जनवरी 2021, अंक 37 में प्रकाशित

नोबेल पुरस्कार : नीलामी का सिद्धान्त या सिद्धान्त का दिवाला ?

पॉल मिल्ग्रोम और रॉजर विल्सन को इस साल के अर्थशास्त्र के नोबेल स्मारक पुरस्कार से नवाजा गया है। अर्थशास्त्र के जिस खास धारा में इन्हें महारत हासिल है वह है “ऑक्शन थ्योरी” यानी नीलामी का सिद्धान्त। इससे पहले विलियम विकेरी, गणितज्ञ जॉन नैश आदि को भी इस क्षेत्र के शुरुआती सिद्धान्त (गेम थ्योरी) में योगदान के लिए इसी पुरस्कार से नवाजा गया था। इस खास विषय में शोध करने का और उसमें महारत हासिल करने का क्या महत्त्व है, इसे समझने के लिए हमें पहले जानना होगा कि यह सिद्धान्त क्या है।

नीलामी का सिद्धान्त

सीधे नीलामी के बारे में बात करने से पहले अगर हम ‘गेम थ्योरी’ से शुरू करंे तो समझने में आसानी होगी। दरअसल गेम थ्योरी का विषय होता है–– किसी सामान्य हित के बारे में टकराव। यूँ समझा जाये मजदूरी बढ़ने से मजदूरों का भला होगा और घटने से मालिक का। गेम थ्योरी इस टकराव में एक खास समाधान पर पहुँचने का जरिया है जहाँ दोनों पक्ष कहे ‘न तेरा, न मेरा’ और खुशी–खुशी अपने–अपने काम पर लग जायें। कई बार मजदूर संगठन और कारखाने के प्रबन्धन समिति के बीच का समझौता वार्ता दरअसल इस गेम थ्योरी का ही उदाहरण है। अब ऐसे बैठक का नतीजा कभी दोनों पक्ष को खुश करती है, कभी नहीं। किसी फैसले से जब दोनों पक्ष खुश हो जायें तो उसे इस टकराव का “नैश समाधान” कहा जाता है। लेकिन जैसा कि हमें मालूम है, मजदूर और मालिक के बीच कोई सामान्य हित है ही नहीं, इसलिए इनके बीच के टकराव का कोई भी समाधान “नैश समाधान” होने से रहा। फिर जो बच जाता है, उससे आप खुश होइए या नाराज, दिहाड़ी तो उतनी ही मिलेगी जितनी मालिक देना चाहते हैं, आप मुफ्त में काम करना चाहते हैं तो और सही।

इससे आगे बढ़कर इस सिद्धान्त का इस्तेमाल कई तरह के जटिल आर्थिक और वित्तीय मामलों में किया जाता है जिनमें से एक है नीलामी। आये दिन अखबार में कभी गाँधीजी का चश्मा, टीपू सुल्तान की तलवार, एमएफ हुसैन की चित्रकारी आदि नीलाम होने की खबरें आती रहती हैं। इसका तरीका वही है जैसे हम फिल्मों में देखते हैं। नीलाम करने वाला और खरीदार एक जगह इकठ्ठा होते हैं और उस सामान पर बोली लगायी जाती है। अन्त में सबसे ऊँची बोली लगाने वाले नीलाम जीतकर बोली का रकम चुकाते हैं और सामान अपने साथ ले जाते हैं। नीलामी के इस खास तरीके को अंग्रेजी में ऑक्शन कहा जाता है। एक दूसरा तरीका भी है जो अक्सर आपको समुन्दर किनारे मछुआरों को करते हुए देखने को मिलेगा। सुबह मछुआरा अपने जाल में फँसी हुई मछली की बोली खुद लगाता है और खरीदार न मिलने पर वह बोली की रकम घटाता रहता है। ऐसे में दूसरी या तीसरी बोली पर अक्सर उसकी मछली बिक जाती है। नीलामी के इस तरीके को डच ऑक्शन कहा जाता है। इसके अलावा जो हम रोज अखबार में देखते हैं वह है इसका तीसरा तरीका, सील्ड ऑक्शन यानी टेण्डर बुलाना। किसी सरकारी संस्था की तरफ से कोई बिल्डिंग, सड़क आदि निर्माण के लिए बन्द लिफाफे में बोली लगाने का इश्तेहार दिया जाता है। अलग–अलग कम्पनी अपनी तरफ से जोड़–घटा करके बन्द लिफाफे में अपनी बोली की रकम जमा करती है और सबसे कम खर्च में विश्वसनीय तरीके से प्रस्ताव देने वाले को टेण्डर हासिल होता है।

अर्थशास्त्री विल्सन और मिल्ग्रोम साहब का योगदान मोटे तौर पर यह है कि जटिल गणितीय और आर्थिक सूत्रों को मद्देनजर रखते हुए वे इस फैसले पर पहुँचे हैं कि ‘इंग्लिश ऑक्शन’ ही अब तक सबसे बेहतर नीलामी का तरीका रहा है क्योंकि वे इस क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं इसलिए अक्सर अमरीकी तथा दूसरे देशों की सरकारें, दानवाकार कॉर्पाेरेट आदि उनसे नीलामी के बारे में सलाह लेते रहते हैं। अमरीकी स्पेक्ट्रम की नीलामी के सलाहकार वे ही थे। उनका यह भी कहना है कि तरह–तरह के सरकारी उद्योग या सार्वजनिक सेवा उपक्रमों को निजी हाथों में सीधे हस्तान्तर करने के बजाय नीलामी करना ही सही रहेगा क्योंकि नीलामी के जरिये आने वाली रकम सरकारी राजस्व में इजाफा करने में मदद करेगी।

दर्शन का दिवाला ?

नीलामी के सभी सिद्धान्तकार इस बारे में सहमत हैं कि सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने का सबसे सही तरीका है नीलामी। उनका कहना है कि नीलामी करते हुए सरकार का ध्यान बस इस बात पर हो कि इस नीलामी से राजस्व में कितना ज्यादा इजाफा होगा। भारत में पिछले कई दशक से ही सार्वजनिक उपक्रमों को निजी कम्पनियों के हाथों बेचने का कार्यक्रम चल रहा है। इस सदी की शुरुआत में बालको, नाल्को, हिन्दुस्तान जिंक लिमिटेड आदि धातु उद्योग को वेदान्ता गिरोह के हाथ बेच दिया गया, वह भी उनकी बाजार दर से कम कीमत पर। भारत एलुमिनियम कम्पनी या बालको का 51 फीसदी शेयर जब 2001 में महज 551 करोड़ रुपये में वेदान्ता को बेचा गया तब बाजार में उसकी कीमत थी 3000 करोड़ रुपये। ये नीलामी थी या नहीं हम नहीं कह सकते। लेकिन नीलामी इस देश की सरकार आये साल करती है। 2010 के टूजी स्पेक्ट्रम की नीलामी की जाँच–पड़ताल करके कैग ने बताया था कि सरकार को इस नीलामी से जितना रुपया मिलना था उससे 1,76,000 करोड़ रुपये कम मिला है, यानी भारी नुकसान हुआ है।

ऊपर दिये गये सभी उदाहरणों को आर्थिक परिभाषा में एक ही श्रेणी में रखा जा सकता है जिसे ‘विनिवेश’ कहा जाता है। वेदान्ता गिरोह को सबसे ज्यादा फायदा हुआ था जब एक ‘विनिवेश मंत्रालय’ हुआ करता था और जिसमें आसीन थे श्री अरुण शौरी जी, जो पिछले कई साल से भाजपा से नाराज चल रहे हैं।

विनिवेश के बारे में भी इस नीलामी के सिद्धान्त के विशेषज्ञों का मानना है कि यह मौजूदा समय में राजस्व बढ़ाने का एक बेहतर जरिया है। किसी कार्रवाई के जरिये अगर सरकारी आय में इजाफा होती है तो अच्छी बात है क्योंकि उस बढ़ी हुई आय को बाद में जनकल्याणकारी योजना में खर्च होना ही है, जिससे कुछ और लोगों का भला होगा। इसका मतलब है जो लोग ईमानदारी से नीलामी की प्रक्रिया को और कुशल बनाने में लगे हुए हैं वे कुछ बातों को सही मानकर चलते हैं। जैसे–– पहला, मौजूदा राज्य का ढाँचा तथा उसे संचालित करने के लिए पूँजीवादी लोकतन्त्र, दोनों ही मानव सभ्यता का अन्तिम और उच्चतम पड़ाव है। इससे बेहतर न कुछ था और न कुछ होगा। हालाँकि स्थिति इसके ठीक उलट है। दूसरा, सरकार को शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, सड़क, रेल, विमान आदि सेवा से बाहर जाना जरूरी है क्योंकि, इन क्षेत्रों में सरकार की उपस्थिति के चलते निजी निवेश कम हो सकता है और इससे जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में कमी आ सकती है। तीसरा, इस पूँजीवादी विकास के रास्ते में विकास दर कम होती रहती है, उससे निबटने का एक तरीका है सरकारी, यानी जनता के खून–पसीने से खड़ी की गयी सार्वजनिक सम्पत्ति की नीलामी। और अन्त में सबसे बढ़िया है निजीकरण क्योंकि निजी कम्पनियाँ अपना अस्तित्व, साख आदि बरकरार रखने के लिए लोगों को भरपूर सेवा देती रहेंगी।

और यही कारण है कि नीलामी के सिद्धान्त को इस सम्मान से नवाजा गया है। सरकार को जब उत्पादन नहीं करना है, स्वास्थ्य सेवा नहीं देनी है, शिक्षा नहीं देनी है, सड़कें, हवाई अड्डा, रेलगाड़ी, स्टेशन आदि बनवाकर निजी कम्पनियों के हाथ नीलाम ही करना है तो उनके सबसे बेहतर बुद्धिजीवियों के पास भी एक ही रास्ता बचा है–– नीलामी को कैसे और बेहतर किया जाये।

इस मोड़ पर आकर इसे मौजूदा जमाने के दिवालियापन का दर्शन नाम देना ज्यादा मुनासिब लगता है। जैसे भी सही, लोकतांत्रिक प्रक्रिया में चुनी गयी सरकार सबकुछ ताक पर रखकर बस नीलामी करने पर आमादा है। ऐसी स्थिति अक्सर तब आती है, जब किसी आदमी का अपना कोई सामान बेचे या गिरवी रखे बिना काम नहीं चल सकता। यानी साफ कहें तो दिवालिया लोगों का काम है एक के बाद एक सामान नीलाम करके अपना पेट भरना। आज हमारे देश का शासक वर्ग भी सरकारी खर्च कम करने के नाम पर सामाजिक सुरक्षा नीति, श्रम कानून से पीछा छुड़ा चुकी है, लेकिन सांसद–विधायकों की तनख्वाह रोज बढ़ती जा रही है। ऐसे में नीलामी की प्रक्रिया को बेहतर करने का शोध, चाहे कितनी ईमानदारी से क्यों न किया जा रहा हो, दरअसल बहुसंख्यक आबादी को लूटने के तरीके का शोध है।

कोई यह सवाल उठा सकता है कि किसी नये सिद्धान्त के बारे में ऐसी राय रखना कितना सही है ? पहली बात अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान की ही एक धारा है, इस बात से किसी की असहमति नहीं होगी। सामजिक विज्ञान का मूलत: दो काम है। एक, मौजूदा सामाजिक स्थिति को समझना और दो, उसमें पायी गयी कमी दूर करके उसे बेहतर करने का रास्ता ढूँढना। लेकिन जो लोग मौजूदा आर्थिक–सामाजिक ढाँचे को अन्तिम मान चुके हैं, उनको मौजूदा शासक वर्ग कितना ही सम्मान क्यों न दंे, वे दरअसल बौद्धिक दिवालियापन के शिकार हैं, यह उनके “दर्शन की दरिद्रता” है। नोबेल पुरस्कार देकर दार्शनिक–वैचारिक दरिद्रता से ग्रसित अर्थशास्त्रियों को महिमामंडित करना वैसा ही है, जैसे कुछ वर्ष पहले दो सट्टेबाज अर्थशास्त्रियों को हेजफण्ड की खोज के लिए पुरस्कृत किया जाना। ये सट्टेबाजी को जोखिम से बचाने चले थे, जबकि उनकी खुद की कमाई सट्टेबाजी में ही डूब गयी।

 
 

 

 

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