मार्च 2019, अंक 31 में प्रकाशित

हथियारों की नयी होड़ : दुनिया एक बार फिर तबाही की ओर

हाल ही में अमरीका ने इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फोर्स (आईएनएफ) सन्धि से हाथ पीछे खींचने का फैसला किया है और रूस पर यह आरोप लगाया है कि रूस के क्रूज मिसाइल बनाने से इस सन्धि की शर्तों का उल्लंघन हुआ है। लेकिन रूस ने इस आरोप को साफ तौर पर नकार दिया है। अमरीका ने रूस को 6 महीने का चेतावनी देते हुए कहा है कि अगर रूस अपने क्रूज मिसाइलों को नष्ट नहीं करता है तो अमरीका इस सन्धि से बाहर हो जायेगा। अमरीका की इस कार्रवाई से परमाणु हथियारों की नयी होड़ शुरू हो जायेगी। जबकि गैर–परमाणु हथियारो की होड़ जारी है।

जब शीत युद्ध अपने आखिरी दौर में था, तब हथियारों की होड़ को खत्म करने के लिए अमरीका और सोवियत संघ ने 1987 में नाभिकीय हथियारों से सम्बन्धित एक समझौता किया था, जिसे आईएनएफ सन्धि के नाम से जाना जाता है। इस सन्धि के तहत अमरीका और रूस ने 500 से 5500 किलोमीटर तक मार करने वाली मिसाइलों को नष्ट करने और प्रतिबन्धित करने का फैसला किया था, लेकिन दोनों देश शुरू से ही एक दूसरे पर सन्धि की शर्तों को न मानने का आरोप लगाते आये हैं।

जिस तरह अमरीका आईएनएफ सन्धि से हाथ पीछे खींच रहा है, उसी तरह 2002 में उसने जार्ज डब्ल्यू बुश के नेतृत्व में छह महीने की नोटिस देकर एंटी बैलास्टिक मिसाइल (एबीएम) सन्धि को तोड़ दिया था। 1972 में अमरीका और सोवियत संघ के बीच बैलेस्टिक मिसाइलों के बारे में सन्धि हुई थी। अमरीका ने इस सन्धि को तोड़ने के पीछे यह तर्क दिया था कि उसके लिए दूसरे देशों के परमाणु ब्लैकमेल से बचने के लिए एक सीमित राष्ट्रीय मिसाइल रक्षा का परीक्षण और निर्माण करना आवश्यक है।

गैर–परमाणु हथियारों की होड़ को देखते हुए दुनिया के अधिकतर देश अपने रक्षा बजट में बेलगाम वृद्धि करते जा रहे हैं। सेना पर सबसे ज्यादा खर्च करने के मामले में अमरीका पहले स्थान पर और चीन दूसरे स्थान पर है। भारत भी अब सेना पर खर्च करने वाले शीर्ष पाँच देशों में शामिल हो गया है। 2019 के अन्तरिम बजट में भारत का रक्षा बजट तीन लाख करोड़ से भी अधिक हो गया है।

साम्राज्यवादी देश हथियारों की धौंस दिखाकर दूसरे कमजोर देशों पर वर्चस्व कायम करने की कोशिश करते आये हैं। इसके चलते वे आधुनिक हथियारों के उत्पादन और परीक्षण में हमेशा आगे रहे हैं। साम्राज्यवादी देशों की हथियारों की होड़ को देखते हुए कमजोर देश भी इस होड़ में शामिल हो गये हैं। कमजोर देशों की जीडीपी का बहुत बड़ा हिस्सा हथियार खरीदने में व्यय हो रहा है। वहाँ की जनता की हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है। यहाँ की सरकारें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी सामाजिक जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के बजाय सेना और हथियारों पर अधिक खर्च करती हैं। अमरीका जैसे साम्राज्यवादी देश कमजोर देशों को हथियार खरीदने के लिए ऋण भी मुहैया कराते हैं और उन पर अपना आर्थिक वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं। ऋण के भारी बोझ के नीचे दबे देश साम्राज्यवादी देशों की नीतियों को मानने पर विवश हो जाते हैं। इन नीतियों के जरिये साम्राज्यवादी देश कमजोर देशों का शोषण करते हैं।

हथियारों की होड़ का सिलसिला तभी शुरू हुआ था, जब द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमरीका और सोवियत संघ दो महाशक्तियों के रूप में उभरे थे। अमरीका 1945 में ही हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमला करके परमाणु हथियारों के मामले अपनी विनाशक छवि को स्थापित कर चुका था। सोवियत संघ ने भी 1949 में अपना पहला परमाणु परीक्षण कर यह साबित कर दिया कि वह भी पीछे नहीं है। इसके बाद इंगलैंड, फ्रांस, चीन, पाकिस्तान और भारत भी इस होड़ में शामिल होते चले गये। शीत युद्ध के दौरान कोरिया युद्ध और वियतनाम युद्ध ने अमरीका और सोवियत संघ के बीच हथियारों की होड़ को और बढ़ा दिया। दोनों एक–दूसरे को डराने–धमकाने के लिए अन्धाधुन्ध हथियारों के उत्पादन और परीक्षण में लगे रहे।

1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस कमजोर पड़ गया और अमरीका एकमात्र महाशक्ति रह गया। अमरीका धीरे–धीरे अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों (विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन) के माध्यम से पूरी दुनिया पर अपना वर्चस्व कायम करने लगा।

परमाणु हथियारों के उत्पादन के मामले में अमरीका और रूस सबसे आगे हैं। दुनिया का लगभग 90 प्रतिशत परमाणु हथियार इन्हीं दोनों देशों के पास है। इन दोनों देशों के पास 15–16 हजार परमाणु हथियार हैं, जो पृथ्वी को कई बार नष्ट कर सकते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमरीका द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराये गये परमाणु बम से होने वाले विध्वंस को आज 75 साल बाद भी भुलाया नहीं जा सकता।

अमरीका आज दुनिया का सबसे बड़ा हथियार निर्यातक देश है। एक रिपोर्ट के अनुसार, हथियारों के निर्यात  में अमरीका की 34 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। रूस दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा हथियार निर्यातक देश है। इन दोनों देशों के साथ फ्रांस, जर्मनी और चीन इस होड़ में शामिल हैं। स्टॉकहोम –– इण्टरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट ने बीबीसी को बताया कि “हथियारों का कारोबार तेजी से फल–फूल रहा है और अब हर साल यह 100 बिलियन डॉलर का अन्तरराष्ट्रीय कारोबार है।” इजराइल जैसे मध्यपूर्व के देश अमरीकी हथियारों के सबसे बड़े ग्राहक हैं। हथियारों की ज्यादा से ज्यादा बिक्री के लिए इस इलाके में अमरीका ने युद्ध जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी हैं। मध्य–पूर्व के देशों में सउदी–अरब सबसे ज्यादा हथियार खरीदता है। सउदी अरब और यमन के बीच चल रहा तनाव और सीरिया, इराक, अफगानिस्तान में युद्ध और गृह युद्ध जारी है। इसके चलते अमरीका के हथियारों के इस्तेमाल के लिए यह क्षेत्र एक प्रयोगशाला की तरह हैं। ओबामा शासन में हुए ईरान के साथ परमाणु समझौते से अमरीका बाहर निकल गया है।

अमरीका और उत्तर कोरिया के बीच परमाणु हथियारों के सम्बन्ध में विवाद चल रहा है। अमरीका उत्तर कोरिया पर परमाणु हथियारों को खत्म करने के लिए दबाव बना रहा है। अमरीका और उत्तर कोरिया के बीच सिंगापुर में हुए सम्मेलन में उत्तर कोरिया के राष्ट्रपति किम जोंग ने इस शर्त पर अपने परमाणु हथियारों को खत्म करने का वादा किया था कि अमरीका उत्तर कोरिया पर लगाये गये अपने प्रतिबन्धों को ढीला करेगा। लेकिन अमरीका द्वारा प्रतिबन्धों को ढीला न करने के उलट में उत्तर कोरिया ने अपने परमाणु हथियार खत्म करने से इनकार कर दिया।

हम जानते हैं कि सोवियत संघ के विघटन के बाद अमरीका की नकेल कसने वाला कोई देश नहीं था। लेकिन धीरे–धीरे रूस ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली और दोनों देशों के बीच टकराव एक बार फिर बढ़ता जा रहा है। इधर चीन भी एक आर्थिक महाशक्ति बन कर उभर रहा है और हथियारों की होड़ में शामिल हो गया है।

चीन ने अपनी सेना के आधुनिकीकरण पर जोर देते हुए अपनी थल सेना को 50 प्रतिशत तक कम करने और जल सेना और वायु सेना को बढ़ाने का फैसला किया है।

आज की विश्व परिस्थिति साफ संकेत दे रही है कि चीन, उत्तर कोरिया, रूस, बेनेजुएला, ईरान और अन्य देशों से अमरीका के मतभेद गहराते जा रहे हैं। अमरीका कई अन्तरराष्ट्रीय करारों से भी पीछे हट रहा है। इससे अमरीका और इन देशों के बीच तनाव बढ़ रहा है और युद्ध का संकट गहराता जा रहा है।

मुनाफे और शोषण की इस व्यवस्था में जब तक बाजारों की होड़ को लेकर दुनिया के बँटवारे की प्रक्रिया चलती रहेगी, तब तक युद्ध जैसा माहौल बना रहेगा और दुनिया चैन की नींद नहीं सो पायेगी। मुनाफे और शोषण पर आधारित व्यवस्था के खात्मे से ही युद्धों का खात्मा किया जा सकता है। इसके लिए पिछड़े देशों की शोषित–पीड़ित जनता के साथ साम्राज्यवादी देशों की शोषित–पीड़ित जनता को एकजुट होना होगा। मुनाफे और शोषण पर आधारित इस व्यवस्था को बदलकर एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करनी होगी, जहाँ एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का और एक देश द्वारा दूसरे देश का शोषण न हो। तभी हथियारों की होड़ और युद्धों का खात्मा किया जा सकेगा।

 
 

 

 

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