जुलाई 2019, अंक 32 में प्रकाशित

आईआईटी हैदराबाद के छात्र मार्क एंड्रयू चार्ल्स की आत्महत्या

दो जुलाई को आईआईटी हैदराबाद में मास्टर ऑफ टेक्नोलॉजी (एम टेक) के छात्र मार्क एंड्रयू चार्ल्स ने आत्महत्या कर ली। चार्ल्स का परिवार उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के नरिया लंका इलाके में रहता है। चार्ल्स इस दुनिया से हमेशा के लिए विदा हो गया है। अपने पीछे वह एक पत्र छोड़कर गया है जिसमें आईटी सेक्टर में काम कर रहे उसके दोस्तों के लिए कुछ नसीहतें हैं। कि यार जी लो! एक ही जिन्दगी है। कंपनियों के चक्कर में बर्बाद मत करो। इस संस्थान की इस साल में यह दूसरी आत्महत्या है। इसी साल 31 जनवरी को मैकेनिकल इंजीनियरिंग के तीसरे वर्ष के छात्र अनिरुद्ध ने हॉस्टल की छत से छलाँग लगाकर आत्महत्या कर ली थी।

आँखों में आँसू लिए चार्ल्स की माँ कहती हैं कि “उनका बेटा सकारात्मकता से भरा हुआ था। वह तेज–तर्रार और खुद पर भरोसा करने वाला था। जो भी है, दो साल में इस इंस्टीट्यूट ने उसे तोड़ दिया। डिजाइन विभाग के प्रोफेसर, उसके गाइड और यह इंस्टीट्यूट मेरे बेटे की मौत के लिए जिम्मेदार हैं। इस इंस्टीट्यूट में जो अपमान उसने सहा उसकी वजह से ही वह मर गया।”

चार्ल्स ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि उसे दुनिया के सबसे अच्छे माता–पिता मिले, दोस्तों की भी तारीफ की है और साथ ही यह भी लिखा है कि वे उसे याद न करें, वह याद किये जाने लायक नहीं है। उसके खराब नंबर आ सकते हैं। वह फेल हो सकता है। और इस दुनिया में फेलियर का कोई भविष्य नहीं है। अंत में लिखा है कि “माँफ कीजिएगा, मैं एक तरह का अपशिष्ट बन गया हूँ।”

चार्ल्स आत्महत्या करने वाला कोई पहला छात्र नहीं है, न ही अंतिम। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हिसाब से हमारे देश में हर घंटे में कोई न कोई छात्र आत्महत्या कर लेता है। दशक के हिसाब से देखें तो ये आँकड़े लगातार बढ़ रहे हैं।

आत्महत्या करने वाले छात्र अपने पत्रों के साथ–साथ बहुत सारे सवाल छोड़कर जाते हैं। भले ही आत्महत्या करने वाले छात्रों की संख्या आतंकवाद से होने वाली मौतों से सौ गुने से भी ज्यादा है पर मीडिया, सरकार और सामाजिक विश्लेषकों का ध्यान इस तरफ आतंकवाद पर ध्यान के मुकाबले सौवां हिस्सा भी नहीं है। जिसने आत्महत्या की उसे कायर, समस्याओं को न झेल पाने वाला, डिफरेंट सिचुएशन को हैंडल न करने वाला कहकर सब पीछा छुड़ा लेते हैं। यह ठीक बात है कि पिछली लाईन में गिनाये गए सारे पहलू आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के अंदर किसी न किसी अनुपात में मिलते हैं। इसके अलावा और बाहरी कारण क्या हैं जो किसी व्यक्ति के इन अवगुणों को बढ़ाने में सहायक हैं? कैसे ये अवगुण उसका सारा ध्यान आत्महत्या की तरफ केंद्रित कर देते हैं? क्यों उसके जीवन में ऐसी कोई वजह नहीं होती जिसके लिए वह जिन्दगी का स्वागत करे? क्यों कोई छात्र अच्छे मार्क्स लाना या बड़ी कंपनी में काम करना ही जिन्दगी की सफलता मानता है?

जब हम इन सवालों की गहराई से जाँच–पड़ताल करेंगे तो हमारे सामने आत्महत्याओं के पीछे के ठोस कारण आ सकते हैं। हम एक–एक करके सारे मनोभावों की जाँच–पड़ताल कर सकते हैं। उनका समाज से रिश्ता देख सकते हैं। हमारे दिमाग का कोई भी भाव हो, चाहे सकारात्मक चाहे नकारात्मक, उसका आधार कहीं न कहीं समाज में जरूर होता है। पर इन सवालों के सही जवाब और समाधान के लिए सामूहिक तौर पर पूरे देश के प्रयास न के बराबर हैं। जब यह समस्या सामाजिक है तो समाधान भी सामाजिक होना चाहिए।

जब चार्ल्स के दिमाग में आया कि वह अपशिष्ट बन गया है। एक तरह से कूड़ा, कचरे के ढेर में फेंकने लायक। वह फेल हो सकता है। तो वह किन मनोभाव से गुजर रहा होगा? उसके आस–पास जो दुनिया है उसमें वह कहीं फिट नहीं बैठेगा। कम नंबर आएंगे तो कहीं नौकरी नहीं मिलेगी। स्कॉलरशिप तो वैसे भी पाँच महीने से रुकी हुई है। उसके लिए अब इस संसार में कोई जगह है ही नहीं। वह किसी के लायक नहीं है।

अगर हम इन मनोभावों को समाज की भौतिक परिस्तिथियों से जोड़कर देखें तो मामला काफी हद तक साफ हो जायेगा। आज देश में बेरोजगारी अपने चरम पर है। धर्म, क्षेत्र और जाति के नाम पर भेदभाव दिन दूना रात चैगुना बढ़ रहा है। विज्ञान और तर्क की रौशनी परदे के पीछे है। धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वाास के काले बादल सभी दिशाओं में मंडरा रहे हैं। कॉलेज–यूनिवर्सिटियाँ सालों तक छात्रों को घेरे रहती हैं। शिक्षण संस्थान समाज की कड़वी सच्चाई को समझाने के बजाय बाहरी दुनिया की बेहद ख़ूबसूरत तस्वीर पेश करते हैं। आठवीं–नौवीं कक्षा से ही आईआईटी की तैयारी में लगने वाले नन्हे–नन्हे नौनिहाल अपने बचपन को दाँव पर लगाते हैं। स्कूल कहता है कि हमारे यहाँ आओ हम सर्वांगीण विकास करेंगे। कोचिंग सर्वांगीण विकास से एक कदम आगे बढ़कर सुनहरे भविष्य का दावा करती हैं। घर वाले स्कूल में अच्छे नंबर का मतलब ज्यादा रुपये वाली नौकरी समझते हैं। सबसे आगे निकलने की होड़ हँसते–खेलते नौजवानों की हर खुशी छीन लेती है। उसे स्कूल, कालेज और समाज हर जगह बताया जाता है कि तुम फेल हुए तो कुछ नहीं हो, किसी लायक नहीं हो। समाज के लिए कचरा हो। यही शब्द थे चार्ल्स के भी कि –मैं किसी लायक नहीं हूँ।

वास्तव में यह उसके शब्द नहीं थे। समाज ने जो उसे अलग–अलग श्रोतों से दिया उसने उसे व्यवहार में उतार दिया।  उसके दिमाग को यही तार्किक लगा कि जब वह किसी लायक ही नहीं है तो उसे जीने का ही हक़ क्यों हो।

हमारे देश में हर साल हजारों छात्र आत्महत्या करते हैं। क्या सरकार ने इनके पीछे कारणों को जानने के लिए कोई समिति बनायी? क्या किसी यूनिवर्सिटी में रिसर्च हुई? यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैनचेस्टर में एक छात्र ने दक्षिण भारत में आत्महत्याओं के ऊपर एक थीसिस की है। या फिर अमरीका बेस्ड एक संस्था है एनसीबीआई उसने कुछ रिसर्च पेपर छापे हैं। पर भारत सरकार और भारतीय यूनिवर्सिटी इस विषय पर आँखें मूंदकर बैठी हुई हैं।

अभी तक तो हमारे देश में आत्महत्याओं को देखने का नजरिया ही बेहद संकुचित है। लोग इसे व्यक्तिगत घटना समझकर आगे बढ़ जाते हैं। जबकि यह देश में एक ट्रेंड के रूप में उभर कर आरहा है। नौजवानों के दिलों में हताशा, निराशा और असफलता के भाव गहराई से धंसते जारहे हैं। महंगी पढ़ाई और बेरोजगारी इसमें उत्प्रेरक का काम कर रही हैं। ऐसे में इतिहास को आगे ले जाने वाले नौजवान इस व्यवस्था के बनाये चक्रव्यूह में फंसकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर रहे हैं।

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