नवम्बर 2023, अंक 44 में प्रकाशित

आरटीआई पर सरकार का बड़ा हमला

अक्टूबर महीने के अन्त में एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सूचना का अधिकार (आरटीआई) पर चिन्ता जताते हुए कहा कि केन्द्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग में अधिकारियों के न होने पर यह एक ‘मृत कानून’ बनता जा रहा है।

केन्द्रीय सूचना आयोग इस वर्ष सूचना के अधिकार की अट्ठारहवीं सालगिरह पर साढ़े तीन लाख आरटीआई अपीलों और शिकायतों के निपटारे का जश्न मना रहा है। इस जश्न की झूठी रौनक में इस तथ्य को छिपा दिया गया है कि आयोग के पास तीन लाख से ज्यादा मामले और शिकायतें लम्बित पड़ी हैं और इनके निबटान के लिए अधिकारी मौजूद नहीं हैं।

आरटीआई अधिनियम 12 अक्टूबर 2005 में लागू किया गया था। खुद शासक वर्ग के लोगों ने भी इसकी तारीफ की थी। उस समय इसकी खासियतों की प्रशंसा करते हुए इसे भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने वाला कदम बताया गया था। इसका उद्देश्य जनता की माँग पर सरकार के कामों की जानकारी उपलब्ध कराना, सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाना, अधिकारियों की जवाबदेही तय करना, नागरिकों को सशक्त बनाना और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना बताया गया था। यहाँ तक कि सूचना न देने या गलत सूचना देने पर सम्बन्धित विभागों के अधिकारियों को दण्डित करने का भी प्रवधान किया गया था। हर राज्य में सूचना आयोग के गठन के साथ ही दिल्ली में एक केन्द्रीय सूचना आयोग और इसके लिए एक शानदार पाँच मंजिला इमारत का भी निर्माण किया गया था। लेकिन जैसे ही जनता इसका इस्तेमाल करने लगी तो सरकार ने आरटीआई अधिनियम में लगातार संशोधन करके और आयोग को अधिकारियों से विहीन करके उसे बेअसर करना शुरू कर दिया।

सन 2014 में नरेन्द्र मोदी के सत्ता सम्भालने के बाद से केन्द्रीय सूचना आयोग पाँच बार अध्यक्ष विहीन हो चुका है। फिलहाल उसका कोई अध्यक्ष नहीं है। आयोग की हालत यह है कि वहाँ वर्तमान में कम से कम दस सूचना आयुक्त नियुक्त होने चाहिए थे लेकिन केवल चार आयुक्तों से आयोग चलाने का ढोंग किया जा रहा है। इनका कार्यकाल भी इसी साल नवम्बर में खत्म हो जाएगा लेकिन नये आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर सरकार में कोई हलचल नहीं है।

राज्यों की हालत यह है कि दस राज्यों के सूचना आयोग आयुक्त की नियुक्ति न होने से बन्द पड़े हैं। जहाँ आयुक्त हैं वहाँ बाकी अधिकारियों की इतनी कमी है कि जनता को कोई भी जानकारी हासिल करने में सालों लग रहे हैं। इनकी क्षमता इतनी घटा दी गयी है कि कुल लम्बित मामलों में से बामुश्किल चार फीसदी मामलों का ही निपटान हो पाता है। पश्चिम बंगाल के सूचना आयोग में लम्बित शिकायतों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि मौजूदा क्षमता पर इनके निपटारें में ही 24 साल लग जाएँगे। अन्य राज्यों में भी सूचना हासिल करने में कम से कम एक साल से अधिक का समय लगेगा। जबकि इसके लिए 10 दिन का समय निर्धारित किया गया था। आज के दौर को सूचना क्रान्ति का दौर कहा जाता है। किसी सूचना को पाने में एक साल का वक्त लगने का अर्थ है सूचना का न मिलना।

एक और संकट राष्ट्रीय सुरक्षा और गोपनीयता का है। यह संचारी रोग की तरह फैल चुका है। सूचना के ज्यादातर गम्भीर मामलों में सरकार सुरक्षा और गोपनीयता का हवाला देकर कोई भी जानकारी देने से इनकार कर देती है। इस रवैये पर खूब बहस हो चुकी है, अदालतें सरकार को फटकार लगा चुकी हैं लेकिन सरकारों का यह “गोपनीय रोग” बढ़ता ही जा रहा है। जो मामले इस बाधा को लाँघ जाते हैं उन्हें सूचना अधिकारियों की सरकार भक्ति तरह–तरह की तिकड़म लगाकर अटकाये रखती है। आयोग के अधिकारियों की नियुक्ति सरकार ही करती है, उनमें से विरले ही सरकार बहादुर को नाराज करने की हिम्मत कर पाते हैं।

सूचना के अधिकार को बेअसर करने का एक ठेठ भारतीय तरीका भी है, जिसका पिछले सालों में जमकर इस्तेमाल हुआ है। सूचना के अधिकार के तहत जानकारी माँगने वाले पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों को डराना–धमकाना और इससे काम न चले तो उनका कत्ल कर देना। कॉमनवेल्थ ह्युमन राइट इनिशियेटिव (सीएचआरआई) की रिपोर्ट के अनुसार 2006 से अब तक 99 आरटीआई कार्यकर्ता सूचना हासिल करने, सूचना से सरकार या सरकारी तंत्र पर दवाब बनाने के कारण कत्ल किये जा चुके हैं। 180 आरटीआई कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमला हुआ है और 187 को डराया–धमकाया गया है। आम नागरिक के लिए आज कोई भी सूचना हासिल करना सत्तासीन लोगों से दुश्मनी मोल लेना हो गया है। जब सूचना का अधिकार अधिनियम लागू किया गया तो इसे सरकारी तंत्र की गुंडागर्दी और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए “वाच डॉग” के तौर पर प्रचारित किया गया था लेकिन इसके गले में सरकार का पट्टा था। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद सरकार की गुंडागर्दी और भ्रष्टाचार बेतहाशा बढ़ने लगा तो सरकार को इस “वाच डॉग” को अंधरे कमरे में खूंटे से बाँध देने की जरूरत महसूस हो गयी।

सूचनाएँ उन्हें सहेजने वालों को सशक्त बनती हैं। आज सरकारों से लेकर कम्पनियों तक लोगों की जासूसी करके उनके बारे में छोटी से छोटी सूचनाएँ जमा करके रखती हैं और अपने हित में उसका जमकर इस्तेमाल भी करती हैं। यह किसी आम नागरिक के बूते से बाहर है और किसी मजबूत तंत्र या पूँजी की ताकत के दम पर ही सम्भव है। शासन–सत्ता अपने नागरिकों की निगरानी करके उनसे जुड़ी हर सूचना हासिल कर ले और नागरिकों को राज्य सम्बन्धी सूचनाओं से वंचित कर दे, यह राज्य को निरंकुश बनाने की ओर ले जाता है। नागरिकों के “सूचना के अधिकार” को बेअसर करके अपराध और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी मौजूदा राजसत्ता अपनी निरंकुशता के रस्ते की एक और बाधा को खत्म करने की कोशिश कर रही है।

दुश्मनी के रिश्ते में सभी अपने दुश्मन के बारे में सब कुछ जानने और अपने बारे में सब कुछ छिपाने की कोशिश करते हैं। सूचना के अधिकार को मृत्यु–शैया पर लिटाकर मोदी सरकार जनता के साथ अपने दुश्मनाना रिश्ते की सूचना दे रही है।

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