हथियारों की बढ़ती होड़ विश्व शान्ति के लिए खतरा
स्टॉकहोम इण्टरनेशनल पीस रिसर्च इन्स्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया का कुल सैन्य खर्च 2017 के मुकाबले 2.6 फीसदी बढ़कर 2018 में 1822 अरब डॉलर हो गया था जो दुनिया के कुल जीडीपी का 2.1 फीसदी है। हर साल सैन्य खर्च के साथ–साथ हथियारों का कारोबार भी तेजी से फल–फूल रहा है। स्टॉकहोम इण्टरनेशनल पीस रिसर्च इन्स्टीट्यूट ने बीबीसी को बताया कि हर साल हथियारों का 100 अरब डॉलर का अन्तरराष्ट्रीय कारोबार होता है। सैन्य खर्च के मामले में अमरीका, चीन, सउदी अरब, भारत और फ्रांस पाँच सबसे बडे़ देश हैं। कुल सैन्य खर्च में इन पाँच देशों की हिस्सेदारी 60 फीसदी है। अमरीका के नेतृत्व वाला नाटो जो कई देशों का सैन्य संगठन है, कुल सैन्य खर्च में उसका हिस्सा 53 फीसदी है। अमरीका अकेले ही दुनिया के कुल सैन्य खर्च का 36 फीसदी खर्च करता है। हथियारों के उत्पादन और निर्यात के मामले में भी अमरीका सबसे आगे है। दुनिया की तीन सबसे बड़ी हथियार बनाने वाली कम्पनियाँ अमरीका की हैं और दुनिया की 10 सबसे बड़ी हथियार बनाने वाली कम्पनियों में 6 अमरीकी हैं। अमरीका अकेले ही 36 फीसदी हथियारों के निर्यात पर काबिज है जबकि अमरीका के साथ रूस, फ्रांस, जर्मनी और चीन मिलकर 75 फीसदी हथियारों का निर्यात करते हैं।
दुनिया के सभी देश हर साल अपना सैन्य खर्च बढ़ा रहे हैं जिससे हथियारों के व्यापार में भारी उछाल आ रहा है। सउदी अरब के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा हथियारों का खरीदार है। एक रिपोर्ट के अनुसार 2008 से 2012 और 2013 से 2017 के बीच भारत द्वारा हथियारों के आयात दर में 24 फीसदी की वृद्धि हुई थी। भारत 2013 से 2017 के बीच हथियारों का सबसे बड़ा आयात करने वाला देश था। इसका आयात विश्व के कुल हथियार आयात का 12 फीसदी था। पिछले दस सालों में मध्यपूर्व में हथियारों का आयात बढ़कर दो गुना हो गया है। खासकर सीरिया और यमन में चल रहे गृह–युद्ध ने हथियारों के आयात को बढ़ावा दिया है। 20 मई 2017 को अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और सउदी अरब के शाह सलमान बिन अब्दुलाजीज के बीच आशय पत्रों की एक Üाृंखला पर हस्ताक्षर किया गया। इसके तहत सउदी अरब तुरन्त अमरीका से 110 अरब डॉलर के हथियार खरीदेगा और अगले 10 सालों में वह 350 अरब डॉलर के और हथियार खरीदेगा। यमन के खिलाफ युद्ध में सउदी अरब ने अमरीका द्वारा दिये गये उन्नत हथियारों का इस्तेमाल किया। दुनिया के साम्राज्यवादी देशों के लिए ऐसे मौके हथियारों के कारोबार के लिए बहुत मुफीद साबित हुए।
पारम्परिक हथियारों के अन्तरराष्ट्रीय कारोबार को नियन्त्रित करने के लिए 2014 में आर्म्स–ट्रेड ट्रीटी (एटीटी) बनायी गयी थी। इसका काम हथियारों के निर्यात पर नजर रखना, विश्व शान्ति स्थापित करना और यह सुनिश्चित करना है कि इससे हथियारों को लेकर बने नियम और पाबन्दियाँ न टूटें। लेकिन इसका भी कुछ खास प्रभाव नहीें है। दुनिया के हथियार उत्पादक देश न केवल गरीब और पिछड़े देशों को हथियार बेचते हैं बल्कि कई आतंकवादी संगठनों को भी हथियार मुहैया कराते हैं।
हथियारों का कारोबार भ्रष्टाचार का एक बहुत बड़ा स्रोत भी है। राष्ट्रीय सुरक्षा का तर्क हथियारों के सौदे में गोपनीयता का हवाला देता है जिससे भ्रष्टाचार का खुलासा नहीं हो पाता। ट्रांसपैरेन्सी इण्टरनेशनल के जॉय रोएबर ने बताया था कि हथियारों के व्यापार में भ्रष्टाचार का पैमाना इतना बड़ा है कि रिश्वत का छोटा प्रतिशत भी रुपये की भारी मात्रा के बराबर होता है। उन्हांेने हथियारों के कारोबार को ‘‘भ्रष्टाचार के लिए कड़ी मेहनत’’ कहा था। हथियार उद्योग विश्व का भ्रष्टतम उद्योग है। भारत में रफाएल विमान सौदे का विवाद इसका एक अहम उदाहरण है।
दुनिया में सबसे अधिक हथियारों के उत्पादन और निर्यात करने वाले देश अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को 2009 में विश्व शान्ति का नोबल पुरस्कार दिया गया। इससे यह पता चलता है कि जो देश जितना अधिक हथियारों का उत्पादन और व्यापार कर रहें हैं वही सबसे अधिक विश्व शान्ति का राग अलाप रहे हैं। हथियारों के अंधाधुन्ध उत्पादन और व्यापार के पीछे तर्क भी विश्व शान्ति ही है। देश की सुरक्षा बढ़ाने, पड़ोसी देश द्वारा युद्ध का भय दिखाकर और आतंकवाद से मुकाबला करने का ढोंग रचकर दुनिया के साम्राज्यवादी देश पिछड़े और विकासशील देशों को धड़ल्ले से हथियार बेच रहे हैं। ईरान और इराक, इजराइल और फिलिस्तीन, भारत और पाकिस्तान, सउदी अरब और यमन, उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के बीच चल रहे तनाव का फायदा उठाकर अमरीका जैसे साम्राज्यवादी देश हथियारों का भरपूर उत्पादन और निर्यात कर रहे हैं। आज विकासशील देशों के जीडीपी का बहुत बड़ा हिस्सा हथियारों की खरीद के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। जबकि इन देशों की जनता के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य तथा सामाजिक जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर पाना भी सम्भव नहीं है। पिछले कुछ सालों के दौरान अगर सुरक्षा और युद्ध के सामान पर दुनिया के सभी देशों का खर्च बढ़ा है, वहीे स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च घटाया जा रहा है। आज युद्ध सामग्री पर पूरी दुनिया में जितना खर्च किया जा रहा है, उसके कुछ हिस्से के इस्तेमाल से ही पूरी दुनिया में शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और खाद्य संकट जैसी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य और कृषि संगठन ने 2008 में बतया था कि दुनिया से भुखमरी खत्म करने के लिए हर साल 30 अरब डॉलर की आवश्यकता है। हथियारों पर हर साल हजारों अरब डॉलर खर्च किया जा रहा है लेकिन आज तक दुनिया से भुखमरी को खत्म नहीं किया जा सका। पिछले साल संयुक्त राष्ट्र संघ ने निरक्षरता को खत्म करने के लिए 10 अरब डॉलर जुटाने का अभियान शुरु किया था। लेकिन इस राशि को जुटा पाना भी असम्भव हो गया।
अब सवाल यह है कि दुनिया के साम्राज्यवादी देश क्यों हथियारों का अन्धाधुन्ध उत्पादन और निर्यात कर रहे हैं? जबकि दुनिया की बहुत बड़ी मेहनतकश आबादी को शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन और आवास जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं मिल पा रही हैं। इसका मुख्य कारण हथियारों के उद्योग से अथाह मुनाफा कमाना है। आर्थिक मन्दी के मौजूदा दौर में हथियारों का व्यापार सड़ चुकी पँूजीवादी व्यवस्था को कायम रखने के लिए एक संजीवनी की तरह काम कर रहा है।
पूरी दुनिया में हथियारों का कारोबार जैसे–जैसे फल–फूल रहा है वैसे–वैसे अमरीका जैसे साम्राज्यवादी देश हथियारों के नियंत्रण को लेकर किये गये अन्तरराष्ट्रीय करारों से हाथ पीछे खींच रहे हैं। जिस तरह 2002 में अमरीका ने जार्ज डब्ल्यू बुश के नेतृत्व में छ: महीने की नोटिस देकर अमरीका और सोवियत संघ के बीच की एन्टी बैलेस्टिक मिसाइल (एबीएम–1972) संधि तोड़ दी थी। उसी तरह अमरीका ने 1987 में रूस के साथ किये गये इण्टरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फोर्स (आईएनएफ) संधि से हाथ पीछे खींचने का फैसला किया है और रूस पर यह आरोप लगाते हुए छ: महिने का नोटिस दिया है कि रूस द्वारा क्रूज मिसाइल बनाने से इस संधि का उल्लंघन हुआ है। वहीं चीन अपनी सेना के आधुनिकीकरण में लगा हुआ है और थल सेना आधारित ताकत से नौसेना आधारित ताकत बनने के लिए सेना में भारी निवेश कर रहा है।
आज दुनिया का हर छोटा बड़ा देश किसी न किसी आधुनिक हथियार का मॉडल तैयार करके या आधुनिक हथियार खरीदकर अपनी महाशक्ति होने का अंधराष्ट्रवादी गुणगान कर रहा है। जिन देशों की सरकारें रोना रोती हैं कि उनके पास अपनी जनता का पेट भरने के लिए पैसा नहीं है, वे भी हथियारों पर अन्धाधुन्ध खर्च कर रही हैं। साम्राज्यवादी देश पिछड़े देशों को पुराने हथियार बेचकर वहाँ की जनता की खून–पसीने की कमाई से अपनी तिजोरियाँ भर रहे हैं। हथियारों की माँग को बरकरार रखने के लिए आतंकवाद का भय दिखा रहे हैं या पिछड़े देशों के बीच तनाव उत्पन्न करके उनको आपस में लड़ा रहे हैं। एक तरफ पिछड़े देशांे की जनता युद्ध, भुखमरी और तबाही से जूझ रही है और दूसरी तरफ साम्राज्यवादी देश पिछड़े देशों को लूटकर सम्पत्ति का अम्बार लगा रहे हैं। एक देश द्वारा दूसरे देश की लूटपाट, हिंसा और युद्ध के बावजूद स्वयंभू बुद्धिजीवी खोखला दावा करते हैं कि साम्राज्यवाद का हिंसक दौर बीत चुका है। अब विश्व शान्ति बहाल होने वाली है। ऐसे लोग खुली आँखों से सपना देखते हैं और दुनिया की वास्तविकता से मुँह चुराते हैंं। उन्हें सउदी अरब और यमन के क्रूर शासकों के द्वारा यमन की जनता का कत्लेआम नहीं दिखता। वे सीरिया में अमरीका और रूस की बमबारी से अनजान बने रहते हैं। वे सबकुछ भूलकर विश्व शान्ति को खतरे में डालने वाले देशों की और शान्ति की उम्मीद लगाये रहते हैं। ऐसे लोगों की बातों पर यकीन करने का खतरा अब दुनिया नहीं ले सकती।
अब साफ तौर पर यह जाहिर हो गया है कि इस विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के पास दुनिया को भुखमरी और तबाही के सिवाय देने के लिए और कुछ नहींे है। एक ओर बाजार और मुनाफे के लिए दुनिया के बँटवारे को लेकर साम्राज्यवादी देशों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है, वहीं हथियारों की होड़ ने दुनिया को एक बार फिर विनाश के द्वार पर ला खड़ा किया है। मुनाफे और शोषण पर आधारित इस व्यवस्था को खत्म करके ही हथियारों के व्यापार और युद्धों का खात्मा किया जा सकता है, तभी दुनिया चैन की साँस ले सकेगी और विश्व शान्ति की स्थापना की जा सकेगी।
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