प्रधानमंत्री के लिए हर मौत के मायने अलग हैं।
प्रधानमंत्री के ट्विटर एकाउंट पर एक नजर डालिए। उससे साफ पता चलता है कि साहब के पास सूचनाओं की कमी नहीं है। देश–दुनिया की हर महत्त्वपूर्ण घटना की सूचना इनके पास पहुँचती है। राजस्थान के बाड़मेर में पंडाल गिरने से हुई मौत पर माननीय प्रधानमंत्री मौन नहीं रहे, उन्होंने चुप्पी तोड़ी और एक संवेदनशील नागरिक होने का परिचय दिया, जो कि खुशी की बात है। अपने ट्विटर खाते से लिखा कि “राजस्थान के बाड़मेर में एक ‘पंडाल’ का गिरना दुर्भाग्यपूर्ण है। मेरे विचार शोकाकुल परिवारों के साथ हैं और मैं घायलों के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करता हूँ।”
20 जून को कुल्लू में एक बस दुर्घटनाग्रस्त हुई। प्रधानमंत्री ने गहरा दुख व्यक्त किया और अपने व्यस्ततम दिनचर्या से समय निकालकर ट्विटर खाते से कहा, “कुल्लू में बस हादसे से गहरा दुख, जान गँवाने वालों के परिवारों के प्रति संवेदना। मुझे उम्मीद है कि घायल जल्द ठीक हो जाएँगे। हिमाचल प्रदेश सरकार हर सम्भव सहायता प्रदान कर रही है जो आवश्यक है।”
जब वे श्रीलंका की यात्रा पर गये तो उन्हें आतंकवाद की वजह से मरे बच्चों की याद आयी। उन्होंने लिखा, “पिछले रविवार श्रीलंका की अपनी यात्रा के दौरान, मैं सेंट एंटनी के चर्च गया था। वहाँ मुझे आतंकवाद के उस घिनौने चेहरे का स्मरण हुआ जो हर कहीं, कभी भी प्रकट होकर रोज मासूमों की जान लेता है।”
इन सब घटनाओं पर दुख व्यक्त करना और टिप्पणी करना प्रधामंत्री के मानवीय चेहरे को पेश करता है। कहीं न कहीं दिखाता है कि वह सिर्फ 24 घंटे राजनीतिक काम करने वाले व्यक्ति ही नहीं बल्कि उनमें एक आम नागरिक की संवेदना भी है। उन्हें भी दु:ख पहुँचता है। मासूम की जान जाने पर ओछी राजनीति नहीं करते बल्कि उसके लिए उनका हृदय व्याकुल हो उठता है। दर्द से भर आता है।
पर जिन घटनाओं का प्रधानमंत्री जिक्र करना नहीं भूलते उनमें एक चीज कॉमन है। वह है कि ये घटनाएँ या तो दुर्घटना हैं या आतंकवादी घटनाएँ या प्राकृतिक आपदाएँ। इन घटनाओं का एक लक्षण है कि इनके लिए कोई सीधे व्यवस्था को जिम्मेदार नहीं ठहराता। लोग अपनी खराब किस्मत समझकर दुख को बर्दास्त करते हैं। अंधविश्वास का बोलबाला होने के चलते ज्यादातर तो यही मानकर सब्र कर लेते हैं कि हमारे भाग्य में यही लिखा था या हमारे पूर्वजन्म के कर्मों का फल है।
ऐसे लोगों के साथ प्रधानमत्री की संवेदना बिना देर किये जुड़ जाती हैं। हृदय रोष से भर आता है। पूरी प्रकृति को बदल देने के सपने आने लगते हैं। मुट्ठी बन्द करके आतंकवाद को जड़ से खत्म करने की कसम खाते हैं।
अब दूसरी तरह की घटनाएँ हैं–– व्यवस्थाजन्य घटनाएँ। ऐसी घटना जिनके लिए खुद सरकार, शासन–प्रशासन और यह पूँजीवादी व्यवस्था जिम्मेदार है। जैसे मुजफ्फरपुर के अस्पताल में बिना दवा और डॉक्टरों के बीमार बच्चों की मौत। गोरखपुर के अस्पताल में बीमार बच्चों की ऑक्सीजन की कमी के चलते मौत। इस तरह की मौतों के लिए शासन–प्रशासन पूरी तरह से जिम्मेदार होता है। सरकारें जिम्मेदार और जवाबदेह होती हैं। ऐसी खबरें माननीय प्रधानमंत्री जी को प्रभावित नहीं कर पातीं। क्या वजह है? क्या इनमें एक्सीडेंट की तरह खून नहीं बहता इसलिए माननीय प्रधानमंत्री को पसन्द नहीं आतीं। क्या इन मौतों में बम धमाके जितनी आवाज नहीं होती इसलिए उनका ध्यान नहीं जाता?
व्यवस्थाजन्य मौतों में एक चीज कॉमन होती है कि ये मौतें इस मुनाफे पर आधारित व्यवस्था की पोल खोलती हैं। अस्पताल में बच्चों की मौत सरकारों को नंगा करती हैं। देवताओं की नीन्द में खलल डालती हैं। प्रधानमंत्री के रोज अट्ठारह घंटे काम करने की सच्चाई को उजागर करती हैं। अगर ये मौत किसी प्राकृतिक आपदा से होतीं तो प्रधानमंत्री संवेदना व्यक्त करने में सबसे आगे खड़े होते। अब तक किसी न किसी भाषण में रो दिये होते। गमगीन चेहरे की फोटो वायरल हो गयी होती।
कुछ व्यवस्थाजन्य घटनाओं पर जरूर माननीय प्रधानमंत्री जी ने चुप्पी तोड़ी है जैसे बंगाल में पुल गिर जाने से हुई मौत। उस समय वहाँ ममता बनर्जी की सरकार थी। मतलब यह हुआ कि व्यवस्थाजन्य नरसंहार पर भी वे बोल सकते हैं, काफी अच्छा बोल सकते हैं, बशर्ते वहाँ सरकार गैर भाजपाई हो और चुनाव नजदीक हो। हालाँकि बनारस में पुल गिरने की घटना पर प्र/ाानमंत्री मौन /ाारण कर लेते हैं।
इससे साफ पता चलता है कि प्रधानमंत्री जी का हृदय मानवीय संवेदनाओं से नहीं बल्कि राजनीतिक हानि–लाभ से जुड़ा हुआ है। किन मौत पर रोना–धोना है और किन पर चुप लगा जाना है, यह बात वह बखूबी जानते हैं। चूँकि उनकी संवेदनाएँ सत्ता और कुर्सी से संचालित होती हैं, इसलिए वे तोल–मोल कर बोलते हैं।
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