5 अक्टूबर को विश्व आर्थिक मंच के भारत सम्मेलन में एयरटेल कम्पनी के मालिक भारती मित्तल ने कहा कि “200 सबसे बड़ी कम्पनियों द्वारा छँटनी किया जाना और आनेवाले समय में वहाँ कोई नयी नौकरी पैदा न होने की सम्भावना गम्भीर चिन्ता का विषय है। इस तरह सम्पूर्ण बिजनेस समुदाय के लिए समाज को साथ लेकर चलना कठिन से कठिनतर हो जायेगा। इस तरह आप करोड़ों लोगों को पीछे छोड़ देंगे।” उनका यह भी कहना था कि “पिछले कुछ साल हमारे लिए अच्छे नहीं रहे हैं। धन का बँटवारा समाज के स्तर तक नहीं पहुँचा है। इसके चलते राजनीतिक व्यवस्था के ऊपर भी भारी दबाव बढ़ रहा है।”
जिस बेरोजगारी और छँटनी पर मित्तल ने चिन्ता जाहिर की, उसके बारे में उसी सम्मेलन में बोलते हुए केन्द्रीय रेलवे और कोयला मंत्री पियूष गोयल ने बड़े ही बेफिक्री भरे लहजे में कहा कि “कम्पनियों द्वारा नौकरियों में कटौती किया जाना तो शुभ संकेत है। इसका मतलब यह कि अब आनेवाले कल के नौजवान नौकरी पानेवाला नहीं, बल्कि नौकरी देनेवाला बनना चाहते हैं। नयी पीढ़ी नौकर नहीं, उद्योगपति बनना चाहती है।”
भारतीय अर्थव्यवस्था में हो रही तेजी से गिरावट को लेकर एक पूँजीपति और एक केन्द्रीय मंत्री के ये दो बयान, इस समस्या के प्रति दो अलग–अलग रुख को दर्शाते हैं। यह लगातार चैथी तिमाही है जब आर्थिक विकास दर गिर रही है। जून–सितम्बर 2016 में विकास दर 9.2 प्रतिशत थी जो उसके ठीक बाद नोटबन्दी लागू होनेवाली तिमाही से गिरनी शुरू हुई और 30 जून को खत्म होनेवाली तिमाही में 5.7 प्रतिशत रह गयी। इसी अवधि में पिछले साल विकास दर 7.9 प्रतिशत थी। मित्तल ने बेरोजगारी का हवाला देते हुए इसी आर्थिक संकट की ओर संकेत किया था। देश की बड़ी कम्पनियों द्वारा रोजगार में कटौती किये जाने का सीधा सम्बन्ध उनके नये निवेश और उत्पादन में गिरावट से है। इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करने के बजाय पियूष गोयल ने इसे हँसी–मजाक में उड़ा दिया। पिछले दिनों भाजपा के वरिष्ठ नेता और बाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने अपने एक लेख में अर्थव्यवस्था के ठहराव और देश की बिगड़ती हालत पर जब सरकार की आलोचना की, तो वित्त मंत्री ने उनकी बातों का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि वे अस्सी साल की उम्र में नौकरी माँग रहे हैं। कुछ ऐसा ही बर्ताव भाजपा के एक अन्य बड़े नेता अरुण सौरी की आलोचनाओं को लेकर भी किया गया। मोदी समर्थकों ने एक ऐसी संस्कृति को बढ़ावा दिया है, जहाँ सरकार की आलोचना करनेवाले को देशद्रोही करार दिया जाना आम बात है।
दरअसल नोटबन्दी लागू होने के बाद से ही देश और दुनिया की जानी–मानी क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों, अन्तरराष्ट्रीय संगठनों और यहाँ तक कि भारत सरकार की संस्थाओं ने भी उसके नतीजे के तौर पर उत्पन्न हो रहे आर्थिक संकट की ओर सरकार का ध्यान दिलाया। लेकिन सरकार का रुख इन सच्चाइयों पर पर्दा डालने और अपने आलोचकों को बदनाम करने का ही रहा। इसी के साथ–साथ मोदी सरकार और उनके अन्ध–समर्थक अपनी हर असफलता के लिए पिछले सत्तर साल के शासन को दोषी ठहराकर उससे पल्ला झाड़ते रहे।
यशवंत सिन्हा की आलोचना के बाद से उनकी अवस्थिति का समर्थन करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था की बदहाली बताने वाली कई रिपोर्र्टें सामने आयीं––
10 अक्टूबर को अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपनी रिपोर्ट में अपने पहले के विकास दर अनुमान 7.2 प्रतिशत को घटाकर 6.7 प्रतिशत कर दिया। उसने इस गिरावट के लिए असंगठित क्षेत्र की तबाही को जिम्मेदार माना और इस पर विशेष ध्यान देने की सिफारिश की।
11 अक्टूबर को विश्व बैंक ने “साऊथ एशिया इकोनोमिक आउटलुक” में भारत की अर्थव्यवस्था में गिरावट की चर्चा की। उसने विकास दर का अनुमान घटाकर 7 प्रतिशत कर दिया और कहा कि आतंरिक कारणों से निजी क्षेत्र के निवेश में भारी कमी इसकी वजह है, जिसके चलते विकास दर और भी कम हो सकती है। उस रिपोर्ट में साफ तौर पर बताया गया कि नोटबन्दी के कारण आर्थिक गतिविधियों में आयी रुकावट और जीएसटी के चलते कारोबार जगत में अनिश्चितता बढ़ने के कारण भारत की आर्थिक रफ्तार कम हो गयी है।
इसी के साथ–साथ एशियन डेवलपमेंट बैंक ने भी अपने पूर्ववर्ती अनुमान 7.4 प्रतिशत को घटाकर 7 प्रतिशत और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने 7.3 प्रतिशत से घटाकर 6.7 प्रतिशत कर दिया।
अक्टूबर में एक के बाद आनेवाली इन रिपोर्टों से एक महीना पहले ही, 15 सितम्बर को यूनाइटेड नेशन कमीशन फॉर ट्रेड एन्ड डेवलपमेन्ट (अंकटाड) ने अपनी “ट्रेड एन्ड डेवलपमेन्ट रिपोर्ट 2017” में भारतीय अर्थव्यवस्था के बिगड़ते स्वास्थ्य का हाल बताते हुए कहा था कि “अनौपचारिक क्षेत्र, जो अभी भी देश के सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम एक तिहाई और रोजगार के अस्सी प्रतिशत भाग के लिए जिम्मेदार है, नवम्बर 2016 में सरकार द्वारा ‘नोटबन्दी’ लागू किये जाने से बुरी तरह प्रभावित हुआ और जुलाई 2017 से जीएसटी लागू किये जाने से और भी ज्यादा प्रभावित हुआ है। इस प्रकार, अगर चीन और भारत दोनों में विकास का मौजूदा स्तर कायम भी रहे, तो यह सम्भव नहीं है कि ये देश हाल–फिलहाल वैश्विक अर्थव्यवस्था के विकास की धुरी बन पायेंगे।” रिपोर्ट में आगे कहा गया था कि “सभी बैंकों (सार्वजनिक और निजी) से प्राप्त आँकड़े यह बताते हैं कि पिछले 12 महीनों में डूबने लायक कर्जों में 59.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है, कुल दिये गये कर्जों में एनपीए का अनुपात 2012 के अन्त में 3.5 प्रतिशत था अब 9.3 प्रतिशत हो गया है। अंकटाड ने भी इस साल के विकास दर अनुमान को 7 प्रतिशत से घटाकर 6.7 प्रतिशत कर दिया था, लेकिन तब इन असुविधाजनक तथ्यों और सूचनाओं पर किसी ने ध्यान नहीं दिया था।
बहरहाल, 12 अक्टूबर को प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबराय ने यह स्वीकार किया कि भारत की अर्थव्यवस्था मन्थर हुई है। इसके ठीक पहले प्रधानमंत्री ने भी कम्पनी सेक्रेटरी सम्मेलन में अगर–मगर के साथ, नोटबन्दी और जीएसटी को बड़ी उपलब्धि के रूप में गिनवाते हुए, अर्थव्यवस्था की धीमी रफ्तार को स्वीकार किया था। सलाहकार परिषद ने बताया कि इसके कई कारण हैं, जिन पर गहराई से विचार किया जायेगा। उन्होंने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए 10 उपाय भी सुझाये, जिनमें अनौपचारिक क्षेत्र को बढ़ावा, सार्वजानिक खर्चे में बढ़ोतरी, रोजगार सृजन जैसे उपाय शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि साढ़े तीन साल तक मोदी ने आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन ही नहीं किया था। सत्ता में आते ही योजना आयोग को भंग करके उन्होंने जिस नीति आयोग का गठन किया था, उसकी स्थिति भी आपसी बहस और बयानबाजी से ज्यादा नहीं रही। यशवंत सिन्हा ने अपने लेख में “ढाई लोगों द्वारा देश चलाये जाने” की जो बात कही थी, वह बेमतलब नहीं थी।
खैर, अब यह बात दिन के उजाले की तरह साफ हो गयी है कि भारत की अर्थव्यवस्था चैतरफा संकट का शिकार है। विकास दर में गिरावट तो इसका सिर्फ एक पक्ष है। आर्थिक–सामाजिक जिन्दगी का कोई पहलू आज इससे अछूता नहीं है। एक साल पहले की तुलना में जुलाई 2017 में औद्योगिक उत्पादन में सिर्फ 1.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई। निवेश की माँग में वृद्धि पिछले साल 7.4 प्रतिशत की तुलना में अब सिर्फ 1.6 प्रतिशत ही रह गयी है। रिजर्व बैंक के मुताबिक बैकों का एनपीए 9,50,000 करोड़ रुपये तक पहुँच गया। अप्रैल–जून में बैंकों की उधारी दर नकारात्मक हो गयी, जिसका सीधा अर्थ है कि वे कम्पनियों को नये कर्ज देने की स्थिति में नहीं हैं। इसका सीधा असर टाटा जैसे पूँजीपति घरानों पर भी पड़ रहा है जिसके चलते टाटा टेलिसर्विसेज 50–60 हजार करोड़ के कर्ज न मिलने के चलते बन्दी के कगार पर है, और वहाँ से 5,000 कर्मचारियों को निकालने की तैयारी चल रही है। टाटा समूह की कई दूसरी कम्पनियाँ भी बन्दी के कगार पर हैं। लार्सन एन्ड टुब्रो ने 14,000 कर्मचारियों की छँटनी की। पिछले तीन सालों में 67 कपड़ा मिलें बन्द हुर्इं, जहाँ काम करनेवाले 17,000 स्थाई कर्मचारी बेरोजगार हो गये। इन्डियन एक्सप्रेस के एक सर्वे के मुताबिक शेयर बाजार में सूचीबद्ध कम्पनियों में से ज्यादातर ने पिछले साल की तुलना में कर्मचारियों की संख्या में कटौती की। इस लेख की शुरुआत में 200 सबसे बड़ी कम्पनियों में रोजगार की हालत पर भारती मित्तल का बयान भी इसी सच्चाई को पुष्ट करता है। “मेक इन इंडिया” और “स्किल इंडिया” जैसी बहुप्रचारित योजनाओं ने जितने रोजगार सृजित नहीं किये, उससे कई–कई गुणा ज्यादा लोग तालाबन्दी और छँटनी के शिकार हुए हैं।
देश की सबसे बड़ी निजी भर्ती कंपनियों में से एक, टीमलीज सर्विसेज लिमिटेड के मुताबिक, भारत में पिछले साल की तुलना में विनिर्माण क्षेत्र में 30 प्रतिशत से 40 प्रतिशत रोजगार की कमी आना तय है। जबकि अन्य सर्वेक्षण भी बहुत उत्साहवर्धक नहीं हैं। ऐसे में मोदी के उस वादे का क्या होगा, जिसमें हर साल एक करोड़ से अधिक लोगों को नौकरी देने की बात कही गयी थी?
जब संगठित क्षेत्र का ये हाल है तो असंगठित क्षेत्र की दशा क्या होगी? ऊपर दिये गये कई रिपोर्टों में असंगठित क्षेत्र के ऊपर नोटबन्दी और जीएसटी के घातक प्रभावों का जिक्र आया है। बिजनेस लाइन की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल इस क्षेत्र की 1,52,000 स्थायी और 46,000 अस्थायी नौकरियाँ खत्म हुई हैं। श्रम मंत्रालय के आँकड़े बताते हैं कि पिछले एक साल में नये रोजगार पैदा होने की दर में 84 प्रतिशत की गिरावट आयी है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा किये गये ‘रोजगार और बेरोजगारी सर्वे’ तथा लेबर ब्यूरो के आँकड़ों के मुताबिक सबसे ज्यादा श्रम शक्ति खपाने वाले असंगठित क्षेत्र–– खेती, भवन निर्माण, छोटे–मझोले उद्योग और व्यापार में रोजगार विकास दर 2016–17 की अंतिम तिमाही से शुरू होकर 2017–18 में लगातार गिरती गयी है। जाहिर है कि रोजगार में गिरावट ने मजदूरों के सबसे कमजोर तबके को ही सबसे बुरी तरह अपनी चपेट में लिया है। इसका नतीजा भुखमरी, बीमारी और मौत के रूप में सामने आया है।
इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट की सालाना रिपोर्ट “वैश्विक भूख सूचकांक” में भारत की स्थिति नयी सरकार आने के बाद से लगातार बदतर हुई है। विकासशील देशों में भुखमरी के मामले में 119 देशों में भारत 2014 में 55वें पायदान से गिरकर आज 100वें पायदान पर आ गया है। सबको भोजन मुहैया करने के मामले में अफगानिस्तान और पाकिस्तान को छोड़कर भारत एशिया के सभी देशों से पीछे है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बाल कुपोषण ने इस स्थिति को और अधिक गम्भीर बना दिया है।
आर्थिक तबाही का ही नतीजा है कि भर पेट भोजन ही नहीं, बल्कि विश्व सूचकांक के हर मामले में भारत की स्थिति बद से बदतर होती गयी है–– हमारा देश आज मानव विकास सूचकांक में 131वाँ, खुशहाली सूचकांक में 122वाँ, प्रेस की आजादी में 136वाँ, शिशु एवं बाल मृत्यु दर में 177वाँ और बाल अधिकार में 97वाँ स्थान पर है। बाल श्रम की स्थिति यह है कि अकेले आन्ध्र प्रदेश में निजी कम्पनियाँ 2,00,000 बाल श्रमिकों को काम पर रखती हैं और नयी सरकार ने कानून बनाकर बाल श्रम को कुछ क्षेत्रों में वैध करार दिया है।
एक तरफ इतनी बदहाली, तो दूसरी तरफ आये दिन अरबपतियों–खरबपतियों की संख्या में नये–नये नाम जुड़ रहे हैं। इनमें एक नाम बाबा रामदेव की पतंजलि का भी है, जिसकी आमदनी पिछले साल 173 प्रतिशत बढ़ी और आज कुल सम्पत्ति 70,000 करोड़ पहुँच गयी, जबकि पतंजलि के मालिक ने खुद स्वीकार किया कि दस साल पहले उसके नाम से कोई बैंक खाता भी नहीं था। भाजपा अध्यक्ष के बेटे जय शाह की कमाई में तीन साल के भीतर 16,000 गुणे की बढ़ोतरी भी चर्चा में है। इस त्वरित गति से हुई कमाई पर कोई बहस नहीं है, बहस इस बात पर है कि यह कमाई भ्रष्टाचार से हुई या शिष्टाचार से। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में गरीबी–अमीरी की खाई अंग्रेजी राज में शुरू हुई गणना, 1922 के बाद आज अपने चरम पर है जहाँ 1 प्रतिशत लोग 58 प्रतिशत सम्पत्ति के मालिक हैं। यह स्थिति दूसरे छोर पर स्थित गरीब जनता की नरक से भी बदतर जिन्दगी के लिए तो जिम्मेदार है ही, यह पूँजीवादी व्यवस्था के लिए भी घातक है। मुट्ठीभर लोगों की खुशहाली के दम पर कोई भी अतार्किक और अन्यायपूर्ण व्यवस्था ज्यादा दिन कायम नहीं रह सकती।
भारत की आर्थिक–सामाजिक स्थिति मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले भी कोई अच्छी हालत में नहीं थी। पिछले चुनाव में विकास पुरुष की छवि बनाकर कांग्रेस की जगह चुनाव जीतने का असली कारण भी यही था कि मनमोहन सरकार ने लोगों का जीना दूभर कर दिया था। लेकिन मोदी सरकार ने किसी वैकल्पिक नीति पर चलने के बजाय कांग्रेस की पुरानी नीतियों को ही और तेजी से आगे बढ़ाया। नया बस इतना ही था कि लोगों की उम्मीदों और अपनी सफलता को लेकर शब्दजाल और लफ्फाजी में मोदी ने सबको बहुत पीछे छोड़ दिया। दूसरे, लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दरकिनार करके, राय–सलाह और आलोचना की अनसुनी करके चन्द लोगों को साथ लेकर कोई अनोखा चमत्कार करने का मंसूबा बनाया गया। आनन–फानन में नोटबन्दी और जीएसटी लागू करना इसी का नतीजा था जिसने पहले से ही संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था को रसातल की ओर धकेल दिया।
1991 में नयी आर्थिक नीति के नाम से नवउदारवादी नीतियों के लागू होने और आत्मनिर्भर विकास को तिलांजलि देकर विदेशी पूँजी और विदेशी बाजार को कमान में रखते हुए अर्थतन्त्र का ढाँचागत समायोजन किये जाने के बाद से अब किसी भी पार्टी का उन नीतियों से कोई बुनियादी मतभेद नहीं रहा। यानी अपने स्रोत–साधनों के दम पर, अपने देश की जनता की खुशहाली को ध्यान में रखते हुए, खेती और उद्योग का आत्मनिर्भर विकास करना अब किसी भी पार्टी के एजेन्डे में नहीं रहा। अब विदेशी पूँजी और विदेशी बाजार पर निर्भरता और इसके लिए हर तरह की सहूलियतें मुहैया करना ही आर्थिक नीति के केन्द्र में है। मोदी सरकार ने भी यही किया। हालाँकि लाख कोशिशों के बावजूद ‘मेक इन इंडिया’ और ‘स्टार्ट अप इंडिया’ के नाम पर विदेशी पूँजी को लुभाने का काम परवान नहीं चढ़ा। सस्ता श्रम, आसान श्रम कानून, हड़तालों पर रोक, टैक्स में छूट, पर्यावरण विनाश की कीमत पर खतरनाक उद्योगों को इजाजत, पुराने जर्जर तकनीकों के लिए समझौते और तमाम तरह की आकर्षक सहूलियतों के बावजूद जिस चमत्कार की उम्मीद थी, वह पूरी नहीं हुई।
विदेशी पूँजी को लुभाने के लिए सैनिक सुरक्षा, बैंक, बीमा, खुदरा व्यापार सहित कई क्षेत्रों में विदेशी पूँजी निवेश की सीमा 100 प्रतिशत किये जाने का भी कोई खास असर नहीं हुआ। कांग्रेस सरकार के दौरान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 2011–12 में 4,655.6 करोड़ डॉलर और 2012–13 में 3,429.8 करोड़ डॉलर था, जबकि मोदी सरकार के काल में मामूली बढ़त के साथ 2014–15 में 4,514.8 करोड़ डॉलर और 2015–16 में 5,545.7 करोड़ डॉलर तक ही पहुँचा। संस्थागत विदेशी निवेश की स्थिति भी अच्छी नहीं है। पिछली सरकार के दौरान संस्थागत विदेशी निवेश 2012 में 1,63,347.9 करोड़ रुपये और 2013 में 62,286 करोड़ रुपये था, जबकि मोदी सरकार के दौरान 2015 में 63,663 करोड़ रुपये और 2016 में –23,079 करोड़ रुपये (ऋणात्मक) हो गया।
यहाँ एक बात पर गौर करना जरूरी है कि विदेशी निवेश बढ़ने से जो आभासी विकास दिखता है, उससे समाज में समृद्धि बढ़े और लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठे, यह जरूरी नहीं। विकास दर के अनुपात में मजदूरी में गिरावट, जोकि आर्थिक सुधारों के पच्चीस साल से लगातार जारी है, उसके चलते लोगों के उपभोग में गिरावट होना तय है। इसका सीधा असर बाजार पर होता है। घरेलू बाजार का शॉकएब्जॉर्बर न हो तो अर्थतन्त्र की कमानी का टूटना लाजिमी होता है।
जहाँ तक घरेलू पूँजी निवेश की बात है, बैंकों के एनपीए की लगातार बिगड़ती हालत, जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है, उसके चलते नये निवेश की तो बात ही क्या, पुरानी कम्पनियों की पूँजीगत माँग पूरी करने में भी नाकामी ही हाथ लगी। इसका ताजा उदाहरण है–– टाटा टेलिसर्विसेज जो 50–60 हजार करोड़ के कर्ज न मिलने के चलते बन्दी के कगार पर पहुँच गया।
नोटबन्दी और जीएसटी ने इस कोढ़ में खाज का काम किया। जब 86 प्रतिशत नगदी अचानक प्रचलन से बाहर हुई, तो असंगठित क्षेत्र और छोटे–मझोले उद्यमों की कमर टूट गयी। मोदी सरकार ने विकास को गति देने के लिए जिस रियल एस्टेट और भवन निर्माण को ढेर सारी सहूलियतें दी थी, वह पहले ही मंदी का सामना कर रहा था। दिल्ली के आसपास और देश के कई बड़े शहरों में गगनचुम्बी इमारतों की कीमत में गिरावट तो आयी ही थी, इसके बावजूद ज्यादातर मकान बिना बिके पड़े थे। रही सही कसर नोटबन्दी ने पूरी कर दी, क्योंकि इस काम में लागत और बिक्री दोनों ही मामले में भारी पैमाने पर नगदी की जरूरत होती है। सबको पता है कि प्लाट या मकान की हर खरीद–बिक्री में ‘चेक से’ और ‘नगद’ दोनों ही तरह के लेन–देन होते हैं। रियल एस्टेट की मंथरता ने सीमेंट, सरिया और भवन निर्माण सामग्री के दूसरे कारोबार को भी अपनी चपेट में ले लिया। यह वही दौर था, जब सबसे ज्यादा कारोबारी तबाह हुए और लाखों मजदूरों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। इस मुसीबत से अभी राहत भी नहीं मिली कि जुलाई से जीएसटी का प्रकोप शुरू हो गया। जिस जीएसटी को लागू करके सरकार फूले नहीं समा रही थी, वही आज उसके गले की हड्डी बन गयी है। पिछले चार महीने से लगातार अलग–अलग उद्यमों और व्यवसायों में लगे तबके इसका विरोध कर रहे हैं और सरकार को बार–बार जीएसटी दरों में फेर बदल भी करनी पड़ रही है। रिजर्व बैंक के अनुसार मार्च 2017 में छोटी कम्पनियों की बिक्री में 58 प्रतिशत की कमी आयी थी। जीएसटी ने उनको और भी बुरी हालत की ओर धकेल दिया। त्योहारों की खरीदारी पर उनकी उम्मीद टिकी थी, लेकिन उस पर भी पानी फिर गया। आज बाजार में पहले जैसी चमक कहीं नहीं है।
दरअसल आज का संकट किसी एक कारक की वजह से या किसी तकनीकी कारण से नहीं है, यह पूँजीवादी व्यवस्था का चिरन्तन संकट है, असमाधेय संकट है। इस आर्थिक संकट की जड़ें व्यवस्था के ढाँचे में है। नवउदारवादी नीतियों ने इस संकट को विश्वव्यापी बना दिया है। धनी देशों के संकट का बोझ विकासशील देशों के ऊपर लादा जा रहा है और विकासशील देश अपना यह दोहरा संकट अपने देश की बहुसंख्य मेहनतकश आबादी के ऊपर थोप रहे हैं। और तो और जब इन नीतियों के चलते किसी देश में आर्थिक तबाही आती है और जनता की दुर्दशा बढ़ती है जैसा आजकल देखने में आ रहा है, तब अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक उस देश में आर्थिक सुधारों को और कठोरता से लागू करने की सिफारिश करते हैं। देशी–विदेशी पूँजी के गँठजोड़ पर आधारित जिन जन विरोधी नीतियों के चलते तबाही आयी, उनको दोषी ठहराने और उनको पलटने की जगह उनकी रफ्तार तेज करने की माँग की जाती है।
15 अक्टूबर को अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की बैठक में भाग लेने वाशिंगटन डीसी गये वित्त मंत्री जेटली ने एक बयान में कहा कि “भारत सरकार ने अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए जो कड़े कदम उठाये हैं। उसपर आने वाले किसी भी चुनाव का असर नहीं होगा और वे जारी रहेंगे।” इसका सीधा मतलब यह है कि सरकार आने वाले दिनों में निजीकरण की रफ्तार बढ़ायेगी, सार्वजनिक सम्पत्ति को कौड़ियों के भाव निलाम करेगी, सार्वजनिक सेवाओं में पहले से भी ज्यादा कटौती करेगी और सबसिडी को जितना सम्भव हो सके कम करेगी। उक्त बैठक में अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने जेटली कोे जो सुझाव दिये हैं, उनका यही आशय है। इसका नतीजा क्या होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है। तीन सालों में भुखमरी की हालत जितनी बुरी हुई है, बेरोजगारी जितनी बढ़ी है और लोगों का कंगालीकरण जिस तेजी से हो रहा है, उसमें कमी आने की जगह और ज्यादा बढ़ोतरी होगी।
लोग अपने जीवन के कटु अनुभव से इसे समझने लगे हैं और संघर्ष के लिए उठ खड़े हो रहे हैं। देश भर में चल रहे मजदूरों, किसानों, छोटे व्यापारियों और छात्रों–नौजवानों के आन्दोलन इसका ज्वलंत उदाहरण है। झूठे नारों से बहलाना और लोगों के बीच नफरत फैलाने और फूट डालने का खेल भी ज्यादा दिन नहीं चलने वाला। जरूरत है इन छिटपुट लडाइयों को संगठित और चेतनाशील करने और जन विरोधी नीतियों पर निशाना साधने की। संकट गहरा है तो समाधान भी आसान नहीं, लेकिन समाधान जनसंघर्षों से ही निकलेगा।