं, जिसके परिणाम कम्पनियों के अनुकूल आय और मुनाफा भी तेजी से बढ़ा। उस समय इन सुविधाओं को देने वाली कम्पनी के लिए ‘कोई उत्पाद बेचना या शुल्क लेना’ व्यवहारिक विश्लेषण तक ही सीमित रह जाने के उद्देश्य हो सकते थे। बिना किसी शुल्क के सुविधाएँ देना उस दौर में नामुमकिन था। लेकिन आगे चलकर उपभोक्ता के व्यवहारिक डेटा की खरीद–बिक्री कमाई का जरिया बन गयी। यानी आप इन्टरनेट की किसी सुविधा मसलन फेसबुक, व्हाट्सएप, ऑनलाइन रिजर्वेशन आदि का इस्तेमाल इन कंपनियों को बिना कोई शुल्क दिये करते हैं। क्या ये कम्पनियाँ कोई परोपकार करती हैं? नहीं। वे आपके व्यवहारिक डेटा को बेचकर कमाती हैं। व्यवहारिक डेटा ग्राहक के द्वारा की गयी सर्च का पूरा लेखा–जोखा होता है, जिसमें उसके नाम, उम्र, रंग, लिंग, यौनिक झुकाव, पसन्द, भौगोलिक स्थिति, इस्तेमाल की जाने वाली सुविधाओं, उत्पादों से लेकर उसके दोस्त और सगे सम्बन्धियों से रिश्तों तक की जानकारी होती है। यूँ कहें कि लगभग सब कुछ जो आप हैं।

उदहारण के लिए गूगल सर्च इंजन को लेते हैं। ये अपने शुरुआत में इन्टरनेट पर मुफ्त में लोगों को वेब सर्च दिखाता था (वेब सर्च में आप के द्वारा सर्च की गयी जानकारी को पूरी दुनिया के वेब पेजेज में से गूगल अपने पसन्द के सर्च रिजल्ट्स आपको दिखाता है)। ऐसे में ग्राहकों के इतने बड़े व्यवहारिक डेटा को सुरक्षित रखते हुए सुविधाएँ देना मुश्किल था। इन सेवाओं के लिए किसी प्रकार का शुल्क लगाते ही उपभोक्ता दूसरी दुकान पर चले जाते। फिर गूगल ने मुफ्त में सुविधा देने के नाम पर ग्राहकों के व्यवहारिक डेटा को सुरक्षित रखना, मनमाने ढँग से दूसरी कम्पनियों के साथ डेटा साझा करने का शातिराना और खतरनाक तरीका ढूँढ निकाला।

निजी कम्पनियों और सत्ता की साँठ–गाँठ के मायने

जब यह बदलाव हो रहे थे, उसी समय 2008 की विश्वव्यापी मन्दी भी शुरू हो गयी। पूँजीपतियों के सामने पूँजी निवेश का संकट और मुनाफे को बढ़ाने के लिए लागत में कमी का एजेंडा सामने आ गया। इसी समय गूगल कम्पनी पूँजी संकट से जूझ रही थी। उसके सामने निगरानी के लिए कानूनी स्वीकृति हासिल करना एक बड़ी समस्या थी। गूगल के पास सामान्य लोगों से लेकर महत्त्वपूर्ण लोगों के व्यवहारिक डेटा का अम्बार लग गया था, जिसका इस्तेमाल पूँजीपति अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए बहुत आसानी से कर सकते थे। दूसरी ओर जनता के आन्दोलन और विरोध प्रदर्शनों से घबराई सरकार के लिए ऐसी जानकारियाँ कारू का खजाना साबित होने वाली थीं। वह इन जानकारियों के जरिये अपने दमन को ज्यादा हिंसक और क्रूर बना सकती थी। गूगल तथा दूसरे पूँजीपति और सरकारों ने इसे अपने–अपने संकट को हल करने के औजार के रूप में देखा। पूँजीपतियों ने पूँजी निवेश किया। सरकारों ने इसे संवैधानिक जामा पहनाया और गूगल ने दिल खोल कर पूरी दुनिया की जनता की सभी जानकारियों को इन भेदियों के साथ साझा किया और आगे भी यह नापाक गठबंधन न केवल जारी रहा, बल्कि नयी–नयी ऊँचाइयों को छूने लगा।

इसी नापाक गठबंधन के चलते ‘गूगल कम्पनी’ आज तकनीकी कम्पनियों के शीर्ष पर विराजमान है। इसमें निवेश करनेवाली कम्पनियाँ दिन दूनी और रात चैगुनी तरक्की कर रही हैं। डेटा चोरी करके अपने व्यापार को आगे बढ़ाने वाली कम्पनियों के पौ–बारह हैं। सरकारें इसे संवैधानिक जामा पहनाकर न केवल इस लूट में शामिल हो गयी हैं, बल्कि अपने आईटी सेल और मीडिया मैनेजमेंट के दम पर आपकी इन्हीं निजी जानकारियों की बदौलत सत्ता सुख भोग रही हैं।

आइये, अब देखते हैं कि तकनीकी रूप से इन जन–विरोधी कारनामों को कैसे अंजाम दिया जाता है? गूगल और उससे जुड़ी दैत्याकार कम्पनियाँ आपके जीवन से जुड़ी छोटी–छोटी बातों को जोड़कर एक मेटाडेटा (डेटा के बारे में डेटा) तैयार करती हैं। मेटाडेटा का उदाहरण एक किताब की अनुक्रमणिका (इंडेक्स) है, जिसकी मदद से हम उस किताब की अंतर्वस्तु के बारें में एक अनुमान लगा सकते हैं। उदाहरण के लिए कैम्ब्रिज एनालिटिका और फेसबुक वाला काण्ड लेते हैं, जिसके खुलासे के बाद अमरीकी मीडिया में तूफान आ गया था। इसके चलते फेसबुक के मालिक जुकरबर्ग को माफी भी माँगनी पड़ी। इसने कैम्ब्रिज एनालिटिका और फेसबुक के बीच बड़े विवादों को जन्म दिया था। मामला यह है, कैम्ब्रिज एनालिटिका ने फेसबुक के एक यूजर के जरिये उसके सभी दोस्तों की सूची, लिंग, नस्ल, कार्यक्रमों की जगह, शामिल हुए दोस्तों के राजनीतिक रुझान आदि के बारे में डेटा चुराया। यह सब उपभोक्ता की अनुमति के बिना हुआ, जो उसके मूलभूत अधिकार का हनन है। इसी तरह कैम्ब्रिज एनालिटिका ने 8.7 करोड़ यूजर्स का डाटा चुराकर जानकारियों का अम्बार इकट्ठा किया। इस डेटा को उसने अमरीकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का प्रचार करनेवाली कम्पनी को बेचकर अरबों रुपये का मुनाफा कमाया। उस कम्पनी ने डोनाल्ड ट्रम्प के पक्ष में माहौल बनाने के लिए इसका इस्तेमाल किया था। इस मामले की जाँच कर रही फेडरल ट्रेड कमीशन (एफटीसी) ने बताया कि फेसबुक ने सेफगार्ड यूजर्स प्राइवेसी के नियमों का उल्लंघन किया है।

निगरानी के आर्थिक–राजनीतिक पहलू

सरकार देश की सुरक्षा के नाम पर निजी कम्पनियों से समझौते करती है। यहाँ मौजूदा व्यवस्था को बनाये रखनेवालों को दो तरफा फायदा होता है। सरकार समझौते के नाम पर सार्वजनिक सम्पत्ति को दूसरे देशों की निजी कम्पनियों को बेच देती है। यानी उनमें अकूत सरकारी पूँजी का विनिवेश करती है। धीरे–धीरे देश की अर्थव्यवस्था पर इन कम्पनियों का दबदबा बढ़ता जाता है। इन्हीं में से कुछ कम्पनियों को जनता पर निगरानी की खुली छूट और संवैधानिक मंजूरी मिल जाती है। ये कम्पनियाँ लोगों के डेटा को अन्य निजी कम्पनियों को बेचकर बेहिसाब मुनाफा तो कमाती ही हैं, साथ ही साथ जनता की हर गतिविधि की पूरी जानकारी सरकारों तक पहुँचाती रहती हंै और बार–बार सरकार को जनता पर नकेल कसने के लिए चेताती भी रहती हंै। एडवर्ड स्नोडेन ने बताया था कि अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) ने गूगल, फेसबुक, वर्जिन टेलिकॉम जैसी बहुत सारी कम्पनियों से डेटा लिया। उसका इस्तेमाल जनपक्षधर पत्रकार, प्रोफेसर, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, जनता के असली नेता और अपनी माँगों के लिए लड़ने वालों पर कानूनी कार्यवाही करने में किया। यह बात साफ है कि निगरानी करने वाली विदेशी कंपनियाँ भारत जैसे देश की सम्प्रभुता के लिए खतरा हैं, लेकिन सरकार इसकी परवाह नहीं करती।

निगरानी व्यवस्था के चलते ही पत्रकारों पर जानलेवा हमले तेज हुए हंै। सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। पत्रकारों पर जानलेवा हमले हर नये साल में पिछले साल से ज्यादा हो रहे हैं। भारत देश जनपक्षधर पत्रकारों के लिए मौत का कुआँ है। सरकार से सवाल पूछने पर गाली–गलौज से लेकर मौत की धमकी आज आम बात हो गयी है। सरकार निगरानी के मामले में पुराने सभी कीर्तिमान ध्वस्त करके नित–नये स्थापित कर रही है। आज आलम यह है कि सरकार–विरोधी सिर्फ एक फेसबुक पोस्ट और आप कैदखाने में। आप एक पोस्टर लेकर शान्तिपूर्वक विरोध कर रहे हैं, आपकी उम्र (वृद्ध), अवस्था (अपंग) का खयाल किये बिना देश की सरकारी सुरक्षा के लोग आयेंगे और आप को अमानवीय तरीके से पीटते–घसीटते हुए ले जायेंगे। यह सब हमारी सुरक्षा के नाम पर किया जाता है।

डेटा चुरानेवाली दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ पूरी दुनिया में अपना व्यवसाय करती हैं। इनकी अपनी गोपनीयता नीति (प्राइवेसी पॉलिसी) और सेवा की शर्तें (टर्म्स ऑफ सर्विस) होती हैं, जिसकी मदद से ये डेटा को सुरक्षित रखती हैं और साझा करती हैं। इसके बारे में फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकेरबर्ग ने बताया था कि इसे व्यक्ति के सामान्य प्रयास से नहीं समझा जा सकता है। बहरहाल, इन सुविधाओं का इस्तेमाल करनेवाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए इस गोरखधंधे को जानना और उसे स्वीकार करना अनिवार्य है। किसी भी देश में इन कम्पनियों का कार्यकाल निश्चित समय के लिए होता है, लेकिन ये वहाँ के लोगों की जानकारी हमेशा के लिए रख सकती हैं, जिसका इस्तेमाल वे किसी भी तरीके से कर सकती हैं। उदाहरण के लिए एक कम्पनी जो किसी दूसरी कम्पनी के साथ काम करती थी। उससे सम्बन्ध खराब हो जाने पर जब वह किसी तीसरी कम्पनी के लिए काम करने लगती है, तो वह सारी कॉर्पाेरेट नैतिकता को कूड़ेदान में फेंककर अपने पुरानी सहयोगी कम्पनी की जासूसी और निगरानी करती है तथा उसका सारा भेद अपने नये सहयोगी को बता देती है।

जासूसी और निगरानी का यह खेल बहुत ही जघन्य रूप धारण कर लेता है। किसी देश में तख्तापलट करवाना, अपनी मनमर्जी की नीतियाँ बनवाना, साइबर युद्ध के लिए उकसाना, ड्रोन की मदद से देश के अन्दरूनी हालात की हर गतिविधि पर नजर रखना, आदि इसकी कुछ मिसालें हैं। अपने देश के वातानुकूलित कमरे में बैठकर खूँखार जंगखोर मासूम लोगों की मौत पर हँसता है। यह कोई कपोल कल्पना नहीं है। जूलियन असाँजे द्वारा सार्वजनिक किया गया अफगानिस्तान का वीडियो इसका सबूत है, जिसमें अमरीकी सैनिक ड्रोन से बम गिराकर आम जनता को मारते हैं और ठहाके लगाकर हँसते हैं।

दुनिया भर में अपनी जनता का विश्वास खो चुकी सरकारें मौजूदा मरणासन्न और सड़ी–गली व्यवस्था को बनाये रखने के लिए नये–नये हथकंडे अपना रही हैं, वे पहले भी कई हथकंडे अपनाती रही हैं। लेकिन इस बार एक नये रूप में और बड़ी ताकत के साथ वे जनता पर हमलावर हैं, जिसका उद्देश्य मुठ्ठी भर लोगों के मुनाफे को बनाये रखना है।

अगर जनता को उसकी निजता और आजादी जैसे मूलभूत जरूरतों और अधिकारों से वंचित रख कर देश–दुनिया के चन्द लोगों की सुरक्षा होती है तो हमें ऐसे लोग और उस देश–दुनिया की सुरक्षा से खतरा है। ऐसे चन्द लोगों के लिए कोई और ग्रह ठीक हो सकता है, पृथ्वी तो नहीं। हाशिए पर पहुँच गयी जनता का विकास तभी होगा, जब जनता को केन्द्र में रखते हुए समाज व्यवस्था का पुनर्निर्माण किया जाये और ऐसी जनविरोधी तकनीकी पर रोक लगायी जाये।

 
 

 

 

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