जून 2020, अंक 35 में प्रकाशित

दिल्ली दंगे की जमीनी हकीकत

भारतीय समाज के लिए नासूर बन चुकी साम्प्रदायिकता की समस्या ने देश को अनेकों जख्म दिये हंै। इसकी वजह से भारत के दो टुकड़े हुए और आजाद भारत ने धार्मिक हिंसा के अकथनीय कत्ल–ओ–गारत में अपनी आँखें खोलीं। जख्म का आलम यह है कि एक से समाज उभरता नहीं है तब तक दूसरा सतह पर उभर आता है। आजादी के बाद की किसी भी सरकार ने इसे दूर करने के लिए ईमानदारी से न तो कोई योजना बनायी और न ही उस पर कभी विचार किया। पिछले छ: सालों से जब से भाजपा की हिन्दुत्ववादी सरकार सत्ता में है तब से साम्प्रदायिकता का विस्तार इस हद तक हो चुका है कि इसके चरित्र में गुणात्मक बदलाव आ गया है और यह एकतरफा बन गयी है।

फरवरी के अन्त में हुआ दिल्ली दंगा इस बदलाव का ताजा उदाहरण है जिसकी भूमिका भाजपा नेता कई महीने पहले से भड़काऊ बयान और भाषण देकर बनाते आ रहे थे। दिल्ली चुनाव, जो साम्प्रदायिकता बनाम विकास के बीच लड़ा गया और जिसमें भाजपा की साम्प्रदायिकता के मुकाबले आम आदमी पार्टी के विकास की जीत हुई, इस दौरान प्रचार रैलियों में भाजपा नेताओं द्वारा “देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को” और “कपड़ों से देशद्रोहियों की पहचान हो जायेगी” जैसे बयान देकर लगातार दिल्ली की हवा में साम्प्रदायिकता का जहर घोलने का काम किया जा रहा था। दरअसल मोदी सरकार ने लगातार दूसरी बार सत्ता हासिल करते ही जो संविधान विरोधी नागरिकता संशोधन कानून पारित किया उसका संविधान में यकीन रखने वाले हर भारतीय नागरिक ने इसका जाति–धर्म की दीवारों से ऊपर उठकर विरोध किया। इस विरोध में मुस्लिम नागरिक खासतौर से शामिल हुए। इस कानून के खिलाफ देशव्यापी प्रदर्शनों का केन्द्र बना दिल्ली का शाहीन बाग नामक इलाका विरोध प्रदर्शन केे अपने रचनात्मक तौर–तरीकों के कारण देश–विदेश में चर्चित हुआ। शाहीन बाग के अहिंसक विरोध प्रदर्शन को प्रसिद्धि मिलने के चलते देश–दुनिया में मोदी सरकार की सीएए को लेकर आलोचना होने लगी। जिसके चलते भाजपा नेताओं की पूरी कोशिश थी कि किसी भी तरह विरोध प्रदर्शनकारियों को बदनाम करके इन आलोचनाओं से पीछा छुड़ाया जाये। इस काम में भाजपा के सभी राष्ट्रीय तथा स्थानीय नेताओं के साथ–साथ जरखरीद मीडिया भी लग गया। जब साम्प्रदायिकता का माहौल पूरी तरह से पक गया तो बारूद में चिंगारी लगाने का काम आम आदमी पार्टी से भाजपा में शामिल हुए विधायक कपिल मिश्रा ने किया। कपिल मिश्रा ने पुलिस की मौजूदगी में ऐलान किया कि अगर प्रदर्शनकारी नहीं हटे तो वह अपने समर्थकों को लेकर खुद उन्हें हटायेगा हालाँकि अपने महीनों लम्बे प्रदर्शन के दौरान प्रदर्शनकारियों की ओर से एक भी ऐसी घटना नहीं हुई जिससे किसी की धार्मिक भावनाएं आहत हो। तुरन्त कपिल मिश्रा को गिरफ्तार करने के बजाय पुलिस अधिकारी मूकदर्शक बनकर खड़े रहे। जिसका परिणाम यह हुआ कि उसी दिन शाम को सीएए समर्थकों पर विरोधियों ने पथराव शुरू कर दिया। जिसने भयानक दंगे का रूप ले लिया जो दंगा तीन दिन तक बदस्तूर जारी रहा। जिसमें पचास बेगुनाहों की जान चली गयी और लगभग तीन सौ लोग घायल हुए। दिल्ली पुलिस का एक हेड कॉन्सटेबल भी इस हिंसा का शिकार हुआ। इसके अलावा करीब 300 घर और दुकानें फूँक दी गयीं जिससे करोड़ों की सम्पत्ति का नुकसान हुआ। इस दौरान दर्जनों ऐसी घटनाएँ हुर्र्इं जिसने पुलिस प्रशासन के सामप्रदायिक रुख को स्पष्ट किया।

यह एक अलग किस्म का दंगा था। यह हिन्दू–मुस्लिम में सीधा टकराव न होकर मुस्लिम कालोनियों और घरों को एकतरफा निशाना बनाने जैसा था। योजनाबद्ध तरीके से किये गये हमलों में हमलावर भाड़े के गुण्डों जैसा सुलूक कर रहे थे। निश्चय ही मुस्लिम पक्ष ने कई जगह इन्हें माकूल जबाव भी दिया।

 साम्प्रदायिक दंगों के इतिहास में वैसे तो हमेशा से भारतीय पुलिस की भूमिका संदिग्ध रही है। लेकिन दिल्ली के हालिया दंगों में यह भूमिका एकदम स्पष्ट हो गयी जब पुलिस साफ तौर पर हमलावरों के पक्ष में ही खड़ी दिखायी दी। सुनियोजित तरीकों से हुए इन दंगों में तीन दिनों तक दंगाइयों को जैसे खुला छोड़ दिया गया था। सैकड़ों ऐसी फोटो और वीडियो क्लिप सामने आयी, जिसमें पुलिस या तो मूकदर्शक बनी खड़ी है या दंगाइयों में शामिल होकर हमलावर है। क्या कोई राजनीतिक ताकत पुलिस को ऐसा करने के लिए निर्देश दे रही थी या पुलिस ने खुद ही एक पक्ष को सही और दूसरे को गलत मान लिया था और राजसत्ता उसके इस रुख से खुश थी। दंगों के दौरान पुलिस की भूमिका पर पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह का कहना है कि “दिल्ली दंगों के दौरान पुलिस को देखकर लगा मानो उसे लकवा मार गया हो।” यह बयान ही पुलिस की भूमिका को स्पष्ट कर देता है। हालाँकि पुलिस वाले भी उसी भारतीय समाज से आते हैं जिसमें बचपन से ही धार्मिक नफरत की घुट्टी पिलायी जाती है। और भारतीय पुलिस भी कमोबेश उन्हीं पूर्वाग्रहों से ग्रसित है, जिनसे आमतौर पर पूरा समाज ग्रसित है। इन दंगों के दौरान “द टेलीग्राफ” नामक अखबार ने ठीक ही लिखा था कि “गुजरात मॉडल दिल्ली पहुँच गया है।” यह बात 2002 के गुजरात दंगों के दौरान पुलिस की भूमिका की तरफ इशारा करते हुए में कही गयी थी।

दिल्ली का दंगा उस समय हुआ जब अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारत दौरे पर थे। लेकिन उन्होंने इसे भारत का आन्तरिक मामला कहकर कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया। लेकिन पिछले छ: वर्ष से भारत वैश्विक स्तर पर अपनी उस धर्मनिरपेक्षता की छवि को तेजी से खोता जा रहा है जिसके लिए वो जाना जाता रहा है। दुनिया के कई देशों ने इन दंगों पर अपनी प्रतिक्रिया दी––

ईरान के विदेश मंत्री जावेद जरीफ ने ट्वीट करके कहा कि “भारत में मुसलमानों के खिलाफ प्रायोजित हिंसा की ईरान निन्दा करता है। सदियों से ईरान और भारत दोस्त रहे हैं। मैं भारत की सरकार से आग्रह करता हूँ कि सभी नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करें।” इससे पहले धारा 370 हटाने और सीएए को लेकर मलेशिया, तुर्की और पाकिस्तान ने भी भारत सरकार से अपनी चिन्ता जाहिर की थी। हालाँकि भारत सरकार ने इसे आन्तरिक मामला कहकर खारिज कर दिया था। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकारों की उच्चायुक्त ने भी दिल्ली हिंसा पर चिन्ता जाहिर करते हुए कहा कि भारतीय राजनेताओं को ऐसी हिंसा रोकनी चाहिए।

दिल्ली में दोबारा चुनाव जीतकर सत्ता में आयी आम आदमी पार्टी ने दंगों को रोकने में कोई सक्रिय हस्तक्षेप नहीं किया और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने भी राज्य सरकार की शक्तिहीनता का बहाना बनाकर दंगे की हर प्रकार की जिम्मेदारी से हाथ खींच लिया। दूसरी ओर राजनीतिक पार्टियों के नेता भी सोशल मीड़िया पर ट्वीट करने से आगे नहीं बढ़े और न्यूज चैनल तो लगातार भड़काऊ खबरें दिखाकर आग में घी डालने का काम करते ही रहे। जबकि इतिहास में गाँधी जी जैसे नेता सम्प्रदायिक दंगों को रोकने के लिए सीधे उन्मादी भीड़ में घुस जाते थे और क्रान्तिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी तो कानपुर में इसी नफरत को रोकने के दौरान ही शहीद हुए थे।

साम्प्रादायिक दंगों के बारे में कभी शहीद भगतसिंह ने कहा था कि “भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। इन धर्मों ने भारत का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है।”

लेकिन बात उनकी चिन्ता से बहुत आगे बढ चुकी है। दंगे एकतरफा रूप धारण कर चुके हैं, मीडिया उन्हें रोकने के बजाय बढ़ावा देता है और सरकार ने देश छवि की परवाह करना छोड़ दिया है।

 
 

 

 

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