मई 2024, अंक 45 में प्रकाशित

नये आपराधिक कानून : लोकतंत्र के ताबूत में एक और कील

हाल ही में मौजूदा केन्द्र सरकार ने भारतीय दण्ड संहिता, भारतीय आपराधिक प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को बदल कर नये कानून लागू किये हैं। सरकार ने दावा किया है कि इनमें किये गये बदलावों का मकसद ब्रिटिश विरासत को समाप्त करना और मौजूदा दौर के हिसाब से कानून गढ़ना है।

इन बदलावों पर कानून विशेषज्ञों की राय है कि सरकार के ये दावे भी छलावे से अधिक कुछ नहीं हैं। वरिष्ठ वकील और पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि इन नये कानून का 90 फीसदी से अधिक हिस्सा पुराना ही है, बस जनता को धोखा देने के लिए सरकार ने धाराओं के क्रम और नाम बदल दिये हैं। ऐसी पेशकश के लिए ही अंग्रेजी में एक कहावत है–– ओल्ड वाइन इन न्यू बॉटल। भारतीय दण्ड संहिता की जगह लायी गयी भारतीय न्याय संहिता में सरकार ने बाईस पुराने प्रावधानों को निरस्त किया है, 175 में बदलाव किया है और आठ नयी धाराएँ जोड़ी हैं। इस छोटे बदलाव में भी सरकार ने कई नये जन–विरोधी प्रावधान किये हैं जिनके आगे औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार की न्याय संहिता भी दयावान और भली लगती है। इन बदलावों पर गौर करना बेहद जरूरी है।

सरकार ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124ए यानी राजद्रोह धारा को पूरी तरह समाप्त करके देशद्रोह की नयी धारा लागू की है। इस बदलाव पर गृहमंत्री अमित शाह का कहना है कि “ऐसा इसलिए किया ताकि सरकार के खिलाफ तो कोई भी बोल सके परन्तु देश के खिलाफ कोई न बोल सके।” लेकिन मंत्री महोदय ने यह नहीं बताया कि देश के खिलाफ बोलना क्या होता है? मौजूदा सरकार के ही एक आँकड़े के अनुसार 2014 से 2022 तक राजद्रोह के 393 केस दर्ज किये गये। अगर भारतीय दण्ड संहिता औपनिवेशिक थी और राजद्रोह की धारा गलत थी तो इसी धारा का इस्तेमाल खुद सरकार ने क्यों किया? इसी धारा के तहत जब सरकार ने देश के जाने–मानेे बुद्धिजीवियों और सरकार की जन–विरोधी नीतियों के आलोचकों को जेल में डाला, तब उसे यह कानून गुलामी का प्रतीक नहीं दिखाई दिया?

नये बदलावों के जरिये कानून को विशुद्ध भारतीय बनाने की डींग हाँकने वाली सरकार ने गिरफ्तारी के मामले में जन–विरोधी रुख अपनाते हुए पुलिस को खास शक्ति सौंप दी है। अब पुलिस बिना वारंट के 90 दिनों तक जिसे चाहे गिरफ्तार करके रख सकती है। इतने दिनों तक वह व्यक्ति जमानत का हकदार भी नहीं होगा। यह इतना खतरनाक बदलाव है कि कोई भी पत्रकार प्रगतिशील बुद्धिजीवी और विपक्षी नेता सरकार की आलोचना करने से पहले सौ बार सोचेगा।

इसके अलावा धारा 111 में आतंकवाद की परिभाषा को इतना फैला दिया गया है कि अब सरकार जिस गतिविधि को चाहे आतंकी गतिविधि घोषित कर सकती है। जैसे सड़क या रेल यातायात बाधित करना भी सरकार की नजर में एक आतंकी कार्रवाई मानी जाएगी। हालाँकि सरकार ने पहले से ही यूएपीए नामक एक जन–विरोधी कानून लागू किया हुआ है जिसके अन्तर्गत सरकार अपने खिलाफ होने वाले हर विरोध को आतंकी कार्रवाई ठहरा देती है। अब भारतीय दण्ड संहिता की इस धारा में हुए बदलाव का मतलब यह है कि अगर कोई आदिवासी, किसान मजदूर या कोई भी अन्य तबका अपने हक की माँग के लिए मजबूरन सड़क या रेल यातायात रोकता है तो यह आतंकी कार्रवाई होगी। मतलब यह है कि सरकार जनता से विरोध करने का लोकतांत्रिक अधिकार भी छीन लेना चाहती है।

केन्द्र की मौजूदा मोदी सरकार लोकतंत्र को अपनी एँड़ी के नीचे कुचलने पर आमादा है। इसकी एक मिसाल है ऑर्डिनेंस फैक्ट्री के कर्मचारी के आन्दोलन पर सरकार का दमन। दरअसल ऑर्डिनेंस फैक्ट्री के निजीकरण के खिलाफ जुलाई 2021 में कर्मचारी शान्तिपूर्ण हड़ताल पर चले गये थे। तब सरकार ने अध्यादेश लाकर आन्दोलन में शामिल कर्मचारियों को बर्खास्त करके जेल में डाल दिया था। अब ऐसी कार्रवाई पूरी जनता के किसी भी तबके पर हो सकती है।

विष को अमृत बताकर जनता के सामने पेश करने में माहिर भाजपा सरकार ने इन बदलावों के जरिये भी यही काम किया है। असल में यह बदलाव कानून के जरिये तानाशाही स्थापित करने का प्रयास है। फौरी तौर पर सरकार इसमें सफल भी होती दिख रही है लेकिन भविष्य में जनता के जुझारू आन्दोलन के तूफान में ऐसे कानून तिनके की तरह उड़ जायेंगे। हंसराज रहबर ने ठीक ही कहा था–– जब धरती डाँवाडोल हो तो कानून की परवाह कौन करे।

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