संपादकीय: नवम्बर 2021

पण्डोरा पेपर्स : पूँजीवादी भ्रष्टाचार की बुनियाद है मजदूरों के श्रम की चोरी

उमा रमण ( संपादक ) 322

काला धन और भ्रष्टाचार एक बेहद सनसनीखेज और लुभावना मुद्दा है। हमारे देश में अक्सर ऐसे मामले उजागर होते रहते हैं और भद्रजनों की सतही संवेदना और क्षणिक गुस्से को उकसाते रहते हैं। इसी सिलसिले की नयी कड़ी है पण्डोरा पेपर्स जिसमें हराम की कमाई से रातों–रात धनाढ्य बने देश–दुनिया के नामी–गिरामी हस्तियों के काले कारनामों का कच्चा चिट्ठा खोला गया है।

इण्टरनेशनल कंसोर्टियम ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स (आईसीजेआई) द्वारा किये गये इस विराट भण्डाफोड़ में 117 देशों के 600 पत्रकार शामिल थे। इसे “अब तक का सबसे बड़ा पत्रकारिता सहकार” माना जा रहा है। पण्डोरा पेपर्स स्विट्जरलैंड, सिंगापुर, साइप्रस, समोआ, वियतनाम, हांगकांग में 14 अलग–अलग अपतटीय धन सेवा फर्मों के साथ–साथ बेलीज, सेशेल्स, बहामास और कुख्यात टैक्स हैवन ब्रिटिश वर्जिन आईलैण्ड्स में सक्रीय फर्मों के गोपनीय रिकॉर्ड से हुए लीक पर आधारित हैं। ये फर्म धनाढ्यों और निगमों के लिए ट्रस्ट और कम्पनी बनाते हैं तथा उनकी काली कमाई को बहुत कम या बिना टैक्स वाले देशों या इलाकों के बैंकों में गुप्त खाते खुलवाने में मदद करते हैं।

पण्डोरा पेपर इस गोरखधंधे में लगी कम्पनियों और उनके ग्राहकों के लीक हुए ईमेल, मेमो, टैक्स रिटर्न, बैंक स्टेटमेंट, पासपोर्ट स्कैन, कॉरपोरेट ढाँचे के नक्शे, गोपनीय ब्यौरे और रियल एस्टेट की गुप्त खरीद–फरोख्त के कागजात सहित लगभग 1.2 करोड़ फाइलों के आधार पर तैयार किया गया है। कुछ दस्तावेजों से पहली बार इन फर्जी मुखौटा कम्पनियों के असली मालिकों का खुलासा हुआ है। इसमें दुनिया भर के सैकड़ों शीर्ष नेताओं, अभिनेताओं, खिलाड़ियों और पूँजीपतियों के नाम हैं। अनुमान है कि इस सूची में 300 से अधिक भारतीय धनाढ्यों के नाम हैं जिनमें सचिन तेंदुलकर, अनिल अम्बानी, विनोद अडानी, जैकी श्रॉफ, किरण मजूमदार–शॉ, नीरा राडिया और सतीश शर्मा जैसी हस्तियाँ शामिल हैं।

लगभग पाँच साल पहले भी आईसीजेआई ने पनामा पेपर्स के जरिये ऐसे ही भ्रष्टाचार का खुलासा किया था, जो एक कानूनी फर्म, मोसैक फोन्सेका द्वारा लीक की गयी जानकारियों पर आधारित था। हमारे देश में इस भण्डाफोड़ पर काफी हो–हल्ला मचा था, क्योंकि इस सूची में भी काली कमाई में लिप्त कई नामी–गिरामी भारतीयों के नाम थे। लेकिन इन काली करतूतों में शामिल लोगों पर कोई कार्रवाई होना तो दूर, सरकार ने उनका नाम भी सार्वजनिक नहीं किया था। भ्रष्टाचार के प्रति लोगों के आक्रोश और अन्ना आन्दोलन का लाभ उठाकर ही मोदी सरकार और केजरीवाल सरकार सत्ता में आयी, लेकिन इन लोगों ने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के बजाय इसे और भी बेलगाम छोड़ दिया।

दरअसल, भ्रष्टाचार इस व्यवस्था का अलिखित विधि–विधान और समानान्तर कार्य प्रणाली है। यह इस व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में ग्रीस और मोबिल का काम करता है। लगभग दस–पन्द्रह साल पहले जानेमाने अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार ने भारत में भ्रष्टाचार पर अपना अध्ययन प्रस्तुत किया था। उनका अनुमान था कि उस दौरान देश में 25,00,000 करोड़ की काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था मौजूद थी। इस अपार काली कमाई के लिए जिम्मेदार कौन है? इस पर किसका कब्जा है?

प्रोफेसर अरुण कुमार का अनुमान था कि काले धन की अर्थव्यवस्था में देश की आबादी का 3 प्रतिशत ऊपरी तबका ही सबसे ज्यादा लिप्त है। इसमें पूँजीपति, उद्योगपति और उनका प्रबन्ध–तंत्र, बड़े डीलर, डिस्ट्रीब्यूटर, कमीशन एजेंट, सट्टेबाज, तथा रियल एस्टेट, निर्माण उद्योग, मनोरंजन, शिक्षा, चिकित्सा, और सेवा क्षेत्र के विभिन्न व्यवसायों के मालिक, सरकारी अधिकारी, राजनीतिक पार्टियों के नेता और अन्य परजीवी शामिल हैं। इसी काले धन की बदौलत ये लोग देश के शासन–प्रशासन पर नियंत्रण रखते हैं, जिसके जरिये अपने लिए मोटी तनख्वाह और सुविधाएँ जुटाने के आलावा टैक्स में छूट, सरकारी धन का बन्दरबाँट, अरबों के फायदे के बदले करोड़ों की रिश्वत और सार्वजानिक सम्पत्ति की कानूनी–गैरकानूनी लूट में दिन–रात शामिल रहते हैं। यही तबका वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण का सबसे बड़ा पैरोकार तथा नवउदारवादी लूटतंत्र का सामाजिक आधार है। इनको अपने अलावा सभी भ्रष्ट नजर आते हैं और भ्रष्टाचार पर सबसे ज्यादा प्रवचन भी ऐसे ही लोग देते हैं। अन्ना के आन्दोलन में भी इसी तबके के लोग सबसे आगे थे। सच तो यह है कि देश में पहले से ही जितने कानून मौजूद हैं, उनको कड़ाई से लागू कर दिया जाये, तो इस तबके के कुछ लोगों को छोड़कर बाकी सभी लोग सलाखों के पीछे होंगे। लेकिन इस व्यवस्था को चलानेवाले भी तो यही लोग हैं, इसलिए हमारे यहाँ छोटे चोरों को सजा होती है, जबकि बड़े चोरों को सम्मानित किया जाता है।  

मजेदार बात यह कि पूँजीवादी व्यवस्था में कोई भी भ्रष्टाचार अचानक शिष्टाचार बन जाता है, जब इस व्यवस्था को चलानेवाले लोग किसी भ्रष्ट आचरण–व्यवहार या पेशे को कानूनी जामा पहना देते हैं। काले धन को सफेद करने के लिए कानून बनाया जाना (मनी लांड्रिंग), सोने के आयात की छूट, सीमा शुल्क 350 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत किया जाना, श्रम कानूनों को बदल कर मजदूरों की निर्मम लूट को बढ़ावा देना, 1991 से पहले के गैरकानूनी काले धन्धों (काला बाजारी, जमाखोरी, सट्टेबाजी, टैक्स चोरी) को कानून बनाकर वैधानिक करार देना इसके चन्द उदहारण हैं। मोदी सरकार ने ऐसे कई कानून बनाये हैं और कई कानूनों पर अभी काम चल रहा है, ताकि भ्रष्टाचार को पवित्र बनाया जा सके। उदहारण के लिए–– 2019 में मोदी सरकार ने कार्पोरेट टैक्स 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया था, जिससे हर साल हजारों करोड़ का टैक्स बिना चुराये ही पूँजीपतियों की तिजोरी में चला जाता है। श्रम कानूनों में बदलाव और तीन खेती कानून भी मोदी सरकार द्वारा पूँजीवादी लूट और भ्रष्टाचार को कानूनी जामा पहनाने की दिशा में ही बढ़ाया गया कदम है, क्योंकि मजदूरों की छँटनी, तालाबन्दी तथा कृषि उपजों की जमाखोरी, कालाबाजारी और सट्टेबाजी, जो पहले गैरकानूनी और भ्रष्टाचार की श्रेणी में आते थे, अब कानूनी करार दे दिये जायेंगे।

यह सही है कि काला धन सफेद करने से सम्बन्धित भ्रष्टाचार की ये सनसनीखेज घटनाएँ देश, समाज और आम जनता के लिए बहुत ही खतरनाक हैं, और इन पर लगाम लग जाये तो जनता के लिए पहले से बेहतर शिक्षा, चिकित्सा, पीने के लिए साफ पानी, रहने लायक घर और जीने लायक जिन्दगी मिल सकती है और खुद पूँजीवाद की सेहत भी सुधर सकती है। 25,00,000 लाख करोड़ कोई छोटी रकम नहीं है। लेकिन यह रकम उस बुनियादी भ्रष्टाचार, उस “मूल पाप”, उस लूट–खसोट के आगे कुछ भी नहीं है, जो पूँजीवाद की जीवन रेखा है, जो मजदूरों के श्रम की चोरी से कमाई जाती है। दिन–रात चलनेवाले इस भ्रष्टाचार को पूँजीपतियों का परम–पावन कर्तव्य मान लिया गया है, इसलिए इस पर कोई विवाद नहीं होता। कला धन और भ्रष्टाचार से होने वाली कमाई इस लूट के आगे ऊँट के मुँह में जीरा के बराबर भी नहीं।

भ्रष्टाचार का असली कारण ‘मानव स्वभाव’  या लोभ–लालच की आम प्रवृति नहीं हैं, जैसा कि पूँजीवादी पण्डित बताते हैं, बल्कि यह पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था के चरित्र में निहित है। इसका मूल स्रोत पूँजीपतियों द्वारा अतिरिक्त मूल्य की चोरी है, जिसे श्रमिक पैदा करते हैं।

पूँजीवादी समाज का विश्लेषण करते हुए कार्ल मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “पूँजी” में इस सच्चाई को स्थापित किया है कि पूँजीवाद का अस्तित्व ही भ्रष्टाचार पर टिका हुआ है। मजदूरों के श्रम की चोरी करना, उस चुराये गये श्रम से अपने लिए निजी मुनाफा बटोरना और निजी सम्पत्ति जमा करना ही पूँजीवादी व्यवस्था की बुनियाद है। मुनाफे की यही हवस पूँजीपतियों को न केवल मजदूरों के साथ बल्कि पूरी दुनिया के साथ धोखाधड़ी करने तथा लूट–खसोट और भ्रष्टाचार के नये–नये तरीके ईजाद करके दौलत बटोरने के लिए उकसाती है। पूँजीवाद का एक ही उसूल है–– कानूनी या गैरकानूनी तरीकों से जितना ज्यादा और जितनी तेजी से मुनाफा कमा सकते हो, कमाओ!

पूँजीवादी समाज में मजदूरों का निर्मम शोषण इसलिए किया जाता है क्योंकि वे अपने श्रम से जितने माल का उत्पादन करते हैं, उसके कुल मूल्य से काफी कम कीमत पर उन्हें अपनी श्रम शक्ति पूँजीपतियों को बेचने के लिए मजबूर किया जाता है। उत्पादन के साधनों पर मालिकाना न होने के कारण ही मजदूरों के सामने अपनी श्रम शक्ति पूँजीपतियों को बेचने या फिर भूखा रहने के आलावा और कोई रास्ता नहीं होता है। मजदूर अपने श्रम का लाभ खुद नहीं ले पाते, क्योंकि पूँजीपति उनके श्रम का बड़ा भाग चुरा लेते हैं, और उसका इस्तेमाल उनके शोषण और अपने निजी मुनाफे के लिए करते हैं।

पूँजीवाद के अधीन मजदूरों की श्रम शक्ति को भी एक वस्तु, एक माल समझा जाता है, जैसे अनाज या कपड़ा या किसी दूसरी वस्तु की तरह। श्रम शक्ति की कीमत (या मजदूरी) भी किसी दूसरे माल की तरह उसके उत्पादन की लागत से, यानी सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम की मात्रा से तय होती है। श्रम शक्ति के उत्पादन की लागत किसी मजदूर की श्रम शक्ति को बनाये रखने और उसके पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक मूल्य या श्रम–लागत होती है। इसके लिए, पूँजीवाद में मजदूर को सिर्फ जीवन–यापन के लिए न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने भर मजदूरी दी जाती है, उन्हें गुजारे भर की मजदूरी का भुगतान किया जाता है।

कार्य दिवस के दौरान मजदूर अपने खुद के पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक मूल्य से कहीं अधिक मूल्य पैदा करता है। यानी, बारह घण्टे काम करने के बदले एक मजदूर को जितनी मजदूरी दी जाती है, वह उससे कहीं ज्यादा मूल्य पैदा करता है। काम के घण्टों के दौरान मजदूर जितने मूल्य का उत्पादन करता है और उसकी श्रम शक्ति को बनाये रखने और उसके पुनरुत्पादन के लिए पूँजीपति जितने मूल्य का भुगतान करता है, उसके बीच के अन्तर को अतिरिक्त मूल्य कहा जाता है।

इस बात को आसानी से समझने के लिए मजदूर के श्रम दिवस को दो भागों में बाँटा जाता है। पहले भाग के दौरान, मजदूर अपने लिए काम करता है, यानी उतनी वस्तुओं का उत्पादन कर देता है जिसका मूल्य उसे मिलने वाली मजदूरी के मूल्य के बराबर होता है। दूसरे भाग के दौरान, मजदूर पूँजीपति के लिए काम करता है, यानी पूँजीपति के लिए अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करता है जिसके लिए उसे कोई मजदूरी नहीं मिलती है।

इस तरह मजदूरों द्वारा उत्पादित अतिरिक्त मूल्य को पूँजीपतियों द्वारा जबरन हड़प लेना ही पूँजीवादी शोषण है। पूँजीवाद में चूँकि मजदूर उत्पादन के साधनों का मालिक नहीं होता, इसलिए उसे मजबूर किया जाता है कि वह अपनी श्रम शक्ति पूँजीपतियों को कम से कम मजदूरी पर बेचे और उसके लिए अतिरिक्त मूल्य पैदा करे। यही अतिरिक्त मूल्य जो मजदूर पैदा करता है और जिसे पूँजीपति हड़प लेता है, पूँजीपति के मुनाफे का स्रोत होता है।

जाहिर है कि मुनाफे का बुनियादी स्रोत और पूँजीवादी उत्पादन की एकमात्र चालक शक्ति, मजदूरों द्वारा पूँजीपति के लिए किया गया मुफ्त श्रम है। इसलिए यह शोषण सबसे घिनौना भ्रष्टाचार है, चरम भ्रष्टाचार है और यही भ्रष्टाचार पूँजीवादी व्यवस्था की बुनियाद है।

मार्क्स ने कहा था कि “श्रम को हड़पे जाने का ही नतीजा है कि मजदूर, जिसके सामूहिक उत्पाद का हिस्सा लगातार पूँजीपति द्वारा जब्त किया जाता है, हमेशा अभाव में जीता है, जबकि पूँजीपति हमेशा लाभ में होता है। जो राजनीतिक अर्थशास्त्र, इस व्यवस्था को कायम रखता है और उसकी वकालत करता है, वह चोरी का सिद्धान्त है, सम्पत्ति के प्रति जो आदर भाव इस यथास्थिति को बनाये रखता है, वह जोर–जबरदस्ती का धर्म है।”

पूँजीवाद “निजी सम्पत्ति की पवित्रता” के सिद्धान्त पर आधारित है। लेकिन ‘निजी सम्पत्ति’ वास्तव में उस अतिरिक्त मूल्य के अलावा और कुछ नहीं है जो पूँजीपतियों द्वारा मेहनतकशों से, मजदूरों से चुरायी जाती है। निजी सम्पत्ति और कुछ नहीं बल्कि श्रमिकों से चुराया गया धन है। पूँजीवादी व्यवस्था में भ्रष्टाचार की असली जड़ यह सच्चाई है कि पूँजीवाद निजी सम्पत्ति की चोरी है, जो चरम भ्रष्टाचार है! काला धन और टैक्स चोरी तो इस लूट के माल को छिपाने और खपाने की धूर्तताभरी चालें हैं।

हमें अपने आक्रोश का निशाना और अपनी कार्रवाइयों का लक्ष्य भ्रष्टाचार के इस बुनियादी स्रोत, पूँजीवादी व्यवस्था में दिन–रात होने वाले चरम शोषण, घृणास्पद भ्रष्टाचार पर केन्द्रित करना होगा जो हमारे देश–समाज की सभी असाध्य बीमारियों, बहुसंख्य मेहनतकश जनता के सभी दु:ख–तकलीफों और कंगाली–बदहाली, चतुर्दिक सामाजिक पतन, मानव सभ्यता और प्रकृति की तबाही का असली कारण है। इसका एकमात्र विकल्प है–– न्याय–समता पर आधारित समाजवादी समाज का निर्माण, जो मुमकिन है, जरूरी है और लाजिमी है।

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