नूंह–मेवात साम्प्रदायिक दंगा
31 जुलाई को हरियाणा के नूंह में बजरंग दल ने धार्मिक यात्रा का आयोजन किया था जिसमें हजारों की संख्या में बजरंग दल के कार्यकर्ताओं और श्रद्धालुओं ने हिस्सा लिया। बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद ने इस यात्रा में शामिल होने के लिए हरियाणा के सभी जिलों से अपने कार्यकर्ताओं और श्रद्धालुओं को बुलाया था। जैसे ही यात्रा आगे बढ़ी, उस पर मुस्लिम समुदाय की तरफ से पथराव की बात कही गयी और यात्रा ने साम्प्रदायिक दंगे का रूप ले लिया। देखते ही देखते भीड़ बेकाबू हो गयी और आगजनी शुरू हो गयी। दोनों साम्प्रदायों की तरफ से गोलियाँ भी चलायी गयीं जिसमें कुल 6 लोगों की जान चली गयी। नूंह में साम्प्रदायिक दंगे के बाद रात में गुरुग्राम के एक मस्जिद में आग लगा दी गयी जिसमें इमाम की मौत हो गयी।
2016 में मेवात का नाम बदलकर नूंह कर दिया गया था। मेवात केवल एक जिला ही नहीं, बल्कि सामाजिक–सांस्कृतिक रूप से एक अलग इलाका भी है। इसमें राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से शामिल हैं। यहाँ रहने वाले मेव मुसलमानों के चलते इस इलाके को मेवात कहा जाता है। यह इलाका शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ–साथ आर्थिक रूप से देश के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है। यहाँ की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को देखते हुए 2018 में नीति आयोग ने अपने रिपोर्ट में नूंह जिले को देश का सबसे पिछड़ा जिला बताया था। मेवात इलाके में लगभग 80 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है जिनमें अधिकतर किसान और पशुपालक हैं।
सरकार समर्थित हिन्दुत्ववादी गौरक्षक संगठन मेवात के मुसलमानों का गौ–तस्करी के नाम पर कई सालों से उत्पीड़िन करते आ रहे हैं। गौ–तस्करी का आरोप लगाकर मवेशी लाने और ले जाने वालों से लूट–पाट भी की जाती है। बजरंग दल से जुड़े गौरक्षकों ने हरियाणा के जिलों में अपनी–अपनी टीमें बनायी हैं जो किसी भी समय सूचना मिलने पर गो–तस्करों को पकड़ने का काम करते हैं। कुछ मीडिया रिपोर्टों के अनुसार हरियाणा सरकार ने हर जिले में गौरक्षकों की टास्क फोर्स बनायी है जिसमें सरकारी अधिकारियों के साथ ऐसे गौरक्षक भी इसके सदस्य हैं। पिछले कुछ सालों में कई मुसलमानों को भीड़ की सामूहिक हिंसा का शिकार होना पड़ा है जिसमें कई मुसलमानों की जान भी जा चुकी है। इसी इलाके में गौरक्षा के नाम पर पहलू खान, रकबर और वारिस को भीड़ ने पीट–पीट कर मौत के घाट उतार दिया। फरवरी में राजस्थान के भरतपुर के रहने वाले नासिर और जुनैद को कुछ गौ–रक्षकों ने जलाकर मार दिया था। पीड़ित परिवार ने इसके पीछे मोनू मानेसर का हाथ बताया था। इस घटना से कुछ दिन पहले जनवरी महीने में नूंह के ही रहने वाले 21 साल के वारिश को भी गौरक्षकों ने पीट–पीट कर मार डाला था। इस मामले में भी पीड़ित परिवार ने मोनू मानेसर पर हत्या का आरोप लगाया था क्योंकि उस समय भी घटनास्थल पर मोनू मानेसर की मौजूदगी का पता चला था, लेकिन हरियाणा पुलिस उसे गिरफ्तार करने में नाकाम रही या यूँ कहें कि गिरफ्तार करने की कोशिश नहीं की। ऐसे जघन्य अपराधों में शामिल आरोपियों पर कोई कार्यवाई न होने के चलते मेवात के मुसलमान काफी नाराज थे। साथ ही हिन्दुत्ववादी संगठनों और सरकार में शामिल नेताओं के भड़काऊ और नफरती भाषणों ने लोगों के दिलों में जहर घोलने का काम किया है। मोनू मानेसर ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो के माध्यम से नूंह में आयोजित रैली में अपने समर्थकों के साथ पहुँचने की बात कही थी। स्थानीय लोगों ने बताया कि यात्रा में शामिल लोगों ने मोनू मानेसर जिन्दाबाद के नारे लगाये जिसके बाद दंगा भड़क उठा। कई लोगों ने यह भी बताया कि मोनू मानेसर के इस यात्रा में शामिल होने के चलते ही पथराव हुआ।
इससे पहले मेवात में कभी भी इस तरह के दंगे नहीं हुए थे। यहाँ हिन्दू–मुस्लिम एकता पूरे देश के लिए मिशाल थी। इस साम्प्रदायिक दंगे ने दोनों सम्प्रदायों के बीच के भाईचारे को मटियामेट कर दिया है और लोगों के दिलों में एक दूसरे के प्रति नफरत के बीज रोप दिये हैं। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने इस साम्प्रदायिक दंगे को सोची–समझी साजिश बताया, जबकि दंगे से पहले ही नूंह के लोगों में काफी गुस्सा था। मोनू मानेसर और बिट्टू बजरंगी के सोशल मीडिया वीडियो ने आग में घी डालने का काम किया।
जी–20 सम्मेलन से लगभग एक महीने पहले दिल्ली के आसपास के इलाके में इस तरह के दंगे ने अन्तरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान भी अपनी ओर आकर्षित किया है। अमरीकी अखबार न्यू यॉर्क टाइम्स ने दंगे के अगले दिन ही “हिन्दू राष्ट्रवादी नेताओं द्वारा शासित भारत में तेजी से बढ़ती साम्प्रदायिक हिंसा” शीर्षक से लेख छाप दिया। इसके अलावा तमाम अन्य अन्तरराष्ट्रीय मीडिया संस्थाओं ने भारत में बढ़ती साम्प्रदायिक हिंसा और वोट के लिए ध्रुवीकरण पर मोदी सरकार पर निशाना साधा।
2014 में मोदी के सत्ता में आने के साथ ही साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज हुआ है। देश के अलग–अलग हिस्सों में अल्पसंख्यक समुदायों पर हमले बढ़े हैं। दूसरी तरफ आम जनता भी भाजपा सरकारों की साम्प्रदायिक नीति को समझने लगी है। कर्णाटक में भाजपा की करारी हार इस बात का ताजा उदाहरण है। नूंह में भी स्थानीय लोगों ने पंचायतें करके मोनू मानेसर और बिट्टू बजरंगी की निन्दा की और दंगे को फैलने से रोकने में अहम भूमिका निभायी। भाजपा के गली–मोहल्ले के छुट–भैया नेताओं से लेकर विधायक–सांसद भी अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति लगातार जहर उगल रहे हैं। देश के अलग–अलग हिस्सों में चल रहे धर्म–संसदों में अल्पसंख्यक समुदाय को खुला चैलेंज दिया जा रहा है। साधु–सन्त और बाबा भी अपने प्रवचनों के माध्यम से बहुसंख्यक समाज के लोगों के दिलों में जहर भरने से बाज नहीं आ रहे हैं।
कानून व्यवस्था को ताक पर रखकर बुलडोजर नीति से न्याय की प्रक्रिया ने हालात को और बदतर बना दिया है। दंगे के आरोपियों का पहचान किये बगैर और उन पर उचित कार्रवाई किये बगैर सैकड़ो दुकानों और घरों को बुलडोजर से जमीन्दोज कर देना कानून व्यवस्था को जमीन्दोज कर देना है। जमीन्दोज किये गये अधिकतर दुकानें और घर अल्पसंख्यक समुदाय के हैं। इन कारगुजारियों से लोगों के बीच रोष बढता ही जा रहा है। आज देश के कई हिस्सों में अशान्ति का माहौल है। कश्मीर, कर्णाटक मणिपुर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा हर जगह असन्तोष और नफरत का माहौल है।
क्या मौजूदा सरकार के पास हिन्दू–मुस्लिम के अलावा कोई और मुद्दा या एजेण्डा है? भूख, गरीबी–बदहाली, महँगाई, बेरोजगारी से आम आदमी त्रस्त है, क्या किसी भी राज्य या केन्द्र सरकार के पास इसका कोई समाधान है? देश के अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करके और बहुसंख्यकों को बरगलाकर व्यवस्था कब तक चलायी जा सकती है? क्या इनसानियत की भावना पैदा किये बगैर अलग–अलग जाती, धर्म, साम्प्रदाय, क्षेत्र, नस्ल के लोग साथ–साथ रह सकते हैं?
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