संपादकीय: मई 2024

उत्तराखण्ड में लागू समान नागरिक संहिता संविधान की मूल भावना के खिलाफ

उमा रमण ( संपादक ) 480

18 वीं लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान से एक दिन पहले दैनिक जागरण अखबार के पहले पन्ने पर एक खबर छपी जिसका शीर्षक था, “समान नागरिक संहिता की जरूरत पूरा देश महसूस कर रहा है, विरोध छोड़े विपक्ष”–– मोदी। आगे लिखा था कि “कुछ दिन पहले भाजपा के घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता के लिए प्रतिबद्धता जता चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर दोहराया है कि पूरा देश इसकी जरूरत महसूस कर रहा है।” यह बात नरेंद्र मोदी ने कब और कहाँ कही तथा किस आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पूरा देश इसकी जरूरत महसूस कर रहा है, इस बारे में अखबार में कुछ नहीं था।

लोकसभा चुनाव की घोषणा से दो माह पहले, 7 फरवरी को उत्तराखण्ड विधान सभा में समान नागरिक संहिता बिल (यूसीसी) पास हुआ। उत्तराखण्ड पहला राज्य है जिसने अनुसूचित जनजाति को छोड़कर सभी समुदायों पर शादी–विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और लिव–इन रिलेशन के मामले में सामन नागरिक संहिता थोपने का काम किया है।

इस कानून में समानता और समता जैसा कुछ भी नहीं है। दरअसल यह आरएसएस और भाजपा का बहुत पुराना वैचारिक एजेंडा है, जिसका मकसद बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के रीति–रिवाज और मूल्यों को, “हिन्दू कोड बिल” को सभी समुदायों, खास कर मुस्लिम समुदाय पर समान रूप से थोपना है। 2022 के उत्तराखण्ड विधान सभा चुनाव में यह भाजपा का चुनावी वादा था। राज्य सरकार ने इसके लिए सर्वाेच्च न्यायालय की सेवानिवृत्त न्यायाधीश रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में एक कमिटी गठित की थी, जिसके सुझावों के आधार पर इस कानून का ड्राफ्ट बनाया गया। कानून बनाने की पूरी प्रकिया गैर–लोकतांत्रिक और स्वेच्छाचारी रही है। इस कानून के ड्राफ्ट पर इससे प्रभावित होने वाले समुदायों या विपक्षी पार्टियों की कोई राय नहीं ली गयी। किसी भी कानून को सदन में बहस के लिए पेश करने से पहले उसे सम्बन्धित समिति में विचारार्थ भेजा जाता है जिसमें विपक्ष का भी प्रतिनिधित्व होता है, साथ ही उसमें उस कानून से प्रभावित होने वाले समुदाय के लोग भी शामिल होते हैं। भाजपा ने संसद में कानून बनाते समय भी इस प्रक्रिया का पालन करना छोड़ दिया है और बहुमत के दम पर एकतरफा कानून बनाने की परिपाटी चलायी है। उत्तराखण्ड में भी यही कहानी दुहरायी गयी। विपक्ष इस बात का विरोध कर रहा था कि उसे लगभग 200 पन्ने के इस ड्राफ्ट को पढ़ने का भी समय नहीं दिया गया। लेकिन विधान सभा में उस पर बहस चलाने के बजाय “जय श्री राम” के नारों के शोर में इसे ध्वनि मत से पास करा लिया गया। जाहिर है कि लोक सभा चुनाव से पहले हर कीमत पर इसे पास करने की जल्दी थी।

इस कानून के दायरे से अनुसूचित जनजाति को और इसके कुछ प्रावधानों से हिन्दू अविभाजित परिवार को बाहर रखा गया है, जो इसके बनाने वालों की बदनीयती का पर्दाफाश करता है। आखिर समानता के इस लाभ से उन समुदायों को वंचित क्यों रखा गया जिसके बारे में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री धामी का दावा है कि यह “मातृशक्ति” के खिलाफ भेदभाव, अन्याय और अत्याचार को जड़ से मिटा देगा?

सच तो यह है कि आज उत्तराखण्ड को साम्प्रदायिक हिन्दुत्ववाद की प्रयोगशाला बनाने की मुहीम चल रही है। पिछले कुछ वर्षों से ‘लव जिहाद’ के मनगढन्त किस्से फैला कर साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने और मुस्लिम समुदाय के प्रति नफरत फैलाने का लगातार प्रयास किया जा रहा है। हालाँकि इन सभी मामलों में उत्तराखण्ड की जनता ने साम्प्रदायिक ताकतों के कुचक्रों का पर्दाफाश किया और उनका हौसला पस्त किया। इन सब के बावजूद जनता के किसी हिस्से से ऐसे किसी कानून की माँग नहीं उठी। आम चुनाव से ठीक पहले आनन–फानन में इस कानून को लाने के पीछे आरएसएस–भाजपा की विभाजनकरी और साम्प्रदायिक सोच के सिवा और कुछ नहीं।

उत्तराखण्ड सरकार की समान नागरिक संहिता संविधान की मूल भावना के भी खिलाफ है। भारतीय संविधान का नीति निर्देशक सिद्धान्त, भाग चार, धारा 44 के अनुसार भारत सरकार को देश के सम्पूर्ण भूभाग की जनता के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करना चाहिए। सवाल यह है कि क्या कोई राज्य सरकार ऐसा कानून लागू कर सकती है? पूरे देश के लिए अलग कानून और एक राज्य विशेष के लिए अलग कानून का होना समानता है या दोहरापन? प्रधानमंत्री मोदी ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के बारे में कहा था कि एक ही परिवार में एक सदस्य पर एक कानून और दूसरे पर दूसरा कानून कैसे चलेगा? इस दोहरे कानून से देश कैसे चलेगा? क्या यही सवाल उत्तराखण्ड की भाजपा सरकार से नहीं पूछना चाहिए कि पूरे देश के बजाय केवल एक राज्य में, और वहाँ भी कुछ समुदायों को उसके दायरे से बाहर कर देने के बावजूद यह कानून “समान नागरिकता कानून” कैसे हुआ? क्या पूरे देश के लिए अलग और उत्तराखण्ड के लिए अलग कानून होना उसी दोहरेपन का नमूना नहीं है जिसकी चिन्ता प्रधानमंत्री मोदी मुस्लिम पर्सनल लॉ के के बारे में जता रहे थे? क्या यह कानून समानता का मजाक नहीं है? 

कानून किन लोगों पर लागू होगा, इस बारे में कहा गया है कि यह उत्तराखण्ड के निवासियों पर लागू होगा। लेकिन निवासियों को परिभाषित करते हुए न केवल उत्तराखण्ड में स्थायी रूप से रहने वालों को, बल्कि एक साल तक वहाँ रह चुके दूसरे राज्यों के लोगों पर भी इस कानून के लागू होने की बात कही गयी है। यानी राज्य में एक साल के लिए ट्रांसफर होकर आये कर्मचारी या वहाँ पढ़ाई करने आये विद्यार्थी भी इस कानून के दायरे में होंगे। यहाँ तक कि वैवाहिक सम्बन्ध में कोई एक पक्ष भी इस परिभाषा के मुताबिक उत्तराखण्ड का निवासी है तो दोनों पक्षों पर यह कानून लागू होगा। अगर वे उत्तराखण्ड के बाहर रह रहे हों, तो भी उन पर यह कानून लागू होगा। जाहिर है कि राज्य की सीमा के बाहर के लोगों को इस कानून के दायरे में लाकर उत्तराखण्ड सरकार ने अपने अधिकार का गलत विस्तार किया है जो संविधान सम्मत नहीं है।

इस कानून के मुताबिक विवाह का पंजीकरण करना अनिवार्य है। इसका मकसद महिलाओं का संरक्षण करना नहीं, बल्कि किसी शादी को स्वीकृत या अस्वीकृत करने का अधिकार राज्य सरकार के नियंत्रण में लाना है। कानून के मुताबिक पंजीकरण अधिकारी, सब–रजिस्ट्रार किसी विवाह को पंजीकृत करने से इनकार कर सकता है। इसके लिए उसे विवाहित जोड़े को पंजीकृत नहीं करने का कारण लिखित रूप से देना होगा। लेकिन इस कानून में उन आधारों को स्पष्ट नहीं किया गया है, जिसके चलते किसी विवाह को स्वीकृत या अस्वीकृत किया जा सकता है। अपील का अधिकारी सब–रजिस्ट्रार या रजिस्ट्रार जनरल होगा जिसकी राय अन्तिम और बाध्यकारी होगी। यानी उस फैसले के खिलाफ न्यायालय में जाने का अधिकार नहीं होगा। यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि अन्तरजातीय या अन्तर्धार्मिक विवाह करने वाले जोड़ों पर क्या गुजरेगी जब सरकारी अधिकारी उनकी शादी को अस्वीकार कर देंगे। यही नहीं, पंजीकरण करने के लिए आवेदन में दिया गया सारा ब्योरा और पंजीकरण को खारिज करने का कारण किसी भी व्यक्ति को जाँचने–परखने के लिए सार्वजनिक रूप से खुला होगा। यह निजता के अधिकार पर खुला हमला है और किसी विवाह का विरोध करने वालों के पक्ष में एक घातक हथियार है।

विशेष विवाह कानून में पहली बार सार्वजनिक सूचना देने का प्रावधान किया गया था। यह प्रावधान माता–पिता की इजाजत के बिना अपनी मर्जी से शादी करने वाले वयस्कों के लिए बेहद खतरनाक था। यही कारण था कि विधि आयोग नें इसे हटाने की सिफारिश की थी। उत्तराखण्ड सरकार ने अपने कानून में अनिवार्य पंजीकरण के जरिये इस खतरनाक प्राविधान को शामिल कर लिया।

इस कानून के तहत पंजीकरण की अनिवार्यता 2010 से पहले के विवाहित जोड़ों पर भी लागू होगी। पंजीकरण न करवाना एक अपराध माना जायेगा और इसके लिए 10,000 से 25,000 हजार रुपये तक का जुर्माना और तीन महीने तक की कैद हो सकती है। विवाह सम्बन्धी कानून में सुधार करके उसे आसान बनाने के बजाय यह कानून वैवाहिक जोड़ों को अपराधी मानने और उनका उत्पीड़न करने का हथियार बना दिया गया है।

इस कानून का सबसे खतरनाक हमला लिव–इन रिलेशन पर हुआ है और इसकी सर्वाधिक आलोचना भी हुई है। पिछले कई वर्षों के दौरान सर्वाेच्च न्यायलय ने लिव–इन के पक्ष में कई महत्वपूर्ण और प्रगतिशील न्यायिक फैसले दिये हैं और इसे कानूनी मान्यता प्रदान की है। दो वयस्क नागरिकों का आपसी सहमति से एक साथ रहना संवैधानिक और न्याय संगत है, लेकिन आज भी हमारे समाज में अधिकांश अभिभावकों को यह स्वीकार नहीं। पिछड़ी और दकियानूस सोच वाले राजनेताओं और संघ परिवार के महिला विरोधी गिरोहों की निगाह में तो लिव–इन तथाकथित हिन्दू संस्कृति के खिलाफ है। उत्तराखण्ड समान नागरिक संहिता के प्रावधान लिव–इन रिलेशन के मामले में सर्वाेच्च न्यायालय के प्रगतिशील न्यायिक फैसलों के बजाय प्रतिक्रियावादी और जन–विरोधी सोच को आधार बनाकर तैयार किये गये हैं।

अपनी मर्जी से जीवन साथी चुनने और एक साथ रहने के फैसले को यह कानून शादी के खाँचे में डालने का हिमायती है। ऐसे सम्बन्ध अगर एक साल पुराने हैं तो उनका पंजीकरण अनिवार्य माना गया है। अगर कोई प्रेमी युगल लिव–इन रिलेशन चलाने के बारे में विचार भी करता है तो उसके लिए पंजीकरण अनिवार्य है। अगर कोई युगल आगे से अलग रहने का फैसला करता है तो भी उसके लिए पंजीकरण कराना जरूरी है। ऐसे पंजीकृत जोड़ों के बारे में रजिस्ट्रार द्वारा “संक्षिप्त पूछताछ” करना भी अनिवार्य बना दिया गया है और अगर उसे कोई “संदेह” हो तो वह इस बारे में पुलिस को भी सूचित कर सकता है। यही नहीं, अगर रजिस्ट्रार को शिकायत मिलती है कि कोई जोड़ा एक साथ रह रहा है और उसने पंजीकरण नहीं कराया है तो उस शिकायत को दर्ज करना और उस पर कार्रवाई करना अनिवार्य है। इस कानून में पंजीकरण न कराने की सजा के तौर पर तीन से छ: माह तक की कैद का प्रावधान है। निश्चय ही यह सब नैतिक पहरेदारी के नाम पर गुण्डा गिरोहों द्वारा प्रेमी युगल के खिलाफ आये दिन किये जाने वाले हमलों को कानूनी जामा पहनाना है। जो गुण्डा गिरोह एंटी रोमियो स्क्वाड, वेलेनटाइन डे पर तोड़–फोड़ और मारपीट तथा पार्कों में बैठे प्रेमी जोड़ों के साथ अभद्र कार्रवाई करते हैं, उनके हाथों में यह कानूनी हथियार दे दिया गया है। यहाँ तक कि अब वे एक साथ रहने वाले किसी जोड़े के घर पर आधी रात को दस्तक देकर यह पता करने जा सकते हैं कि उनका पंजीकरण हुआ है या नहीं। इस कानून के तहत उत्तराखण्ड के ऐसे निवासियों को भी जो राज्य से बाहर रहते हों, लिव–इन रिलेशन का ब्यौरा देना अनिवार्य है। यह कानून वयस्कों के संवैधानिक अधिकार पर सीधा हमला है, मानवाधिकार और निजता के अधिकार का खुलेआम मजाक है।  

इस कानून में तलाक, पैतृक सम्पत्ति और उत्तराधिकार तथा बहुविवाह के मामले में भी हिन्दू कोड बिल 1955 के प्रावधानों को ही थोड़े हेर–फेर के साथ सभी समुदायों पर थोपने का काम किया गया है। हिन्दू कोड बिल में कई तरह की असमानताएँ मौजूद हैं। 21वें विधि आयोग ने सभी धर्मों के पर्सनल लॉ में कई तरह के सुधारों की सिफारिस की थी, लेकिन उसका मानना था कि समान नागरिक संहिता की तत्काल कोई जरूरत नहीं है। 22वाँ विधि आयोग अभी उन सुझावों पर विचार कर रहा है। ऐसे में बिना व्यापक विचार–विमर्श और सलाह–सुझाव के जल्दीबाजी में लाया गया यह कानून आरएसएस–भाजपा के संकीर्ण हिन्दुत्ववादी मंसूबों और अपने चुनाव घोषणा पत्र के संकल्पों को हर कीमत पर पूरा करने का प्रयास मात्र है। “मातृशक्ति” के संरक्षण के नाम पर लाया गया यह कानून बेहद महिला विरोधी है और लम्बे संघर्षों और कानूनी लड़ाइयों से हासिल किये गये उनके अधिकारों को संकुचित कर देने वाला कानून है।

हमारे देश के विविधता पूर्ण और बहुलतावादी सामाजिक–सांस्कृतिक वातावरण में, जहाँ विभिन्न नृजातीय समुदायों, धर्मों, राष्ट्रीयताओं और इलाकों के रीति–रिवाज में काफी विविधता मौजूद हो, वहाँ समान नागरिक संहिता का मसविदा तैयार करना बहुत ही चुनौतीपूर्ण और जटिल कार्यभार है। सभी समुदायों की सलाह और सहमति से ही ऐसे किसी कानून की रूपरेखा तैयार की जा सकती है। संकीर्ण, विभाजनकारी और वर्चस्ववादी सोच के साथ किया गया कोई भी प्रयास कभी कारगर और स्वीकार्य नहीं हो सकता।

समान नागरिक संहिता अपने आप में एक बेहतर अवधारणा है लेकिन इसे जमीन पर उतारने की पूर्व शर्त है बहुसंख्य जनता के लिए आर्थिक–सामाजिक समानता की गारंटी। इसके बिना ऐसा कोई भी कानून उसी तरह बेकार है, जैसे भलमनसाहत से बनाये गये दहेज़ विरोधी, अनुसूचित जाति–जनजाति उत्पीड़न विरोधी, बलात्कार विरोधी, भ्रूण हत्या विरोधी, घरेलू हिंसा विरोधी कानून। इन कानूनों के होते हुए भी इन बुराइयों का खत्म होना तो दूर, इन अपराधों की स्थिति दिनोंदिन और बदतर होती जा रही है। कानूनी समानता सचमुच में न्याय और समता पर आधारित, एक सच्ची लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही सम्भव हो सकती है।

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