जनता की निगरानी : क्यों और कैसे?
सन्देशवाहकों, दूतों, पक्षियों–कबूतरों के सहारे शुरू हुई सन्देश भेजने की प्रक्रिया चिट्ठी, डाक, पोस्ट और टेलीग्राफ से विकसित होते हुए तार और लैंडलाइन फोन तक पहुँची। जो आज कृत्रिम उपग्रह के माध्यम से मोबाइल और इंटरनेट के रूप में दुनिया के लगभग सभी लोगों को आपस में जोड़े हुए है। शुरू–शुरू में अपने सन्देश की गोपनीयता के लिए लोग भरोसेमन्द सन्देशवाहक इस्तेमाल करते थे, जिसको चुनने में वे पूरी तरह स्वतंत्र होते थे। वे उन्हें यह भरोसा दिलाते थे कि उनका सन्देश बिना पढ़े और बिना किसी बदलाव (हेर–फेर) के पाने वाले तक पहुँचेगा, इसकी जानकारी सिर्फ सन्देश भेजने वाले और पाने वाले को होगी। यह एक धीमी प्रक्रिया थी। इस दौरान सन्देशवाहकों के साथ हुए किसी भी तरह के गलत व्यवहार से लोग सतर्क हो जाते थे और सन्देश को बचाने के लिए जरूरी कदम उठाते थे। लेकिन आज सेकण्ड के कुछ हिस्सों में ही हम अपने सन्देश को दुनिया के किसी भी कोने में इंटरनेट के माध्यम से भेज और पा सकते हैं, लेकिन हमारे पास पहले जैसा भरोसेमन्द दूत नहीं है, जो हमारे सन्देश को बिना पढ़े और बदले पहुँचाये। आज हमें अपने मन की बात कहने से पहले अपने सन्देशवाहक के दिल और दिमाग की बातें सुननी पड़ती हैं और अगर वह इजाजत दे, तब कहीं हम अपने सन्देश को आगे भेज सकते हैं।
संचार के साधन विकसित होने के साथ ही सूचनाओं के आदान–प्रदान पर नियंत्रण और निगरानी की भी शुरुआत हुई। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान गुलाम भारत में इसे कानूनी रूप से 1883 के टेलीग्राफ अधिनियम बनाये जाने में देखा जा सकता है, जिसे 1 अक्तूबर 1885 से अंग्रेजों के गुलाम भारत में लागू किया। इसके अनुसार अंग्रेजी हुकूमत आने–जाने वाले हर टेलीग्राफ को बीच में ही पढ़ सकती थी और उसके आधार पर भेजने वाले (या) प्राप्त करने वाले व्यक्ति पर कानूनी कार्रवाई कर सकती थी। यह अधिनियम अंग्रेजों ने आने–जाने वाले हर सन्देश पर नियंत्रण के जरिये अपने शोषण और लूट–खसोट पर टिकी शासन व्यवस्था को कायम रखने के लिए बनाया था। इसका अगला कदम 1898 का इंडियन पोस्ट ऑफिस अधिनियम था, जो सभी आम लोगों के राज्य सरकार और केन्द्र सरकार को डाक द्वारा भेजे जाने वाले सभी पत्रों की जाँच का अधिकार देता था। अंग्रेजी हुकूमत यह सब लोगों की सुरक्षा और शान्ति कायम करने के नाम पर करती थी। अंग्रेजों द्वारा सुरक्षा और शान्ति के इस करतूत को आज हम सभी जान और समझ चुके हैं कि वे किसकी सुरक्षा और किसके लिए शान्ति चाहते थे।
1947 के बाद भारत के शासकों ने अंग्रेजों से राजनैतिक आजादी पाने के साथ–साथ उनकी ढेर सारी सड़ी–गली और गलीज औपनिवेशिक व्यवस्था को भी हुबहू अपनाया और कई मामलों में तो उनसे भी आगे बढ़–चढ़ कर लागू किया, जैसे–– 1885 और 1898 के अधिनियम को जारी रखना और उसके बाद के पुराने कानूनों में बदलाव और कुछ नये कानून। 1967 में (यूएपीए) अधिनियम के अनुसार, टेलीग्राफ से बीच में चुरायी गयी सूचना को एक साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। वहीं 1973 के सीआरपीसी के सेक्शन 91 और 92 का एक साथ उपयोग करते हुए जिलाधिकारी, पुलिस और न्यायालय किसी भी व्यक्ति, डाक विभाग या टेलीग्राफ के अधिकारी से कोई भी दस्तावेज या सामान जाँच–पड़ताल, पूछताछ और (ट्रायल) के लिए ले जा सकते हैं। यह डाक, पोस्ट और तार के समय की बातंे हैं।
इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के साथ 2000 में इन्फॉर्मेशन टेक्नालजी अधिनियम बनाया गया। इस अधिनियम ने नयी तकनीक के साथ मिलकर नये आधार और नये आयाम निर्धारित किये, जिसमें डिजिटल संचार और सूचनाओं पर नजर रखना, उन्हें बीच में पढ़ना, सन्देश को डिक्रिप्ट करना (कूट भाषा से सामान्य शब्द में बदलना) और उसे इकट्ठा करना को मान्यता दी गयी। इसमें सबसे घातक बदलाव 2008 में हुआ। जब इसमें सेक्शन 69 जोड़ा गया, जिसमें बिना किसी ‘सार्वजनिक सुरक्षा’ या ‘सार्वजनिक आपातकाल की स्थिति’ के ही किसी भी व्यक्ति या सम्बन्ध रखने वाले से ऐसा करवा सकते हैं और ऐसा न करने पर सात साल की सजा या जुर्माना हो सकता है। इससे भी भयानक 69बी है, जो मेटा डेटा (बातचीत के मूल भाव) को बीच में पढ़ सकता है। मेटा डेटा में समय, भेजने वाला, प्राप्त करने वाला और जगह के नाम को भी पढ़ता है। ऐसा करने के पीछे का मकसद सरकार ने संज्ञेय अपराधों की रोकथाम, देश की सुरक्षा और किसी अपराध में जाँच बताया। एक तरफ यह अधिनियम बिना किसी आपातकाल जैसी स्थिति के ये सब करने की इजाजत देता है, वहीं दूसरी तरफ सरकार ऐसा करने के पीछे देश की सुरक्षा जैसे तर्क देती है। एक ही अधिनियम के लिए दो बिल्कुल विपरीत बातें कहकर सरकार अपने रवैये को साफ कर देती है।
2009 में केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय निगरानी प्रणाली की घोषणा की, ताकि वह अपने आप सूचनाओं को सीधे–सीधे देख और पढ़ सके। इसके बाद 2013 में एक और कानून में बदलाव के जरिये टेलीकाम कम्पनियों को सरकारी निगरानी में रखना जरूरी किया गया। 2013 में ही सूचना मंत्रालय के नये मीडिया खण्ड ने ऑनलाइन मीडिया पर निगरानी शुरू की।
व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए हमेशा से न्यायपालिका, सैन्य और सुरक्षा एजेंसियाँ किसी न किसी रूप में कार्यरत रही हैं, जो जनता पर हमेशा नजर रखती आयी हैं। हर शताब्दी की तरह इक्कीसवीं शताब्दी की भी अपनी विशेषता है, जिसमें इंटरनेट का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताने–बाने पर असर महत्त्वपूर्ण है। आज हर व्यक्ति पर प्रत्यक्ष रूप से निगरानी नहीं की जा सकती है, इसलिए अब यह व्यवस्था इसी काम को चोर दरवाजों से करती है। उदाहरण के लिए हम इंटरनेट पर क्या–क्या करते हैं, इस सब की निगरानी सरकारें सीधे–सीधे नहीं कर सकतीं। इस काम को चोर दरवाजे से सेवा देने के नाम पर हमारा डेटा ले लेकर पूरा किया जाता है, जिसमें सेवा लेने के बदले हमारी व्यक्तिगत सूचनाओं को किसी न किसी सार्वजनिक या निजी कम्पनी को देना ही पड़ता है। यहाँ महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सार्वजनिक और निजी सेवा प्राप्त करने के लिए यह शर्त अनिवार्य है। बिना इन्टरनेट की सुविधाओं के हमारी जिन्दगी नहीं चल सकती। इसी वजह से हम इनके इस्तेमाल से इनकार नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए–– ई–मेल और सर्च इंजिन। कोई भी सार्वजनिक कम्पनी ई–मेल की सुविधा नहीं देती। इसमें निजी कम्पनियों का एकाधिकार है। लेकिन डिजिटल युग की लगभग सभी सरकारी या निजी सुविधा लेने के लिए यह सेवा अनिवार्य है। आज जरूरी सुविधाओं में ई–मेल का उपयोग नौकरी, परीक्षा के फॉर्म भरने से लेकर पासपोर्ट, वोटर कार्ड, पैन कार्ड बनवाने के लिए होता है। इसके अलावा ऑनलाइन सामान खरीदने, ट्रेन और बस का टिकट तथा सोशल मीडिया से जुड़ने के लिए भी यह अनिवार्य है। एक दूसरे के सन्देशों और जानकारियों को साझा करने और अपने जरूरी दस्तावेजों को ऑनलाइन सुरक्षित रखने के लिए भी यह जरूरी है। इसी तरह कई और ई–मेल की जरूरी सेवाएँ हैं।
ई–मेल आईडी बनाने के लिए प्रत्यक्ष रूप से नाम, जन्मतिथि और लिंग की जानकारी की जरूरत होती है। वहीं चोर दरवाजे से भौगोलिक स्थिति, नेटवर्क सुविधा देनेवाले का नाम (आईपी एड्रेस, यानी इंटरनेट पर आपका पहचान नम्बर), इस्तेमाल किया जाने वाला उपकरण (यूनीक नम्बर के साथ), समय और तारीख के साथ सुरक्षित किया जाता है और आपके ई–मेल आईडी के साथ जोड़कर ई–मेल सुविधा देनेवाले के सर्वर (बहुत ज्यादा डेटा सुरक्षित रखने की जगह) में हमेशा के लिए सुरक्षित कर दिया जाता है। दुनियाभर की बहुत ही कम कम्पनियाँ इसे कुछ समय बाद अपने सर्वर से हटाती हैं और सिर्फ कुछ कम्पनियाँ ही इसे सुरक्षित नहीं करतीं (वे भी इन सब सूचनाओं को जानती हैं)। ये सूचनाएँ हर बार ई–मेल इस्तेमाल करने पर सुरक्षित की जाती हैं। कुछ समय इस्तेमाल के बाद सुरक्षा और बेहतर सुविधा के लिए ई–मेल सुविधा देने वाली कम्पनी मोबाइल नम्बर जोड़ने की भी माँग करती है। ई–मेल कम्पनी द्वारा सीधे–सीधे लिये गये डेटा और उनके पास सुरक्षित डेटा को एक साथ जोड़कर देखने पर हम पाते हैं कि उनके पास हमारे नाम, उम्र, वे सभी लोग जिनसे हमने सम्पर्क किया, वह हर एक सन्देश जिसको हमने भेजा या पाया, हर एक सुविधा जिसका हमने इस्तेमाल किया (हमारे खाने–पीने, दवा–दारू से लेकर पहनने– ओढ़ने की खरीददारी) से लेकर हमारे सभी बैंक खाते की सभी जानकारी है। ऑनलाइन सुरक्षित सभी फोटो और दस्तावेज भी उसमें शामिल हैं।
दूसरी सबसे जरूरी और सुलभ सुविधा है सर्च इंजिन। सर्च इंजिन हमारे लिखे हुए की वर्ड (जिसके बारे में हम जानना चाहते हैं) को दुनियाभर में ऑनलाइन फैले अरबों फाइलों में से ढूँढता है और हमें दिखाता है। सर्च इंजिन के मौजूदा उदाहरण गूगल, बिंग, याहू, डकडकगो, यांडेक्स, बायडू इत्यादि हैं। इसका इस्तेमाल कुछ भी जानने–समझने या खोजने के लिए किया जाता है। अब यह सर्च इंजिन पर निर्भर करता है कि वह कौन–कौन सी सूचनाओं को दिखाता है। इसके लिए उसकी अपनी चयन प्रक्रिया होती है, जिससे वह सर्च के बाद आये हुए परिणामों को दिखाता है। यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात है कि वह किसी भी डेटा को काट–छाँट सकता है। अगस्त 2017 में आयी रिपोर्ट के अनुसार, फेक न्यूज रोकने के नाम पर गूगल कम्पनी ने लगभग पचास प्रतिशत (आधा) वेबसाइटों को सेंसर किया, जो किसी खास तरह की सूचनाओं को बताती हैं और अपनी अलग तरह की विचारधारा से मतलब रखती हैं। ऐसा करके ये सीधे–सीधे बताती हैं कि सिर्फ इनकी तरह ही सोचिए और जो ये दिखाएँ सिर्फ वही देखिए। यही इनका मूल चरित्र भी है। पैसा लेकर किसी सर्च को पहले दिखाना इन कम्पनियों की कमाई का मुख्य जरिया है।
सर्च इंजिन के पास हर तरह का डेटा होने की वजह से ये जीवन के लगभग हर पहलू में एक ट्रेंड (चलन) निर्धारित करता है। उदाहरण के लिए साल 2019 में किस तरह के कपड़े बाजार में रहेंगे, ये भी निर्धारित करने लगी हैं। यही बात खान–पान से लेकर बाकी आदतों के लिए भी सही है। इस तरह की तमाम व्यक्तिगत सूचनाएँ सर्च इंजिन और ई–मेल कम्पनियाँ ई–मार्केटिंग कम्पनियों को बेच देती हैं। इससे ई–मार्केटिंग कम्पनियाँ लोगोंे के बीच जाकर सर्वे किये बिना यह जान लेती हैं कि लोगों को किस तरह के उपभोक्ता मालों की जरूरत है। ये सभी सूचनाएँ उत्पादक और ई–मार्केटिंग कम्पनियों द्वारा बाजार की माँग के अनुरूप उपभोक्ता मालों के उत्पादन और वितरण में इस्तेमाल की जाती हैं। इससे इन कम्पनियों का मुनाफा बहुत बढ़ जाता है।
इन्टरनेट सुविधा की सूची में अगले नाम आधिकारिक रूप से कम जरूरी हैं, लेकिन सामाजिक रूप से बहुत जरूरी सोशल मीडिया और मैसेन्जर अप्लिकेसंस का है। सोशल मीडिया के मुख्य उदाहरण फेसबुक और ट्विटर हैं और मैसेन्जर अप्लिकेसंस के व्हाट्सएप और फेसबुक मैसेन्जर हैं। इन्टरनेट का इस्तेमाल करने वाले लगभग सभी लोग किसी न किसी रूप में इन सुविधाओं का उपयोग करते हैं। सोशल मीडिया एक तरफ जहाँ लोगों को लोगों से जोड़ने का काम करती है, वहीं अपनी तेज गति और ज्यादा लोगों तक पहुँच होने के चलते ये गलत सूचनाओं को भी लोगों तक पहुँचाती है। इनके इस्तेमाल से एक क्लिक में लाखों–करोड़ों लोगों तक अपनी बात पहुँचायी जाती है। आज सत्तासीन पार्टियाँ और उसके लोग इसका इस्तेमाल अपनी अच्छी छवि और अपने से अलग सोच वाले की गलत छवि बनाने के लिए करते हैं।
आडिओ–विजुअल श्रेणी में यूट्यूब है, जिसमें सर्च के साथ–साथ सोशल मीडिया की भी कुछ सुविधा है–– जैसे, अपनी आईडी और चैनल बनाना। इन सभी सुविधाओं को प्रदान करने वाली कम्पनियाँ भी उपयोग करने वालों के बारे में डाटा जुटाती हैं और उनका विश्लेषण करके अपने मुनाफे के लिए उपयोग करती हैं।
2018 के दिसम्बर में मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स ने 10 केन्द्रीय एजेंसियों को अधिसूचना जारी कर दिया कि वे ऑन लाइन संचार से सम्बन्धित डाटा का अवरोधन, निगरानी और डिक्रिप्ट करें। इस अधिसूचना ने देश की राजनीति और नागरिक समाज में हड़कम्प मचा दिया। सरकार पर जनता की निजता भंग करने के आरोप भी लगे। बचाव में सरकार को कहना पड़ा कि निगरानी से सम्बन्धित उसने कोई नया आदेश नहीं दिया, बल्कि वह 2009 के सूचना तकनीकी–नियमों को ही लागू कर रही है, जिसे कांग्रेस की सरकार के समय में ही पारित किया गया था।
यहाँ सबसे अहम सवाल यह है कि क्या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ही सरकार पूरी जनता की जासूसी करना चाहती है या बात कुछ और है? 2017 में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा था कि निजता का अधिकार एक मूल अधिकार है और उसकी अवहेलना के लिए कुछ उपयुक्त और वैध कारण होने चाहिए, जैसे–– राष्ट्रीय सुरक्षा। तो क्या देश की पूरी जनता से ही राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है, जिसके लिए सरकार पूरी जनता की जासूसी करना चाह रही है। दरअसल, यह बात सही है। जुटायी गयी सूचना के चोरी होने, उससे राजनीतिक पार्टियों द्वारा लाभ उठाने, कम्पनियों द्वारा आर्थिक लाभ कमाने और उसके दुरुपयोग की अन्य सम्भावनाएँ बनी रहती हैं और पिछले दिनों ये सभी सम्भावनाएँ हकीकत में बदल गयीं। लेकिन जनता की निगरानी का असली मकसद इससे कहीं अधिक गम्भीर है। राष्ट्रीय सुरक्षा को जनता से कोई खतरा नहीं है, बल्कि देश के शासकों को जनता से गम्भीर खतरा है। वे जानते हैं कि उन्होंने जनता को लूटकर कंगाल बना दिया है और अपनी तिजोरी भर ली है। इसी का नतीजा है कि देश के एक प्रतिशत उच्च वर्ग के पास देश की सम्पदा का 61 प्रतिशत हिस्सा है। वे गरीबी के नरक के बीच अपने स्वर्ग में बैठकर जो रंगरेलियाँ मना रहे हैं, वह अधिक दिनों तक सुरक्षित नहीं रहने वाला है। मजदूरों, किसानों, आदिवासियों और गरीब दुकानदारों के आन्दोलन–प्रदर्शन कभी भी व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में बदल सकते हैं, जिसके बाद देश की जनता उन्हें उनके स्वर्ग से बेदखल कर देगी। और उस स्वर्ग पर अपना अधिकार कर लेगी। इसीलिए उन्होंने अपने प्रतिनिधियों को इसे काबू में करने के काम में लगा दिया है। देश में आन्दोलन करने वाले किसानों, मजदूरों और आदिवासियों को माओवादी तथा आतंकवादी कहकर दबाया जा रहा है। ऐसी स्थिति में अगर किसी आन्दोलनकारी की जानकारी सरकार के पास होगी, मसलन वह कब, कहाँ, क्या था और किससे मिला था, जिसे वह व्यक्ति कब का भूल चुका होगा, उसके माध्यम से उसके खिलाफ साजिश की एक ऐसी कहानी गढ़ी जा सकती है, जो अपने आप में एक पुख्ता सबूत बन जायेगी और उसे आसानी से अपराधी साबित किया जा सकेगा। बात साफ है, वही व्यवस्था अपनी जनता की जासूसी कराती है, जो जनता का विश्वास खो चुकी हो। जिस संसद में अपराधी भरे पड़े हों, उससे जनता की जासूसी और निगरानी जैसे घिनौने कामों से बेहतर की कितनी उम्मीद की जा सकती है?
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