संपादकीय: अगस्त 2022

श्रीलंका संकट : नवउदारवाद की कारगुजारियों का शिलालेख

उमा रमण ( संपादक ) 512

चार महीने से आर्थिक तबाही के खिलाफ संघर्षरत श्रीलंका की जनता ने 9 जुलाई को राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया और राष्ट्रपति गोताबाया राजपक्षे को देश छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया। हर्षोल्लास और तात्कालिक जीत की तस्वीरें समाचार माध्यमों पर छाई हुई हैं और दुनिया भर के नवउदारवादी शासक घबराये हुए हैं।

इस साल की शुरुआत में ही श्रीलंका की अर्थव्यवस्था भुगतान संतुलन के गम्भीर संकट में फँस गयी थी, विदेशी मुद्रा भण्डार खाली हो चुका था, बुनियादी जरूरत की चीजों के आयात और विदेशी कर्ज की किश्त चुकाने के लिए भी डॉलर नहीं था। कीमतें  बेलगाम बढ़ रही थीं। प्राकृतिक गैस, पेट्रोल, डीजल और अनाज की आपूर्ति में सेना को तैनात किया गया। तीसरी दुनिया के उन्नत जीवन स्तर और औसत आय वाला एक खुशहाल देश श्रीलंका दिवालिया हो गया।

गोताबाया की सरकार ने जन आन्दोलन को दबाने की भरपूर कोशिश की, सेना को सड़कों पर उतारा, आपातकाल लगाया लेकिन विरोध बढ़ता ही गया। श्रीलंका की जनता के ऐतिहासिक आन्दोलन से जुड़ी हुई अधिकतर खबरें सामने आ चुकी हैं। लेकिन श्रीलंका दिवालिया कैसे हो गया और इसके लिए कौन जिम्मेदार है, यह असुविधाजनक सवाल इस फसाने में गायब है।

विनाशकाले विपरीत बुद्धि     

2016 से ही श्रीलंका में ऑर्गेनिक खेती का भारी प्रचार हो रहा था। असल मामला यह था कि विदेशी मुद्रा भण्डार लगातार घटता जा रहा था जबकि सरकार उर्वरक और कीटनाशकों के आयात घटाकर डॉलर बचाना चाहती थी। सरकार ने उर्वरक मुक्त खेती की योजना पेश तो की लेकिन कृषि वैज्ञानिकों और किसान संगठनो का भारी विरोध देखकर पीछे हट गयी।

2019 में गोटाबाया राजपक्षे की सरकार बौद्ध धर्मोन्माद और सिंहली श्रेष्ठतावाद के जरिये साम्प्रदायिक नफरत और अधिनायकवाद फैलाकर सत्ता में आयी थी। उसे विश्वास था कि कूपमण्डूकता और फूटपरस्ती की शिकार जनता उसके नापाक इरादों को नहीं समझ पायेगी। इसी भरोसे 2021 में सरकार ने आयात खर्च बचाने के लिए उर्वरक मुक्त खेती की योजना लागू कर दी। विरोध करनेवालों को देशद्रोही बता दिया गया तथा रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों के आयत पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया।

कृषि क्षेत्र को पूरी तरह ऑर्गेनिक खेती में तब्दील करने के चलते 2021 में कृषि उत्पादन में 45 प्रतिशत तक की गिरावट आयी। इस योजना के खिलाफ किसानों का आन्दोलन तेज हो गया और उन्होंने कृषि मंत्री को बंधक बना लिया। आखिरकार, हरजाने के तौर पर सरकार ने किसानों को 40 अरब रुपये का भुगतान किया और भारी मात्रा में कृषि उत्पादों का आयात किया जबकि 36 अरब रुपये में श्रीलंका सालभर की जरूरत का उर्वरक और कीटनाशक आयात कर सकता था। इसी साल ऑर्गेनिक खेती की नीति वापस ले ली गयी लेकिन देश की डाँवाडोल अर्थव्यवस्था को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी।

श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को डुबाने में 2019 के बजट ने भी योगदान किया है। इस बजट में पूँजीपति वर्ग और माध्यम वर्ग को करों में भारी छूट दी गयी थी। सरकार ने कार्पाेरेट टैक्स 28 प्रतिशत से घटाकर 24 प्रतिशत और मूल्य वर्धन टैक्स (वैट) 15 प्रतिशत से घटाकर 8 प्रतिशत कर दिया था। इसके अलावा  आयकर की सीमा 5 लाख से बढ़ाकर 30 लाख श्रीलंकाई रुपया कर दी थी और सम्पत्ति सम्बन्धी अन्य करों में भी छूट दी गयी थी। करों में इस छूट से सरकार को सालाना 2 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। यह सब उस दौर में किया गया जब विदेशी मुद्रा भण्डार खाली होता जा रहा था और विदेशी कर्ज की किश्त चुकाना दूभर होता जा रहा था।

संकट की दस्तक

नवउदारवादी वैश्वीकरण ने बेमेल उत्पादक शक्तियों वाली अर्थव्यवस्थाओं को आपस में जोड़ा और छोटी तथा कमजोर अर्थव्यवस्थाओं को बाहरी कारकों पर बहुत ज्यादा निर्भर बना दिया। पर्यटन श्रीलंका में विदेशी मुद्रा आय का प्रमुख स्रोत था। शासक सोच रहे थे कि पर्यटन से होने वाली आय से वे विदेशी कर्जों की किश्त भर देंगे लेकिन उनकी गलत नीतियों और कोरोना महामारी ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। 2018 में पर्यटन से 4.4 अरब डॉलर की आय हुई थी। 2019 में तथाकथित सिंघली राष्ट्रभक्तों के आतंकवादी गिरोहों ने चर्चों में बम विस्फोट करके 250 से ज्यादा ईसाइयों की हत्या कर दी थी। इससे पर्यटकों की संख्या में काफी गिरावट आयी। इसके बाद आयी कोरोना महामारी ने पर्यटन से होने वाली आय को लगभग ठप्प कर दिया। कोरोना थमने के कुछ ही समय बाद रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध छिड़ गया, श्रीलंका में अधिकतर पर्यटक इन्ही देशों से आते थे। इससे विदेशी मुद्रा आय का एक प्रमुख स्रोत सूख गया।

श्रीलंका की अर्थव्यवस्था 2021 में ही डाँवाडोल होने लगी थी। अन्तरराष्ट्रीय बाजार में श्रीलंकाई रुपया तेजी से गिर रहा था लेकिन केन्द्रीय बैंक ने रुपये की कीमत नहीं घटायी। इसके कारण निर्यातकों को डॉलर के बदले ज्यादा सामान देना पड़ रहा था, इसलिए निर्यातकों ने निर्यात बहुत कम कर दिया और विदेशी मुद्रा की आय का यह बड़ा रास्ता भी सँकरा हो गया। इसके साथ ही विदेशों में खासकर खाड़ी देशों में काम करने वाले मजदूर भी विदेशी मुद्रा के बदले ज्यादा रुपया पाने के लिए सरकारी चैनलों के बजाय हवाला जैसे तरीकों से देश में रुपया भेजने लगे। कुल मिलाकर श्रीलंका की विदेशी मुद्रा आय के लगभग सभी स्रोत बन्द होते गये।      

कर्ज के मर्ज की दवा भी कर्ज

नवउदारवाद के आर्थिक धर्माचार्य जो कल तक श्रीलंका की सफलता के ढोल पीट रहे थे, अब बता रहे हैं कि अर्थव्यवस्था 2016 से ही संकट में थी। कोरोना से ठीक पहले, 2019 में आईएमएफ ने श्रीलंका के बजट की तारीफ करते हुए कहा था कि एक उचित लक्ष्य वाले बजट के साथ आय आधारित वित्तीय सुदृढ़ीकरण को बढ़ावा देकर सरकार ने अच्छा काम किया है– इससे मुद्रा भण्डार मजबूत होगा। आज यह भण्डार खाली पड़ा है और श्रीलंका दिवालिया हो चुका है।

 श्रीलंका पर लगभग 35 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज है। इसमें से अधिकांश कर्ज 2004 के बाद अमरीकी और यूरोपीय वित्तीय संस्थाओं, आईएमएफ, एशियाई विकास बैंक जैसी संस्थाओं से बहुत कड़ी शर्तों पर लिया गया है। कर्ज अदायगी  के लिए श्रीलंका को हर साल अरबों डॉलर की किश्त भरनी पड़ती है। 2022 में ही उसे 6–9 अरब डॉलर की किश्त का भुगतान करना है।

2021 में ही श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भण्डार घटकर केवल 2–4 अरब डॉलर रह गया था। इसके बावजूद सरकार ने विदेशी कर्ज की किश्त चुकायी क्योंकि कर्ज का बड़ा हिस्सा सोवेरन बॉण्ड बेचकर लिया गया था तथा शाख बचाने और अगले कर्जे लेने के लिए किश्त चुकाना जरूरी था। अगर किश्त चुकाने की मजबूरी न होती तो वहाँ की अर्थव्यवस्था पर्यटन रुक जाने के चलते विदेशी मुद्रा आय में आयी कमी को काफी हद तक झेल सकती थी। इससे रुपये की कीमत में गिरावट न आती और आय के दूसरे स्रोत जारी रहते, लेकिन विदेशी कर्जों की किश्तें श्रीलंका के मुद्रा भण्डार को लगातार खाली करती रही और इन्हीं कर्जों की शर्तों ने सरकार को मुद्रा भण्डार बढ़ाने के उपाय करने से रोके रखा। नतीजतन श्रीलंका का दिवालिया होना लाजमी था।

श्रीलंका के शासक आईएमएफ से 16 बार कर्ज ले चुके हैं और हर बार उसकी शर्तें पहले से कहीं ज्यादा कठोर होती गयी हैं। अब वे आईएमएफ से फिर कर्ज माँग रहे हैं। निश्चय ही, नया कर्ज और ज्यादा कठोर शर्तों पर दिया जायेगा जो आनेवाले समय में अर्थव्यवस्था को और गम्भीर संकट की ओर ले जायेगा।

क्या तबाही के लिए चीन जिम्मेदार है?

दिन–रात झूठ गढ़ने और फैलानेवाला दैत्याकार अमरीकी प्रचार तंत्र, श्रीलंका की तबाही की जिम्मेदारी चीन के मत्थे मढ़ने में जुटा है और सफल भी हो रहा है। वास्तव में, श्रीलंका की लूट में चीन की हिस्सेदारी बेहद कम है। श्रीलंका के कुल विदेशी कर्ज में उसका हिस्सा केवल 10 प्रतिशत है। श्रीलंका के कर्ज का 47 प्रतिशत आईएमएफ के जरिये अमरीका और पश्चिमी यूरोप के वित्तीय संस्थानों से आया है लेकिन किसी ने इन पर प्रश्न चिन्ह खड़ा नहीं किया।

2007 में श्रीलंका पोर्ट अथोरिटी के चेयरमैन सालिया विक्रमासूर्या ने चीन से 30 करोड़ डॉलर का कर्ज मिलने पर कहा था कि गृहयुद्ध के दौरान 30 करोड़ डॉलर का विशाल व्यवसायिक कर्ज मिल जाना बहुत बड़ी बात है। चीन ने यह कर्ज 6.3 प्रतिशत की ब्याज दर पर दिया था, जबकि उसी साल दूसरे वित्तीय संस्थानों से श्रीलंका ने 8.5 प्रतिशत की ब्याज दर पर कर्ज लिया था। 2012 में चीन ने केवल 2 प्रतिशत की ब्याज दर पर श्रीलंका को कर्ज दिया।  

बताया जा रहा है कि चीन ने अपनी ओबीओआर परियोजना के लिए श्रीलंका को हम्बनटोटा बंदरगाह को विकसित करने के जाल में फँसाया। सच्चाई यह है कि श्रीलंका ने 2003 में ही इस बंदरगाह की योजना बना ली थी और इसके सर्वे का ठेका कनाडाई कम्पनी, इंटर्नेशनल डवलपमेंट एजेंसी को दिया था। उस वक्त ओबीओआर का कहीं नामोनिशान नहीं था। 2006 में डेनमार्क की कम्पनी रेम्बोल ने हम्बनटोटा के फिर से सर्वे का ठेका लिया। इसके निर्माण के लिये श्रीलंका ने चीन से पहले अमरीका और भारत को सहयोग का प्रस्ताव दिया था, जिसे दोनों ने नकार दिया था। तमाम तथ्य गवाह हैं कि चीन को इस संकट का जिम्मेदार ठहराने की सारी कवायद दरअसल ड्रैगन के किस्से गढ़कर ड्रेकुला की रक्त–पिपासा को छुपाना है।          

श्रीलंका कर्ज के जाल में कैसे फँसा?

श्रीलंका 1948 में ब्रिटेन की गुलामी से आजाद होकर एक डोमिनियन राष्ट्र बना, लेकिन आजादी के बाद भी उस पर विदेशी पूँजी का ही वर्चस्व कायम रहा। उत्पादन के प्रमुख क्षेत्र, कृषि पर पहले ब्रिटेन की बगान कम्पनियों का कब्जा था, आजादी के बाद इसमें दूसरे देशों की कम्पनियाँ भी घुस गयीं। इन्होंने देश की आन्तरिक माँग के अनुरूप पारम्परिक खेती को तबाह करके चाय, रबर, कॉफी आदि के बड़े–बड़े बागान विकसित किये।

जनता के बीच फूटपरस्ती को बढ़ावा देना ब्रिटिश उपनिवेशकों की आजमाई हुई चाल थी। 1948 के बाद बनी सेनानायके की सरकार ने भी इस नीति को जारी रखा तथा सिंघली और तमिल समुदायों के बीच टकराव को बढ़ावा दिया। 1956 में सिंघली ओनली एक्ट पारित करके दोनों समुदायों के बीच दुश्मनी को बढ़या गया और 1958 में दोनों समुदायों के बीच जबरदस्त दंगे हुए।

विदेशी पूँजी के वर्चस्व ने श्रीलंका को उपभोक्ता सामानों के साथ ही कृषि उत्पादों का भी आयातक बना दिया था। 1965 में यह अर्थव्यवस्था भुगतान संतुलन के गम्भीर संकट में फँस गयी और श्रीलंका को पहली बार आईएमएफ से कर्ज लेना पड़ा। इस पहले कर्ज की शर्त यह थी कि सरकार जन कल्याणकारी योजनाओं में कटौती करके बजट घाटा कम करे, निजी और विदेशी पूँजी पर टैक्स घटाए, और जनता को दी जाने वाली सब्सिडी में कटौती करे।  

आईएमएफ के कर्ज से अर्थव्यवस्था का संकट हल होने के बजाय और बढ़ता गया। जनता हथियारबंद विरोध के रास्ते पर उतरने लगी। पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट के नौजवान जनता के इन संघर्षों को जन क्रान्ति के रास्ते पर बढ़ा रहे थे। आखिरकार 1970 में सरकार गिर गयी और वामपंथी पार्टियों के सहयोग से श्रीमति भण्डारनायके के नेतृत्व में नयी सरकार सत्ता में आयी। इस सरकार ने डोमिनियन स्टेटस को खत्म करके श्रीलंका को एक सम्प्रभु राष्ट्र घोषित कर दिया।

अर्थव्यवस्था में भारी बदलाव किये गये। भूमी सुधार करके कृषि जमीन किसानों में बाँट दी गयी। बागानों, उद्योगों, बैंकों, बीमा कम्पनियों और दूसरे वित्तीय संस्थानों को राष्ट्र की सम्पत्ति बना दिया गया। जनता के लिए सस्ती शिक्षा, इलाज, परिवहन जैसी सुविधाओं का इन्तजाम किया गया। बेलगाम आयत पर अंकुश लगाया गया और पूँजीपतियों पर करों का बोझ बढ़ाया गया। 1973 में आये तेल संकट ने श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भण्डार खाली कर दिया था इसके बावजूद 1975 से पहले ही आईएमएफ का सारा कर्ज चुका दिया गया।

श्रीमति भण्डारनायके की सरकार श्रीलंका की जनता के हथियारबंद विद्रोह से त्रस्त पूँजीपति वर्ग की रक्षा करने के लिए गठित सरकार थी। इसने अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाया, पूँजीपति वर्ग की जड़ें मजबूत की और जनविद्रोह पर ठण्डा पानी डाला। 1977 तक इस सरकार की जरूरत पूरी हो गयी।

1977 में बनी जयवर्धने की सरकार ने सत्ता सम्हालते ही आईएमएफ का दामन थाम लिया। अमरीकी साम्राज्यवादी खेमे द्वारा प्रस्तुत नवउदारवादी नीतियों को लागू करने वाली यह दक्षिण एशिया की पहली सरकार थी।  

जयवर्धने की सरकार ने नवउदारवादी नीतियों के मुताबिक अर्थव्यवस्था को विदेशी पूँजी के लिए खोल दिया, देशी–विदेशी पूँजीपतियों को करों में भारी छूट दी, आयात पर नियंत्रण ख़त्म कर दिया, कल्याणकारी योजनाओं और सब्सिडी में कटौती की। नतीजतन 1984 तक श्रीलंका को आईएमएफ से तीन बार कर्ज लेना पड़ा, जिसकी भारी कीमत श्रीलंकाई जनता को चुकानी पड़ी। वहाँ वास्तविक मजदूरी में 22 प्रतिशत की भारी गिरावट आयी, प्रतिव्यक्ति भोजन में कैलोरी की मात्रा 1500 से घटकर 1350 रह गयी, ग्रामीण बच्चों में कुपोषण 6.2 प्रतिशत से बढ़कर 9.4 प्रतिशत हो गया।

नवउदारवादी धर्मावलम्बी शासक यह जानते थे कि नयी नीतियों का जनता विरोध करेगी, इसलिए 1975 से ही बौद्ध धर्मान्धता, सिंघली श्रेष्ठतावाद और बहुसंख्यकवाद को खूब बढ़ावा दिया जा रहा था। श्रीलंका की 74 प्रतिशत आबादी सिंहली है, इनके दिमाग में यह झूठ घुसाया गया कि 11 प्रतिशत तमिल एक दिन श्रीलंका पर कब्जा कर लेंगे, तमिल गंदे और देशद्रोही हैं, वे भारत को ही अपना वतन मानते हैं। इसके अलावा मुस्लिमों और ईसाईयों को भी सिंहलियों का दुश्मन बनाया गया। इसके बावजूद श्रीलंका के मजदूर और निम्न जाति माने जानेवाले ग्रामीण सिंहली नयी नीतियों के खिलाफ जबरदस्त आन्दोलन चलाते रहे। अंतत: 1983 में, जयवर्धने की सरकार ने नवउदारवाद की रक्षा के लिए श्रीलंका को गृहयुद्ध में झोंक दिया।

गृहयुद्ध और लिट्टे की आड़ में नवउदारवाद विरोधी विद्वानों, मजदूरों, किसानों का जबरदस्त दमन किया गया। इस दमन का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हजारों गायब लोगों की माओं ने राष्ट्रीय स्तर पर अपना ऐतिहासिक संगठन खड़ा किया और अपने गायब बेटे–बेटियों के बाद वे सरकार से भिड़ गयीं। गृहयुद्ध 2009 तक चला और इस पूरे दौर में श्रीलंका के शासक नवउदारवाद के रास्ते पर बहुत आगे तक नहीं बढ़ पाये।

2009 में ही श्रीलंका के शासकों ने पहले से ज्यादा कठोर शर्तों पर आईएमएफ से 2.6 अरब डॉलर का भारी भरकम कर्ज लिया। यह बड़ा कर्ज पहले से बड़ा संकट लेकर आया। 2012 में श्रीलंका फिर भुगतान संतुलन के संकट फँस गया और अर्थव्यवस्था हिचकोले खाने लगी। एक और कर्ज लेकर इस संकट को और बड़े रूप में आने के लिए टाल दिया गया। बौद्ध धर्मान्धता, सिंघली श्रेष्ठतावाद और बहुसंख्यकवाद, तमिलों, मुस्लिमों, ईसाईयों के प्रति नफरत का जहरीला घोल फिर से सिंहलियों को पिलाया जाने लगा।

कर्ज के साथ नये–नये शर्तनामे लादकर आईएमएफ श्रीलंका की सरकारों को देशी–विदेशी पूँजी को नयी–नयी रियायतें देने के लिए मजबूर करता रहा, दूसरी ओर, जनता के भारी दबाव के चलते सरकारें जनता को दी जाने वाली सुविधाओं और सब्सिडी में बहुत ज्यादा तेजी से कटौती नहीं कर पायीं। नतीजतन 2019 में विकास दर घटकर 2.9 प्रतिशत और सरकार की आय घटकर जीडीपी का 12.6 प्रतिशत रह गयी और कर्ज बढ़कर जीडीपी के 86 प्रतिशत तक पहुँच गया। गजब तो यह कि आईएमएफ ने उसी साल श्रीलंका सरकार की भूरि–भूरि प्रशंसा की।

श्रीलंका में अमरीकी साम्राज्यवाद का भू–राजनीतिक मंसूबा

अमरीका रणनीतिक रूप से श्रीलंका को अपनी “फ्री एण्ड ओपन इण्डो–पैसिफिक रीजन पॉलिसी” के अधीन एक “मिलिटरी लोजिस्टिक हब” के रूप में देखता है। संयुक्त राज्य अमरीका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच हुई इस रणनीतिक साझेदारी का उद्देश्य चीन के समुद्री क्षेत्र और सिल्क रोड पहलकदमी की चुनौती का मुकाबला करना है।

अनुमान है कि दुनिया के तेल का दो–तिहाई और सभी कंटेनर शिपमेंट का आधा हिस्सा पूर्व–पश्चिम शिपिंग मार्ग से होकर गुजरता है। यह प्रमुख शिपिंग मार्ग श्रीलंका के दक्षिणी छोर से सिर्फ 6 से 11 समुद्री मील की दूरी पर स्थित है। श्रीलंका के पूर्वी हिस्से में त्रिंकोमाली पोर्ट एक प्राकृतिक बन्दरगाह है जो दुनिया के बेहतरीन बन्दरगाहों में से एक है।

इन्ही भू–राजनीतिक स्थितियों का फायदा उठाने के लिए पेंटागन ने षडयंत्र शुरू किया तथा श्रीलंका के साथ स्टेटस ऑफ फोर्स एग्रीमेंट (एसओएफए) और अक्विजिशन एण्ड क्रॉस–सर्विसिंग एग्रीमेंट (एसीएसए) करने के लिए रास्ता साफ किया, जिसे पहले नाटो म्यूचुअल सपोर्ट एक्ट के रूप में जाना जाता था।

जैसे–जैसे श्रीलंका आईएमएफ के कर्ज जाल में फँसता गया, अमरीकी साम्राज्यवादियों ने इन समझौतों के लिए उसकी घेरेबन्दी तेज की और अपना मंसूबा पूरा करने में सफल हुए।

2019 में जब समझौतों का नवीनीकरण हुआ, तो श्रीलंकाई संसद ने पूरे दस्तावेज की समीक्षा भी नहीं कीय हस्ताक्षर करने से पहले श्रीलंका के सैन्य अधिकारियों ने इसे देखा भी नहीं था। श्रीलंकाई लोगों ने इसका काफी विरोध किया, क्योंकि वे इसे अपनी सम्प्रभुता के लिए खतरा मानते थे। कोलंबो टेलीग्राफ अखबार ने इस शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया था–– ‘ड्राफ्ट एसओएफए–– श्रीलंका को एक सैन्य कॉलोनी में बदलने की अमरीकी योजना का इजहार है।’

नवउदारवाद है तो संकट लाजमी है

1970 के दशक में श्रीलंका के शासकों ने एक कल्याणकारी राज्य का निर्माण किया था। जन कल्याण और बेहतर जीवन के तमाम सूचकों में तीसरी दुनिया के सभी देश श्रीलंका से बहुत पीछे थे। श्रीलंका के शासक नवउदारवाद अपनाने के बावजूद जनता के भारी दबाव के चलते पुरानी कल्याणकारी नीतियों को खत्म नहीं कर पाये। इसी का सहारा लेकर नवउदारवाद समर्थक श्रीलंका के उदाहरण से यह साबित करते थे कि नवउदारवाद और जन कल्याण साथ–साथ चल सकता है।

1970 के दशक में कल्याणकारी राज्य की नीति के तहत श्रीलंका ने गैरजरूरी आयात पर अंकुश लगाया था, और आयात किये जाने वाले उपभोक्ता सामानों को देश में ही तैयार करने की कोशिश की थी। इस कदम से विदेशी मुद्रा की बचत हुई और सरकार की आय में भी बढ़ोतरी हुई। नतीजतन 1977 में श्रीलंका को विदेश व्यापार में 15 करोड़ डॉलर की बचत हुई। लेकिन नवउदारवादी आर्थिक नीति अपनाने के बाद आत्म निर्भर और जनहितकारी नीतियों को त्याग दिया गया। परिणाम यह हुआ कि कुछ ही सालों में श्रीलंका के छोटे और मझोले उद्योग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कारिन्दे बन गये। आयात इस कदर बेलगाम हो गया कि चारों और समुद्र से घिरा श्रीलंका मछलियों तक का आयात करने लगा। इससे सालाना व्यापार घाटा बढ़कर 8 अरब डॉलर तक पहुँच गया। सरकार की आय और विदेशी मुद्रा भण्डार सिकुड़ते गये जिसकी पूर्ति के लिए बार–बार कठोर शर्तों पर विदेशी कर्ज लेना पड़ा।

गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद श्रीलंका में सेवा क्षेत्र का बेलगाम विस्तार हुआ। जल्द ही पर्यटन विदेशी मुद्रा आय और अर्थव्यवस्था का प्रमुख क्षेत्र बन गया। इससे अर्थव्यवस्था की स्थिरता कमजोर हुई और जब कोरोना महामारी के चलते पर्यटन बन्द हो गया तो पूरी अर्थव्यवस्था रसातल की ओर बढ़ चली।

कल तक लोग लोक कल्याण के मामले में श्रीलंका की मिसाल देने वाले नवउदारवाद के पैरोकार अब अर्थव्यवस्था की तबाही का दोष सरकार की कल्याणकारी नीतियों के मत्थे मढ़ रहे हैं जबकि तमाम तथ्य साफतौर पर बता रहे हैं कि नवउदारवादी नीतियों ने ही श्रीलंका को दिवालिया किया है। नवउदारवाद की नीतियाँ खुद स्पष्ट कर देती हैं कि इसका निर्माण देशी–विदेशी पूँजीपतियों के गठजोड़ के हाथों जनता के निर्मम शोषण के लिए ही किया गया है। यह एक जनविरोधी और ढाँचागत संकट की ओर धकेलने वाली साम्राज्यवाद परस्त नीति  है। मूलरूप से यह पूँजीपतियों को हर तरह की छूट देने और उनके निर्मम शोषण की शिकार जनता पर करों का भारी बोझ लादने और उसकी सुविधाओं को खत्म करने वाली नीति है। जनता पर कहर ढाने वाली नवउदारवादी नीतियाँ जनता में घोर असंतोष पैदा करती हैं जिससे बचने के लिए उसे लागू करनेवाली सरकारें धर्मान्धता, नस्लवाद, अधिनायकवाद जैसी मध्ययुगीन अलोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देती हैं और उस लोकतंत्र तथा राष्ट्र को ही दाँव पर लगा देती हैं जिसे खुद पूँजीपति वर्ग ने निर्मित किया था।

नवउदारवाद को अपनाने वाली अर्थव्यवस्था कभी भी संकट से मुक्त नहीं हो सकती। जो आज श्रीलंका के साथ हुआ है वही पहले ग्रीस जैसे समृद्ध यूरोपीय देश समेत बहुत से देशों के साथ हो चुका है और बहुत से देशों में उसकी आहट सुनायी दे रही है। नवउदारवाद से मुक्ति पाकर ही इस असमाधेय ढाँचागत संकट से मुक्ति पायी जा सकती है। आज की दुनिया में यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, लेकिन इसके अलावा कोई और रास्ता भी नहीं है।   

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