फरवरी 2020, अंक 34 में प्रकाशित

मध्य–पूर्व एशिया : पतन की ओर अमरीका 

3 जनवरी 2020 को अमरीका ने ईरान के मेजर जनरल कासिम सुलेमानी को बगदाद के अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर ड्रोन हमले में मार दिया था। जवाबी कार्रवाई में ईरान ने इराक स्थित दो अमरीकी सैन्य ठिकानों को निशाना बनाते हुए एक दर्जन से अधिक मिसाइलें दागी और यह बताया कि इस हमले में 80 अमरीकी आतंकवादी मारे गये, हालाँकि अमरीका ने किसी भी प्रकार की क्षति से इनकार किया है। अन्तरराष्ट्रीय मंच पर किसी देश ने पहली बार अमरीकी सैनिकों को खुले तौर पर अमरीकी आतंकवादी कहा है। मध्य–पूर्व के देशों में अमरीका का पुरजोर विरोध करने के मामले में ईरान कोई कसर नहीं छोड़़ रहा है। तमाम आर्थिक प्रतिबन्ध लगाये जाने के बावजूद भी ईरान ने घुटने नहीं टेके हैं। सुलेमानी की हत्या की जवाबी कार्रवाई के बाद ट्रम्प ने ईरान के 52 सांस्कृतिक स्थलों पर हमला करने की धमकी दी थी जिसकी खुद अमरीका सहित पूरी दुनिया में भर्त्सना की गयी। पेण्टागोन ने एक बयान में कहा कि ऐसा करना युद्ध के स्थापित नियमों के खिलाफ है। इसके बाद ट्रम्प ने अपना बयान वापस ले लिया। इसके खिलाफ ईरान का बयान सन्तुलित था, उसने केवल अमरीकी सैन्य अड्डों पर हमला करने की धमकी दी। हालाँकि दोनों ही देश युद्ध में नहीं फँसना चाहेंगे। अमरीका द्वारा लगाये गये आर्थिक प्रतिबन्धों के कारण ईरान की मुद्रा का रिकॉर्ड स्तर पर अवमूल्यन हुआ है और इससे उसकी अर्थव्यवस्था को बड़ा नुकसान हुआ है। दूसरी ओर अमरीका अफगानिस्तान, इराक और लीबिया में आज भी उलझा हुआ है और उसे पूरी तरह मुक्ति नहीं मिल पायी है। फिर भी संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एण्टोनियो गुटेरेस ने यह चिन्ता जाहिर की है कि मध्य–पूर्व में मौजूदा तनाव सदी के उच्चतम स्तर पर है।
ईरान की इस्लामी क्रान्ति के जरिये अमरीकी पिट्ठू शाह रजा पहलवी को सत्ता से हटाये जाने के बाद से ईरान और अमरीका एक दूसरे के दुश्मन बन गये। तब से इन दोनों देशों के सम्बन्ध कभी पूरी तरह सुधर नहीं पाये। 8 मई 2018 को अमरीका ने ईरान के साथ हुए नाभिकीय समझौते से हाथ पीछे खींच लिया जिसके बाद दोनों देशों के बीच के तनाव ने और जोर पकड़ लिया था। अमरीका ने आर्थिक प्रतिबन्ध लगाकर ईरान के परमाणु और बैलेस्टिक मिसाइल कार्यक्रम को रोकने की कोशिश की लेकिन ईरान नहीं रुका। ईरान के परमाणु और बैलेस्टिक मिसाइल कार्यक्रम से अमरीका के साथ–साथ मध्य–पूर्व के उसके सहयोगियों सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत और इजरायल की भी परेशानियाँ बढ़ गयी हैं। अमरीका ईरान की पहुँच से दूर है, लेकिन तनाव बढ़ने से अमरीका के सहयोगी देशों पर खतरा बढ़ सकता है। 14 सितम्बर 2019 को हाउती विद्रोहियों ने सऊदी अरब के तेल क्षेत्रों पर हमला किया था। यह अमरीका के लिए शर्मनाक था कि वह इस मामले में कुछ न कर सका, बौखलाहट में इसका आरोप ईरान पर लगा दिया और इसके बाद उसने ईरान पर आर्थिक प्रतिबन्धों को और बढ़ा दिया। अमरीका की लाचारी का एक और कारण हॉरमुज जल–संधि है। हॉरमुज जल–संधि ईरान और ओमान के बीच स्थित है। यह एक पतला रास्ता है जो तेल बाहुल्य क्षेत्र को अरब सागर से जोड़़ता है। यहीं से तेल के टैंकर गुजरते हैं। तेल के व्यापार की दृष्टि से यह जल–संधि बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इराक, कतर और ईरान से तेल का निर्यात यहीं से होता है। यदि अमरीका और ईरान युद्ध में उलझते हैं तो यहाँ से तेल टैंकरों का गुजरना बन्द हो जायेगा जिससे पूरे विश्व में तेल की आपूर्ति में भारी कमी आयेगी और पूरी विश्व अर्थव्यवस्था डगमगा जायेगी। खुद अमरीका की अर्थव्यवस्था भी इससे अछूती नहीं रह पाएगी। इसलिए अमरीका चाहकर भी ईरान पर हमला नहीं कर सकता है। तेल की आपूर्ति पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए शरीर में खून की तरह काम करती है। तेल आपूर्ति के बन्द होने का मतलब पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का मरणासन्न हो जाना है।
अमरीका का मध्य–पूर्व में हमले का मकसद यहाँ के तेल भण्डारों पर कब्जा करना ही है। इसके लिए वह मध्य–पूर्व के देशों पर नाभिकीय हथियार रखने का आरोप लगाकर और आतंकवाद से लड़ने का बहाना बनाकर अपनी सेनाएँ उतारता रहा है। इस तरह उसने पूरे मध्य–पूर्व में अपने सैन्य अड्डों का जाल बिछा रखा है। इराक पर भी इसने अलकायदा से सम्बन्ध रखने और रासायनिक हथियार रखने का आरोप लगाकर हमला किया था। लेकिन बाद में उसके लगाये गये आरोप गलत साबित हुए और पूरी दुनिया में उसकी फजीहत हुई। सद्दाम हुसैन की हत्या कर इराक के शासन पर कब्जा कर लेने के बावजूद भी अमरीका को इराकी जनता का भारी प्रतिरोध झेलना पड़ा। इराकी जनता ने अमरीका को वियतनाम की याद दिला दी। वियतनाम में हार अमरीका के इतिहास की ऐसी घटना है जिसको वह याद नहीं करना चाहता। एक छोटे से देश से मिली शर्मनाक हार अमरीका के लिए एक मानसिक व्याधि बन गयी है। वह एक अलग उपनिवेशवादी दौर था जब चन्द साम्राज्यवादी देशों ने दुनिया के बहुत बड़े हिस्से को गुलाम बना रखा था। लेकिन आज के आर्थिक नवउपनिवेशवादी दौर में जनता की चेतना इतनी उन्नत हो गयी है कि वह साम्राज्यवादी देशों द्वारा सेना के बल पर प्रत्यक्ष गुलाम बनाये जाने को स्वीकार नहीं कर सकती। फिर भी दुनिया के पिछड़े देशों पर साम्राज्यवादी देशों का आर्थिक वर्चस्व कायम है और पिछड़े देशों के पूँजीवादी शासक साम्राज्यवादी देशों के साथ गठजोड़ करके अपने देश की जनता का निर्मम शोषण कर रहे हैं।
कासिम सुलेमानी के साथ इराक के सैनिक कमाण्डर भी मारे गये। इससे इराक में अमरीका के प्रति गुस्सा और बढ़़ गया है। इराक की संसद ने अमरीकी सैनिकों को अपने देश से निकालने का प्रस्ताव पारित कर दिया है। इराक के पूर्व प्रधानमंत्री, जिन्हें नवम्बर में सरकार विरोधी प्रदर्शनों के कारण अपने पद से हटना पड़ा था, उनका कहना है कि अमरीका के पास इराक से अपने सैनिक वापस बुलाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। इराक की जनता भी अमरीकी हस्तक्षेप को और अधिक सहन नहीं करना चाहती है। अमरीकी ब्रिगेडियर जनरल विलियम सीवी ने अपनी इराकी समकक्ष को एक पत्र के माध्यम से बताया था कि अमरीकी सेना इराक छोड़़ने की तैयारी कर रही है। लेकिन अमरीका के चेयरमैन ऑफ स्टाफ मार्क मिले ने बचाव करते हुए स्पष्ट किया कि यह महज एक ड्राफ्ट था और इसे भेजा नहीं गया, बल्कि गलती से चला गया था। यहाँ हम देख सकते हैं कि अमरीकी प्रशासन एक दुविधा का शिकार है कि सैनिक वापस बुलाया जायें या नहीं। इराक में अमरीका को आर्थिक नुकसान अधिक और फायदा कम हो रहा है, लेकिन सवाल अपनी चैधराहट बचाने का है। इसलिए अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने इराक से अपने सैनिकों को हटाना इराक के लिए ही सबसे बुरा बताया है। यह हास्यास्पद है। इराक में अभी भी अमरीका के 5 हजार सैनिक तैनात हैं और युद्ध के दौरान यहाँ 4 हजार से अधिक अमरीकी सैनिक मारे जा चुके हैं। नाटो के अन्य देश, जैसे–– कनाडा, जर्मनी और रोमानिया ने इराक से अस्थायी तौर पर अपने सैनिकों को हटाने का फैसला किया है। इराक के साथ–साथ सीरिया और अफगानिस्तान से भी अमरीकी सैनिकों को हटाने की माँग पूरे जोर पर है।
सीरिया में भी असद–सरकार के खिलाफ इस्लामिक स्टेट की लड़ाई का अन्त हो चुका है। इस मामले में इस्लामिक स्टेट को अमरीका द्वारा दी गयी मदद भी काम नहीं आयी। यहाँ कुर्द लड़ाके भी असद सरकार के साथ अस्थायी समझौता करके इस्लामिक स्टेट के खिलाफ जंग में शामिल हो गये। ईरान समर्थित शिया नागरिक सेना और रूस की इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों के ऊपर बमबारी ने असद सरकार को जीत दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। अमरीका ने अचानक सीरिया से अपनी सेना हटाने का फैसला लेते हुए कहा कि वह सीरिया में इस्लामिक स्टेट को हरा चुका है। अमरीका के इस फैसले से उसके सहयोगी नाटो के देश भी स्तब्ध रह गये। यूएस इंस्टीट्यूट ऑफ पीस की विश्लेषक मोना याकोबियान ने ट्रम्प के दावे पर सन्देह जताते हुए कहा था कि इस्लामिक स्टेट के खिलाफ सैन्य अभियान अभी खत्म नहीं हुआ है। इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ाई अभी अन्त से बहुत दूर है। अमरीकी सरकार का ही अनुमान है कि सीरिया में अभी भी इस्लामिक स्टेट के 30 हजार लड़ाके हैं।
वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर पर हमले के बाद अमरीका 2001 में अलकायदा और तालिबान से लड़ने अफगानिस्तान पहुँचा था। लेकिन आज अमरीका को तालिबान के साथ शान्ति वार्ता करने के लिए विवश होना पड़ रहा है। यह भी अमरीका की क्षीण होती शक्ति का एक उदाहरण है। सितम्बर 2019 में अफगानिस्तान में एक अमरीकी सैनिक के मारे जाने के कारण यह शान्ति वार्ता स्थगित कर दी गयी थी जिसे फिर से शुरू कर दिया गया है। अफगानिस्तान में भी अमरीका और नाटो के 4 हजार से अधिक सैनिक मारे जा चुके हैं जिसमें 2 हजार से अधिक अमरीकी हैं। आज भी अफगानिस्तान में अमरीका के 14 हजार सैनिक तैनात हैं। अफगानिस्तान में अमरीका की कठपुतली सरकार भी सुरक्षित नहीं है। उसका राज–काज राजधानी तक सिमट गया है। बाकी हिस्से में तालिबान का शासन चलता है। तालिबान आज अपनी सबसे मजबूत स्थिति में है। तालिबान की माँग है कि जब तक अफगानिस्तान से एक–एक अमरीकी सैनिक वापस नहीं चला जाता, वह किसी भी शान्ति समझौते को मानने के लिए तैयार नहीं है। इसलिए अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प वहाँ से अपने सैनिकों को वापस बुलाने पर सहमत हो गये हैं और अपनी इज्जत बचाने के लिए अमरीका को दोबारा महान बनाओ का नारा दे रहे हैं। इन घटनाओं से स्पष्ट है कि मौजूदा परिस्थिति में किसी देश पर हमला करके उस देश को गुलाम नहीं बनाया जा सकता है। मध्य–पूर्व के देशों की जनता के लगातार और पुरजोर विरोध के कारण अमरीका वहाँ अपने पैर जमाने में पूरी तरह सफल नहीं हो पाया है।
लीबिया में भी 2011 में गद्दाफी के मारे जाने के बाद से ही गृह युद्ध चल रहा है। मुअम्मर अल–गद्दाफी लीबियाई क्रान्ति के नेता और नीति निर्माता थे। साम्राज्यवादी सैन्य संगठन नाटो की चाकरी करने वाले उनके ही देश के गद्दारों ने उनकी राजनीतिक हत्या कर दी थी। उन्होंने अपनी वसीयत में अपने समर्थकों से यह आह्वान किया था कि वे विदेशी हमलावरों के खिलाफ हमेशा प्रतिरोध संघर्ष चलाते रहें। मध्य–पूर्व के अन्य देशों की तरह लीबिया में भी लोग बेरोजगारी, महँगाई और साम्राज्यवाद परस्त आर्थिक नीतियों के खिलाफ सड़क पर आ गये थे जिसका गद्दाफी ने दमन कर दिया था। इसे साम्राज्यवादी देशों की मीडिया ने तानाशाही बताया और अमरीका को लोकतंत्र की स्थापना के नाम पर लीबिया के तेल भण्डारों पर कब्जा करने का मौका मिल गया। अप्रैल 2019 में एक बार फिर लीबियन नेशनल आर्मी के जनरल खलीफा हफ्तार ने लीबिया की राजधानी त्रिपोली पर हमला कर दिया था। लीबियन नेशनल आर्मी द्वारा राजधानी का घेराव अभी भी जारी है। स्थिति गम्भीर बनी हुई है। इस हमले के बाद से अमरीका को लीबिया से भी अपनी सैन्य टुकड़ियों को हटाना पड़ा था। लीबिया में अमरीका समर्थित सरकार है। लीबिया उत्तरी अफ्रीका का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है। इसलिए तमाम साम्राज्यवादी देशों की निगाहें इस पर गड़ी हुई हैं और दिन–प्रतिदिन उनका हस्तक्षेप बढ़ रहा है। इन हस्तक्षेपों को ध्यान में रखते हुए लीबिया में संयुक्त राष्ट्र के सहायता मिशन के प्रमुख घासेन सलाम ने लीबिया में हस्तक्षेप न करने की अपील की है। उन्होंने यह भी कहा कि लीबिया केवल तेल, गैस या भू राजनीतिक कहानी नहीं है बल्कि वह एक मानवीय कहानी भी है।
साथ ही नाटो में गहराते अन्तर्विरोध के चलते भी अमरीका के लिए कई चुनौतियाँ खड़ी हो गयी हैं। नाटो के बीच का मतभेद तब और सतह पर आ गया, जब तुर्की ने अक्टूबर में सीरिया के कुर्दिश क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया और अमरीका को वहाँ से अपने सैनिक हटाने के लिए विवश होना पड़ा। तुर्की ने सीरिया की सीमा पर कुछ नगरों पर कब्जा कर लिया और तुर्की से कुर्दिश क्षेत्रों के बीच एक बफर क्षेत्र बनाने के लिए रूस से सौदा किया, जिसे रूसी और तुर्की सैनिकों द्वारा संचालित किया जायेगा। नाटो की दूसरी सबसे बड़ी सैन्य ताकत तुर्की ने रूस से एस–400 मिसाइल रक्षा प्रणाली खरीदकर अमरीका को दूसरा बड़ा झटका दिया। इससे अमरीका भड़क गया और उसने तुर्की को अपने एफ–35 लड़ाकू विमान सौदे से हटाने और सौदे पर प्रतिबन्ध लगाने की धमकी दी। लेकिन तुर्की ने अपना कदम वापस नहीं लिया और अमरीका को जवाब देते हुए कहा कि अगर अमरीका ऐसा करता है तो वह रूस से एसयू–57 जेट खरीद लेगा और प्रतिबन्ध की धमकी के जवाब में अपने देश में दो अमरीकी सैन्य ठिकानों को बन्द कर देगा। इस तरह तुर्की का अमरीका के खिलाफ जाना उसे मध्य–पूर्व में और कमजोर करता नजर आ रहा है।
मध्य–पूर्व पिछले दो दशकों से अन्तरराष्ट्रीय राजनीति का अखाड़ा बन गया है। इस क्षेत्र में रूस का बढ़ता हस्तक्षेप भी अमरीका के लिए खासा सिरदर्द बन गया है। सीरिया के बशर अल–असद सरकार को रूस का समर्थन प्राप्त है और रूस की तालिबान के साथ नजदीकियों की चर्चा भी होती रही है जो अमरीका के लिए परेशानी का सबब है। वहीं ईरान को रूस का पूरा समर्थन मिला हुआ है। रूस 1990 से पहले अमरीका का मुख्य शत्रु और साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दी था। दोनों देशों के बीच काफी लम्बा शीत युद्ध चला था। लेकिन 1990 के आसपास सोवियत रूस के विघटन के बाद उसकी ताकत कमजोर पड़ गयी थी। पुतिन के नेतृत्व में रूस एक बार फिर साम्राज्यवादी ताकत बनकर उभर रहा है और उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ बढ़ती जा रही हैं। उसका फिर से एक सैन्य शक्ति के रूप में उभरना अमरीका के वर्चस्व वाली एक धु्रवीय विश्व व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती है। दूसरी ओर चीन भी एक नयी आर्थिक शक्ति के रूप में बहुत तेजी से उभर रहा है और आनेवाले वर्षों में दुनिया के शक्ति सन्तुलन में अहम भूमिका निभा सकता है। हालाँकि अभी चीन अमरीका के साथ किसी भी सम्भावित टकराव को टाल रहा है।
मध्य–पूर्व में पिछले दो दशकों के संघर्ष के बावजूद अमरीका किसी निर्णायक जीत पर नहीं पहुँच पाया है। सीरिया, इराक, अफगानिस्तान और मध्य–पूर्व के अन्य देशों में अपने हजारों सैनिकों की जान गँवाने और अकूत पैसा खर्च करने के बावजूद उसकी चाहत पूरी नहीं हो पायी है। ब्राउन यूनिवर्सिटी के वाटसन इंस्टीट्यूट ने 13 नवम्बर 2019 की अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि अमरीका ने पेण्टागन हमले के बाद इराक, सीरिया, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में युद्ध पर लगभग 454 लाख करोड़़ रुपये खर्च किये हैं। युद्ध में सीधे तौर पर 8 लाख लोग मारे गये हैं जिनमें 3 लाख 35 हजार आम नागरिक हैं और लगभग 21 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा है।
मध्य–पूर्व में आज भी अशान्ति की स्थिति बनी हुई है। पेट्रो–डॉलर का पूरी तरह प्रभुत्व स्थापित नहीं हो पाया है। हालाँकि अमरीका ने मध्य–पूर्व के देशों पर बम बरसाकर, आर्थिक प्रतिबन्ध लगाकर तथा अपने सैनिकों और विध्वंसक हथियारों की तैनाती करके पूरे इलाके को अपने कब्जे में लेने की पूरी कोशिश की ताकि पेट्रोलियम के इस विशाल क्षेत्र से बड़ी मात्रा में तेल की निकासी की जा सके। लेकिन युद्ध और कब्जे की रणनीति के दो दशक गुजर जाने के बाद भी अमरीका को इसमें कामयाबी नहीं मिल पा रही है और वह मध्य–पूर्व में लगातार पीछे हटने को मजबूर है।
 

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