देश में राजद्रोह के बढ़ते मुकदमे
फ्रांस के महान दार्शनिक वोल्तेयर ने कहा था–– “मैं जानता हूँ कि आपकी बात गलत है, लेकिन आपका बोलने का अधिकार सुरक्षित रहे, इसके लिए मैं अपनी जान दे सकता हूँ।” फ्रांस में सामन्तवाद के पतन के समय के शासक “लुई चैदहवें” का यह कहना कि “मैं ही राज्य हूँ” इस बात का प्रतीक था कि कोई भी व्यक्ति न तो राजा के खिलाफ कुछ बोल सकता है और न ही कुछ कर सकता है। ऐसा करना राजद्रोह की श्रेणी में आएगा। उसी तर्ज पर 1837 में लार्ड मैकाले ने भारतीय दण्ड संहिता तैयार की। 1857 के विद्रोह के बाद किसी भी विद्रोह की सम्भावना को खत्म करने के लिए 1870 में इसी दण्ड संहिता में धारा 124ए को राजद्रोह के कानून के रूप में शामिल किया गया। इस कानून में लिखा गया कि सरकार के प्रति किसी भी प्रकार की असहमति राजद्रोह के दायरे में आएगी।
इस कानून का पहला मामला 1891 में सामने आया, जब सरकार से असहमति जताने वाली खबर छापने पर एक अखबार के सम्पादक पर राजद्रोह का मुकदमा चला। इसके बाद गोरी सरकार ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को दबाने के लिए इसका जमकर इस्तेमाल किया। महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक से लेकर भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारियों पर भी इस कानून के तहत मुकदमे चलाये गये। गाँधी जी ने इस कानून को, सरकार द्वारा नागरिक आजादी को दबाने के लिए लाये गये सभी राजनीतिक कानूनों का राजकुमार कहा था, तो शहीद भगतसिंह और उनके साथियों का कहना था कि हमारे ऊपर राजद्रोह का मुकदमा चलाना इसलिए गलत है, क्योंकि हमने केवल गोरी सरकार के खिलाफ ही युद्ध नहीं छेड़ा है, बल्कि हमारा युद्ध समस्त पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ है। गोरी सरकार अपने खिलाफ उठने वाली हर असहमति को इस कानून के जरिये कुचल देना चाहती थी।
आजादी के बाद भारतीय सरकारों ने न केवल इस काले कानून को बरकरार रखा, बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने में इसका इस्तेमाल किया और कर रही हैं। आजाद भारत में राजद्रोह का पहला मुकदमा 1962 में “केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य” का दर्ज हुआ था। तब से लेकर हाल ही में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के विरोधियों पर राजद्रोह लगाने तक की फेहरिस्त बहुत लम्बी है।
आजाद भारत की सरकारें अपने खिलाफ उठने वाली हर असहमति को राजद्रोह करार देती है और राजद्रोह को देशद्रोह के रूप में प्रचारित करके जनता की सहानुभूति भी बटोर लेती है। जबकि असल में राजद्रोह और देशद्रोह में काफी फर्क है। राजद्रोह का मतलब है स्थापित सरकार को नकारना और उससे असहमति जताना, जबकि देशद्रोह का मतलब है अपने देश को नुकसान पहुँचाने वाले कार्य करना। जाहिर है कि देश का मतलब किसी पार्टी विशेष की सरकार नहीं होता है, बल्कि वहाँ के किसान, मजदूर, आदिवासी, छात्र, नौजवान, आदि से होता है। कई बार देश की रक्षा करने के लिए सरकार की गलत नीतियों का विरोध करना अनिवार्य हो जाता है। इससे साफ है कि राजद्रोह, यानी सरकार का विरोध करने में कोई बुराई नहीं, जबकि देशद्रोह करना अक्षम्य है। असहमति दर्ज कराना लोकतंत्र की बुनियाद है। इस मायने में राजद्रोह का कानून लोकतंत्र के ही खिलाफ है।
पिछले पाँच–छह वर्षों में यह कानून सरकारों का ज्यादा ही चहेता बन गया है। गाँव के ग्रामीण हों, आदिवासी हों, छात्र हों, बुद्धिजीवी हों, सब पर वर्तमान केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें यह काला कानून थोप रही हैं। तमिलनाडु के तूतीकोरिन में पूर गाँव पर केवल इसलिए राजद्रोह का कानून लगाया गया, क्योंकि वे अपने गाँव में लगने वाले परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे थे। 2014 में विस्थापन का विरोध कर रहे झारखण्ड के आदिवासियों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। जून 2018 में पश्चिमी बिहार के रोहतास जिले में एक नौजवान पर केवल इसलिए राजद्रोह का मुकदमा लगा दिया गया, क्योंकि वह एक विशेष गाने पर डान्स कर रहा था, जिसमें “मुजाहिद” शब्द का इस्तेमाल हुआ था। अक्टूबर 2014 में केरल के 25 वर्षीय दर्शनशास्त्र के छात्र को केवल इसलिए गिरफ्तार किया गया, क्योंकि वह सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान के लिए खड़ा नहीं हुआ। उस पर भी राजद्रोह की धारा 124ए लगायी गयी।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने राजद्रोह के सम्बन्ध में 2014 से आँकड़े जुटाने शुरू किये। एनसीआरबी के अनुसार, 2014 में 47, 2015 में 30 और 2016 में 35 मुकदमे राजद्रोह से सम्बन्धित दर्ज हुए। इन दिनों तो जैसे वर्तमान सरकार हर नागरिक को राजद्रोही साबित करने पर तुली हुई है। देश में बढ़ती मॉब लिंचिंग की घटनाओं को रोकने के लिए माननीय प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखने वाले 44 बुद्धिजीवियों पर सरकार ने राजद्रोह की धारा 124ए लगा दी। भारत में अवैध रूप से रह रहे गैर–मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए लाये गये अधिनियम “सीएए” का विरोध कर रहा हर व्यक्ति आज सरकार की नजर में देशद्रोही है, चाहे वह किसी भी धर्म का हो। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग भी बेहूदा बयानबाजी कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि देशद्रोही कपड़ों से पहचान लिये जाएँगे, तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कहना है कि आन्दोलन के दौरान किसी भी प्रकार से आजादी का नारा लगाना देशद्रोह है। सरकार धारा तो लगाती है राजद्रोह की, जबकि उसे प्रचारित करती है देशद्रोह के रूप में और खुद को स्वानाम धन्य ‘देश भक्त’ घोषित करती है। सरकार का यही षड्यंत्र जनता में भ्रामक नजरिया पैदा करता है।
साल 2018 में विधि आयोग ने धारा 124ए के सम्बन्ध में एक परामर्श पत्र प्रस्तुत करते हुए कहा कि “सरकार के प्रति असहमति की अभिव्यक्ति को राजद्रोह नहीं माना जा सकता” और यह सवाल भी किया कि “भारत में राजद्रोह के कानून को क्यों बरकरार रखना चाहिए, जबकि इसकी शुरुआत अंग्रेजों ने भारतीयों के दमन के लिए की थी।”
ऑस्ट्रेलिया में इस कानून का दायरा सीमित कर दिया गया है, न्यूजीलैण्ड में 2007 में इसे समाप्त किया जा चुका है। खुद अंग्रेज 2009 में इस कानून को अपने देश में खत्म कर चुके हैं, जबकि भारत में उनके बनाये इस काले कानून का जैसे पुनर्जन्म हो रहा हो।
आज की केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने राजद्रोह के कानून के जरिये भारतीय जनता, जिसमें छात्र और बुद्धिजीवी भी शामिल हैं, उनके खिलाफ उसी तरह का युद्ध छेड़ दिया है जैसा अंग्रेजों ने भारतीयों के खिलाफ छेड़ा था। अंग्रेजों को भारतीय जनता का हर आन्दोलन और असहमति की हर आवाज देशद्रोह लगती थी, वर्तमान सरकारों को भी ऐसा ही लगता है। लेकिन क्या वजह है, कि सरकार हर असहमति को देशद्रोह के रूप में प्रचारित कर रही है? इसकी वजह साफ है। देश में गहराते आर्थिक संकट से जनता का ध्यान भटकाना और अपनी गलत नीतियों के खिलाफ उठने वाली आवाज को दबाना। पिछले कई सालों से भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत लगातार गिरती जा रही है। हर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय रेटिंग एजेन्सी विकास दर में भारी गिरावट दर्शा रही है। और इस गिरावट का असर आम जन जीवन में बढ़ती महँगाई, बेरोजगारी, छोटे और लघु उद्योगों तथा किसानों की तबाही के रूप में साफ महसूस हो रही है। लेकिन सरकार की कोशिश है कि लोग इन मुद्दों को लेकर आन्दोलन करें, इससे पहले ही देश की ऐसी नब्ज छेड़ी जाये जिससे लोग जल्दी से गुमराह हो सकें। और वो नब्ज है–– नागरिकता संशोधन अधिनियम जैसे कानून, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर जैसे अभियान और अपने विरोधियों पर देशद्रोह यानी राजद्रोह के मुकदमे। जितनी तत्परता सरकार तमाम असहमतियों को देशद्रोही साबित करने और अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाम कसने में दिखा रही है, अगर उतनी ही तत्परता जरूरी वस्तुओं की कीमतों और बढ़ती बेरोजगारी पर नियंत्रण करने में लगाती, तो सच में आम जनता को कुछ राहत मिलती। सरकार की प्राथमिकता कुछ और है। लेकिन वह दिन भी दूर नहीं, जब जनता अपनी आँखों से भ्रम के पर्दे उतार फेंकेगी और राजद्रोह के काले कानून को नेस्तनाबूद करने के लिए सरकार को मजबूर कर देगी।
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