नवम्बर 2023, अंक 44 में प्रकाशित

देश में ये कैसी खुदकशी की खेती

राष्ट्रीय आपराधिक रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2021 में खुदकशी करने वाले 1,64,033 लोगों में से छात्रों (18 साल से कम उम्र ) की संख्या है 13,089 या 8 फीसदी। रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से ही पता चलता है कि पिछले एक दशक में (2011 से) छात्रों की खुदकशी 70 फीसदी बढ़ चुकी है। नीट, जॉइंट एंट्रेंस जैसे प्रतियोगिता परीक्षा का कोचिंग हब के रूप में परिचित शहर कोटा (राजस्थान) में ही इस साल अब तक 23 छात्र–छात्राओं ने अपनी जान ले ली है। भारत में सफलता का पैमाना माना जाने वाला संस्थान आईआईटी में भी दर्जनों से अधिक छात्रों ने आपनी जान लेकर शिक्षा व्यवस्था में चल रही मौजूदा संकट की नंगी तस्वीर को सबके सामने पेश किया है। आये दिन ऐसे शिक्षा संस्थानों से छात्रों की खुदकशी की खबरें आती रहती है।

इतनी बड़ी संख्या में छात्र–छात्राओं के खुदकशी वजहों में एक महत्वपूर्ण वजह है शिक्षा संस्थानों में दाखिले के लिए गलाकाट प्रतियोगिता, नाकामयाबी का डर, कामयाब होने का दबाव और इनसे पैदा होने वाले तनाव के बारे में किसी से बात न कर पाने की समस्या। बहुत सारे अध्यापक, शिक्षाविदों ने प्रतियोगिता की तैयारी करने वाले बच्चों की मानसिक स्थिति सुधारने का सलाह दिया है। लेकिन इन सलाहों को लागू करना अब भी बाकी है।

भारत के नौजवानों की अच्छी–खासी तादाद किसी न किसी रूप से खेती सम्बन्ध रखते हैं। लेकिन नौजवानों की इस संकट की गहराई पर उतरने से ठीक वैसी तस्वीर देखने को मिलती जैसे खेती–किसानी की संकट में है। साथ के दशक में जब खाद्यान्न संकट से देश को निजात दिलाने की चुनौती सामना कर रही भारत सरकार ने अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक द्वारा सुझाए गये हरित क्रान्ति को बढ़ावा दिया था तब किसानों को ज्यादा पैदावार वाली संकर बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशक का इस्तेमाल ज्यादा से ज्यादा करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। इस प्रयोग ने खाद्यान्न संकट को टालने के बावजूद भुखमरी कि समस्या दूर करने में असमर्थ रही क्योंकि भुखमरी का कारण खाद्यान्न की कमी नहीं है, बल्कि उसे खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे न होना है। इस प्रक्रिया ने उत्तर भारत के कुछ इलाके के किसानों को सम्पन्न तो बनाया लेकिन आगे चलकर फसल का वाजिब दाम न मिलना और खेती के लिए गये कर्ज भुगतान न करने के चलते भारी संख्या में किसानों को आत्महत्या करने पर भी मजबूर किया है। पिछले तीन दशक में तीन लाख से भी ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। किसानों की जिन्दगी खाद, बीज, कीटनाशक, मशीन उत्पादक कम्पनी, कर्ज देने वाले स्थानीय सूदखोर तथा बैंक और माइक्रोफाइनेंस कम्पनी और बड़े–बड़े स्टोरहाउस के मालिक कम्पनियों मेहरबानी पर टिकी है।

शिक्षा क्षेत्र की तस्वीर देखें तो इससे बहुत मिलती–जुलती तस्वीर दिखाई देता है। जब गिने–चुने सरकारी इंजीनियरिंग, मेडिकल कॉलेज तो उसमे निजी कॉलेज न के बराबर था और इस बात का जोरोशोर से प्रचार किया गया कि बुनियादी विषय पढ़कर नहीं बल्कि ऐसी व्यवसायिक डिग्री हासिल करने के बाद ही नौकरी और तरक्की हासिल किया जा सकता है। सार्वजनिक शिक्षा भारत में पहले से ही कमजोर था जिसकी भरपाई करने के लिए ट्यूशन का बाजार भी बहुत पहले से बना हुआ है। ट्यूशन भारी संख्या में नौजवानों को कुछ आर्थिक रोजगार में मदद तो करता ही है लेकिन सार्वजानिक शिक्षा व्यवस्था के निजी परिपूरक के रूप में भी काम करता आया है। अस्सी के दशक में जब आधिकारिक रूप से शिक्षा व्यवस्था को निजी पूंजीपतियों के लिए निवेश का उर्वर क्षेत्र मान लिया गया तो न सिर्फ निजी स्कुल–कॉलेज–विश्वविद्यालय खोलने के लिए उद्योगपति बढ़–चढ़कर आगे आये, कुछ निजी उद्योगपतियों ने कोचिंग सेन्टर बनाने पर ज्यादा जोर दिया। नब्बे के दशक ने जब निजीकरण–उदारीकरण–वैश्वीकरण को खुली छूट दे दी तो राजस्थान का कोटा शहर कुछ ही साल में आईआईटी में दाखिले की तैयारी करवाने का हब बन गया। आज कोचिंग उद्योग कमोबेश 60 हजार करोड़ रुपये का उद्योग है। लेकिन इतनी कम उम्र के नौजवानों की आत्महत्या के लिए सिर्फ कोचिंग के गलाकाट और तनाव पूर्ण माहौल को दोषी ठहराना सही नहीं होगा।

इसकी तह में जाने की कोशिश करें तो आज के शिक्षार्थियों के माँ–बाप भी ठीक वैसे ही सोच रहे हैं जैसे हरित क्रान्ति के दौरान देश के किसान सोच रहे थे, या उन्हें जैसे सोचना सिखाया गया था। जैसे खेती का मकसद देश के लोगों का पेट भरना नहीं, बल्कि फसल बेचकर ज्यादा मुनाफा कमाना रह गया वैसे ही पढ़ाई का मकसद किसी नौजवान का चौतरफा विकास नहीं, उसके व्यक्तित्व को विकसित करना नहीं, बल्कि भविष्य में मोटी कमाई रह गया। किसानों की तरह ही इन बच्चों के के माँ–बाप के अन्दर यह सोच घर कर चूका है की जितनी ज्यादा खाद, कीटनाशक, और बेहतर बीज का इस्तेमाल किया जाएगा उतना बढ़िया पैदावार होगा। खेती की तरह ही सार्वजनिक शिक्षा बजट में हर साल होने वाली कटौती ने अभिभावकों को निजी शिक्षा व्यवस्था के तरफ धकेल दिया है जहाँ हर मोड़ या चौराहें पर इस या उस निजी स्कुल, कॉलेज या कोचिंग में पढ़ने पर सफलता की गारन्टी का विज्ञापन छाया हुआ है। ऐसे में हरित क्रान्ति की शुरूआती दौर में कुछ फायदा मिलने के बाद ही भारत की खेती–किसानी में आई संकट की तरह इस क्षेत्र में भी संकट गहराया तब जब भारी संख्या में छात्रों ने आईआईटी, एनआईटी या एम्स में दाखिले के लिए 12 वीं कि परीक्षा को नजरअन्दाज करके प्रतियोगिता के तरफ ज्यादा बढ़ने लगे।

इन तथाकथित बेहतर उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिले के लिए गलाकाट प्रतियोगिता का मुख्या कारण है बेरोजगारी। हाल ही में प्रकाशित ऑक्सफेम रिपोर्ट में कहा गया कि कॉलेज की डिग्री हासिल करने वाले नौजवानों में से 42 फीसदी से भी ज्यादा नौजवान बेरोजगार हैं। इसी असुरक्षा का डर अभिभावकों को अपना सपना पूरा करने के लिए बच्चों को कोटा तथा दुसरे सभी कोचिंग हब की दमघोटू माहौल में धकेलने के लिए प्रेरित करता है। उस तनावपूर्ण माहौल से कथित सफलता हासिल करके ऐसे संस्थानों में दाखिला मिल भी जाए तो वहाँ पहले से मौजूद जातीय, वर्गीय भेदभाव का दोहरा मार झेलना पड़ता है। आईआईटी में दाखिले के बाद नये छात्रों उनका रैंक पूछना आम बात है। और वहीं से उनकी ‘मेरिट’ नाप लिया जाता है जो दलित समुदाय से आने वाले छात्रों के लिए घातक होता है। कुछ महीने पहले ही आईआईटी दिल्ली के बी।टेक। के दो छात्रों ने खुदकशी की है, दोनों एक ही विभाग के थे और दलित थे। इन मुद्दों पर ऐसी शिक्षा संस्थान और इनके रहनुमा या तो चुप्पी साधते हैं या इन छात्रों के व्यक्तिगत जिन्दगी की परेशानी को दोष देकर अपना हाथ साफ कर लेते हैं।

लेकिन स्कूली शिक्षा की जगह ट्यूशन, मानविकी और विज्ञान की जगह व्यवसायिक पढ़ाई को पहले से कहीं ज्यादा तरजीह दी जा रही है। नतीजन आज के नौजवान को न तो मानविकी या विज्ञान को पढने समझने का मौका मिल रहा है और न ही इंजिनियर या डॉक्टर के रूप में भी पैसा कमाने के मशीन के अलावा दूसरा कोई काम करने में सक्षम हो रहे हैं। किसी छात्र की किसी विषय में समझदारी नापने के लिए मल्टीप्ल चॉइस क्वेश्चन (एमसीक्यू) कितना कारगर है यह सवाल तो है ही। उसके साथ एमसीक्यू के लिए मेहनत करके कितना विज्ञान सिखा जा सकता है यह भी सन्देहास्पद है।

लेकिन विश्वगुरु का राग अलापने वाले लोग अपने देश की नौजवानों का जान बचाने में अक्षम हैं। और नौजवानों से भरा यह देश जल्द ही उम्रदराज होने पर आमादा है। ऐसे में नौजवानों को तमाम पारम्परिक पेशा, पेशे का मकसद और सबसे पहले शिक्षा व्यवस्था क्या और किसके लिए है इस सवाल पर सोचना चाहिए। हरित क्रान्ति के सपने ने देश के लाखों किसानों की जान ली है और ले रहा है। उसी तरह सुचना क्रान्ति तथा इस तरह के तमाम जुमले भी आज के नौजवानों को देशी–विदेशी निजी पूंजीपतियों की भट्टी में कच्चा माल की तरह डालकर मुनाफा निचोड़ना चाहती है। जरुरत है इन जुमलों की हकीकत को पहचाना जाए और देश के नौजवानों को तबाही–बर्बादी से बचाकर नये निर्माण की ओर दिशा दिखाने की जहाँ पढ़ाई के लिए प्रतियोगिता नहीं, बल्कि इच्छा ही काफी है और पढ़ाई का मकसद कम्पनियों के लिए सस्ता मजदूर पैदा करना नहीं बल्कि देश–दुनिया और समाज के बारे में सरोकार रखने वाले और उसे नयी दिशा देने वाले नौजवान पीढ़ी का निर्माण हो।

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