मई 2024, अंक 45 में प्रकाशित

सरकार डिजिटल तानाशाही लागू करने की फिराक में

आज हमें किसी आन्दोलन, सम्मेलन या किसी जनसंघर्ष के बारे में जानकारी लेनी हो तो हम गूगल, याहू जैसे किसी सर्च इंजिन पर सर्च करेंगे या यूट्यूब जैसे किसी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर जाकर कुछ–एक विडियो देख सकते हैं या किसी विशेषज्ञ की कुछ ऑनलाइन पोस्ट्स को किसी सोशल मीडिया साइट्स (फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विट्टर, आदि) पर जाकर पढ़ सकते हैं। इन्टरनेट के जरिये जानकारी लेने और देने के तरीके आज प्रचलन में आ गये हैं। लेकिन सरकार इसे अब दमन के हथियार के रूप में इस्तेमाल करने जा रही है।

नवम्बर 2023 में सरकार ने तकनीकी और सूचना से सम्बन्धित तीन कानून तैयार किये थे। इनकी कुछ महत्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं–– सर्च इंजिन्स को उस पर खोजे गयी सभी जानकारियों के साथ–साथ खोजनेवाले के मोबाइल या कम्प्यूटर, उसका पता, नाम, उम्र जैसी तमाम जानकारियों को सुरक्षित रखना होगा। तथा सरकार की आलोचना से सम्बन्ध रखने वाले विषयों को खोजने वाले व्यक्ति या संस्था की सूचना तुरन्त सरकार को देनी होगी। ऐसा न करने पर सरकार उस कम्पनी को देश से बाहर का रास्ता दिखा देगी।

यूट्यूब जैसे तमाम ऑनलाइन प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया साइट्स को यह सुनिश्चित करना होगा कि सरकार के प्रति आलोचनात्मक रवैया वाले विडियो कोई भी अपलोड न कर सके। सरकार पर कोई व्यंग नहीं। कोई राजनीतिक हास्य भी नहीं। उसे अपनी गाइडलाइन में स्पष्ट करना होगा और तकनीकी में लागू करना होगा कि कम्पनी के साथ–साथ उसके उपभोक्ताओं का रवैया और उसके कंटेन्ट सरकार और सरकारी नीतियों के पक्ष में होंगे। इसका उल्लंघन करने पर कम्पनी और उपभोक्ता दोनों के सभी उपकरण जब्त कर लिये जायेंगे और उन पर केस करके बड़ा भारी जुर्माना लगाया जायेगा।

ऑनलाइन डॉक्यूमेंट्री और वेब सिरीज बनाने वाले को अपने कंटेन्ट रिलीज करने से पहले सरकार को दिखाने होंगे। सरकार की बड़ाई में लिखे गये और बनाये गये कंटेन्ट सहर्ष स्वीकार किये जाएँगे। लेकिन सरकार की जरा भी खिलाफत हुई तो विडियो बनाने वाली कम्पनी का लाइसेंस रद्द कर दिया जाएगा और सम्बन्धित व्यक्तियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जायेगी।

बहरहाल यही रवैया पुस्तिकाओं, पत्रिकाओं और शोध जनरल्स के साथ भी होगा। कुल मिलाकर कहा जाये तो सरकार की आलोचना से सम्बन्धित किसी भी तरह का कोई भी कंटेन्ट ऑनलाइन उपलब्ध नहीं होगा। साथ ही सरकार के आदेश पर किसी विषय से सम्बन्धित सभी सूचनाओं को अपने प्लेटफार्म से हटाना होगा।

जनपक्षधर पत्रकार, डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता, साहित्यिक कर्मी, शोधार्थी, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता–– ये सब समाज में होने वाली घटनाओं को जानने–समझने के लिए और उस पर सही समझ कायम करने के लिए विभिन्न स्रोतों का इस्तेमाल करते हैं और जनता के सामने सच्चाई लाते हैं। ये सच्चाई सरकार के पक्ष में हो सकती है या सरकार के खिलाफ। ऐसे में सरकार के खिलाफ सिर्फ सूचनाओं को इकट्ठा करने पर कार्रवाई होने से लोगों के बीच सच नहीं जा सकेगा और सरकार अपना एजेंडा पूरी तरह फैला सकेगी।

सूचना हमारी सोच–समझ को विकसित करने का एक जरूरी साधन है। सूचना के माध्यम पर एक ही सोच के लोगों के कब्जे से किसी व्यक्ति की खास मानसिकता गढ़ी जा सकती है। फिर उसके बाद उस व्यक्ति का जैसा चाहे वैो इस्तेमाल किया जा सकता है यानी वह कठपुतली बन जायेगा। उदाहरण के लिए–––1990 के दशक में टीवी पर एक धार्मिक कार्यक्रम प्रसारित किया गया। उसमें एक व्यक्ति ने भगवान के किरदार का अभिनय किया था। एक पार्टी ने उस व्यक्ति को लोगों के बीच भगवान के रूप में ही पेश किया। अब चुनाव आने पर उसे अपने पार्टी प्रत्याशी के रूप में पेश कर रहे हैं और उससे जुड़ी लोगों की भावना का चुनाव जीतने के हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। सोशल मीडिया पर आयी एक विडियो में उससे पूछा गया कि आप चुनाव जीतने के बाद यहाँ की किन समस्याओं को सुलझाएँगे? जवाब में उसने कहा कि पहले हम पता लगायेंगे की समस्याएँ कौन–कौन सी हैं? यानी वह इस क्षेत्र से अनजान हैं और आम लोग उसे सर्वज्ञाता मान बैठे हैं।

सोशल मीडिया का सकारात्मक पहलू

बीते सालों में चाहे सीरिया, अफगानिस्तान और यूक्रेन केे युद्ध हों, थ्रेटा का पर्यावरण संरक्षरण के लिए लोगों से किया गया आह्वान हो, भारत का किसान आन्दोलन हो, मणिपुर का नरसंहार हो, रोहिंग्या समुदाय के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार हो, फ्रांस में महिलाओं–छात्रों–किसानों के विरोध प्रदर्शन हो, श्रीलंका का जन आन्दोलन हो, इन सभी को आम जन–मानस तक पहुँचाने में सोशल मीडिया ने सकारात्मक भूमिका निभायी है। कहीं छिट–पुट तो कहीं बढ़–चढ़ कर सोशल मीडिया ने अपनी भूमिका अदा की। सोशल मीडिया पर राजनेताओं के वादों और सरकारी योजनाओं की हकीकत की पोल खोलते वीडियो आये दिन सामने आते रहते हैं। बीते वर्ष किसान आन्दोलन में बहुत कम पहुँच वाले यूट्यूबर, फेसबुकिया पत्रकार और आम आदमी भी इस आन्दोलन के प्रचार–प्रसार में सोशल मीडिया के माध्यम से लगे रहे। वहीं संयुक्त किसान मोर्चा के वेबपेज से समय–समय पर आने वाली जानकारी की भी आन्दोलन को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही।

कश्मीर में एक सैनिक द्वारा एक कश्मीरी युवक को मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल करने की घटना, बॉर्डर सेक्युर्टी फोर्स (बीएसएफ) के जवान का बेहद अमानवीय खाना खाने का वीडियो, सीरिया के नदी के तट पर एक बच्चे के लाश की तस्वीर (जो युद्ध की विनाशलीला को दिखाती है), अरब जगत में हुए सामाजिक बदलाव के मुहिम की तस्वीरें भी सोशल मीडिया के जरिये ही सामने आयी थीं।

इस वैकल्पिक मीडिया का प्रभाव क्षेत्र आबादी के एक हिस्से तक ही सीमित है। फिर भी पूरे दुनिया की जनविरोधी सरकारें इससे इतना क्यूँ डरती हैं?

पूरी दुनिया की बहुसंख्य जनता आज बेरोजगारी, भुखमरी, महँगाई, शिक्षा, चिकित्सा, पर्यावरण संकट और सामाजिक सुरक्षा जैसे संकटों से जूझ रही है। लगभग सभी सरकारें जनता के खिलाफ काम कर रही हैं। उनकी नीतियों के परिणामस्वरूप महँगाई दिन–दूनी रात–चौगुनी बढ़ रही है। लोगों की मूलभूत जरूरत की चीजों पर भारी टैक्स थोपे जा रहे हैं। अमीरों की सम्पत्ति बढ़ती ही जा रही है, वे पहले से ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं। वहीं मेहनतकश और गरीब जनता बद से बदतर हालात में जीने को मजबूर की जा रही है जो सरकार के पक्ष को हमारे सामने स्पष्ट करता है।

ऐसे में अगर उसे कहीं सरकार की नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध के स्वर उठते हैं तो सोशल मीडिया उसे दूर तक फैला सकता है। बाकी लोगों को भी विरोध के लिए प्रेरित कर सकता है। सरकार की नीतियों का भंडाफोड कर सकता है जो सरकार के लिए नागवार है। तानाशाहों की सरकारें विरोध बर्दाश्त नहीं करतीं।

इसका आलम यह है कि जब भारत सरकार ने अपने विरोधियों के ट्वीटर अकाउण्ट बन्द कराने में सारी सीमाएँ पार कर दीं तो मुनाफे के लिए काम करने वाली और स्वतंत्र आवाज को दबाने के लिए बदनाम कम्पनी ट्वीटर को भी एक नोटिफिकेशन जारी करके कहना पड़ा कि सरकारी दबाव में हम ऐसा कर रहे हैं। लेकिन यह ठीक नहीं है। इससे अभिव्यक्ति की आजादी को बहुत बड़ा खतरा है।

तानाशाही व्यवस्था में निगरानी

आज अपने नागरिकों की मुखबिरी के लिए हर शासन व्यवस्था ने अपना निगरानी तन्त्र या सर्विलान्स सिस्टम बना रखा है। पूरी दुनिया को दूसरे विश्व युद्ध में झोंकने वाला हिटलर भी जर्मनी के सभी अखबार, पत्र–पत्रिकाओं के साथ–साथ फिल्मों, नाटकों और खेल प्रतियोगिताओं पर निगरानी करवाता था और सरकार के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को दबा देता था। उसने यहूदियों के लिए अद्वितीय पहचान पत्र संख्या वाले कार्ड जारी किये थे। जारी करते समय कहा गया था कि इससे सरकारी योजनाओं के लाभ में होने वाली गड़बड़ियों को रोका जा सकेगा और योजनाओं का समुचित लाभ जरूरतमन्द को मिल सकेगा। फिर भी पूरी मानवता को शर्मसार करने के कृत्य को उसने कैसे–कैसे अंजाम दिया, यह सर्वविदित है। उस समय यह सब काम रजिस्टर की मदद से होते थे क्योंकि उस समय आज जितनी उन्नत तकनीकी, कम्प्यूटर और इंटरनेट नहीं थे। आज बस एक बटन दबाकर किसी भी व्यक्ति के पहचान को पूरी दुनिया के सरकारों के पास भेजा जा सकता है और मनचाहा इस्तेमाल किया जा सकता है।

आज हमारा देश पहले से ही मीडिया की सेंसरशिप में बहुत आगे निकल चुका है। सबसे ज्यादा संख्या में जनपक्षधर पत्रकारों की हत्या यहीं हो रही है। आवाम के हक के लिए उठने वाली आवाज को शान्त करने के सभी हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों को कुचला जा रहा है। अभी यह आलम है कि ऐसी सब खबरें भी कभी–कभार ही वैकल्पिक मीडिया के माध्यम से आम लोगों तक पहुँच पाती हैं। लेकिन अब यह भी नहीं हो पायेगा क्योंकि नये कानून में यह भी प्रस्तावित है कि सरकार के खिलाफ किसी भी तरह का कमेन्ट करने पर जुर्माना और जेल दोनों होगी। अब बस जुबां आपकी होगी और शब्द सरकार की जी–हूजूरी करने के लिए होंगे।

लेकिन इतिहास हमें बताता है कि दमघोटू माहौल और तानाशाही के दौर में भी प्रतिरोध के गीत लिखे गये। उपन्यास रचे गये, फिल्में बनायी गयीं, नाटक खेले गये और अन्तत: तानाशाहों को इतिहास के कूड़ा घर में फेंक दिया गया। निश्चय ही भारत की जनता भी ऐसी ही प्रतिक्रिया करेगी।

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