मार्च 2019, अंक 31 में प्रकाशित

मुजफ्फरनगर दंगे में अखबारों ने निभायी खलनायक की भूमिका

फरवरी 2019 में सरकार ने मुजफ्फरनगर दंगे के आरोपियों के मामले को रफा–दफा करने का फैसला किया। अगस्त और सितम्बर 2013 में मुजफ्फरनगर भयानक साम्प्रदायिक दंगे की चपेट में आ गया था। इसमें 60 लोग मारे गये और कई महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। 40 हजार से अधिक लोग अपनी जमीन से उजड़कर शरणार्थी शिविरों में पहुँच गये। दंगे की जाँच के लिए गठित एसआईटी ने 175 मामलों में आरोप पत्र दाखिल किया। पुलिस ने 6,869 लोगों को आरोपी बनाया और 1480 लोगों को गिरफ्तार किया। इनमें से 54 मामलों में गिरफ्तार 418 आरोपी पहले ही बरी हो चुके हैं। बाकियों को भी बरी करने का फैसला सरकार ने कर लिया है।

दंगा किस बात को लेकर शुरू हुआ था, इसके बारे में कई कहानियाँ प्रचलित हैं। लेकिन अदालत के उस फैसले से बात साफ हो जाती है, जिसमें मुजफ्फरनगर दंगे में अखबार खलनायक बन गये।

मुजफ्फरनगर दंगे की वजह बनी तीन हत्याओं में से दो हत्याओं के आरोपियों को हाल ही में अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनायी। जिस अन्तिम चार्जशीट के आधार पर फैसला दिया गया है, उसमें बताया गया है कि विवाद की शुरुआत मोटरसाइकिलों के टकराने से हुई थी। जबकि दंगे के दौरान अखबारों और सोशल मीडिया द्वारा इस बात को फैलाया गया कि विवाद की वजह मुस्लिम लड़के द्वारा जाट समाज की लड़की से की गयी छेड़छाड़ है। जब नेताओं ने अखबारों के इस झूठ में नफरत घोलकर लोगों को पिलाना शुरू किया, तो इसका नतीजा यह हुआ कि छियासठ लोग दंगे की भेंट चढ़ गये और चालीस हजार से ज्यादा लोग अपनी जड़ों से उजड़कर विस्थापित हुए। वह इलाका, जिसकी हिन्दू–मुस्लिम एकता की मिसाल दी जाती थी, टूटकर बिखर गया। पूरा देश हिन्दू और मुस्लिम के दो धड़ों में बँट गया।

इस दंगे का सबसे ज्यादा फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिला, जो दंगे के आठ महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में बहुमत से सत्ता में आयी। सबसे अधिक नुकसान किसानों को हुआ। किसानों के फसल बकाया भुगतान और अन्य समस्याओं के लिए लड़ाई लड़ने वाला ‘भारतीय किसान यूनियन’ नामक संगठन, जो हिन्दू–मुस्लिम भाईचारे की मिसाल रह चुका था, टूटकर बिखर गया और उसके नेता खुलेआम साम्प्रदायिक भाषण देते नजर आये। नतीजतन फसल के बकाया भुगतान की समस्या विकराल रूप धारण कर गयी और किसान की बात उठाने वाला कोई संगठन नहीं रहा। फिलहाल अगले लोकसभा चुनाव की जमीन तैयार करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने दंगे के अट्ठारह आरोपियों के मुकदमे वापस ले लिये हैं। उन आरोपियों को बिना अदालती कार्रवाई के आरोपों से बरी कर देना तो उनके हौंसलों को बढ़ाने वाला ही है।

जिन अखबारों के चलते दंगा प्रभावित इलाके के लोगों का सदियों का भाईचारा नष्ट हुआ, आज जब उनके झूठ का पर्दाफाश हुआ है, तो उनसे सवाल करने वालों का अभाव है। यही वजह है कि उनके हौंसले बुलन्द हैं और वे रोजाना सैकड़ों झूठ लोगों के दिमाग में भर रहे हैं। इस दंगे ने लोगों के बीच अविश्वास और नफरत की इतनी चैड़ी खाई पैदा कर दी है, जिसे भरने में आने वाली पीढ़ियों की कमर टूट जायेगी। इसलिए सरकार को इन अखबारों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए।

 
 

 

 

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