फरवरी 2020, अंक 34 में प्रकाशित

अकबर इलाहाबादी : जो अक्ल को न बढ़ाये वो शायरी क्या है

(जन्म 16 नवम्बर 1846 – निधन 15 फरवरी 1921)

इलाहाबाद का जिक्र हो और इलाहाबादी अमरूद और अकबर इलाहाबादी याद न आयें, यह सम्भव ही नहीं। इलाहाबाद, अमरूद और अपने बारे में कमाल की गर्वोक्ति की है अकबर इलाहाबादी ने,
कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद1 के
याँ धरा क्या है बजुज2 ‘अकबर’ के और अमरूद के
(1– भलाई 2– सिवाय)
अमरूद और अकबर जैसे एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। बनावट में भी और स्वाद में भी। अमरूद की सारी सिफत अकबर की शायरी में मौजूद है। कठोरता और कोमलता, चिकनाई और खुरदुरापन, मिठास और खटास, सरसता और तिक्तता। जैसे–– अमरूद कई विरोधी स्वादों का खजाना है, वैसे ही अकबर की शायरी कई विपरीत गुण–धर्मों का जखीरा है। वहाँ जिन्दगी है तो मौत की सर्द आहट भी है। सुन्दरता है तो कुरूपता भी है। अच्छाई और बुराई के बीच एक मुसलसल लड़ाई भी है। नेकी है तो बदकारी भी है। हँसी है तो आँसू भी है। आनन्द है तो दर्द का अहसास भी है।
क्या हुआ शम–ए–हरम तूने बुझा दी ऐ दोस्त
दैर1 के शोला जबानों ने तुझे दाद तो दी
(1– मन्दिर, बुतखाना)
अकबर अँधेरे और उजाले के फर्क को समझते हैं और समझाते भी हैं। वह ताकीद करते हैं कि बिना कार्य–कारण के कुछ भी घटित नहीं होता। धुआँ है तो आग भी होगी और आग लगती ही नहीं, लगायी भी जाती है। पानी प्यास बुझाता है तो सैलाब डुबोता भी है। बिजली चमकती है तो गिरती भी है। वह अरमानों, ख्वाबों और इरादों को चमकाती है तो उन्हें तबाह और खाक भी करती है। हवा जान बख्शती है तो आँधी जान भी लेती है। कुदरत और जिन्दगी के अपने नियम और कायदे होते हैं। इन नियमों और कायदों को समझने–बूझने के लिए ‘क्या’ और ‘क्यों’ के चक्रव्यूह से गुजरना ही होता है।
इसी सोच में तो रहता हूँ ‘अकबर’
यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है
‘क्या’ और ‘क्यों’ की जाँच–पड़ताल ने ही अकबर को धर्म और राजनीति के नापाक गठजोड़़ का प्रपंच और शैतानी खेल दिखाया था। उन्होंने अपने दौर में अंग्रेजों के खेल को समझ लिया था। उन्होंने साफ–साफ देख लिया था कि अंग्रेजी शतरंज के दो मोहरे हैं, हिन्दू और मुसलमान। इन्हें आपस में उलझा कर, लड़ा कर ही अपना उल्लू सीधा किया जा सकता है। भाषा के नाम पर, रीति–रिवाजों के नाम पर, मन्दिर–मस्जिद के नाम पर, पहरावे के नाम पर, धार्मिक आजादी के नाम पर अंग्रेजों ने दोनों कौमों को खूब लड़ाया, उनके बीच मनमुटाव पैदा किया, जमाने से चले आ रहे भाईचारे और मुहब्बत को तोड़ा और हिन्दुस्तान पर राज किया। विडम्बना देखिये कि इक्कीसवीं सदी के आजाद हिन्दुस्तान में अंग्रेजों के उसी खूनी खेल को दोहराने की कोशिश की जा रही है। धर्मनिरपेक्ष भारतीय ढाँचे को छिन्न–भिन्न किया जा रहा है। बहुजातीय, बहुभाषीय और बहुरंगी भारत को एकरंगी, एकरस और एकजातीय बनाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। हाल ही में संसद द्वारा पास किये गये ‘नागरिकता संशोधन कानून’ (सीएए) ने पूरे देश में डर और भ्रम का माहौल पैदा कर दिया है। मुसलमानों और गैर हिन्दुओं को देशद्रोही कहा जा रहा है। सरकार से सवाल पूछने वालों को ‘अरबन नक्सल’, ‘माओवादी’, ‘कम्युनिस्ट’ और ‘गद्दार’ कहा जा रहा है। इस विभाजनकारी एवं द्विराष्ट्रवादी सिद्धान्त का समर्थन करनेवाले कानून के विरोध में आम आदमी सड़कों पर उतर आया है। नागरिकों के अहिंसक विरोध को पुलिस द्वारा हिंसक तरीके से कुचला जा रहा है। अब तक कई निर्दोष मारे जा चुके हैं। जेएनयू, जामिया मिलिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को पुलिस ने बेरहमी से मारा–पीटा है। उनके समर्थन में देश की पूरी छात्र बिरादरी उठ खड़ी हुई है। कई राज्यों की सरकारों ने घोषणा कर दी है कि वो किसी भी सूरत में ‘सीएए’ लागू नहीं करेंगे। 
अकबर इलाहाबादी ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ही हिन्दू और मुसलमान के राजनीतिक फायदे और उपयोग की घिनौनी और जानलेवा चालों और फन्दों को भाँप लिया था और दोनों जातियों को सचेत किया था कि वो राजनीतिक शतरंज की किन्हीं भी चालों के मोहरे ना बने। अकबर की दुरन्देशी और चेतावनी देखिये, गुनिये और उसी की रोशनी में आज के हिन्दुस्तान के हालात को समझिए––
मुस्लिम का मियाँपन सोख्त1 करो, हिन्दू की भी ठकुराई न रहे!
बन जाओ हर इक के बाप यहाँ दावे को कोई भाई न रहे!
(1– नष्ट)
अकबर यहीं नहीं रुकते वह दुश्मन की हर चाल, हर फरेब को समझने और उसकी मुखालिफत करने के लिए खुद आगे बढ़कर कार्रवाई करने को कहते हैं––
जिस बात को मुफीद समझते हो खुद करो
औरों पे उसका बार1 न इसरार2 से धरो
हालात मुख्तलिफ हैं, जरा सोच लो यह बात 
दुश्मन तो चाहते हैं कि आपस में लड़ मरो!
(1– भार, बोझ 2– हठ, जिद)
अकबर इलाहाबादी ने अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ यानी डिवाइड एण्ड रूल पॉलिसी का हमेशा विरोध किया। वह गाँधी के बहाने अंग्रेजों पर तंज करते हैं और मजाहिया अन्दाज में यह सिखा भी देते हैं कि हिन्दू और मुस्लिम भाईचारे का असली दुश्मन कौन है और किसको किससे लड़ना चाहिए।
पूछता हूँ “आप गाँधी को पकड़ते क्यों नहीं”?
कहते हैं “आपस ही में तुम लोग लड़ते क्यों नहीं”?
आपस की लड़ाई मनभेद, बन्दरबाँट और आपसी फूट के कारण होती है और हमेशा इस फूट और टूटे हुए भरोसे का फायदा कोई तीसरा ही उठाता है। हिन्दुस्तान में हिन्दू और मुस्लिम के बीच की लड़ाई जानबूझ कर पैदा की गयी है। उनके साँझे चूल्हे की आग को अलग–अलग रसोई में बाँट दिया गया है। विडम्बना और मजा देखिए, इस बँटवारे का फल न हिन्दू को मिला और न मुसलमान को, बल्कि यह फल मिला तीसरे को, जिसने दोनों चूल्हों की आग को बाँटा था, यानी अंग्रेज को। इस सन्दर्भ में पंचतंत्र की एक मजेदार कहानी ‘दो बिल्लियाँ और एक बन्दर’ की याद आती है। दो बिल्लियाँ थीं। दाँत काटी रोटी की तरह दोनों की दोस्ती थी। एक दिन दोनों को कस कर भूख लगी। एक बिल्ली को एक रोटी मिली। वह खाने लगी। दूसरी ने कहा कि, ‘तुम मुझे भूल गयी?’ पहली ने रोटी का एक टुकड़ा दूसरी को दिया। दूसरी ने कहा कि, ‘यह टुकड़ा तो छोटा है। यह बेईमानी है।’ बात बढ़ती चली गयी। बहस–मुबाहिसों से निकल कर बात झगड़े और मारपीट तक पहुँच गयी। जंगल के आस–पास के लोग इकट्ठे हो गये। सब हैरान थे कि पक्के दोस्तों के बीच यह कैसा विवाद? तभी एक बन्दर आया। उसने कहा कि, ‘मेरे पास एक तराजू है। मैं रोटी को तौलकर उसके दो बराबर टुकड़े कर के बाँट देता हूँ।’ बिल्लियाँ राजी हो गयीं। खेल अब शुरू हुआ। बन्दर ने देखा कि रोटी के दो असमान टुकड़े हैं। एक बड़ा और दूसरा छोटा। जाहिर है कि तराजू के दोनों पलड़ों को बराबर होना ही नहीं था। पलड़ों को बराबर करने के लिए बन्दर ने रोटी के बड़े टुकड़े का कुछ हिस्सा नोचकर खा लिया। रोटी के दो असमान टुकड़ों का खेल तब तक चलता रहा, जब तक पूरी रोटी बन्दर के पेट में नहीं चली गयी। 
बन्दर का यह खेल हिन्दुस्तान में आज भी चल रहा है। तराजू पर हिन्दू और मुसलमान दोनों की रोटियाँ हैं लेकिन दोनों पलड़ों को बराबर नहीं होने दिया जा रहा है। रोटी न तो हिन्दू तक पहुँच रही है और न मुसलमान तक। रोटी हाथ से निकलती चली जा रही है और सरकार बहादुर कहती है कि धीरज धरो, सत्तर साल में जो नहीं हुआ वह अब हो रहा है। अच्छे दिन आ रहे हैं। विकास दिन दूना और रात चैगुना हो रहा है। रोटी की क्या बात है, 2024 तक तो हम तुम्हें केक खिलाएँगे। बन्दरबाँट न्याय के मंसूबों और असर पर अकबर इलाहाबादी लिखते भी हैं–– 
थे केक की फिक्र में सो रोटी भी गयी
चाही थी शय बड़ी सी छोटी भी गयी
वाइज1 की नसीहतें न मानी आखिर
पतलून की ताक में लंगोटी भी गयी
(1– उपदेशक)
रोटी, पतलून और लंगोटी के जाने के बाद भी राजनीति के सबसे बड़े साहिब और उनके चेले–चपाटी जोर–शोर से फाइव ट्रिलियन इकॉनॉमी की बात करते हैं। फाइव ट्रिलियन इकॉनॉमी हम जैसे भूखों–नंगों से थोड़े ना आयेगी, वह तो आयेगी सोने–चाँदी में दिन–रात खेलते पूँजीपतियों से। अंग्रेज भी इन्हीं पूँजीपतियों की सुनते थे, और मोदी सरकार भी इन्हीं पूँजीपतियों की सुनती है, क्योंकि चुनावी चन्दा तो इन्हीं से मिलता है ना! अपने जमाने के हालात से बाखबर अकबर खबरदार भी करते हैं,
कहते हैं हम को जो चन्दा दे मुहज्जब1 है वही
उसके अफ्आल2 से मतलब है न आदात3 से काम
(1– सभ्य 2– कर्मों 3– आदत)
धनी–मानी, अमीर–उमरा जो चाहें करें, चोरी करें, डकैती डालें, कत्ल करें, करवाएँ, लूटे–मारें, कूटे–खाएँ, सब चलेगा। सत्ता इनकी, अदालत इनकी, और तो और पुलिस महकमा भी इनका। सत्ता और पुलिसिया जुल्म की मारा–मारी तो हाल ही में जामिया मिलिया, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जेएनयू के बेकुसूर छात्र–छात्रओं तथा उत्तर प्रदेश की जनता ने देखी और झेली है। खून से लथपथ विद्यार्थियों की तस्वीरें बेचैन करती हैं और जनविरोधी सरकार का जालिम चेहरा भी दिखाती हैं। यह वहशी चेहरा खूँखार अंग्रेजों की याद दिलाता है। सिर उठाने को जुर्रअत समझता है और लब खोलने का जुर्म करार देता है। सिर उठाओ मत, सिर झुकाये रहो, बोलो मत, सिर्फ सुनो। अपने मन की नहीं, सिर्फ मेरे ‘मन की बात’ सुनो। दूर से आती हुई अकबर इलाहाबादी की आवाज सुनाई देती है,
फिर उठी है आपकी तेगे सितम
मुझ में क्या बाकी अभी कुछ जान है
हुक्मे खामोशी है और मेरी जबान
आपकी बातें हैं मेरा कान है
इनसान का सिर्फ कान में तब्दील हो जाना, जानवर हो जाना है। जैसे मदारी के डर से बन्दर नाचता है, शेर सर्कस में करतब दिखाता हैय वैसे ही डरा हुआ इनसान सिर्फ आका की हाँ में हाँ मिलाता है। वह इनसानी फितरत से दूर चला जाता है और हुक्म का गुलाम हो जाता है। डर इनसान को इनसानियत से महरूम कर देता है। उसे इनसानियत के दर्जे से नीचे गिरा देता है। केवल कान में बदल गये डरे हुए लोगों पर अकबर गहरा व्यंग्य करते हैं,
आबरू चाहो अगर तो अंग्रेज से डरते रहो
नाक रखते हो तो तेगे–तेज1 से डरते रहो
(1– धारदार तलवार)
अकबर शायरी को केवल मनबहलाव का साधन नहीं मानते थे। दिल बहल जाये, अच्छा है लेकिन ध्यान रहे कि दिमाग पर परदा न पड़े। दिमाग चाक–चैबन्द और रोशनखयाल हो। वह लिखते भी हैं कि,
वो इश्क क्या जो न हो हादी–ए–तरीके कमाल
जो अक्ल को न बढ़ाये वो शाइरी क्या है
वह इश्क, इश्क नहीं जो अंधकार से प्रकाश की ओर न ले जाये, आगे का रास्ता न दिखाए, और वह शायरी, शायरी नहीं जो अक्ल को सच की आग और तपिश से न भर दे। अकबर इलाहाबादी की कविता राग–रंग के साथ आग और ताप की भी कविता है। तंजिया और मजाहिया बोलों के साथ वह संजीदा और मानीखेज गूँज की भी कविता है। वह रास्ता दिखाने वाले युग–प्रवर्तक कवि हैं। शम्सुर्रहमान फारूकी साहब ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि, “इसमें कोई शक नहीं कि अकबर इलाहाबादी के अपने अहद में, बल्कि उनकी मौत के कई बरस बाद तक भी उनकी कद्रो मजिलत बहुत हुई। जमाने ने उन्हें ‘लिसानुल अस्र’ (युग–प्रवक्ता) का खिताब दिया।” ( दीबाचए अव्वल : अकबर इलाहाबादी, बाज बुनियादी बातें, शम्सुर्रहमान फारूकी, ‘कुल्लियात–ए–अकबर’, सम्पादक : अहमद महफूज, जिल्द अव्वल 1 (गजलियात), कौमी काउन्सिल बराए फरोग–ए उर्दू जबान, नयी दिल्ली, पृष्ठ 17)। उनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि आज भी उनके अशआर काव्य रसिकों की जबान पर रखे हुए हैं, दोहों और चैपाइयों की तरह, मुहावरों और सूक्तियों की तरह। कुछ उदाहरण देखिए,
हमें भगवान की कृपा ने तो बाबू बनाया है
मगर योरप के शाला लोग ने उल्लू बनाया है
            *
मय भी होटल में पियो चन्दा भी दो मस्जिद में
शेख भी खुश रहें शैतान भी बेजार न हो
             *
चार दिन की जिन्दगी है, कोफ्त से क्या फायदा
खा डबलरोटी, क्लर्की कर, खुशी से फूल जा
             *
हुए इस कदर मुहज्जब, कभी घर का मुँह न देखा
कटी उम्र होटलों में, मरे अस्पताल जाकर 
             *
हम क्या कहें अहबाब क्या कार–ए–नुमाया कर गये
बीए किए, नौकर हुए, पेंशन मिली फिर मर गये
             *
हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता
            *
कौम के गम में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ
             *
क्या गनीमत नहीं ये आजादी
साँस लेते हैं, बात करते हैं
अकबर इलाहाबादी ने उर्दू शायरी के रंग–ढंग और ढब को ही बदल डाला। उन्होंने अपने जमाने की सारी बदकारियाँ देखी थीं। राजनीति और धर्म के धुरन्धरों का पूरा खेल–तमाशा देखा था। मक्कार समाजसुधारकों और नकली क्रान्तिवीरों की पूरी नौटंकी देखी थी। आम जनता को मूर्ख बनाने और उन्हें बुरी तरह ठगने और लूटने का गुणा–भाग देखा था। अपराध, जुल्म और कत्लोगारत का अँधेरा देखा था। देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी, ऊँच–नीच के फलसफे, अंग्रेजों के अत्याचारों और अमीरी–गरीबी के बीच लगातार बढ़ते फासलों ने अकबर को दु:ख, घृणा, बेचैनी और गुस्से से भर दिया था। वह स्वयं अदालत में सेसन जज थे। अपने इजलास में उन्होंने समाज और इनसान की पूरी नंगी सच्चाई देखी थी। जो देख सकता है, दिल से महसूस कर सकता है, वही रच सकता है। संस्कृत में कवि को ‘द्रष्टा’ और ‘स्रष्टा’ कहा गया है। अकबर इलाहाबादी द्रष्टा और स्रष्टा दोनों थे। उन्होंने अपनी आँखों से दीन–दुनिया देखी थी और अपनी कविता रची थी। इसीलिए उनकी कविता सीधे दिल और दिमाग पर चोट करती है। उनके खट्टे–मीठे, कड़वे–कसैले–विषैले और असह्य दु:ख–दर्द भरे अनुभवों ने यह सिखा दिया था कि यह जंग लगा, जहर भरा समाज सहलाने और फुसलाने से नहीं बदल सकता। इसे आमूल–चूल बदलने के लिए एक भयंकर आघात और निर्णायक चोट की जरूरत है, और यह चोट सोनार की नहीं लोहार की होनी चाहिए। यही कारण है कि अकबर ने अपनी शायरी में तंज के जहर बुझे तीर चलाये, मखौल के तलवार चमकाये और तल्ख व्यंग्य की कटार से समाज के दिखावटी और रेशमी लिबास को चीर कर रख दिया। उनकी हँसी के पीछे आँसू की चमक भी थी। उनके कटाक्ष तिलमिला देते हैं, लेकिन आँखें भी खोल देते हैं। अज्ञान और पराधीनता के अंधेरे से बाहर निकलने का रास्ता भी दिखा देते हैं। यह अकबर साहब ही लिख सकते हैं कि,
क्यों कोई आज हरि का नाम जपे 
क्यों रियाजत1 का जेठ सर पर तपे
काम वह है जो हो गवरमेन्टी
नाम वह है तो पानियर में छपे
(1– मेहनत, तपस्या)
मेहनत–मशक्कत, साधना और तपस्या करने वालों का हाल कल भी बेहाल था, और आज भी बदहाल है। अपना सर्वस्व निछावर करने वाले अनमोल लोगों का कोई मोल बाजार में नहीं था। बाजार भाव तो उनका था जो तीन–तिकड़म करके, ले–दे के सरकारी नौकर हो जाये या ऐसा नामवर हो जो बिना कुछ किये धरे लाइमलाइट में आ जाये और अखबारों में नाम और फोटो छप जाये। आज तो हालत बद से बद्तर हो गयी है। पतन की इन्तहा हो गयी है। जो नैतिक रूप से जितना नीचे गिर रहा है, वह उतने ही ऊँचे सिंहासन पर बैठ रहा है। वह बिल्कुल ढोल की तरह पोला है, लेकिन खूब बेसुरा बज रहा है। अकबर फरमाते हैं कि,
मिलाएँ किस तरह सुर, सद्र पर नज्ला है मजहब का
बहुत ऊँचे सुरों में बज रही है अब तो गत उनकी
अखबार ऐसे ही पतित और नराधम लोगों के सुर में सुर मिला रहे हैं, उनकी राग–रागिनियाँ गा रहे हैं। उनके फोटो छाप रहे हैं। उनके चरणों में बिछे जा रहे हैं। कभी अकबर साहब ने अखबारों के लिए क्या खूब लिखा था कि,
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो
आज तो ये अखबार तोप के मुँह में पूरे के पूरे समा गये हैं। इनकी तलवारें काठ की तलवारों में बदल गयी हैं। खूब याराना हो गया है। ‘लीडर’ और ‘एडीटर’ के ‘ब्रदरशिप’ पर अकबर इलाहाबादी ने चमरौंधा भिगो कर मारा है,
चोर के भाई गिरह–कट तो सुना करते थे
अब यह सुनते हैं एडीटर के ब्रादर लीडर
लीडर और एडीटर के इस भाईचारे ने, चोर और गिरहकट की जुगलबन्दी ने, प्रिण्ट–इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और पालिटिक्स के नापाक गठबन्धन ने चोरों, डकैतों, हत्यारों और सौदागरों के खून सने हाथों में हिन्दुस्तान की बागडोर सौंप दी है। इसीलिए तो तालिब–ए–इल्म पर जुल्म ढाये जा रहे हैं। चाहे जामिया मीलिया हो, एएमयू हो, जेएनयू हो हर जगह छात्र–छात्राओं पर वहशियाना हमले किये जा रहे हैं। देश के तमाम अखबार और टेलीविजन के परदे लहूलुहान विद्यार्थियों की तस्वीरों से रंगे पड़े हैंय और विडम्बना देखिये कि जो शिकार हैं, उन्हीं पर एफआईआर हैं, मुकदमे हैं, वेे ही जेलों में बन्द हैं और शिकारी मासूम बनकर छाती पीट रहा है कि ‘हाय! हाय! मुझ पर जुल्म हुआ है, मैं खतरे में हूँ, मेरा धर्म खतरे में है, देश खतरे में है!’ अकबर साहब ने यह सारी साँठ–गाँठ समझ ली थी। सत्ता और सरमाया (पूँजी) की मिलीभगत बूझ ली थी। उन्होंने लिखा कि,
जिधर साहब उधर दौलत जिधर दौलत उधर चन्दा
जिधर चन्दा उधर ऑनर जिधर ऑनर उधर बन्दा
चन्दा, बन्दा, दौलत, साहब और ऑनर सब के तार ‘धन्धे’ से यानी ‘बिजनेस’ से जुड़़े हुए हैं। धन्धा यानी रुपइया। धन्धे का एक ही उसूल है कि झूठ बोलो, अफवाह फैलाओ, माल बेचने के लिए हर हिकमत का इस्तेमाल करो। जरूरत पड़े तो धर्म, ईमान, नैतिकता तो क्या देश को भी दाँव पर लगा दो पर हर हाल में पैसे बनाओ। जर, जमीन, जोरू सबका सौदा करो। भाव–भावनाएँ, दिल–दिमाग सब बेच दो। प्यार, मोहब्बत, नीति, न्याय, भरोसा सब को हिसाब–किताब, क्रेडिट–डेबिट की काली बही में दफ्न कर दो। मार्क्स–एंगेल्स ने ‘कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र’ में लिखा है कि “पूजीपति वर्ग ने—‘नकद पैसे–कौड़ी’ के हृदयशून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच और कोई दूसरा सम्बन्ध बाकी नहीं रहने दिया।” अकबर साहब भी यही बात कहते हैं,
हमारे झगड़ों की कुछ न पूछो तमाम दुनिया है और हम हैं
कि जेब में जर है घर में जन है खिराज पर कुछ जमीन भी है
जर, जोरू और जमीन के बीच अब ममता और हृदय नहीं है, वहाँ तो लेन–देन और हृदयहीन सौदा है।
अंग्रेज सौदागर बन कर ही तो आये थे। उन्होंने ही सारे फसाद खड़े किये। हिन्दू, मुसलमान का झगड़ा खड़ा किया। मजहबी मसलों को तूल दी। हिन्दी–उर्दू का बहनापा तोड़ा। भाषाओं के राजमहल में देशी रानियों को दासी बनाकर अंग्रेजी को पटरानी बना दिया। धर्मों के बीच भ्रम और भेदभाव का जाल बिछाया और बहुधर्मी और बहुभाषी हिन्दुस्तान को हिन्दू और मुस्लिम देश में तकसीम करने का अमानवीय खेल खेला। वे सफल भी हुए। दुर्भाग्य और इतिहास का व्यंग्य देखिये कि आज की हवा में भी ‘जय श्रीराम’ और ‘इस्लाम’ के जलते हुए नारे जिन्दा इनसानों को जला रहे हैं। राख कर रहे हैं। अकबर इलाहाबादी ने उस समय आने वाली नस्लों को सचेत किया था कि,
यह बात गलत कि मुल्के इस्लाम है हिन्द 
यह झूठ कि मुल्के लच्छमन–ओ–राम है हिन्द
हम सब हैं मुती–ओ–खैर ख्वाहे इंगलिश1
योरप के लिए बस एक गोदाम है हिन्द 
(1– अंग्रेजों के शुभचिन्तक और ताबेदार)
योरप के साथ–साथ हिन्दुस्तानी पूँजीपतियों और उनके कंधों पर बैठे सत्ताधारियों के लिए आज भी हिन्दुस्तान टकसाल और गोदाम बना हुआ है। सत्ता और पूँजी ने मिलकर धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को तबाह कर दिया और एक शान्तिप्रिय और न्यायपसन्द देश को अराजक जंगल में बदल दिया। बहुत रंज और तंज से अकबर इलाहाबादी ने लिखा कि,
मार–ओ–कजदुम1 रह गये, कीड़े–मकोड़े रह गये
सूरतें तो हैं मगर इनसान थोड़े रह गये
(1– साँप–बिच्छू)
रंज और तंज अकबर इलाहाबादी को गम्भीर और बड़ा शायर बनाते हैं। व्यंग्य और वक्रोक्ति यानी पेंचदार ढंग से बात कहने की जादुई कला उनकी शायरी के नोकदार और धारदार हथियार हैं। उनकी तंजिया और मजाहिया शायरी हँसी में उड़ाने की बात नहीं है। वह हँसाने के साथ आपको बेचैन और परेशान भी करती है। आप मुस्कुराते हुए खिसियाते और खीजते भी हैं। वह सतह पर ही नहीं रहते बल्कि मसले की तह में जाकर अन्दरूनी सच को सामने लाते हैं और आपको बराबर चाक–चैबन्द और सावधान करते रहते हैं। शायरी अकबर के लिए आसान नहीं, बेहद संजीदा काम है क्योंकि वह सच के रास्ते पर चलने वाले और झूठ को बेपर्दा करने वाले जागरूक शायर हैं। अपने कवि कर्म के बारे में उन्होंने लिखा है कि,
    शाइरी मेरे लिए आसाँ नहीं
    झूठ से वल्लाह नफरत है मुझे
वह झूठ से नफरत करने वाले सच के अन्वेषी और जाग्रत कवि हैं।
जागने और जगाने का काम उत्कृष्ट कवि ही कर सकता है और नि:सन्देह अकबर इलाहाबादी ऊँचे दर्जे के महान कवि हैं। उनके यहाँ विषय–वस्तु की भरमार है और उन्हें काव्यात्मक अर्थ देने में वह कमाल की कारीगरी करते हैं। यानी वस्तु और शिल्प दोनों के वह उस्ताद हैं। भाषा के तो वह जादूगर हैं। उन्होंने उर्दू शायरी को बिल्कुल नयी, नुकीली और चमकीली भाषा दी है। उर्दू के साथ उन्होंने अरबी, फारसी, हिन्दी और अंग्रेजी शब्दों का रचनात्मक और जीवन्त प्रयोग किया है। शमीम हनफी साहब ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि, “‘अकबर’ की कविता को परखने के लिए केवल साहित्य की कसौटी काफी नहीं है। मानसिक, वैचारिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तरों पर बहुत सी दिशाएँ ‘अकबर’ की कविता से जुड़़ी हुई हैं।” (अकबर इलाहाबादी की शायरी, सम्पादक : शमीम हनफी, लोकप्रिय शायर अकबर इलाहाबादी, रूपान्तरण : सबा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ 8)। 
अकबर इलाहाबादी का सबसे बड़ा शाहकार उनका ‘गाँधीनामा’ है। वह गाँधी के शैदाई हैं। वह गाँधी के सबसे बड़े पे्रेमी हैं। वह उन्हें मुल्क का बादशाह मानते हैं। वह आज के उन सत्ताधारी गाँधीवादियों में नहीं हैं जो ‘मुँह में राम, बगल में छुरी’ रखते हैं। वह तो दिलों पर राज करने वाले गाँधी की जय बोलते हैं, उन्हें ‘पेशवाए–मुल्क’ कहते हैं।
फकत जिद है जो कहते है कि “जब अपनी जबाँ खोलो
हमारे पेशवाए–मुल्क, गाँधी जी की जय बोलो”
अकबर इलाहाबादी ने अपने दौर में ही गाँधी युग की घोषणा कर दी थी। उन्होंने अपने जमाने की नब्ज पकड़ ली थी और साँस के हर उतार–चढ़ाव के साथ, हर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक उथल–पुथल के बीच उन्होंने गाँधी के दर्शन का क्रान्तिकारी महत्त्व समझ लिया था और दृढ़ विश्वास के साथ आह्वान किया था कि,
इन्कलाब आया, नयी दुनिया, नया हंगामा है
शाहनामा हो चुका, अब दौरे गाँधीनामा है
आज जब पूरी दुनिया हथियारबन्द होकर बारूद के ढेर पर बैठी है और एक दूसरे को कातिल की निगाहों से देख रही है तो इनसान को, धरती को, पूरी सृष्टि को गाँधी की सेना ही बचा सकती है।
लश्करे गाँधी को हथियारों की कुछ हाजत नहीं
हाँ मगर बेइन्तहा सब्र–ओ–कनाअत1 चाहिए
(1– धैर्य और सन्तोष)
शम्सुर्रहमान फारूकी साहब ने बहुत खूब लिखा है कि, “हिन्दुस्तान की जंगे आजादी की तारीख जब तक जिन्दा है और गाँधी का नाम जब तक जिन्दा है, उस वक्त तक ‘गाँधीनामा’ भी बामानी रहेगा।” ( पूर्वोक्त किताब से)। भारतीय इतिहास में महात्मा गाँधी हमेशा जगमगाते रहेंगे और भारतीय कविता के इतिहास में अकबर इलाहाबादी भी हमेशा चमकते रहेंगे।
(इस आलेख के सामग्री संचयन में वरिष्ठ अधिवक्ता एवं उर्दू साहित्य के मर्मज्ञ जनाब अब्दुल रशीद सिद्दीकी साहब का आभार।)

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