जून 2021, अंक 38 में प्रकाशित

अभिव्यक्ति की आजादी का झूठा भ्रम खड़ा करने की कोशिश

“अभिव्यक्ति की आजादी” और “असहमति की आजादी” लोकतंत्र के सबसे बुनियादी मूल्य हैं। आधुनिक समाज में अपने विचारों को जाहिर करने का सबसे बड़ा, आसान और प्रभावी माध्यम पत्रकारिता और सोशल मीडिया है। भारत भले ही दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हो लेकिन यहाँ पत्रकारिता सबसे खतरनाक पेशों में से एक है।

“रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स” नामक संस्था पूरी दुनिया के अलग–अलग देशों में प्रेस की स्वतंत्रता का आकलन करती है। इस संस्था ने इसी साल अप्रैल में विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2021 जारी किया है। पिछले साल की तरह इस साल भी भारत को 180 देशों में 142 वाँ स्थान मिला है। यानी प्रेस स्वतंत्रता के मामले में भारत दुनिया के सबसे फिसड्डी देशों में शामिल है।

पिछले साल यह सूचकांक जारी होने के बाद भारत सरकार ने “इण्डेक्स मोनिटर सेल” नामक एक समिति का गठन किया था। इस समिति का काम “रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स” के पैमानों की जाँच पड़ताल करके प्रेस स्वतंत्रता के मामले में भारत की रैंकिंग सुधारना था। मतलब, समिति की जिम्मेदारी कुछ ऐसे जुगाड़ करने की थी जिनसे, भारत में प्रेस की स्वतंत्रता चाहे जैसी हो लेकिन उसकी रैंकिंग अच्छी आये। पत्रकारिता के विषय में बनी इस समिति के सदस्यों में सिर्फ दो ही पत्रकार थे। बाकी नौ सदस्य भारत के अलग–अलग विभागों से उच्च अधिकारी थे। जो दो पत्रकार इसमें शामिल थे उनमें से एक थे न्यूज चैनल, इंडिया टीवी के रजत शर्मा जो सरकार की चाटुकारिता के लिए प्रसिद्ध हैं और दूसरे थे “द हिन्दू” के पूर्व सम्पादक और वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ। पी साईनाथ वही पत्रकार हैं जिन्होंने भारत के दूरदराज के इलाकों में अपनी खोजी पत्रकारिता के जरिये यह बताया था कि देश में किसानों की तबाही की बुनियाद में सरकारी नीतियाँ है।

जब “इण्डेक्स मोनिटर सेल” अपनी मुख्य रिपोर्ट तैयार कर रहा था तभी पी साईनाथ ने उस रिपोर्ट के विरोध में एक असहमति पत्र भी लिखा था। लेकिन मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट देते समय समिति ने इसे साथ में नहीं जोड़ा, हो सकता है नौकरशाहों ने पत्र को उठाकर रद्दी की टोकरी में फेंक दिया हो। इस पत्र में पी साईनाथ ने सरकार को उन कदमों की याद दिलाने की कोशिश की थी जो पत्रकारों के खिलाफ उठाये गये हैं और जो लोकतंत्र के नाम पर धब्बा हैं।

इसके अलावा अपने पत्र में उन्होंने ऐसे 52 कानूनों का भी जिक्र किया जो भारत की स्वतंत्र पत्रकारिता का गला घोंटते हैं। इनमें से कुछ कानून तो अंगे्रजी राज के हैं। महामारी रोग अधिनियम 1897 ऐसा ही एक कानून है। कहने को तो यह कानून महामारी के नियंत्रण के लिए बनाया गया था लेकिन सरकार के कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिए उसका खूब दुरुपयोग हुआ। सन् 1918–19 में स्पेनिश फ्लू के दौरान बाल गंगाधर तिलक ने अपने अखबार “केसरी” में अंग्रेज सरकार की बदइन्तजामी की खबर छापी थी। अंग्रेज सरकार ने इस कानून की आड़ लेते हुए बाल गंगाधर तिलक को 18 महीने के लिए जेल में ठूँस दिया।

तमिलनाडु में भोजन, पीपीई किट आदि की कमी की खबर छापने पर “एण्ड्रू सैम राजा पांडियन” नाम के एक पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया गया। आजाद भारत में यह पहला मौका था जब महामारी अधिनियम के तहत किसी पत्रकार को गिरफ्तार किया गया। इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि भारत में प्रेस स्वतंत्रता की क्या हालत है।

पिछले साल की रैंकिंग जारी होते ही सरकार ने समिति बनाने के अलावा फ्रांस में भारत के राजदूत जावेद अशरफ को आदेश दिया कि वे रैंकिंग जारी करने वाली संस्था “रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स” के अधिकारियों से मिलकर नाराजगी जाहिर करें। राजदूत जैसे उच्च अधिकारी को ऐसे काम में लगाना यह दर्शाता है कि सरकार असल में इस रैंकिंग के प्रति कितनी गम्भीर है। बातचीत के दौरान जब कश्मीर में इण्टरनेट बैन कर दिये जाने का मुद्दा उठा तो राजदूत ने कहा कि वहाँ असली मुद्दा प्रेस स्वतंत्रता नहीं है बल्कि फेसबुक, व्हाट्सएप के जरिये फैलने वाली फेक न्यूज है जिससे भारतीय सुरक्षा को खतरा है। लेकिन फेक न्यूज की आड़ में जिस तरह मुख्य पत्रकारिता का गला घोंटा गया उस पर कोई बात नहीं हुई। जब उत्तर प्रदेश में खनन माफिया द्वारा पत्रकार की हत्या का मुद्दा उठा तो राजदूत महोदय उसे केवल कानून व्यवस्था बिगड़ने का मुद्दा बताकर कन्नी काट गये।

वैसे तो भारतीय लोकतंत्र की हर सरकार ने पत्रकारों का और अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटा है लेकिन मोदी सरकार ने इस मामले में नये रिकॉर्ड कायम किये हैं। पिछले 7 साल से व्यवस्थित तरीके से जमीन पर और सोशल मीडिया पर स्वतंत्र आवाजों का गला घोंटा जा रहा है। अभिव्यक्ति की हर आवाज को दबाने के लिए लम्पटों के जमीनी संगठन से लेकर आईटी सेल तक एक पूरी फौज खड़ी कर दी गयी है। पत्रकारों की गिरफ्तारी और उनकी हत्याओं की घटनाओं में पिछले 7 साल में रिकार्ड बढ़ोतरी हुई है।

मन की बात कार्यक्रम को लेकर लौह–अनुशासित नजर आने वाले प्रधानमंत्री महोदय पत्रकारों से दूरी ही बनाये रखते हैं। मोदी ने पिछले 7 साल में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की है। स्वतंत्र मीडिया संस्थानों पर सरकारी एजेंसियों द्वारा छापे लगवाये जाते हैं और उन पर दबाव बनाया जाता है कि वे भी सरकार की उँगलियों पर नाचे।

महामारी के दौर में रिपोर्टिंग करना और भी मुश्किल हो गया है। देश की खस्ताहाल स्वास्थ्य सेवा और देश में जरूरी मेडिकल सुविधाओं की कमी के बारे में बोलने वाले पत्रकार या सोशल मीडिया यूजर खौफ के साये में जीते हैं। वैश्विक अखबारों और पत्रिकाओं में सरकार या मोदी की प्रशंसा में लिखी एक लाइन को मंत्री और भक्तगण वेद वाक्य के जैसे गाते फिरते हैं। लेकिन उन्हीं में जब नाकामियों के किस्से छपते हैं तो सरकार अपने स्तर से बहुत नीचे गिरकर आधिकारिक ‘उलाहने’ देने में लग जाती है। पिछले महीने ऑस्ट्रेलियाई अखबार “द ऑस्ट्रेलियन” ने भारत में कोरोना महामारी की दूसरी लहर के लिए मोदी सरकार को जिम्मेदार बताया। खबर छपते ही भारतीय उच्चायुक्त तुरन्त नाराजगी जताने अखबार के दफ्तर पहुँच गये। स्तरहीनता की हद तो यह थी कि भारत के विदेश मंत्रालय ने अखबार को चिट्ठी लिखी।

इसके अलावा सरकार ने ट्विटर को धमकी दी कि सरकार की नाकामी उजागर करने वाली 50 पोस्ट हटा ले नहीं तो उसे बैन किया जा सकता है। किसान आन्दोलन के दौरान भी दिल्ली पुलिस की ज्यादती दिखाने वाले स्वतंत्र पत्रकार मनदीप पुनिया को गिरफ्तार करवाया गया। सरकार की मुखर आलोचना करती हुई खबरें छापने वाली वेबसाइट “न्यूजक्लिक डॉट इन” को चुप करवाने के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की रेड लगवाई जाती है। एक न्यूज एंकर के प्रोग्राम किसान आन्दोलन के बारे में तार्किक बात करते थे तो उसके चैनल को फ्री चैनल से पेड चैनल में डाल दिया। मतलब यह कि हर असहमति सरकार के लिए नाकाबिल–ए–बर्दाश्त है। इस सबके बावजूद सरकार चाहती है कि भारत को प्रेस स्वतंत्रता के मामले में दुनिया के चोटी के देशों में शामिल किया जाये।

दरअसल भारत सरकार जनता के प्रति अपने कर्तव्यों से जितना दूर भाग रही है अभिव्यक्ति की आजादी और असहमति के अधिकार को उतना ही कुचला जा रहा है। यह एक ऐतिहासिक रिश्ता है। जब सरकार केवल जनता पर सवारी गाँठने के लिए रह जाती है तो उसके चरित्र को उजागर करने वाली हर आवाज उसके कान में चुभन पैदा करती है। लेकिन अक्सर सरकार यह भूल जाती है कि दमन और प्रतिरोध एक सिक्के के दो पहलू हैं। दमन जितना बढ़ेगा प्रतिरोध की आवाजें भी उतनी ही ऊँची उठंेगी।

 
 

 

 

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