कम्पनी राज : देश की शासन व्यवस्था प्राइवेट कम्पनियों के ठेके पर
30 जनवरी, 2024 को इंडियन एक्सप्रेस ने एक दिलचस्प खबर प्रकाशित की। उन्होंने आरटीआई के जरिये तमाम मंत्रालयों के अलग–अलग विभागों में कार्यरत सलाहकार तथा अन्य कर्मचारियों की संख्या के बारे में जानकारी हासिल की थी। खबर का शीर्षक था ‘कम्पनी राज’। इसके अनुसार भारत सरकार के 44 विभागों में संविदा या ठेके पर काम करने वाले सलाहकारों की संख्या है–– 1499। इन सलाहकारों की नियोक्ता भारत सरकार की कोई संस्था नहीं, बल्कि दुनिया के सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय सलाहकार कम्पनियाँ हैं जैसे एर्न्स्ट एंड यंग, पीडब्ल्यूसी, डेलोएट, केपीएमजी, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप आदि। इसके अलावा 76 अलग–अलग विभागों में 1037 यंग प्रोफेशनल, 539 स्वतंत्र सलाहकार, 354 क्षेत्र विशेषज्ञ, 1481 अवकाशप्राप्त सरकारी अफसर तथा 20,376 निम्नपद के कर्मचारी को ठेके पर नियुक्त किया गया है। (इसी सम्बन्ध में फरवरी 2023 को देश–विदेश पत्रिका अंक 42 में ‘प्रशासन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ठेके पर’ एक लेख प्रकाशित हुआ था। इस लेख में दफ्तरों में सलाहकारों और कर्मचारियों की संख्या के आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन इण्डियन एक्सप्रेस की आरटीआई से आज यह आँकड़ा उपलब्ध हो गया है जो अपने आप बहुत कुछ कह देते हैं।)
आरटीआई के आँकड़ों से साफ पता चलता है कि सलाहकार के रूप में ठेके पर काम करवाने के लिए भारत सरकार बहुराष्ट्रीय सलाहकार कम्पनियों के कर्मचारियों पर सालाना 302 करोड़ रुपये खर्च कर रही है। इन सलाहकारों की प्रतिबद्धता भारत सरकार या भारतीय अवाम के प्रति नहीं, बल्कि उनकी मालिक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रति है। जाहिर है कि उन कम्पनियों की प्रतिबद्धता अपने मुनाफे और अपने देश के साम्राज्यवादी मंसूबों के प्रति ही होगी। सलाहकार बनकर भारतीय नौजवान आज उन कम्पनियों के साम्राज्यवादी मंसूबों को पूरा करने वाले एजेन्ट की भूमिका निभा रहे हैं। ऐसे सलाहकार और कर्मचारियों की कुल संख्या 25,286 है। इन्हें भारत सरकार ठेके पर रखना पसन्द करती है।
अतीत के ब्रिटिश कम्पनी राज की गुलामी और आज की कम्पनी राज गुलामी में एक बुनियादी फर्क है। जब ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत की धरती पर कदम रखा था तब भी उसने यहाँ के लोगों को सिपाही के रूप में काम पर रखा और उनके दम पर भारत को गुलाम बना लिया। आज के दानवाकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारतीय नौजवानों को सिपाही के रूप में नहीं, बल्कि आर्थिक–राजनीतिक सलाहकार के रूप में काम पर रखती हैं। यह वह लोग हैं जो तलवार या तोप के बिना ही अमरीकी कम्पनियों और उनकी बनायी नीतियों के जरिये भारत को नयी गुलामी में जकड़ रहे हैं। जन–विरोधी तीन कृषि कानून, 4 श्रम संहिताएँ, वन अधिकार कानून में तब्दीली और ऐसे तमाम कामों में सरकारी अफसरों का साथ ठेके पर रखे सलाहकार दे रहे हैं। इनके मंसूबे देश की जनता पर सरकार केे जरिये सवारी गाँठना है। इनके निशाने पर कॉर्पोरेट कम्पनियों का फायदा होता है। उस मुनाफे में जरा–सी आँच आते ही वे सरकारी दफ्तरों को आगाह करते हैं। दफ्तर के अनसुना करने पर वे अखबारों के जरिये पढ़े–लिखे मध्यम वर्ग के लोगों को अपने शब्दजाल से फँसाते हैं। आप अक्सर अंग्रेजी अखबारों के सम्पादकीय पन्ने पर नजर रखें तो ऐसे पदों पर काम करने वाले लोगों की राय जानने को मिल जायेगी जो बड़े ही बेशर्मी और मक्कारी से अपने उद्देश्य को अंजाम देते हैं।
बात साफ है कि आज हम दुबारा उपनिवेशवाद या गुलामी के शिकार हो रहे हैं जो अतीत की ब्रिटिश गुलामी से अलग है। ब्रिटिश गुलामी के समय अंग्रेज सीधे भारत की जनता का शोषण–उत्पीड़न खुद करते थे यानी गुलामी एकदम प्रत्यक्ष थी, साफ दिखायी देती थी, लेकिन आज यह छिपी हुई है। आज जनता असुरक्षित माहौल में जीने को मजबूर है, वह तबाह हो रही है। यह नयेे तरह का उपनिवेशवाद है जो अपने नीतिगत दाँवपेंच के जरिये अंग्रेजों से भी अधिक क्रूर गुलामी की बेड़ियों में जनता को जकड़ रखा है। आज यूनियन जैक की जगह तिरंगा ही लहरा रहा है, लेकिन अमरीका की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ देश को लूट रही हैं। उनकी सुरक्षा में हमारे देश का पुलिस–प्रशासन पूरी तरह मुस्तैद है। वह जनता के आन्दोलन पर लाठी–गोली चला रहा है। क्या यह सब गुलामी का संकेत नहीं है।
हम देखते हैं कि अकसर कारखाने में दुर्घटना से दस या बीस मजदूर अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं जो सीधे–सीधे सुरक्षा इन्तेजाम में चूक का मामला है जिसकी अनुमति कारखाने के मालिक को सरकार की नयी नीतियाँ देती हैं जो सीधे निजी कम्पनियों को फायदा पहुँचाती हैं। यह गुलामी इतनी आसानी से समझ नहीं आती। आज की कम्पनी एक हाथ मंत्रालयों के तमाम हथकंडे और दूसरे हाथ में अमरीका की नीतियों को लेकर जनता का शोषण–उत्पीड़न कर रही है। इसे हम आज नहीं समझेंगे तो गुलामी से छुटकारा नहीं पा सकते।
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