सितम्बर 2020, अंक 36 में प्रकाशित

घिसटती अर्थव्यवस्था की गाड़ी और बढ़ती बेरोजगारी

पूरी दुनिया में आर्थिक महामन्दी की धमक सुनाई दे रही है। इसे लेकर अर्थशास्त्री लगातार चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन सरकारें मन्दी को स्वीकार करने या मन्दी दूर करने के लिए अपनी लुटेरी व्यवस्था में बदलाव करने के लिए बिलकुल तैयार नहीं हैं। हाल ही में कई राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं ने मन्दी के बारे में चैकाने वाले आँकड़े दिये हैं, जिसे लेकर दुनिया भर में एक नयी बहस उठ खड़ी हुई है।

आईएमएफ की वर्ल्ड इकॉनोमिक आउटलुक–2020 की रिपोर्ट के अनुसार इस वित्तीय वर्ष में विश्व अर्थव्यवस्था 3 फीसदी तक सिकुड़ जायेगी। जबकि विश्व बैंक ने जून में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट ग्लोबल इकॉनोमिक प्रोस्पेक्ट में कहा की यह दर 5–2 फीसदी होगी। ये दोनों ही आँकड़े अर्थव्यवस्था की भयावह स्थिति को बयान करने के लिए अपर्याप्त हैं। अलग–अलग रिपोर्टों के अनुसार पहले ही अमरीकी अर्थव्यवस्था 33 फीसदी और ब्रिटिश अर्थव्यवस्था 20 फीसदी तक सिकुड़ चुकी है। अमरीकी नेशनल ब्यूरो ऑफ इकॉनोमिक रिसर्च के अनुसार आधिकारिक रूप से अमरीका में मन्दी आ चुकी है, यानी लगातार दो तिमाही से अर्थव्यवस्था की गिरावट जारी है, लेकिन वहाँ की सरकार इस पर आँख मूँदे बैठी है। अलग–अलग देशों के वृद्धि दर के आँकड़ों के अनुसार 2019 के अप्रैल–जून तिमाही की तुलना में 2020 की जीडीपी की वृद्धि दर घटी ही नहीं, बल्कि नकरात्मक हो गयी है। भारत की जीडीपी की वृद्धि दर –23.9 फीसदी, ब्रिटेन की –20.4 फीसदी, फ्रांस की –13.8 फीसदी, इटली की –12.4 फीसदी, अमरीका की –9.1 फीसदी और जापान की –7.6 फीसदी रही, जबकि चीन की वृद्धि दर 3.2 फीसदी रही। अमरीका की मौजूदा बेरोजगारी दर है 14 फीसदी है, जो 2007–08 की मन्दी से कम नहीं है।

सरकारें और उनका चाटुकार मीडिया इसकी जिम्मेदारी कोरोना महामारी और लॉकडाउन पर डालकर अपना पल्ला झाड़ लेना चाहती हैं। लेकिन कुछ दूसरे तथ्यों पर गौर किया जाये तो उनका यह दावा पूरी तरह खोखला ठहरता है। अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष की रिपोर्ट में वैश्विक अर्थव्यवस्था के बारे में यह दर्ज किया गया है कि महँगाई दर को शामिल करने के बाद 2012 से 2018 तक प्रति व्यक्ति जीडीपी की वृद्धि दर ज्यादातर समय 2 से 2.5 फीसदी के आस–पास थी, जो 2019 में घटकर 1.7 फीसदी हो गयी। अमरीका, यूरोपीय संघ और जापान के मामले में कुल सार्वजनिक कर्ज और सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात 2007–08 के वित्तीय महासंकट के दौरान 70 फीसदी के आस–पास था, जो लगातार बढ़ते हुए 2018 तक जीडीपी के लगभग बराबर 100 प्रतिशत हो गया। इसके अलावा इन देशों की जीडीपी की वृद्धि दर 2007 से गिरती हुई 2016 में 1 फीसदी से भी कम हो चुकी है। इन तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि मौजूदा आर्थिक तंगहाली का कारण कोरोना महामारी नहीं है। हाँ, यह जरूर कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी ने पहले से ही बैसाखी के सहारे घिसटती वैश्विक अर्थव्यवस्था के ऊपर पड़े पर्दे को हटाकर उसे नंगा कर दिया। महामारी अगर नहीं आती तो यह कुछ दिन और घिसटती रह सकती थी।

संयुक्त राष्ट्र संघ की जून में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पूँजीपतियों को इस महामारी में भी मुनाफा कमाने का मौका नहीं गँवाना चाहिए और इसके लिए दुनिया भर के पूँजीपतियों के साथ मिलकर इस मुनाफे की लूट को कैसे आगे बढ़ाया जाये, उसकी एक रूपरेखा भी सबके सामने रखी। अगर आर्थिक संकट के लिए कोरोना जिम्मेदार होता तो यह कैसे हो सकता है कि लॉकडाउन के दौरान दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक निगमों का मुनाफा लगातर बढ़ता रहा और आसमान छूने लगा। इन निगमों में फेसबुक, अल्फाबेट, अमेजन, नेटफ्लिक्स, गूगल आदि का मुनाफा देखा जाये तो अचम्भित करने वाले तथ्य सामने आते हैं। पिछले साल कि तुलना में इनका मुनाफा 50 से 100 फीसदी या उससे ज्यादा बढ़ा है। शेयर बाजार में इन कम्पनियों के शेयर की कीमत भी बढ़ रही है। दरअसल, बात यह है कि छोटे–छोटे दुकानदारों की बर्बादी की कीमत पर ही ऑनलाइन खुदरा बिक्री में लगी इन कम्पनियों को अकूत मुनाफा कमाने का मौका मिला है। अमेजन ने तो साफ कहा है कि लॉकडाउन के दौरान दुकानें बन्द रहने के चलते लोगों ने अमेजन के जरिये खूब खरीदारी की। इसका मतलब है कि मौजूदा मन्दी में भी इन दानवाकार कम्पनियों के हाथों पूँजी का संकेन्द्रण लगातार जारी है और इसी के साथ इनका सरकारों के साथ साँठ–गाँठ और मजबूत हुआ है।

आइये, इन तथ्यों को विश्व की बदलती आर्थिक–राजनीतिक पृष्ठभूमि में रखकर समझते हैं। 2007–08 के वित्तीय महासंकट को दुनिया भर के तमाम शासक वर्ग और उनके हितैषी सिद्धान्तकारों ने 2009 में खत्म होने की घोषणा कर दी थी। लेकिन मुख्यधारा से इतर कई विश्लेषकों ने उस घोषणा को नकारते हुए कहा था कि यह तो भविष्य में निरन्तर चलने वाले संकट की शुरुआत है, जिसे चिरन्तन संकट और असमाधेय संकट भी कहा गया। उनका कहना था कि इजारेदार वित्तीय पूँजीवाद अब ऐसी स्थिति में पहुँच चुका है, जहाँ उसके आगे खाई और पीछे कुआँ है। इसका मतलब है कि पूँजीपतियों ने मुनाफा इतना ज्यादा कमा लिया है कि अब उसके निवेश का संकट पैदा हो गया है। लूट और शोषण के चलते जनता कंगाल हो गयी है और बाजार सिकुड़ गया है। इसलिए महँगाई बढाकर लूट करने और छोटे उद्योगपतियों, व्यापारियों और दुकानदारों को बाजार से बाहर कर उनका कारोबार हथियाने के अलावा ज्यादा मुनाफा देने वाली और कोई तरकीब नहीं दिख रही है। कमाये हुए मुनाफे को शेयर बाजार में निवेश करके उस पर सट्टेबाजी की जा रही है और जनता पाई–पाई को मोहताज है। सरकार ने कल्याणकारी नीतियों को तिलांजली दे दी है। इसलिए वह पूँजीपतियों के ऊपर से टैक्स घटाती जा रही है और जनता को मिलने वाली सुविधाओं और सब्सिडी में कटौती करती जा रही है। इसके अलावा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों का बड़ा बोझ भी जनता के ऊपर डाल दिया गया है। दुनिया अधिकाधिक दो ध्रुवों में बँटती जा रही है। एक तरफ कई अरब जनसंख्या वाली बदहाल–कंगाल जनता तो दूसरी ओर अकूत धन–सम्पदा संचित किये, सभी तरह का भोग विलास करता हुआ मुट्ठीभर धनाढ्य वर्ग। इस वर्ग के हाथों में संचित और केन्द्रित पूँजी ही दुनिया के लिए सबसे बड़ा संकट है। इस संकट को ‘अतिशय पूँजी संचय का संकट’ भी कहा जाता है।

भारत बुरी तरह मन्दी की गिरफ्त में

कोरोना महामारी और लॉकडाउन ने हमारे देश की सरकार और पूँजीपतियों को पहले से जारी आर्थिक संकट को छुपाने और उसका लाभ उठाने का एक बड़ा मौका दिया है। आर्थिक संकट का बहाना बनाकर जो छँटनी पहले धीमी गति से चल रही थी, उसे कोरोना की आड़ में तेजी से किया गया। लॉकडाउन के दौरान करीब 32 करोड़ मजदूरों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा, जिनका सबसे बड़ा हिस्सा निर्माण, होटल और अनौपचारिक क्षेत्र की छोटी–छोटी उत्पादन इकाइयों में कार्यरत था। सरकार ऐसी कोई भी नीति अपनाने में असफल रही जो इस मुश्किल घड़ी में जनता को थोड़ी–सी भी राहत दे। ऑनलाइन स्कूली पढ़ाई, राशन की अपर्याप्त व्यवस्था और दवा–इलाज की बदइन्तजामी ने जनता पर कहर ढा दिये।

भारत के मामले में भी यह कहना ठीक नहीं है कि कोरोना महामरी के चलते ही देश में मन्दी आयी है। कम से कम आँकड़े तो कोरोना महामरी को संकट के मूल कारण के रूप में नहीं दिखाते। भारत की जीडीपी की वृद्धि दर भी बाकी देशों की तरह ही 2010 से लगातार गिर रही थी। 2009–10 में जीडीपी की वृद्धि दर थी–– 10.1 फीसदी, 2015–16 में 8 फीसदी और 2018–19 में 6 फीसदी। इसके बाद जुलाई 2019 से ही हर तिमाही में भारत के जीडीपी की वृद्धि दर लगातार गिरते हुए जनवरी–मार्च 2020 तिमाही में 3 फीसदी तक आ पहुँची थी। इसके आगे अप्रैल–जून 2020 तिमाही की वृद्धि दर का आँकड़ा और चैंकाने वाला है। दुनिया में सबसे कम वृद्धि दर भारत की है –23.9 फीसदी, बल्कि इसे वृद्धि दर के बजाय पतन दर ही कहा जाना चाहिए। अप्रैल में रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि लॉकडाउन से पहले जीडीपी, विदेशी निवेश, औद्योगिक उत्पादन और रीयल एस्टेट में गिरावट जारी था।

हालाँकि अर्थशास्त्री अरुण कुमार ने इस पर भी सवाल उठाते हुए कहा है कि जीडीपी की वृद्धि दर वाला नकारात्मक आँकड़ा भी संगठित क्षेत्र का है। इसमें कृषि को छोड़कर बाकी असंगठित क्षेत्र के आँकड़े शामिल नहीं किये गये हैं। अगर असंगठित क्षेत्र का मुकम्मल आँकड़ा होता तो उनका मानना है कि पिछले साल की तुलना में इस साल की दूसरी तिमाही की जीडीपी की वृद्धि दर –47 फीसदी होती। इसमें ठेले–खोमचे वाले, अपने घरों में फोन के चार्जर बनाने, बिन्दी चिपकाने, कपड़े काटने, सिलने, आदि काम में लगे करोड़ों लोगों द्वारा रोजगार से हाथ धो बैठने का कोई हिसाब नहीं है।

पिछले कुछ महीने के औद्योगिक उत्पादन सूचकांक पर गौर किया जाये तो अब तक सिर्फ फरवरी में यह आँकड़ा सकारात्मक रहा है। मार्च से शुरू करके जून तक के उपलब्ध आँकड़े लगातार ऋणात्मक रहे हैं। अप्रैल में सबसे ज्यादा नाकारात्मक वृद्धि दर –55.5 फीसदी थी। अप्रैल और मई के महीने में बेरोजगारी दर 23.5 फीसदी थी। इसके बाद जून से अभी तक यह लगातार 11 फीसदी पर बनी हुई है। रिजर्व बैंक की अप्रैल में प्रकाशित रिपोर्ट में पिछले दस साल से लगातार अपनी क्षमता से कम उत्पादन की बात को भी दर्ज किया गया है। हालाँकि पिछले दिनों आये ये आँकड़ें बेरोजगारी की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए काफी नहीं हैं। हजारों मील पैदल अपने गाँव का रास्ता नापते हुए प्रवासी मजदूर और उनके परिवार की हालत ये आँकड़ें बयान नहीं करते। हाल में प्रकाशित राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के रिपोर्ट अनुसार 2019 में कुल आत्महत्या करने वालों की संख्या थी 1,39,123 जिसके 2 फीसदी मौत का कारण बेरोजगारी बताया गया है। अलग–अलग पेशों के अनुसार तस्वीर कुछ ऐसी है–– दिहाड़ी कमाने वाले 23.4 फीसदी, गृहिणी 15.4 फीसदी, स्वरोजगार करने वाले 11.6 फीसदी, बेरोजगार 10.1 फीसदी, वेतनभोगी पेशेवर 9.1 फीसदी, कृषि क्षेत्र से जुड़े लोग 7.4 फीसदी, छात्र 7.4 फीसदी और अवकाश प्राप्त लोग 0.9 फीसदी। गौर करने वाली बात है कि 2014 के आत्महत्या सम्बन्धित आँकड़ों में दिहाड़ी कमाने वाले लोग 12 फीसदी थे अगले पाँच साल में यह अनुपात लगभग दुगुना हो गया है।

2016 में भारत सरकार द्वारा किये गये नोटबन्दी, उसके बाद जीएसटी और कोरोना लॉकडाउन के बाद 6 करोड़ अतिलघु, लघु और मध्यम उत्पादक इकाइयाँ बाजार से बाहर होने वाली हैं। गौर करने वाली बात है कि देश की कुल आय में इस क्षेत्र का योगदान एक तिहाई और कुल निर्यात का आधा है, जबकि 10 करोड़ से ज्यादा लोगों का रोजगार भी इसी क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। सरकार की तरफ से इन्हें संजीवनी देने के लिए 3 लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज घोषित किया गया है। लेकिन वित्त उपमंत्री अनुराग ठाकुर ने जुलाई में दिये गये एक बयान में कहा कि 25 हजार करोड़ का कर्ज मंजूर कर दिया गया है जबकि 14 हजार करोड़ रुपये इस योजना के तहत बाँट दिया गया है। इस क्षेत्र को कर्ज देने में बैंक आनाकानी कर रहे हैं, उन्हें डर है कि नये कर्ज भी बट्टा खाते (एनपीए) में न तब्दील हो जाये। सबसे पहले 2011 में ऑल इंडिया बैंकिंग एम्प्लाइज एसोसिएशन ने बड़ी कम्पनियों के कर्ज न चुकाने के चलते बैंकों की खस्ता हालत को देश की जनता के सामने रखा था। लेकिन इस समस्या को यूपीए और एनडीए, दोनों सरकारें नकारती रही हैं।

2007–08 के वित्तीय महासंकट के बाद से ही भारत में लगातार आर्थिक विसंगतियाँ सामने आने लगी थीं। 2004–05 में श्रम बल में भागीदारी करने वाले लोगों का अनुपात 42 फीसदी था, यानी कुल आबादी के 42 फीसदी लोग उत्पादन के किसी न किसी क्षेत्र में कार्यरत थे। उसके बाद लगातार गिरते हुए 2017–18 में यह अनुपात करीब 35 फीसदी हो गयी। इस रिपोर्ट की खास बात यह है कि 11.5 करोड़ युवा रोजगारशुदा थे, जबकि 12.7 करोड़ युवा पढ़ाई या अन्य प्रशिक्षण में शामिल थे। काम की तलाश कर रहे 2.5 करोड़ युवा बेरोजगार थे। उसके साथ 10 करोड़ ऐसे युवा थे जो किसी न किसी तरह से रोजगार ढूँढना बन्द कर चुके थे, क्योंकि उन्हें यकीन हो गया था अब रोजगार ढूँढना बेकार है।

रिजर्व बैंक की अप्रैल में प्रकाशित मौद्रिक नीति रिपोर्ट–2020 की माने तो मार्च 2019 से ही ग्रामीण क्षेत्रों में महँगाई दर लगातार बढती जा रही है, जो मजदूरी बढ़ने की दर से ज्यादा है। जनवरी 2019 की तुलना में जनवरी 2020 में मजदूरी 7 फीसदी गिर चुकी है। इस दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई और अगले डेढ़–दो साल में वह गिर गयी। ऐसे में लगातार ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा योजना के तहत ज्यादा लोग काम माँगने लगे। सिर्फ 2019–20 में मनरेगा में 20 लाख नये लोगों ने आवेदन किया। लेकिन बाकी जगहों की तरह मनरेगा योजना में भी 2011 से 2018 तक मजदूरी नहीं बढ़ी, बल्कि 2019–20 में 6 फीसदी गिरावट आई है। जाहिर सी बात है कि सरकार ने मनरेगा के तहत मजदूरी न बढ़ाने का फैसला मालिकों को फायदा पहुँचाने के लिए ही लिया था ताकि निजी क्षेत्र में भी मजदूरी न बढ़े।

मजेदार बात यह है कि लगातार घिसटती अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी, आत्महत्या और इसके खिलाफ उठने वाली आवाज के जवाब में हमारे देश की वित्त मंत्री डॉक्टर निर्मला सीतारामन ने इसे “दैवीय कार्रवाई” कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया। इस संकट को मौजूदा एनडीए सरकार अगले चरण के सुधार को लागू करने के मौके की तरह इस्तेमाल कर रही है। छोटे–बड़े सभी सार्वजनिक निगमों को निजी हाथों में सौंपकर ‘आत्मनिर्भर भारत’ का निर्माण किया जा रहा है। हाल ही में मुम्बई समेत कई हवाई अड्डे अडानी ग्रुप के हाथों में सौंपने का ऐलान किया गया है। इनमें से एक है तिरुवनन्तपुरम, जिसको निजी हाथों में देने के बजाय केरल राज्य सरकार ने अपने हाथों में रखने की माँग की है। हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड का 15 फीसदी हिस्सा भी निजी हाथों में देने की प्रक्रिया लगभग पूरी हो गयी है। बीएसएनएल को निजी हाथों में देने से पहले इसके 88 हजार कर्मचारियों की छँटनी करने का ऐलान भी किया जा चुका है। इस ऐलान के दौरान सत्तासीन भाजपा के सांसद अनन्त हेगड़े ने बीएसएनएल के कर्मचारियों को गद्दार कहा और उनकी छँटनी को जायज ठहराया।

संकट को हल करने की आड़ में सरकार और पूँजीपति मिलकर जनता की गाढ़ी कमाई से तैयार सार्वजनिक क्षेत्र को लूट रहे हैं और उनका एक सांसद कर्मचारियों को गद्दार कहकर उनका अपमान भी करता है। कैसे गिरे हुए लोग हैं। यही लोग महँगाई, बेरोजगारी, भुखमरी जैसी समस्याओं से भटकाने के लिए एक चुटकुला पकड़ा देते हैं। फ्राँसीसी क्रान्ति से पहले वहाँ की जालिम सरकार अपने मंत्रियों से कहती थी कि जनता को रोटी नहीं दे सकते तो सर्कस दिखाओ। दूसरी ओर अधिकांश लोग सरकार का मजाक उड़ाकर सन्तुष्ट हो जाते हैं। इसके बजाय उन्हें सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने चाहिए और उसके खिलाफ एकजुट होना चाहिए। हमारी लड़ाई जमीनी होनी चाहिए। जनता को एकजुट किये बिना इस विकट समस्या का कोई समाधान नहीं होे सकता। 

 
 

 

 

Leave a Comment

लेखक के अन्य लेख

समाचार-विचार
राजनीति
अन्तरराष्ट्रीय
विचार-विमर्श
राजनीतिक अर्थशास्त्र
अवर्गीकृत